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________________ • प्रवन्धावली विभाग सम्पादकों को या तो हुआ ही नहीं या उन्होंने उसे कार्य में परिणत करना व्यर्थ समझा। जिस समय देश में मुद्रायंत्र न थे, पुस्तकों के लिखवाने वा प्रकारा करने में बड़ी कठिनाइयां होती थीं, पर जब से छापे की प्रथा भारत में प्रारम्भ हुई हमारी बहुत कठिनाइयां दूर हो गई हैं। परंतु दुःख है कि अपने जैन भ्राताओं ने छापे का उतना लाभ नहीं उठाया कि जितना अन्य हिन्दू भ्राताओं ने उससे उठाया है। हम मुद्रायंत्र का इतिहास देखते हैं तो आज सवा सौ वर्ष से भारत में छापने का काम चल रहा है। सब से पहिले ईस्वी सन् १७६२ में बङ्गाल में बङ्गले टाइप में संस्कृत पुस्तक, छापी गई थी। जैन धर्म की सब से पहिली छपी पुस्तक, जो मेरे देखने में भाई है, वह ई० सन् १८६८ में मुद्रित हुई थी । परन्तु अनेक वार हमारो अनुदारता और अंध विश्वास हमें संसार के साथ समुन्नत होने में सहस्र बाधा डालता है। कितनेक महाशय प्रन्थों के छापने के ही विरोधी हैं कितने ही लिखित पुस्तकों को भूलों के संशोधन के शत्रु हैं यहां तक कि बहुतों को शब्द अलग २ काट कर लिखने और ठहरने के चिन्हों और विरामों के देने का भी विरोध है ! समय परिवर्तनशील है। हमें संसार के साथ चलना हो नहीं है किन्तु हमें अपने धर्म प्रन्थ साहित्य भंडार और अपने प्राचीन गौरव को सुरक्षित रखना है। इन महत् कार्यों के लिये महत् उद्योग करना होगा। हमारा कार्पण्य, हमारी अन्धपरम्परा, हमारा हठ काम न . देगा। इस के विना फल यह होगा कि संसार प्रकाश में रहे और जैन अन्धेरै गर्त में हो पड़े पड़े देखा करें। कोई अन्य क्यों न हो उसका गौरव उसके कर्ता के हाथ से निकलने पर जो था उतना ही नहीं परन्तु उससे कई गुना अधिक बनाये रखने के लिये हमें आवश्यक है कि हम उन्हें सुपात्र उत्तराधिकारी को भांति अच्छी प्रकार समालोचना और उपयुक्त टीका टिप्पणो के साथ बड़ी सावधानी से प्रकाशित करें। कई प्रकार के मोटे पतले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035203
Book TitlePrabandhavali - Collection of Articles of Late Puranchand Nahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuranchand Nahar
PublisherVijaysinh Nahar
Publication Year1937
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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