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अपनी जीवन पर्यन्त को हुई साहित्यिक तपस्या के बल से जैन साहित्य का मस्तक ऊँचा रखनेवाले एवं हममें अपने उदाहरण से आत्मचेतना पैदा करनेवाले, उस महान साहित्यिक के निधन से आज हम कितने दीन हो गये हैं; इसका अनुमान सहज ही नहीं लग सकता, पर उन पवित्रात्मा के प्रति जैन समाज का यह कर्तव्य है कि वह अधिकाधिक रूप में उनके द्वारा किये हुये यज्ञ को जारी रखे प्राचीन ग्रन्थरत्नों का शीघ्रता के साथ प्रकाशन किया जावे। यह हमारा एक कर्त्तव्य है, जिसके पालन में हमें क्षणमात्र के लिये भी निश्चेष्ट नहीं रहना चाहिये। जड़ता ही मृत्यु है । आज यह समय आ गया है कि इस धर्म के अहिंसा और अनेकान्त जैसे उच्च सिद्धान्तों की तरफ पीड़ित मानवता को ध्यान देना ही होगा । हिंसा के आतंक से घुटा हुआ मानव, आज अहिंसा की शरण लेना चाहता है। दुनिया की छाती पर हिंसा के फोड़ों में बहुत मवाद भर गया है - शरीर जर्जरित हो रहा है, अहिंसा का मलहम चाहिये । इसलिये जैन साहित्य का प्रचार अधिकाधिक होने से एक तरफ तो भारतीय साहित्य की श्री - वृद्धि होगी, जनता में लोक-कल्याण और सुखशान्ति विधायक सिद्धान्तों का सच्चा प्रकाश फैलेगा और दूसरे तरफ धर्म की सच्ची आत्मा जागृत होगी, उसकी भव्य प्रेरणा कार्यान्वित होगी । आज के युग में हर एक धर्म और सम्प्रदाय का साहित्य प्रकाश में आना चाहिये जिससे ज्ञान का विकास हो और धार्मिक, सांस्कृतिक समन्वय की स्थापना हो । सच्चा जिज्ञासु आज प्रत्येक मजहब को विश्लेषणात्मक और बौद्धिक कसौटी पर कसना चाहता है ।
बौद्धधर्म जैनधर्म से बाढ़ का है और एक दफा भारत में उसका प्रकाश ओझल हो गया था, किन्तु इन १० वर्षों में बौद्ध साहित्य की तरफ जनता आकृष्ट हो रही है, दिन प्रतिदिन बौद्ध साहित्य के ग्रन्थरत्न प्रकाश
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