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________________ * १५४ * * प्रबन्धावली * शरीर रोमांच होता है । ऐसी २ वस्तु अकसर प्राय: करके भेल दिया जाता है, और अपने ऐसी वस्तुको उत्तम समझ कर भक्षण करते हैं, और ललाट में लगाते हैं और परमात्मा के पूजन में रखते हैं। पञ्चमकाल के प्रारम्भ में ही यह हाल है आगे न जाने क्या होगा । कैसी कष्ट की बात है जो द्रव्य का स्पर्श भी पाप है, उस द्रव्य को अपने लोग निःशंक से व्यवहार में लाते हैं और भगवान के मस्तक पर चढ़ाते हैं । इस विषय पर ज्यादा लिखना आवश्यक नहीं है— निम्नलिखित प्रमाणों से जब प्रत्यक्ष सिद्ध होता है तब आशा है कि हमारे सर्व जैनभाइयों इस विदेशीय अपवित्र द्रव्य को किसी प्रकार के व्यवहार में नहीं लावेंगे, और सर्व जाति से अपने में इस केसर का व्यवहार अधिक है इस कारण अपने को ज्यादा सावधान होना चाहिये। यहां के काश्मीर देशमें भी केसर पैदा होती है । वह हिन्दू राज्य है इससे उमेद है वहां की केसर में इस तरह भ्रष्ट पदार्थों का मिश्रण संभव नहीं है । ऐसी शुद्ध केसर ही श्री जिनपूजामें व्यवहार योग्य है, अन्यत्र इसके अभाव में श्वेतरक्त चंदन कर्पूरादि पवित्र पदार्थों का ही व्यवहार उचित है, न केवल रंगत और सुगंधि के लोभ से ऐसी अशुद्ध द्रव्य का व्यवहार सर्वथा निन्दनीय और महान पाप कृत्य है । जैसे हमारे ग्रामवासी सामसुखा जी ने अपने मुनीम बाबू महाराज सिंहजी के तारपुर के कारखाने की चीनी का हाल लिखा है वैसे ही हमारे पाठकों में अगर कोई साहेब कहांपर विशुद्ध काश्मीरी केसर मिल सक्ती है इसका हाल सर्व साधारण को प्रगट करें तो मोटा लाभ करेंगे । इत्यलं विस्तरेण । Extract from Simmond's Tropical Agriculture ( 1877 ) page 382. "Account of Saffron agriculture in the Abri uzzi district of the Apennines, states that adulteration is carried out in various ways, the chief one Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035203
Book TitlePrabandhavali - Collection of Articles of Late Puranchand Nahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuranchand Nahar
PublisherVijaysinh Nahar
Publication Year1937
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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