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* प्रबन्धावली* परिश्रम के साथ अनुकूल समय पर खेत में बीज बोने से फल अच्छे मिलते हैं, उसी प्रकार अपने गम्भीर विचारों को ध्यान पूर्वक भाषा द्वारा प्रकाश करने से वह साहित्यिक फल सदा के लिये उपयोगी होते हैं।
मनुष्य के वित्त वृत्तियों को विद्वानों ने प्राचीन काल से ही छः विभागों में विभक्त किया है और वे भाव-श्रोत ही साहित्य जगत में छः रसों के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन छः रसों में से एक २ को प्रधा. नता लेकर पृथक र साहित्य रचे गये हैं। इनके अतिरिक्त साहित्य को और भी शाखायें हैं और प्रशाखा भी अनेक हैं। मिश्र साहित्य की तो संख्या करनी कठिन सी है। साहित्य को प्राचीन, मध्य और वर्तमान के भेद से हम तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं। इस प्रकार हिन्दी साहित्य के भी तीन विभाग किये जा सकते हैं। प्राकृत, अपभ्रन्श आदि हिन्दी भाषा का प्रारम्भिक रूप था और सम्भव है कि ईस्वी एकादश शताब्दी के लगभग से हिन्दी का स्वतन्त्र भाषा रूप का अस्तित्व आरम्भ हुआ है। उस समय से षोडश शताब्दि तक हिन्दी का प्राचीन युग मान लिया जा सकता है। सप्तदश शताब्दि से उनविंश शताब्दि के मध्य तक मध्ययुग और उनविंश शताब्दि के मध्य से आधुनिक काल तक हिन्दी साहित्य का वर्तमाम युग है। प्राचीन हिन्दी साहित्य जहां तक उपलब्ध है उससे ज्ञात होता है कि उस समय हिन्दी के विद्वानों का धार्मिक और नैतिक विषयों पर ही अधिक प्रेम था। पश्चात् अपना देश विदेशियों के हस्तगत होता गया ! उस समय उन विदेशी विधर्मी लोगों के उत्पीड़न के कारण राजमाता विषय पर तो कोई लिखने का साहस नहीं कर सकते थे। जान ओर माल दोनों संकट में थे। लोग उनकी रक्षा में तत्पर रहते थे। परन्तु समाज और साहित्य का अविछिन्न सम्बन्ध है, एक
- "सरे पर परा प्रभाव रहता है। इस कारण प्रा .. - . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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