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* प्रबन्धावलो. हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सप्तम अधिवेशन पर “जैन हितैषी” के सुयोग्य सम्पादक, सुप्रसिद्ध लेखक और ऐतिहासिक विद्वान् पंडित नाथूरामजी प्रेमी ने 'हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास' नामक एक गवेषणापूर्ण लेख लिखा है। उस निबन्ध से मुझे बहुत कुछ सहायता मिली है। उन्होंने जैन भाषा साहित्य का प्राचीन काल से वर्तमान समय तक का इतिहास बड़ी योग्यता से लिखा है। मिश्रबन्धु महोदयों ने जो हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा है, उसमें हिन्दी की उत्पत्ति सं० ७०० से मानी है। वे पुष्य नामक हिन्दी के पहले कवि का समय सं० ७०० कहते हैं और लिखते हैं कि इसका न तो कोई ठीक हाल ही विदित है और न इसकी कविता ही हस्तगत होता है। तदनन्तर सं० ८६० के लगभग 'खुमान रासा' के कर्ता भाट कवि का होना लिखा है, परन्तु यह ग्रन्थ भी अलभ्य है। वर्तमान 'खुमानगसा' बहुत पीछे का है। सं०१००० में गोता के अनुवादकर्ता भुवाल कांव का लमय लिखकर उनकी कविता का जो उदाहरण प्रकाशित किया है, उस कविता से कवि का सं० १००० हाने में सन्देह होता है। कविता की भाषा ब्रजभाषा है और उसकी परिपाटी गोस्वामी तुलसीदास जी की कविता को सो प्रतीत होती है। अनुमान से इस कविता की रचना वि० सं० १६०० के लगभग को होनी चाहिए। प्रन्थ के अन्त में “संवत् कर अब करौं बखाना। सहस्र से संपूरण जाना" है, इससे इतिहासकारों ने सं० १००० निर्णय कर लिया है परन्तु इसके दूसरे चरण के छन्द में गड़बड़ है। 'सहस्र' की
* प्रेमी जी के "जैन हितैषी” में कई ऐतिहासिक लेख निरन्तर छपते रहते हैं जो जैन आचार्यों, इतिहास और साहित्य पर स्चा प्रकाश डालते हैं। धार्मिक दुर ग्रह के कारण कुछ जैन उन लेखों की कद्र भले ही न करें, किन्तु वे सत्य ऐतिहासिक खोज और पक्षपातरहित विवेचन से पूर्ण होते हैं। हिन्दी साहित्य के लिये वे गौरव
को वस्तु हैं। [सं०] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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