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________________ * प्रवन्धावली ** ७१ * अतः बाबू श्यामसुन्दरदासजी ने हिन्दी की खोज की रिपोर्ट में इस ग्रन्थ को किस प्रकार गद्य-पद्यमय लिखा, समझ में नहीं आता । शायद बाबू साहब ने इस प्रति का स्वयं निरीक्षण नहीं किया होगा. नहीं तो इतना भ्रम होना कदापि सम्भव नहीं था। इसके अतिरिक्त सोसायटी की प्रति के आदि-अन्त के अंश भी जो उद्धृत किये गये हैं, वे भी अशुद्ध हैं 1 सोसायटी की प्रति में आदि-अन्त इस प्रकार है मादि गनेसः घीगण मूल - रुफ संपत दायेक सकल सीद वुद सहेत वीजरण वीम सो पेलो तुज परणमेस ॥ १ ॥ दुहा । जटमल वाणी सरस रस कहता सरस वरवंद चहवाण कुल उधारो हुवा जु वाचा चंद ॥ २ ॥ दुहा | गोरो शवत आत गुणो वादल आत वलवंत वोलीस बात बीहुणी सांभल जो सब संत ॥ ३ ॥ दुहा । लड भीडने साको कीये वसुधा वा वीष्यति चीत्रकुट चाव कीये तेहे सुनो आवदात ॥ ४ ॥ अनुवाद --सुक संपन के देणवाले सब वातका सुक सब आकलके बेणवाले आयेसे गणपत हे सो पेले तुम कु नमसकार करता हु ॥ १ ॥ आरथपेलो जटमल नावकवेसर के ते हे ये कथा वनाई हामारे वचन सच जु सेन हे ये कथा कयेसी हे के गोरा बादल दोनो काका भतींजा हुवे हे तीनो ने चुत्राण कुल उधाला व लडभीड ने सां को कीये वचन के पालनेवाले हुवे ॥ २ ॥ गोरो वलवान वोहोत गुणी बादल माहा वलबान है सो ये दोनो को बात मे केता हुं आयेलो को तुम सुनो ॥ ३ ॥ गोरा बादलने पातस्याहा आलाउदीन से लडाई करके तमाम पोरथोमें नाव कीया चीतोड गड कुटावा कीया सो उनोकी काहानी हाम देते है ॥ ४ ॥ आरथ चवथा अन्त 1 मूल—दुहां | सोलसे आसी ये सम फागुण पुनम मास वीरा रस सीणगार रस कह जटमल सुपरकास ॥ १४६ ॥ हां । वासे 10 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035203
Book TitlePrabandhavali - Collection of Articles of Late Puranchand Nahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuranchand Nahar
PublisherVijaysinh Nahar
Publication Year1937
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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