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________________ चौरासी चौरासी एक ऐसी संख्या है, जिसका व्यवहार मैं बहुत स्थानों में देखता आया हूं। यह संख्या किस प्रकार और कहांसे प्रचलित हुई, इसका इतिहास नहीं मिला, अतः मुझे यह जानने की इच्छा रही । भारतवर्ष के प्रायः समस्त आर्य-सन्तान लोकाकाश-स्थित जीव-योनियों की संख्या अपने-अपने शास्त्रानुसार चौरासी लक्ष मानते हैं । खोज करनेपर जहाँ तक मुझे उपलब्ध हुआ है, उससे यह जाना जाता है कि चतुर्दश राजलोक के जीव-भेद की संख्या चौरासी लक्ष के चौरासी अङ्क को ही महत्व का समझकर बहुतसी जगह इसका व्यवहार प्रचलित होना सम्भव ज्ञात होता है। कई स्थानों में विषय की संख्या चौरासी से अधिक है, तौ भी वहां चौरासी से ही वह विषय अद्यावधि प्रसिद्ध है। इसी प्रकार किसी किसी जगह विषय-भेद चौरासी संख्या से अल्प भी है, तौ भी यह शब्द विषय के साथ लगा दिया गया है और इधर-उधर से उनके भेद वही चौरासी प्रकार के बना दिये गये हैं । . 'हिन्दी - विश्वकोष' के द्वितीय भाग के पृष्ट ७३७ में 'आसन' शब्द के अर्थ में लिखा हुआ है कि 'घेरण्डसहिता' के मतसे जीव जन्तुओं की संख्या जितनी होती है, आसन की गणना भी उतनी निकलती है। शिवजी के आसनों की संख्या वही चौरासी लक्ष कही गई है। उनमें चौरासी प्रकार के प्रधान आसन बताये हैं। 'शिवसंहिता' के मन से भी चौरासी प्रकार के आसन हैं । कामशास्त्र के अनुसार चौरासी प्रकार के आसनों की संख्या भी प्रसिद्ध है। पूना से 'चौरासी आसन' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035203
Book TitlePrabandhavali - Collection of Articles of Late Puranchand Nahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuranchand Nahar
PublisherVijaysinh Nahar
Publication Year1937
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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