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* प्रबन्धावली*
यदि आप श्वेताम्बर समाज पर द्दष्टिपात करें तो आपको प्रथम ही समाज में संवेगो, स्थानकवासी और तेरहपंथियों का प्रधान भेद देखाई पड़ेगा। समाज में एक सजन संवेगी धर्म भेद पर विश्वास रक्खें तो किसो को हानि नहीं पहुंचती परन्तु यदि वह सज्जन दूसरे स्थानकवासी अथवा तेरहपंथी सज्जनों पर द्वेषभाव से अनुचित आक्षेप करें तो समाज की उन्नति कहां? जिस जगह कषाय के वश मनुष्य अपनी शक्ति का व्यय करते हैं तो वह केवल समाज का ही क्षय करते हैं। धार्मिक विषयों के दोष गुण का विचार करना समाज का कार्य नहीं है, तथापि समाज स्थित एक मतवाले दूसरे मतानुगामी के विरुद्ध नाना प्रकार के आक्षेप और दोषारोप करते हैं ऐसे दृष्टान्त बहुत से विद्यमान हैं।
मैं अच्छी तरह जानता हूं कि धार्मिक विषय की अवतारणा करना एक दुःसाहस मात्र है। परन्तु जब मैं देखता हूं कि इसी ओसवाल समाज में तपगच्छ और खरतर गच्छ के विषय में स्थान स्थान में सभायें बैठी, प्रस्ताव पास हुये, हैण्डबिल पुस्तकें छपी, बाईस टोले वाले और तेरहपंथी परस्पर में अयथा कटुक्ति व्यवहार करने लगे, कहीं सुनने में आता है कि एक अम्नायवाले दूसरे अम्नायवालों के साथ धार्मिक चर्चा की ओट में निन्दा चर्चा कर रहे हैं, कहीं संबेगी तेरह. पंथी को और कहीं तेरहपंथी संवेगी को घृणित दृष्टि से देख रहे हैं
और अपने अपने सम्प्रदायवाले धर्मराज अर्थात् साधु-आवार्य वगैरह ऐसे गर्हित कार्यों में मदद पहुंचा रहे हैं तो समाज का सच्चा अग्निकुण्ड इसी को मानना पड़ता है। इसी धार्मिक अग्निकुण्ड में गिरकर अपने समाज को दशक्ति अमूल्य समय और अगणित अर्थ नष्ट हो रहा है। जहां तक मेरा अनुभव है समाज की धार्मिक अनेकता रूपी यह एक मात्र महान् अग्निकुण्ड सन्मुख सर्व क्षण धधक रहा है। आज यदि जैनियों में श्वेताम्बर दिगम्बर आदि फिरके न होते तो जैन समाज का बल कदापि न घटता और साथ साथ ओसवाल समाज भी उत्त
रोत्तर उन्नति पथ पर अग्रसर होती हुई दिखाई पड़ती। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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