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________________ * १६२ * * प्रबन्धावली * हैं, जो कुछ सवारी वगैरहको जरूरत होबे सब राजसे इन्तजाम हो जावेगा, किसी तरहकी यहां पर तकलीफ न होनी चाहिये” इत्यादि । इस प्रकार स्वनाम-धन्य सर प्रतापसिंहजीसे हम लोगोंका साक्षात दृश्य समाप्त हुआ। ___ महाराजा सर प्रतापसिंहजी के चीन युद्ध में पधारने के समय उनका तथा वहां के प्रजाओंका मनोगत भाव किस प्रकार था वह उस समयके संबाद पत्रोंमें जो विवरण प्रकाशित होते थे उससे अच्छी तरह ज्ञान होता था। प्रिय पाठकोंको रोचक होगा इसी धारणासे यहां पर उसका थोड़ा नमूना उपस्थित करता हूं। जिस समय सरकार चीन जङ्गकी उमङमें जोधपुरसे रवाने होने लगे उस समय उनको ऐसी खुशी हो रही थी कि मानो उनकी उमर भरको आशा पूर्ण होने लगी। उन्होंने जानेके पहिले दरबारसे भी अर्ज किया था कि “मैं चीनमें जाकर खाबन्दोंके नमकको उजालूगा । जीता बचा तो फिर आकर इन चरण कमलों के दर्शन करूंगा और यदि मारा गया तो मैं हजूरको बड़े हजूरके पाटकी आन दिलाता हूं कि इसका वैसा ही उत्सव करें कि जैसा प्रिटोरियाके फतह होनेकी खबर आनेपर किया गया था। शोक और सन्ताप किसी प्रकारका न फरमावे, नहीं तो मेरी आत्मा दुःखी होगी।” ___ एक दिन किसी पुरुषने सर प्रतापसिंहजीको कहा कि आपने युरोपमें पधार कर पृथ्वीकी पश्चिम सीमा तक मारवाड़का नाम प्रसिद्ध कर दिया है और अब चीन जाकर पूर्वके अन्त तक मारवाड़का नाम कर देंगे। आपने फरमाया कि प्रतापसिंह नहीं जाता है उसको उसकी जाति ( राजपूत ) और प्रसिद्धि ही लिये जाती है। न जाऊं तो तुम्हीं लोग कहोगे कि प्रतापसिंह उमर भर तो कहता रहा कि घरमें पड़कर मरनेसे लड़कर मरना अच्छा, और जब समय आया तो जी चुराकर बैठ रहा" और अपने भतीजे महाराज फतहसिंहजीकी ओर देख कर कहा “यह वह युद्ध नहीं है कि मैने तुमको मार डाला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035203
Book TitlePrabandhavali - Collection of Articles of Late Puranchand Nahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuranchand Nahar
PublisherVijaysinh Nahar
Publication Year1937
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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