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• प्रबन्धावली. जैनलोग जिनदेव अर्थात् तीर्थंकरों के भक्त हैं और उनलोगों का यह विश्वास है कि जिनदेव द्वारा प्रणोदित शुद्ध धर्म-मार्ग ही निर्वाण प्राप्ति का एकमात्र साधन है। उनके मतानुसार सृष्टि और कालचक अनादि हैं। कालचक्र अनादि काल से चल रहा है भौर बराबर चलता रहेगा। उनलोगोंने कालचक्र को दो भागों में विभक्त किया है-अवसर्पिणी और उत्सपिणो। कुण्डलाकार बैठे हुये किसी सांप के सिर से क्रमशः पूंछ पत और पुनः पूंछ से सिरतक यदि कोई चक्र चलता रहे और सिर से पूंछ और फिर पुंछ से सिरका यह क्रम मारी रहे तो जिस प्रकार उस वक्र की समाप्ति नहीं होगी ठीक उसी गति के समान. कालचक्र भी घूमता है ऐसा समझना चाहिये। सिर से पूंछ की तरफ जानेकी गति को अवसर्पिणी और उसके विपरीत गति को उत्सपिणो नाम दिया गया है। इस अवसर्पिणी और उत्सर्पिणो काल की गति से इतना ही समझाना पर्याप्त होगा कि जिस समय कालचक्र अवसर्पिणी गति से भ्रमण करेगा उस समय अच्छी अवसा से क्रमशः बुरी अवस्था की तरफ और जिस समय उत्सर्पिणी गतिमें रहता है उस समय हीन अवस्था से क्रमशः अच्छो अवस्था को तरफ अग्रसर होता रहेगा। जैन मतानुसार यही कालचक्र हैं। जिस प्रकार हिन्दुओंने काल को सत्य लेता छापर और कलि इन चार भागोंमें विभक्त किया है उसी प्रकार जैन लोगोंने भी भवसर्पिणी मोर उत्सर्पिणी को क्रमशः छः छः भागोंमें विभक्त किया है। भेद इतना ही है कि हिन्दू मतानुसार कलियुग के बाद प्रलय होकर पुमः सत्ययुग का आविर्भाव होता है परन्तु जैनमत से कलियुग अर्थात् निकृष्ट अवस्था से एक वार ही सत्ययुग नहीं हो जाता बल्कि क्रमशः श्रेषता प्राप्त होती है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी यही अधिक सत्य प्रतीत होता है। प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल में २५ तीर्थकर आविर्भूत होते हैं। किन्तु यहां पर आप्रासङ्गिक होनेके • भयसे इस विषय की अधिक आलोचना करना उचित नहीं है। इस
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