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* प्रबन्धावलो
समय पन्द्रहवीं शताब्दी से अठारवीं शताब्दी तक मान लेना उचित समझता हूं। तत्पश्चात् देश की राष्ट्रीय दशा के साथ साथ साहित्य को भी अवनत अवस्था हुई। पुनः उन्नीसवीं शताब्दो के शेष भाग में ब्रिटिश सरकार की कृपा से देश में शान्ति के साथ अपनी हिन्दी भाषा को भी उन्नति होने लगी। परन्तु वह पुष्टि नव्य ढंग से हुई और
आज हिन्दी में उत्तमोत्तम काव्य, इतिहास और उपन्यास आदि रचे जाकर सब विषयों के ग्रन्थों की पूर्ति हो रही है। नवीन जैन साहित्य भी धीरे धोरे समय के साथ अबसर है। हिन्दी साहित्य के विषय में स्वनामख्यात बाबू श्यामसुन्दर जी ई० सं० १६०० को खोज को रिपोर्ट में लिखते हैं कि ई० १२ वीं सदो के प्रारम्भ से १६ वीं सदी के मध्य तक का समय हिन्दी साहित्य की परीक्षा का काल है। उसी समय में राजस्थान के चारणों, भाटों आदि ने बहुत से ऐतिहासिक प्रन्थ लिखे हैं और उनमें प्राकृत और प्राचीन हिन्दी मिली हुई है। तत्पश्चात् हिन्दी साहित्य को पूर्णावस्था का आरम्भ होता है। और ई०१६-१७ वीं सदी में ही हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि और विद्वान् हुए हैं। इसका भावार्थ मेरे पूर्वोक्त कथन को पुष्टि करता है। भाषा की दृष्टि से प्राकृत और हिन्दी का सम्बन्ध अविछिन्न है ।
___ हमारे श्वेताम्बरी जैनों की अपेक्षा दिगम्बरी भाई आज कल हिन्दी साहित्य की अधिक सेवा कर रहे है। प्राचीन हिन्दो जैन साहित्य की पुस्तकं दिगम्बर सम्प्रदाय को हो अधिक संख्या में प्रकाशित हुई हैं। और इसो कारण प्रेमी जी ने अपने जैन हिन्दी साहित्य के इतिहास में उस सम्प्रदाय के ही हिन्दी प्रन्थों का विवरण बाहुल्य से किया है। उनका यह लिखना यथार्थ है कि "श्वेताम्बरों का हिन्दी साहित्य अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ।" और उनको भी पूर्ण विश्वास है कि खोज करने से हिन्दी के प्राचोन जैन ग्रन्थ बहुत मिलेंगे। अद्यावधि विद्वानों की इस ओर दृष्टि आकर्षित नहीं हुई है और जब तक ऐतिहाधिक और भाषा की मुख्य द्वष्टि से अच्छी तरह कुछ समय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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