________________
* प्रबन्धाक्ला
तक प्राचीन भण्डारों को तथा आवार्य साधुओं के संग्रहों की खोज नहीं होगी तब तक प्राचीन साहित्य रूपी रखों का प्रगट होना सम्भव नहीं है। भारत के सभी प्रधान स्थानों में नियों का किसी न किसी समय, कहीं अल्प और कहीं विस्तृत, प्रभाव था। दक्षिण का प्राचीन साहित्य भी जैन साहित्य से पूर्ण सम्बन्ध रखता है। यहां तक कि कनाड़ी आदि भाषाओं का सबसे प्राचीन साहित्य जैन साहित्य हो सिद्ध हुआ है। गुजरात और सौराष्ट्र भी जेनियाँ का प्रधान स्थान रहा है। गुजरातो भाषा साहित्य के प्राचीन ग्रन्थ प्राचीन जैन साहित्य ही है। वर्तमान हिन्दी और गुजराती में क्रम क्रम से बहुत अन्तर पड़ गया है और कुछ समय से गुजराती माषा स्वतन्त्र सी हो गई है। परन्तु प्रायोन जैन साहित्य के बहुत से ग्रन्थों को गुजराती जंन साहित्य समझकर हिन्दो जैन साहित्य से अलग करना मैं अनुचित समझता हूं। आदि में स्थानीय कारण से सामान्य अन्तर के सिवाय भारत की उत्तर प्रान्त को भाषाओं में कोई भेद नहीं था। विशेषतया जैनियों की अधिक संख्या के व्यागर वाणिज्य में फंसे रहने के कारण साहित्य चर्चा का काम आचार्य साधु करते रहे और गृहस्थ लोग अवकाश पर उसीका रसास्वाइन करते थे। संस्कृत तथा प्राकृत प्रन्यों के अतिरिक प्राचीन जैन भाषा साहित्य में शुद्ध हिन्दो वा शुद्ध गुजराती ग्रन्थों की संख्या अल्प है। जैन साधु शिष्य परंपरा से होते थे। उनमें देशविशेष का बन्धन न था, कोई मारवाड़ी साधु गुजरात में शिष्य या आचार्य बना, या मालवे का साधु दिल्लो में, तो उन्होंने अपनी रचना में एक साधारण भाषा का आश्रय लिया जिसमें कुछ न कुछ प्रादेशिक छीटों के होने पर भी भाषा पुरानी हिन्दी ही थी। जो गुजरातो साधु राजपूताने में गए उनकी रचना में कुछ कुछ गुजरात प्रान्त के अपनश शब्दों का संमिश्रण होता रहा और विपरीत में इससे विपरीत भी हुआ। तिसरी गुजराती साहित्य परिषद् को लेखमाला में श्रीयुत मनसुखलाल कीरतचन्द मेहता जो
जैन साहित्य के निबन्ध में लिखते हैं कि "सं० १४१३ मां बनेलो 'मयण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com