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** प्रबन्धावली.
एफ विचार पाठकों के सम्मुख उपस्थित करने का साहस किया है। आशा है कि सुज्ञ पाठक इसे क्षीरनीरवत् अङ्गीकार करेंगे। भविष्य में हमारे भी जो और नये विचार होवेंगे उन्हें पाठकों को सेवा में उपस्थित करूंगा।
इस पत्र के प्रथम वर्ष के १०-११ संख्या के २८२ पृष्ठ से ८६२ पृष्ठ तक के "जैसवालों का प्रादुर्भाव" शीर्षक लेख में "जैसवालों" का जो हाल लिखा है मैं उस लेख से सहमत नहीं हो सकता। लेखक महाशय ने पूर्ण गवेषणा करके ही विचार पूर्वक लिखा होगा। परन्तु चाहे मेरा विचार भ्रम हो चाहे उनका भ्रम हो इस के लिये कोई भी सोच नहीं है। परन्तु जहां तक सम्भव हो असली तत्व को प्रकाश करना और पूर्व भ्रम को दूर करना ही ऐसे खोजों का मूल सिद्धान्त समझना चाहिये। उस लेख में लिखा है कि "जैसवाल" क्षत्रो हैं और शेर का बच्चा और भेड़ियों के दृष्टान्त से उन लोगों का वैश्य कह. लाना बताया है। दूसरी बात यह है कि उस लेख में लिखते हैं कि दक्षिण में “जैसनेर" नाम का स्थान था। उस देश का राजा इक्ष्वाकु वंश का क्षत्री था। उसी के कुटुम्बी जैसनेर वाले कहलाते थे। जो कि धीरे धीरे पीछे बिगड़ कर जैसवाले या जैसवाल कहलाने लगे। "बोकानेर से युक्ति वारिधि उ० श्री रामलाल जी गणि ने “महाजन बंश मुक्तावली” नामक एक पुस्तक छपवाई है। उस पुस्तक के १६४ पृष्ठ में मध्य देश के "८४ वणिक" जातियों के नाम के ३२ संख्या में "जैसवाल" का नाम लिखते हैं। उसी में नं० ३० में "जायलावाल" नाम है और उक्त 'जायलावाल' जायल स्थान से कहलाने का हकीकत है। परन्तु जैसवाल के विषय में उस पुस्तक में कुछ हाल नहीं लिखा है कि वे वैश्य हैं या क्षत्री । जैनियों के सर्व साधारण जाति निमन्त्रण में जो साढ़े बारह न्यात एकत्रित होते हैं उसमें 'जैलवाल' का नाम नहीं पाया जाता है। अवश्य मुझे यह बात अच्छी तरह ज्ञात है कि
यहसाढ़े बारह न्यातों का स्थान विशेष और पुस्तक विशेष में दो चार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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