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जिनागमकथासंग्रह
संपादक अध्यापक बेचरदास दोशी
प्रकाशक श्रेष्ठी कस्तूरभाई लालभाई स्मारकनिधि
३०३, बालेश्वर स्केवर, इस्कोन मन्दिर, सरखेज गांधीनगर हाइवे, अहमदाबाद
gation International
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जिनागमकथासंग्रह
संपादक अध्यापक बेचरदास दोशी
प्रकाशक
श्रेष्ठां कस्तूरभाई लालभाई स्मारकनिधि ३०३, बालेश्वर स्केवर, इस्कोन मन्दिर, सरखेज गांधीनगर हाइवे, अहमदाबाद
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जिनागमकथासंग्रह ग्रंथांक-८
सम्पादक अध्यापक बेचरदास दोशी
प्रकाशकः श्रेष्ठी कस्तूरभाई लालभाई स्मारकनिधि ३०३, बालेश्वर स्केवर, इस्कोन मन्दिर, सरखेज गांधीनगर हाइवे, अहमदाबाद
वि. सं. २०६४ ईस्वीसन् : २००८
प्रतियाँ : ५००
मूल्य : ५०/-रुपये
ग्रन्थ आयोजन शारदाबेन चिमनभाई एज्युकेश्नल रिसर्च सेन्टर, ३०३, बालेश्वर स्केवर, इस्कोन मन्दिर, सरखेज गांधीनगर हाइवे, अहमदाबाद
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अर्पण
स्व. पिताजी और वि० माताजी यह संग्रह आप को अर्पण कर के भी मैं उरिण नहीं हो सकता।
सेवक बेचरदास
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प्रकाशक का निवेदन
गूजरात विद्यापीठ द्वारा प्रकाशित 'प्राकृतकथासंग्रह' बहुत समय से अलभ्य हो गया था । अर्धमागधी भाषा के विद्यार्थाओं को वह पुस्तक ठीक उपयोगी होने से उसकी मांग चालू थी । इससे उसकी द्वितीयावृत्ति शीघ्र प्रकाशित करने का निर्णय किया गया ।
किन्तु, द्वितीयावृत्ति तैयार करने के वख्त ऐसा समझा गया कि उस पुस्तक को सविशेप उपयोगी करने के लिये उसकी कथायें विशिष्ट दृष्टिबिंदु से, और प्राकृत साहित्य के विविध अङ्गों का यथोचित परिचय दे सके ऐसी वैविध्ययुक्त करने के ख्याल से पुनः पसंद करने की जरूर है। इससे वह कार्य प्राकृत व्याकरण और साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान पंडित वेचरदासजी को सुप्रत किया गया । उन्होंने सविशेष श्रम से विविध ग्रंथों में से यह कथायें एकत्रित की । किन्तु उनको प्रकाशित करने के पहिले गत स्वातंत्र्य-युद्ध में गूजरात विद्यापीठ और उसके सेवकगण सामिल हो गये। इससे इतने समय वाद यह ग्रंथ प्रकाशित किया जाता है। भाशा
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८
है कि इस पुस्तक से प्राकृत भाषा के अभ्यासीओं की बहुत समय की एक अपूर्णता दूर होवेगी ।
(
प्राकृतकथासंग्रह ' प्रकाशित करने के वख्त जाहेर किया गया था कि उक्त कथाओं का कोश और संक्षिप्त प्राकृत व्याकरण भी वाद में प्रकाशित किया जायगा । किन्तु बहुत समय व्यतीत होने पर भी वह शक्य नहीं हुआ । इस वख्त प्राकृत भाषा का सरल व्याकरण और कथाओं का विस्तृत कोश, टिप्पणियाँ आदि इस ग्रंथ में ही प्रकाशित किये गये हैं। पंडितजी ने ऐसी कुशलता से यह पुस्तक तैयार किया है कि संस्कृत भाषा और व्याकरण का सामान्य परिचयवाला कोई भी विद्यार्थी इस एक पुस्तक से और साहित्य में सुविधा से प्रवेश कर सकेगा ।
हि प्राकृत व्याकरण
आशा है कि जिन्हों के लिये यह पुस्तक प्रकाशित किया जाता है वे उससे यथोचित लाभ अवश्य उठायेंगे ।
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प्रस्तावना
प्राकृत भाषा का अभ्यास विशेप सुगम हो इस लिये यह 'जिनागमकथासंग्रह' की योजना की गई है और उसको अधिक व्यापक बनाने के लिये हिंदी भाषा का उपयोग किया गया है । संग्रहगत कथाओं की टिप्पणियाँ व शब्दकोश तथा प्राकृत भाषा का साधारण परिचय यह सब को समझने का वाहन हिंदी भाषा है।
मूळ जैन सूत्रों से तथा कथाओं के व सूक्तिओं के जैन ग्रंथों से संग्रहगत सामग्री संगृहीत की गई है। कथायें व सूक्तिये मनोरंजक और बोधप्रद होने के साथ भापा के अभ्यास में भी सहायक होनेवाली हैं। __अभ्यासी को व्युत्पत्ति व शब्द और शब्दार्थ के क्रमविकास का थोडाबहुत ख्याल हो इस दृष्टि से ही कई टिप्पणियाँ लिखी गई है । और कई शब्द के भाव को स्पष्ट करने की दृष्टि से । साथ में उपयुक्त शब्दों का अर्थसूचक कोश भी दिया गया है ।
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जिन जिन ग्रंथों से यह सामग्री ली गई है उन सब
किया है और कई
का तत् तत् स्थल में नामग्राह उल्लेख जगह यथास्मृति प्रकरण का भी ।
यह नहीं हो
ग्रंथों में से एक
बैठ कर निवेदन
सामग्री मापक प्रत्येक ग्रंथ का पूरा परिचय व इतिहास देना अत्यंत आवश्यक है तो भी प्रस्तुत में सका, कारण यह निवेदन लिखते समय उन भी मेरे सामने नहीं है और जिस स्थल में लिखा जा रहा है, वह स्थल भी ऐसे ऐसे कार्यों के लिए पुस्तकमरु जैसा है । फिर भी हमारे संग्रह को सामग्री देनेवाले उन सब ग्रंथों के मूल कर्ता, संपादक व प्रकाशक इन सबों का में कृतज्ञ हूं । खेद है कि असान्निध्य के ही कारण ग्रंथों के प्रकाशनस्थलों का भी निर्देश नहीं कर सका ।
मेरी मातृभाषा तो गुजराती है तो भी राष्ट्रीय हित व विद्यापीठ का व्यापक लक्ष्य को ध्यान में रख कर संग्रह को हिंदीकाय करने का प्रयत्न किया है । यों तो हिंदी का अधिक परिचय कई वर्षों से है परंतु लिखने का अभ्यास कुछ कम है इस लिए संग्रह की हिंदी गूजराती हिंदी हुई थी । मेरी इच्छा थी कि किसी तराह से भाषा का परिष्कार कराऊं, इतने में मुझ को जैनमुनिओं को पढाने के लिए दिल्ली जाना पड़ा और जब मैं वहां रहा तब इस पुस्तक का मुद्रण शरू हुआ । वहां मेरे सद्भावशाली विनयी विद्यार्थी कवि मुनि अमरचंदजी द्वारा मेरी गुजरातीहिंदी का संस्कार कराया गया । संस्कारक मुनि हिंदी के ज्ञाता, लेखक व कवि भी हैं । भाषा के संस्करण में उनकी असाधारण सहायता ली है इस कारण उनके स्नेहस्मरण को मैं नहीं भूल सकता ।
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११
संग्रह का अंतिम प्रुफ ही मैं देख सका हूं और प्रथम के प्रुफ भाई गोपालदास जीवाभाई पटेल ने ' देखे हैं एतदर्श हमारे भाई गोपालदास धन्यवादाह हैं ।
प्राकृत कथायें पढ़ने के पहिले प्राकृत भाषा व व्याकरण का कुछ परिचय हो इस उद्देश से प्रारंभ में ही ' प्राकृत भाषा का साधारण परिचय' प्रकरण रक्खा गया है। उसमें प्रथम प्राकृत भाषा के स्वरूप का परिचय कराया है; जो लोक प्राकृत को संस्कृतयोनिक व संस्कृत को प्राकृतयोनिक बतलाते हैं उनके भ्रम को हटाने के लिए थोडीसी युक्तियां बतलाई है; जैन आर्पप्राकृत व बौद्धप्राकृत पाली स्पष्ट किया गया है; तद्भव तत्सम देश्य ये प्राकृत के तीन भेद के कारण को बताया गया है; आचार्य हंमचन्द्र ने प्राकृत की व्युत्पत्ति करते हुए " प्रकृतिः संस्कृतम्” इत्यादि जो उल्लेख किया है उनका भी खुलासा कर दिया गया है; पीछे स्वरव्यंजन के उच्चारणमेद, संधि तथा नाम व धातु के प्रचलित रूपाख्यान लिखे गये हैं ।
का पारस्परिक संबंध
संग्रह में कोई त्रुटि हो तो आशा है कि अभ्यासी सूचित करेंगे ओर सह लेने की धीरता बतायेंगे ।
विनीत व उसके आगे की कक्षा द्वारा प्राकृत में प्रवेश करने के लिए यह पुस्तक सहायक होगी तो उत्तरोत्तर क्रमविकासगामी ऐसे और दो तीन संग्रह योजने का मनोरथ सफल हो सकेगा ।
अमरेली ( काठियावाड )
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महा वद १३, १९१
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बेचरदास दोशी
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प्रकाशक का निवेदन
प्रस्तावना
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अनुक्रमणिका
प्राकृत भाषा का साधारण परिचय
प्राकृत भाषा का व्याकरण १ पाए उक्खित्ते
२ धुत्तो सियालो
३ संसयप्पा विणस्सई
४ सज्जणवज्जा
५ भारियासीलपरिक्खा
६ उवासगे कुंडकोलिए
७ क्यध्धा वायसा ८ मित्तवजा
९ सुरपिओ जक्खो
१० जामाउयपरिक्खणं
११ सद्दालपुत्ते कुंभकारे
१२ गामिलओ सागडिओ
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१३ नडगुत्तो रोहो . १४ सत्तारि मित्ता . १५ रोहिणीए दक्खत्तणं . १६ चिव्भडियावंसगो . १७ असंखयं जीवियं १८ कृणियजुद्धं . १९ दुबे कुम्मा । २० जन्नस्स समुप्पत्ती २१ जीवणोवायपरिक्खा . २२ को नरगगामी . २३ साहसवजा . २४ दीणवजा २५ सेवयवजा . २६ सीहवजा २७ विजयो चोरो २८ कमलामेला २९ सम्मइगाहा ३० नीइवजा ३१ धीरवजा . ३२ पिउकिञ्चविचारो . टिप्पणियाँ . . कोश . .
१४८ १४९ १५०
१६३
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१८६ . २०७
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जिनागमकथासंग्रह
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प्राकृत भाषाका साधारण परिचय
प्राकृत भाषाका बोध करानेवाला ' प्राकृत ' शब्द ' प्रकृति शब्दसे बना है । ' प्रकृति' का एक अर्थ ' स्वभाव' भी है । अतः जो भाषा स्वाभाविक है, वह ' प्राकृत' शब्दसे वोधित होती है । अर्थात् मनुष्यको जन्मसे मिली हुई बोलचालकी स्वाभाविक भाषा, प्राकृत भाषा कही जाती है'
जो प्राकृत अधिक प्राचीन है उसको आप प्राकृत कहते हैं । जैन आगमोंमें प्राचीन प्राकृतके भी प्रयोग देखे जाते हैं। आचार्य हेमचंद्रने भी प्राकृत और भार्ष प्राकृत ऐसे दो विभाग अपने प्राकृतव्याकरणमें किये हैं । और उसमें
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१. " सकलजगन्नन्तूनां व्याकरणादिभिर नाहित संस्कार: सहजो चचनव्यापारः प्रकृतिः । तत्र भवम् सैव वा प्राकृतम् 1 - काव्यालंकार-नमिसाधु टीका २-१२ । यही टीकाकार " प्राक् पूर्वं कृतम् प्राकृतम् " - एसी व्युत्पत्ति बताता है यह कहां तक संगत है ?
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[ २ ]
आप प्राकृतकी उपपत्तिके लिये सारे व्याकरणमें आर्य सूत्रका ( ८-१-३ ) अधिकार बताया है । स्थान स्थान पर उसके उदाहरण भी जैन आगमोंमेंसे दिये गये हैं । किंतु आर्प प्राकृतके सर्व प्रयोगोंकी उपपत्तिके लिये उसमें प्रयत्न नहीं किया गया ।
आप प्राकृत और बौद्ध मूल त्रिपिटककी पाली भाषामें अधिक साम्य देखा जाता है । पाली शब्दका अर्थ अभी विवादास्पद है परंतु हमारी कल्पना में पाली शब्दकी उपपत्ति प्राकृत शब्दसे मालूम होती है। प्रकृति के स्थान में जैन ग्रंथोंमें कई जगह ' पयड़ी " शब्द आता है । ' पयड़ी' शब्दसे तद्धितान्त 'पायड़ी' शब्द हो कर उससे 'पाली' शब्द बननेमें व्युत्पत्तिशास्त्रकी कोई असंगति मालूम नहीं होती । कहनेका तात्पर्य यह है कि जिनागमोंकी आर्प प्राकृत और त्रिपिटकोंकी पाली भाषा, दोनोंमें अधिक साम्य देखा जाता है । थोडेसे उदाहरण देनेसे यह कथन और भी स्पष्ट हो जायगा । आई प्राकृतमै सप्तमीके एकवचन लोगंसि, लोगम्मि, लोगे, ऐसे तीन आते हैं । पाली में भी बुद्धस्मि, बुद्ध, बुद्धे, ऐसे आते हैं। आर्प प्राकृतका सप्तमीका एकत्रचन ' लोगंसि' में जुड़ा हुआ सप्तमीदर्शक प्रत्यय पालीका 'बुद्धस्मि ' बुद्धस्सि' रूपमें जुड़ा हुआ 'स्मि' प्रत्ययके साथ अधिक साम्य रखता है। ऐसे ही 'लोगम्मि ' का साम्य 'बुद्धन्हि' के साथ अधिक है। असल में 'स्मि' प्रत्ययके
२. भगवतीसूत्र शतक १, उद्देशक ४.
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कइ पयही कह बंध, कहिं च ठाणेहिं बंध पयडी ।
कs वेदे य पयडी, अणुभागो कइविहो
कस्स ? " ॥
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भिन्न प्रकारके उच्चार अनुस्वारादि 'सि' (लोगंसि), 'हि' और 'म्मि' हैं । संस्कृत वैयाकरणोंने इस प्रत्ययके समान 'स्मिन्' (सर्वस्मिन् ) और 'इ' (देवे) प्रत्यय बताये हैं। आप ग्राकृत, पाली और संस्कृतके सप्तमीके एकवचनके प्रत्ययसे मालूम होता है कि 'स्मिन्' प्रत्ययके व्यवहारके लिये संस्कृतमें बहुत परिमित क्षेत्र है । तव प्राकृत एवं पालीमें वह सार्वत्रिक जैसा मालूम होता है। आप प्राकृत में 'कायसा,' 'जोगसा, बलसा,' इत्यादि 'सा' प्रत्ययवाले रूप तृतीया विभक्तिके एकवचनमें आते हैं। वैसे ही पाली भाषामें 'वलसा', 'जलसा, ' 'सुखसा' ऐसे 'सा' प्रत्ययवाले अनेक रूप आते हैं। आप प्राकृतमें भूतकालके वहुवचनमें पुच्छिसु, ', 'गच्छिसु' इत्यादि 'इंसु' प्रत्ययवाले रूप आते हैं । पालीमें भी अविसु', 'अपचिंसु , ' अगच्छिसु', ऐसे इंसु 'प्रत्यश्वाले रूपोंका प्रचार पाया जाता है । किसी सेट् धातुके भूतकालके तृतीय पुरुष बहुवचनमें 'इपुः ' ऐसा सेट् प्रत्यय संस्कृतमें प्रयुक्त होता है जो पूर्वोक्त 'इंसु' की साथ साम्य रखता है। आप प्राकृतके 'करित्तए', ‘गचिछत्तए', 'विहरित्तए' के 'तए' प्रत्ययका साम्य पालीके तुमर्थक तवे' प्रत्ययकी साथ स्पष्ट मालूम होता है। प्राचीन संस्कृत में तुम्' के अर्थमें 'तवे' और 'तवै' का प्रयोग मिलता है जो पूर्वोक्त पाली ‘तवे' के साथ समानता रखता है। इसी प्रकार प्राकृत और पालीके शब्दोंके उच्चारणमें भी अनेक तरहका साम्य है । जैसे:-इसि (ऋपि), उजु (ऋजु), वुड (वृद्ध), धम्म (धर्म), तिस्थ (तीर्थ), सच (सत्य), अच्छरिय (आश्चर्य)। इस कारणसे विद्यमान जैन आगमोंकी भाषाका कोई
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खास नाम न दे कर, उसे आप प्राकृत व प्राचीन प्राकृत कहना ही विशेष सुसंगत है । ___अधिक विचार किया जाय तो आप प्राकृत, पाली और संस्कृत भाषामें उच्चारणोंकी विभिन्नता ही विभागका कारण है। देश-काल आदिके प्रभावसे जैसे सब पदार्थों में हानिवृद्धि हुआ करती है, उसी तरह मनुष्योंके उच्चारणों में भी हेरफेर हुआ करता है। प्राकृत और पालीके उच्चारण संरकृतकी अपेक्षा अधिक सरल हैं। क्योंकि उसमें लिष्ट उच्चारवाले व्यंजनोंका प्रयोग नहीं है। इसी सरलताके कारण, ये दोनों भाषा आवालगोपाल तक फैली हुई थी। और इसके विपरीत क्लिष्ट उच्चारके कारण संस्कृत भाषाका क्षेत्र परिमित था।
आचार्य हेमचंद्रने और दूसरे दूसरे प्राकृत भापाके वैयाकरणोंने प्राकृत शब्दके मूल 'प्रकृति' शब्दका अर्थ 'संस्कृत' किया है। और कहा है कि संस्कृत (प्रकृति ) से माया हुआका नाम 'प्राकृत है। इस उल्लेखका तात्पर्य, प्राकृत भापाका उत्पत्तिकारण, संस्कृत भापा है, ऐसा नहीं है। परंतु प्राकृत भाषा सीखनेके लिये संस्कृत शब्दोंको मूलभूत रख कर, उनके साथ उच्चारभेदके कारण प्राकृत शब्दोंका जो साम्य-वैषम्य है उसको दिखाते हुए प्राकृत भाषाके वैयाकरणोंने अपने अपने व्याकरणोंकी रचना की है। अर्थात् संस्कृत भाषाके वाहन द्वारा प्राकृत सिखलानेका उन लोगोंका यत्न है। इसी लिये और इसी आशयसे उन लोगोंने संस्कृतको प्राकृतकी योनि-उत्पत्तिक्षेत्र-कही है ऐसा मालूम होता है । दर असल संस्कृत और प्राकृत भापाके
३." प्रकृतिः संस्कृतम्, तत्र भवम् , तत आगतं वा प्राकृतम्"। ८-१-१ ।।
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वीचमें किसी प्रकारका कार्यकारणभाव है ही नहीं । किंतु जैसे आजकल भी एक ही भाषाके शब्दोंके भिन्न भिन्न उच्चारण मालूम होते हैं जैसे एक ग्रामीण ग्वाला जिस भाषाका प्रयोग करता है उसी भाषामा प्रयोग संस्कारापन्न नागरिक भी करता है, मात्र उच्चारणमें फरक रहता है, इसी कारणले उनको कोई भिन्न भिन्न भापाके बोलनेवाले नहीं कहता है-इसी तरह समाजके प्राकृत लोग प्राकृत उच्चार करते हैं और नागरिक लोग संस्कृत उच्चार करते हैं इससे ये दोनों भापा भिन्न हैं ऐसा कहनेका कौन साहस करेगा ? एक ही समयमें प्राकृत और संस्कृतके उच्चारका प्रवाह, इस प्रकार हमेशांसे ही चलता भा रहा है । इसमें कोई एक परवर्ती और दूसरा एक पुरोवर्ती ऐसा विभाग ही नहीं है। ____अस्तु । प्राकृत भाषाके विद्यमान जैन साहित्यमें भी आर्ष प्राकृतके और देवप्राकृतके प्रयोगोंको भी ठीक ठीक स्थान है। और ऐसे भी संख्यातीत शब्दोंके प्रयोग हैं जिनका उच्चारण बिलकुल संस्कृत के समान होता है।
जिस प्राकृत शब्दकी व्युत्पत्ति अर्थात् प्रकृतिप्रत्ययका विभाग नहीं हो सकता है, और जिस शब्दका अर्थ मात्र रुढी पर अवलंबित है, वैसे शब्दोंको देश्य प्राकृत' कहते हैं। हेमचंद्रादि वैयाकरणोंने ऐसे शब्दोंको अव्युत्पन्न कोटिमें रक्खे हैं। जैसे कि:छासी-(छाश), चोरली-(श्रावण मासकी व०दि." चतुर्दशी), चोढ(बिरुव) इत्यादि ।और देश्य शब्दोंमें ऐसे भी अनेक शब्द हैं जो यौगिक और मिश्र होनेके कारण व्युत्पन्न जैसे मालूम होते हैं।
४. देशीनाममाला श्लो, ३. ५. व० बहुल. दि० दिवस.
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[६]
परंतु उनकी प्रसिद्धि व्याकरण और कोशोंमें नहीं है अर्थात् उनका वाच्यार्थ साहित्य में प्रचलित नहीं है इसलिये वे भी देश्य शब्दों में परिगणित किये गये हैं । जिस प्रकार चंद्रके अर्धमें 'अमृतद्युति, ' ' अमृतांशु' इत्यादि शब्द कोशादिक में प्रसिद्ध हैं, उस प्रकार 'अमृतनिर्गम' शब्द चंद्रके अर्धमें कोशादिकमें प्रसिद्ध नहीं है । परंतु लोकभाषा में उसका चंद्र अर्थ प्रसिद्ध है । इस लिये ' अमयनिग्गगम' शब्द व्युत्पन्न होने पर भी देश्य गिना गया है । इसी प्रकार अन्भपिसाय - अभ्रपिशाच ( आमका पिशाचराहु ), जहणरोह - जघनरोह ( जघनसे उगनेवाला - ऊरु ) इत्यादि शब्द भी हैं ।
संसार, अनल, नीर, दाह ऐसे अनेक शब्द प्राकृतमें प्रयुक्त होते हैं जिनका उच्चारण बिलकुल संस्कृतके समान ही है । इस तात्पयको ले कर ही आचार्य दंडी और आचार्य हेमचंद्रादिने" 'तत्सम' और 'देशी' ऐसे प्राकृतके दो विभाग बताये हैं ।
उच्चारणभेद ही प्राकृत, संस्कृत और तन्मूलक भाषाओं के भेदका और विस्तारका कारण है ऐसा आगे कहा गया है । वह उच्चारणभेद क्यों होता है ? इसके भी अनेक कारण प्राचीन लोगोंने बताये हैं। जैसे कि :- भाषाके महत्त्वमें अश्रद्धा, विद्वानोंका अभिमान,
६. " तद्भव स्तत्समो देशीत्यनेकः प्राकृतक्रमः” । काव्या० १- ३३ |
७.
सूत्र ८-१-१.
८.
" सर्वेषां कारणवशात् कार्यो भाषाव्यतिक्रमः ॥ ३७ ॥ माहात्म्यस्य परिभ्रंशं मदस्यातिशयं तथा ।
प्रच्छादनं च विभ्रान्ति यथा लिखितवाचनम् | कदाचिदनुवादं च कारणानि प्रचक्षते ॥ ३४ ॥
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पड्भाषाचेद्रिका पा. ५
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[
७ ]
लिख कर अक्षरोंका छेदना, लिखने और पढनेमें भ्रांति होनी, जैसा लिखा है वैसा ही वांचना, अनुवाद और अनुवादककी अव्यवस्था । इसके उपरांत दूसरी भाषा बोलनेवालोंका संसर्ग, भौगोलिक परिस्थिति, शारीरिक अस्वास्थ्यके कारण उच्चारणके स्यानोमें विकृति, राज्यक्रांति, शुद्ध उच्चारोंकी उपेक्षा, व्याकरणका अज्ञान इत्यादि अनेक हैं । इस 'जिनागमकथासंग्रह' में आप और लौकिक दोनों प्राकृतके पाब्दप्रयोग हैं । उनमेंसे जो शब्द समझनेमें कठिन प्रतीत होते हैं उनकी टिप्पणी दी जायगी। सामान्य संस्कृत पढा हुआ भी इन कथाओंमें प्रवेश कर सके इस लिये यहां पर प्राकृत भाषाका सामान्य व्याकरण दिया जाता है । जिससे प्रवेशक, प्राकृत और संस्कृतके उच्चारभेद भलीमांति समझ सकेगा।
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प्राकृत भाषाका व्याकरण माकृतमें स्वरोंका प्रयोग
(१) प्राकृत में ऋ, ऋ, ऌ, तथा ऐ, औ का प्रयोग नहीं होता है । सिर्फ अ इ उ ( हस्व ) तथा आ, ई, ऊ, ए, ओ (दीर्घ) इतने स्वर प्रयुक्त होते हैं ।
I
(२) कोई भी विजातीय संयुक्त व्यंजनका प्रयोग प्राकृत में नहीं होता । उदा० 'शुकु' नहीं पर 'सुक्क ', ' पक्क' नहीं पर 'पक्क' इत्यादि ।
अपवाद:- म्ह, पह, न्ह, ल्ह, य्ह, द्र |
(३) अकेले अस्थर व्यंजनका प्रयोग भी नहीं होता है । उदा० 'यशस्' नहीं पर 'जस', 'तमस्' नहीं पर 'तम' |
,
( ४ ) तालव्य श और मूर्धन्य प् के स्थान में मात्र दंत्य स् का प्रयोग होता है । उदा० ' शृगाल' नहीं पर 'सिआल, 'कपाय' नहीं पर 'कसाय' ।
(५) संयुक्त व्यंजनसे पहेले के दीर्घस्वरके स्थानमें प्राकृतमें ह्रस्व स्वरका प्रयोग होता है । उदा० आम्र-अंब, ताम्र- तंब ।
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[
९ ]
(६) संयुक्त व्यंजनसे पहेंलेके 'ई' और 'उ' के स्थानमें अनुक्रमे 'ए' और 'ओ' का प्रयोग प्रायः होता है । उदा० बिल्वबेल्ल, पुष्कर-पोक्खर ।
(७) [अ] व्यंजनसे मिले हुए 'क' के स्थानमें प्राकृतमें 'अ' का प्रयोग होता है, और कितनेही शन्दोंमें 'इकार' और 'उकार' का मी प्रयोग होता है । उदा० धृतं-घयं, शुगालसिआल, वृद्ध-बुड्ढ ।
[आ] केवल अर्थात् व्यंजनसे नहीं जुड़े हुए 'र' के स्थानमें 'रि' का प्रयोग होता है । उदा० ऋद्धि-रिन्ति ।।
इ] समासवाले शब्दों में प्रारंभिक शब्दके 'ऋ' को अवश्य 'उ' हो जाता है। उदा० मातृप्वसा-माउसिआ (मासी)।
(८) 'कृप्त' के स्थानमें 'किलित्त' का प्रयोग प्राकृतमें होता है । और 'कुन्न' के स्थानमें 'किलिन्न 'का होता है।
(९) 'ऐ' के स्थानमें 'ए' का तथा 'औ' के स्थानमें 'ओ' का प्रयोग होता है । उदा. वैद्य-वेज, यौवन-जोव्वण ।
प्राकृतमें व्यंजनोंका प्रयोग __(१) एक ही शब्दके भीतर रहे हुए असंयुक्त क, ग, च, ज, त, द, प, व, य और व का प्रयोग प्राकृतमें नहीं होता है । किंतु उनके लोप होने के बाद उनका स्वर बचा रहता है । यदि वह बचा हुआ स्वर 'अ' और 'आ' से परे हो तो प्रायः उसके स्थानमे अनुक्रमसे 'य' और 'या' का प्रयोग हो जाता है । उदा० नगर-नयर, प्रजा-पया, शचि-सइ ।
(२) ख, घ, थ, ध, फ, में ये व्यंजन अनुक्रमसे क्+ह , ग+, त्+ह , दु+ह , पह, ब+ह से बने हुए हैं । लेकिन प्राकृत भाषामें ऊपर अंक २ के नियमानुसार विजातीय संयुक्त
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[ १० ]
व्यंजनोंका प्रयोग निपिद्ध है। अतः शब्दके आदिमें नहीं आये हुए
और असंयुक्त ऐसे उपर्युक्त सभी अक्षरोंके आदि अक्षरका प्राकृतमें प्रयोग नहीं होता है अर्थात् उन सबके स्थानमें केवल 'ह' का प्रयोग होता है । उदा० मुख-मुह, मेघ-मेह, नाथ-नाह, बधिर-पहिर, सफल-सहल, शोभा-सोहा ।
(३) स्वरसे परे आये हुए असंयुक्त ट, ठ, ड, न, प, फ, और ब के स्थानमें अनुक्रमसे ड, ढ, ल, ण, व, भ और व का प्रयोग होना है । उदा०-घट-घढ, पीट-पीढ, गुड-गुल, गमनगमण, कूप-कृव, रेफ-भ, अलावु-अलावु ।
(४) शब्दके आदिके 'न' के स्थानमें 'ण'का प्रयोग विकल्पसे होता है । उदा. नगर-नयर, गयर ।
(५) शब्दके आदिमें आये हुने 'य' के स्थानमें 'ज' का प्रयोग होता है । उदा० यम-जम ।
(६) अनुस्वारसे परे आये हुने 'ह' के स्थानमें 'घ' का प्रयोग होता है । उदा० सिंह-सिंघ ।
(७) [अ] प्राकृतमें क्ष, प्क और स्क के स्थानमें ख का; त्यके स्थानमें च का; छ, र्य और स्य के स्थानमें ज का; ध्य और ह्याके स्थानमें क्ष का त के स्थानमें ट का;" स्त के स्थानमें थ का;२
९. कितनेही शब्दोंमें क्ष का छ भी होता है। उदा० क्षणखण (समय), छण (उत्सव); क्षमा-खमा, छमा (पृथिवी)। कितनेही शब्दोंमें क्ष का झ भी होता है । उदा० क्षीण-झीण; क्षर-झर् ।
१०. अपवादः-चैत्य-चेइय। ११. अपवादः-मुहूर्त-मुहुत्त, कीर्ति-कित्ति, धूर्त-धुत्त इत्यादि। १२. अपवादः-समस्त-समत्त, स्तंव-तव ।
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[ ११ ]
प्प और स्प के स्थानमें फ का; म्न और श के स्थानमें णका न्म के स्थानमें मका, ड्म और क्म के स्थानमें प का और ट के स्थानमें ठ का प्रयोग होता है। उदा० क्षय-खय, स्कन्थखंध, त्याग-चा; द्युति-जुइ, ध्याद-झाण, स्तुति-थुइ, ज्ञान-शाण ।
[आ] उक्त क्ष, प्क, स्क आदि अक्षर यदि शब्दके वीचमें हां और दीर्घ स्वर तथा अनुस्यारसे पर न हों तो उनकी द्विरुक्ति होती है। और बादमें निम्नांकित आठवें नियमके अनुसार उसमें परिवर्तन होता है । उदा० मसिका-मक्खिा , पुष्कर-पोक्खर, सत्य-सञ्च, मद्य-मज्ज, मर्यादा-मज्जाया, जय्य-जज्ज, उपाध्यायउवझाय; गुह्य-गुज्झ; वर्ती-वट्टी, विस्तार-वित्यार, पुप्प-पुप्फ, बृहस्पति-विहप्फइ, निम्न-निण्ण, विज्ञान-विण्णाण, मन्मयचम्मह; कुड्मल-कुंपल, रुक्मिणी-रुप्पिणी, काट-कट्र।
(6) द्विरुक्तिको पाये हुए ख्व, ज्छ, ह, ध्थ, फ्फ, ध, इस, हु, ध्य, म्म के स्थानमें अनुक्रमसे क्ख, छ, ह, स्थ, प्फ, ग्ध, झ, ढ, द, भ होते हैं।
(९) ग्म के स्थानमें म्म का और ब के स्थानमें व्म का प्रयोग विकल्पसे होता है । उदा० युग्म-जुम्म, जुग्ग; विह्वलविन्मल, विहल ।
(१०) हस्व स्वरसे परे आये हुए थ्य, प्स, श्च, और त्स के स्थानमें च्छ का प्रयोग होता है । उदा० पथ्य-पच्छ, अप्सराअच्छरा, पश्चात्-पच्छा, उत्साह-उच्छाह ।
(११) न, प्ण, न, हू, ण, क्ष्ण इन सबके स्थानमें छह १३. अपवादः-उष्ट-उद्द, इष्टा-इट्टा, संदिष्ट-सदिट ।
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[ १२ ]
का प्रयोग होता है । उदा० प्रश्न-पह, पृष्णि-पण्ही (पानी), स्नात-हाम, वहि-त्रही, पूर्वाङ्ग-पुग्वण्ह, तीक्ष्ण-तिण्ह (ती')।
(१२) श्म, म, स्म, ह्य इनके स्थानमें म्ह का प्रयोग होता है और हल के स्थानमें ल्ह का प्रयोग होता है। उदा० कुश्मानकुम्हाण, ग्रीष्म-गिम्ह, विस्मय-विम्हय, ब्रह्मा-बम्हा, आहादआल्हाय ।
(१३) र्य के वीचमें और ई के वीचमें इ का प्रयोग प्राकृतमें होता है अर्थात् र्य का 'रिय' और है का रिह' हो जाता है । उदा० मार्या-भारिया, गाँ-रिहा ।
(१४) संयुक्त ल के पहले प्राकृतमें इ आजाता है । उदा. क्लेश-किलेस ।
(१५) ह्य का यह होता है। उदा. गुह्य-गुय्ह ।
(१६) तन्वी, बबी, लम्ची, गुर्वी इस प्रकारके स्त्रीलिंगी शब्दोमें व के पहेले प्राकृतमें उ माजाता है। उदा० तन्वीतणुवी, वह्वी-बहुवी इ० ।
(१७) शब्दके अंत्य व्यंजनका प्राकृतमें लोप हो जाता है । उदा० तमस्-तम, तावत्-ताच ।
अपवादः-(१). शरद-सरओ, भिषक्-मिसओ इत्यादि । आयुष्-आउसो, आउ; घनुप्-घणुह, घणू ।
(२) स्त्रीलिंगी शब्दोंके अंत्य व्यंजनको आ अथवा या हो जाता है।
उदा. सरित्-सरिआ, सरिया ।
अपवादः-विद्युत-विज्नु, क्षुध-लुहा, दिक्-दिसा, प्रावृष्पाउस, अप्सरस्-मच्छरसा, अच्छरा; ककुभ-कउहा ।
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[ १३ ]
(३) रकारान्त स्त्रीलिंग शब्दोंके अंत्य 'र' को रा होता है । उदा० गिर--गिरा ।
(१८) संयुक्त व्यंजनमें पहले आये हुए क्, ग्, टू, ड्, त् दू, प्, श्, ष, स्, जिह्वामूलीय ( 2 ) और उपध्मानीयका (१८) प्राकृतमें लोप हो जाता है और बचा हुआ व्यंजन यदि शब्द आदिमें न हो तो उसकी द्विरुक्ति हो जाती है । और बादमें नियम के अनुसार उसमें परिवर्तन होता है ।
उदा० भुक्त-भुत्त, दुग्ध-दुद्ध, षट्पद-छप्पअ, निश्चल-निञ्चल, तुष्ट-तट्ट, निस्पृह - निप्पह, स्तद-तब |
( १९ ) संयुक्त व्यंजनमें पीछे आये हुए म्, नू, और य् का लोप हो जाता है । और शेष बचा हुआ व्यंजन यदि शब्दकी आदिमें न हो तो द्विरुक्तिको पाता है । उदा० युग्मजुग्ग, 1 नग्न- नग्ग, श्यामा-सामा ।
(२०) संयुक्त अक्षर में पहले या पीछे रहे हुए लू, बू, व् और का लोप हो जाता है । और शेष बच्चा हुआ व्यंजन यदि शब्दकी आदिमें न हो तो द्विरुक्तिको पाता है । उदा० उल्काउक्का, लक्ष्ण-सण्ह, शब्द - सद्द, उल्बण-उल्लण, पक्क-पक, वर्गवग्ग, चक्र-चक्क ।
अपवाद:- समुद्र - समुद्द, समुद्र । निद्रा-निंदा, निद्रा ।
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संधि स्वरसंधि
( १ ) प्राकृत में एक पदमें रहे हुए स्वरोंके बीच में संधि नहीं होती है । उदा० नइ (नदी) । किंतु दो भिन्न पदों रहे हुए स्वरोंकी संधि संस्कृत व्याकरणके नियमों के अनुसार विकल्पसे होती है । उदा० मगह + अहिवइ = मगह अहिवर, मगहा हिवइ । जिण + ईसो = जिण ईसो, जिणेसो ।
(२) सामासिक शब्दों में पूर्व शब्दका अंतिम स्वर प्रयोगानुसार हूस्व हो तो दीर्घ होता है और दीर्घ हो तो हस्व हो जाता है । सत्त+बीसा = सत्तावीसा ( सप्तविंशति ); गोरी+हरं = गोरिहरं ( गौरीगृहं ) 1
(३) इ, ई, और उ, ऊ के पीछे कोई भी विजातीय स्वर आवे और ए तथा ओ के पीछे कोई भी स्वर आवे तो दो पदके बीच में भी संधि नहीं होती है ।
उदा० नई एत्थ ( नदी अत्र ), वहू एइ ( वधूः एति ), वणे अडइ ( वने अटति ), अहो अच्छरियं ( अहो आश्चर्यं ) ।
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। १५ ।
(४) स्यरान्त और स्वरादि पद साथ आने पर कभी कभी स्वरान्त पदके अंत्यका स्वर और कभी कभी स्वरादि पदके आदिका स्वर लुस हो जाता है । उदा० नोलास + ऊसासा = नीसासूसासा (निःश्वासोच्छ्वासौ ) । अम्हे +- एत्य = अम्हेत्य । एस + इमो = एसमो (एपोऽयम्) । जइ + एत्य :- जइत्य ( यद्यत्र)।
(५) क्रियापदके स्वरको प्रायः करके संधि नहीं होती है। उदा० होइ+इह, होइ इह ( भवति इह )।
(६) व्यंजनका लोप होनेके बाद, जो स्वर वचा रहता है उसकी प्रायः संधि नहीं होती है । उदा० निसा+अर=निसाअर ( निशाकरः, निशाचरः)।
व्यंजनसंधि (१) अ के बाद आये हुए विसर्गके स्थानमें उस पूर्व अ के साथ ओ हो जाता है । उदा० अग्रत:--अग्गो ।
(२) पदान्त म् का अनुस्वार हो जाता है । परंतु जब म के पीछे स्वर आवे तव अनुस्वार विकल्पसे होता है।
उदा. गिरिम्-गिरि । उसमम् अजियं = उसभं अजियं, उसभमजियं ( ऋषभम् – अजितम् )
(३) ड्, , ण, न् के स्थानमें पश्चात् व्यंजन होनेसे सर्वत्र अनुस्वार हो जाता है। उदा० पति-पति-पंति । विन्ध्य विन्झो-- विंझो।
(१) अनुस्वारके पश्चात् क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग और प वर्गके अक्षर होनेसे अनुक्रमसे अनुस्वारको ड्, ञ्, ण, न्, म् विकल्पसे होते हैं । उदा० अङ्गण, अंगण ।
(५) कितनेक शब्दो में प्रयोगानुसार पहले अक्षर पर या दूसरे अक्षर पर या तीसरे अक्षर पर अनुस्वार वढ जाता है।
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[ १६ ]
उदा:-(१) पुंछ ( पुच्छ. ) (२) मणसी ( मनस्वी ) (३) अइमुंतय ( अतिमुक्तक )।
(६) जहां स्वरादि पदोंकी द्विरुक्ति हुई हो, वहाँ दो पदोंके वीचमें म् विकल्पसे आ जाता है। एक + एक, एकमेक, एकेक ( एकैकम् )
(७) कितनेक शब्दोंमें प्रयोगानुसार अनुस्वारका लोप हो जाता है । वीसा (विंशति ), सीह (सिंघ-सिंह )
अव्ययसंधि (१) पदसे रे आये हुए अपि के अ का लोप विकल्पसे होता है । लोप होनेके बाद अपि का ५ यदि स्वरसे परे हो तो उसका व् हो जाता है।
उदा० कह + अपि = कहपि, कहमवि (कथमपि) । केण + अपि = केणवि, केणावि ( केनापि )।
(२) पदसे परे आये हुए इति के इ का लोप होता है । और यदि वचा हुआ 'ति' स्वरसे परे हो तो उसका त्ति हो जाता है। उदा० किं+ इति = किंति। तहा + इति = तहत्ति ।
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नामके रूपाख्यान प्राकृतमें द्विवचन नहीं है ।
अकारांत पुंलिंग
वीर
एकवचन
बहुवचन १ वीरो, वीरे (वीरः) दीरा (बीराः) २ वीरं (वीरम् ) वीरे, वीरा (वीरान ) ३ वीरेण, वीरेणं ( वीरेण) वीरेहि, वीरेहि, वीरेहि
(वीरेमिः, वीरैः) ४ वीराय, वीरस्स (वीराय) वीराण, वीराणं (वीराणाम्) ५ वीरा (वीरात्), बीरत्तो (वीरस:), वीरत्तो,
वीरामओ, वीराउ, वीराओ, वीराउ, वीराहि, वीराहितो वीराहि, वीरेहि,
( वीरेभ्यः ) वीराहितो, वीरोहितो, वोरासुंतो, वीरेसुंतो
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[
१८ ]
वीराण, वीराणं (वीराणाम्) वीरेसु, वीरेसुं (वीरेषु.)
६ वीरस, (वीरस्य) ७ वीरंसि, वीरे (वीरे),
वीरम्मि संवोधन वीरो, धीरे वीर, .. वीरा ( हे वीर )
वीरा (वीराः)
अकारान्त नपुंसकलिंग
१ कुलं (कुलम् )
कुलाणि, कुलाई, कुलाई (कुलानि)
३ तृतीयासे सप्तमी तकके रूप वीरकी तरह समझना । संबोधन कुल (कुल) प्रथमाके अनुसार
नोंधः-लिंगमें प्रथमाके एकवचन 'वीर' की तरह नपुंसक लिंगमें भी कुले, नयरे, चेइए इत्यादि प्रथमा एकवचन के रूप आप प्राकृतमें पाये जाते हैं ।
इकारान्त पुंलिंग
इसि (ऋषि) १ इसी (ऋषिः)
इसउ । (ऋषयः)
इसओ।
इसिणो इसी ।
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[ १९ ]
इसिणो । ऋपये
२ इसि ( अपिम् ) इसिणो, इसी (ऋषीन्) ३ इसिणा (ऋपिणा) इसीहि, इसीहिं, इसीहि
(ऋपिभिः) ४ इसये ।
इसीण, इसीणं (ऋषीणाम् ) इसिस्स ५ इसित्तो, इसीओ, (ऋपितः) इसित्तो, इसीओ,
इसीउ,इसीहितो, (ऋपः) इसीउ, इसीहितो,(ऋपिभ्यः) इसिणो
इसीसुतो ६ इसिणो, इसिस्स, (अपेः) इसीण, इसीणं ( ऋपीणाम् ), ७ इसिसि, इसिम्मि (ऋयौ) इसीसुं, इसीसुं (ऋषिपु) संबोधन इसी, इसि ( हे ऋपे) प्रथमाके अनुसार
उकारान्त पुंलिंग
भाणु (भानु) १ भाणू (भानुः) भाणवो।
भाणओ भाणउ (भानवः) भाणू
भागुणो। २ भाणुं (भानुम् ) माणुणो, भाणू (भानून् ) __इसके आगेके रूपाख्यान इकारांत ' इसी' शब्दके समान समझना।
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[ २० ]
इकारांत नपुंसकलिंग
दहि (दधि) १ दहिं (दधि)
दहीणि, दहीइं दहीई (दधीनि)
३ तृतीयासे सप्तमी तकके रूपाख्यान उपर्युक्त इकारांत इसि
शब्दके अनुसार समझना । संबोधन दहि (दधि)
प्रथमाके अनुसार
उकारांत नपुंसकलिंग
__ महु (मधु) १ महुँ ( मधु) महूणि, महूई, महूई (मधूनि) २ , ३ तृतीयासे सप्तमी तकके सव रूप भाणु शब्दके अनुसार
समझना । संबोधन मधु (मधु)
प्रथमाके अनुसार
ऋकारान्त पुंलिंग
पिउ (पितृ) १ पिया (पिता)
पियवो, पियओ, पियउ, पिऊ, पिऊणो
(पितरः) २ पियरं (पितरम् ) पिठणो, पिऊ (पितृन् ) ३ तृतीयांसे सप्तमी तक, भाणु के अनुसार समझना । संबोधन हे पिम, हे पिअरं प्रथमाके अनुसार
(हे पितः)
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[ २१ ]
वोंधः-पितृ प्रभृति शब्द विशेष्यवाचक हैं और दातृ प्रति शब्द विशेषणवाचक हैं । विशेष्यवाचक शब्दके अंत्य क के स्थानमें उ और अर का प्रयोग होता है ।जैसे:-पितृ-पिउ, और पिअर; जामातृ-जामाउ, जामायर । और विशेषणवाचक शब्दके स्थानमें उ और आरका प्रयोग होता है। जैसे:-दातृदाउ-दायार, कर्तृ-कत्त-कत्तार । ये दूसरे अकारान्त अंगके रूपाख्यान वीर के समान समझना । और उकारान्त अंगके रूपाख्यान भाणु के समान समझना ।
व्यंजनांत नाम (१) जो नाम मत् वत् और अत् को अंतमें लिये हुए हैं उनके अंतके अत् के स्थानमें प्राकृतमें अन्त का प्रयोग होता है और बादमें उनके रूप अकारान्त वीर की तरह चलते हैं। उदा. भगवत्-भगवन्त; भवत्-भवन्त; धीमत्-धीमन्त ।
(२) जिन नामोंके अंतमें अन् है उन नामोंके अंतके अन्का प्राकृतमें आण विकल्पसे हो जाता है और बादमें उसके रूपाख्यान अकारान्त वीर की तरह होते हैं । उदा राजन्-रायाण, राय; आत्मन्-अप्पाण, अप्पः पूषन्-पूसाण, पूस ।।
अन् अंसवाले शब्दोंके और भी अनियमित रूप होते हैं जो यहां दिये जाते हैं।
पूषन् १ पूसा (पूषा)
पूसाणो (पूषणः) २ पूसिगं (पूपणम्)
पूसाणो ( पूष्णः) ३ पूसणा (पूप्णा)
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[ २२
]
४-६ पूसाणो (पूष्णे)
पूलिण, पूसिणं ( पूपभ्यः,
पूष्णाम् )
५ पूसाणो ( पूण:)
राजन् शब्दके रुप और भी अधिक अनियमित हैं
राजन् । १ राया (राजा) रायाणो, राइणो ( राजानः) २ राइणं ( राजानम् ) रायाणो, राइणो (राज्ञः) ३ राइणा, रण्णा ( राज्ञा ) राईहि, राईहिं, राईहिँ
(राजभिः ) ४ रणो, राहणो, रणे राईण, राईणं, (राजभ्यः, (राजे)
राज्ञाम् ) ५ रणो, राइणो (राज्ञः) राइतो, राईओ, राई,
राईहि, राईहितो, राईसुतो
(राजभ्यः)
राईण, राईणं (राज्ञाम्) ७ राइंसि, राइम्मि (राजनि) राईसु, राईसु (राजसु) संबोधन प्रथमानुसार ।
आत्मन् शब्द के तृतीया एकवचनमें अप्पणिआ, अप्पणइआ इतने रूप अधिक हैं । और सब पूपन की तरह होते हैं ।
आकारान्त स्त्रीलिंग शब्द
गंगा १ गंगा (गङ्गा). गंगाउ, गंगाओ, गंगा (गङ्गाः) २ गंगं (गङ्गाम् )
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[ २३ ]
३ गंगाअ, गंगाइ, गंगाए गङ्गाहि, गङ्गाहिं, गङ्गाहि
(गङ्गन्या) (गङ्गाभिः) , (गङ्गायै ) गंगाण, गंगाणं (गङ्गाभ्यः)
गंगत्तो, गंगत्तो, गंगाओ, गंगाउ, गंगाओ, गंगाउ, गंगाहितो, गंगासुंतो
गंगाहितो ( गङ्गायाः) (गङ्गाभ्यः) ६ गंगाअ, गंगाइ, गंगाए गंगाण, गंगाणं (गङ्गानाम् )
(गङ्गायाः) ७ , (गङ्गायाम् ) गंगासु, गंगासु (गङ्गासु) संबोधन गंगे, गंगा (गङ्गे) प्रथमाके अनुसार
नोंधः-१७ वे नियमके अनुसार जो शब्द आकारान्त होते हैं उनके संबोधनका एकवचन एकारान्त नहीं होता है ।
इकारान्त स्त्रीलिंग
गइ (गति) १ गई (गतिः) गइउ, गइओ, गई ( गतयः) २ गई (गतिम् )
(गती:) ३ गइअ, गईआ, गईइ, गईहि, गई हिं, गईहि (गतिभिः)
गईए (गल्या) , (गतये, गत्यै) गईण, गईणं ( गतिभ्यः ) , गइत्तो, गईओ, गइत्तो, गईओ, गईड, गईहितो,
गईउ, गईहितो (गतेः) गईसुंतो ( गतिभ्यः ) ६ चतुर्थीके अनुसार चतुर्थीके समान (गतीनाम्)
( गतेः, गत्याः)
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[ २४ ]
७ , (गतो, गत्यान् ) गईतु, गईसुं (गतिपु) संबोधन गइ, गई ( हे गते) प्रथमाके अनुसार
दीर्घ ईकारान्त, हस्व उकारान्त और दीर्व उकारान्त के रूपाख्यान गति के सहा समझने ।
ऋकारान्त स्त्रीलिंग शब्द मातृ शब्दके स्थानमें माआ और मायरा ऐसे दो प्रयोग प्राकृतमें होते हैं । उनके सब रूप गंगा की तरह समझना । सिर्फ संवोधन प्रथमाकी तरह ही होता है ।
सर्वनाम अकारान्त पुंलिंग सर्वनामके रूप चीर की तरह होते हैं। आकारान्त सर्वनाम गंगा की तरह होते हैं और अकारान्त नपुंसक कुल की तरह होते हैं । लेकिन जो कुछ मुख्य विशेषता है वह नीचे दी जाती है ।
सव्व (सर्व)
सव्वे (स)
सम्वेसि ( संधेपाम् ) ५ सव्वम्हा ७ सम्वत्य, (सर्वत्र ) सम्वस्सि,
सयहि, सव्वम्मि (सर्वस्मिन् )
युष्मद् १ तं, तुं, तुमं (त्व) भे, नुब्भे, तुज्झ, तुम्ह ( यूयम् ) २ (स्वाम् ) भे, तुम्भे, तुज्झ, वो
(युप्मान् , वः)
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[ २५ ]
भे, तुमहिं ( युग्माभिः)
३ भे, तइ, तए, तुमइ,
तुने ( त्वया ) ४-६ तइ, तुम्हं, तुह, तुहं,
ते, तुमे (तुभ्यम् , तच, ते)
भे, तुम्भ, तुहाण, तुहाणं, तुमाण, तुमाणं, वो (युप्मभ्यम् , युप्माकम् , यः) तुभत्तो, तुम्भाओ, तुभाउ, तुम्भेहि, तुम्भेहितो (युप्मत्)
५ तुम, तुम्सा, तहिंतो, तुवा, तुमा, तुम्भाउ
(त्वत् ) ७ तइ, तए, तुमए, नुमे, तुम्मि, तुमम्मि, तुहम्मि
( त्वयि)
तुमेसु, तुम्भेसु, तुमस्तु (युग्मासु)
अस्मद ५ म्मि, हं, अहं ( अहम् ) अम्हे, अम्ह, मो, वयं (वयम् ) २ णं, मं, समं (माम्) अम्हे, अम्ह, गे, (अस्मान्, नः) ३ मइ, मए, मयाइ, मे अम्ह, अम्हे, अम्हेहि, अम्हाहि ( मया)
(युम्माभिः) ४-६ मज्झ, मझं, मम, मइ, अम्हाण, मज्झाण, अम्हे, मज्झ, अम्हं (मह्यम् , मे, मम) अम्हो, णे, णो (अस्मभ्यम्,
अस्माकम्, नः) ५ ममाओ, मज्झतो, अम्हत्तो, अम्हाहि, अम्हे सुंतो,
मज्झा, मज्झाहि, ममेहि ( अस्मत् )
मइत्तो (मत् ) ७ नमाइ, मइ, मए अम्हे सु, अन्ह सु, मझेसु, मासु ( मयि )
(अस्मासु)
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[ २६ ]
संख्याचाचक शब्द
दु (द्वि) तीनो लिंगों में बहुवचन के रूप
१ दुवे, दोण्णि, दुण्णि, वेण्णि, विण्णि, दो, वे
३ दोहि, दोहिं, दोहि, वेहि, वेहिं,
४-५ दोन्ह, दोन्हं, दुण्ह, दुण्हं, वेण्ह, चेन्हं, विरह, चिन्हं ६ दुत्तो, दोओ, दोउ, दोहिंतो, दोसुंतो, वित्तो, वेओ, वेउ, वेहितो, सुंतो ।
७ दोसु, दोसुं, वेसु, सुं ।
१-२
तिपिण
४-६ तिन्ह, तिण्हं
33
४-५
ति (त्रि) तीनों लिंगके रूप
१-२ चत्तारो, चउरो, चत्तारि
१-२
19
३ चउहि चउहिं चउहि,
बाकीके 'इलि' के बहुवचन अनुसार ।
33
as ( चतुर ) तीनों लिंगमें
चऊहि, चऊहिं, चऊहि
चउह, चउं
पंच
३ पंचेहि, पंचेहिं पंचेहिँ,
ु
पंचहि, पंचहिं, पंचहि ।
शेष रूप भाणु के बहुवचन के अनुसार । पंच (पञ्च) तीनों लिंग में
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[ २७ ]
४-६ पंचण्ह, पंचण्हं
शेष रूप वीर के बहुवचनके अनुसार ।
क्रियापद सूचना:-प्राकृतमें गणोंका भेद, आत्मनेपद या परस्मैपदका भेद, सेट् अनिट् का भेद इत्यादि कुछ भी नहीं है । मात्र स्वरांत
और व्यंजनांत धातुके रूपमें इतना फरक होता है कि व्यंजनांत धातुके अंतमें अ अवश्य लगता है और स्वरांत धातुको विकल्पसे लगता है । धातुके कुछ मुख्य मुख्य रूप, उदाहरणके तौर पर दिये जाते हैं।
घर्तमानकाल
हसमि, हसामि, हसेमि, हसमो, हसामो, हसिमो, हसेन्ज, हसेज्जा (हसामि) हसेमो, हसेज्ज, हसेज्जा
(हसामः) २ हससि, हसेसि, हससे, हसइत्या, हसेइत्था,
हसेसे, हसह, हसेह, हसेज, हसेन्जा (हससि) हसेज, हसेन्जा (हसथ) ३ हसइ, हसेइ, हस, हसंति, हसेंति, हसंते, हसेंते, हसेए, हसेज्ज, हसेज्जा हसइरे, हसेइरे, हसेज्ज,
(हसति) हसेज्जा (हसन्ति) नोंधः-प्रथम पुरुष बहुवचनमें मो, मु, म ऐसे तीन प्रत्यय धातुसे लगते हैं। उनमेंसे मात्र मो का रूप ऊपर दिया गया है। मु और म का भी उसके समान समझना जैसे:-हसमु, हसम..
हसामु हसाम/इ०
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[ २८ ]
स्वरांत धातु । वर्तमानकाल
(हू ) हो (भू)। नोंधः-इस प्रकरणके आदिमें लिखी हुई सूचनाके अनुसार जब स्वरांत धातुको 'अ' लगता है तब इसके सब रूप हस् की तरह होते हैं । जैले. होअमि, होअसि, होअइ इ.
जव 'अ' नहीं लगता है उस अवस्थाके रूप नीचे दिये जाते हैं। १ होमि
होमो, होमु, होम २ होसि
होइत्या, होह ३ होइ
होंति होते, होइरे
भूतकाल
हस्
है ( हस् + ईअ = ) हसीअ एकवचन और । बहुवचन )
(ह) हो १-२-३
हो + सी = होसी, होअसी एकवचन और हो + हो = होही, होअही बहुवचन ) हो + होअ = होहोअ, होअहीअ
भविष्यकाल
हस् १ हसिस्सं, हसेस्सं, हसिस्स्गमो, हसेस्सामो,
हलिस्लामि, हसेस्सामि, हसिहामो, हलेहामो, हसिहामि, हसेहामि, हसिहिमो, हसेहिमो, हसिहिमि, हसेहिमि, हसेज्ज, हसेज्जा.
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[ २१ ]
. नोंधः-पितृ प्रभृति शब्द विशेष्यवाचक हैं और दातृ प्रभृति शब्द विशेषणवाचक हैं । विशेष्यवाचक शब्दके अंत्य
के स्थानमें उ और अर का प्रयोग होता है। जैसे:-पितृ-पिउ, और पिअर; जामातृ-जामाउ, जामायर । और विशेषणवाचक शब्दके स्थानमें उ और आरका प्रयोग होता है। जैसे:-दातृदाउ-दायार, कर्तृ-कत्तु-कतार । ये दूसरे अकारान्त अंगके रूपाख्यान वीर के समान समझना। और उकारान्त अंगके रूपाख्यान भाणु के समान समझना ।
व्यंजनांत नाम (१) जो नाम मत् वत् और अत् को अंतमें लिये हुए हैं उनके अंतके अत् के स्थानमें प्राकृतमें अन्त का प्रयोग होता है और बादमें उनके रूप अकारान्त वीर की तरह चलते हैं। उदा० भगवत्-भगवन्त; भवत्-भवन्त धीमत्-धीमन्त ।
(२) जिन नामोंके अंतमें अन् है उन नामों के अंतके अन्का प्राकृतमें आग विकल्पसे हो जाता है और बादमें उसके रूपाख्यान अकारान्त वीर की तरह होते हैं । उदा राजन्-रायाण, राय; आत्मन्-अप्पाण, अप्पः पूषन्-पूसाण, पूस ।।
अन् अंतवाले शब्दोंके और भी अनियमित रूप होते हैं जो यहां दिये जाते हैं ।
पूषन्
१ पूसा (पूषा) २ पूसिणं ( पूषणम्) ३ पूसणा (पूष्णा)
पूसाणो ( पूषणः) पूसाणो ( पूष्णः)
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[ ३० ]
२ इससु, हसेसु, हसेजसु, हसह, हसेह
हसेज्जहि, हसेज्जे, हस ३ हसउ, हसेउ हसंतु, हसेतु
(हू) हो होम से, हस अंगकी तरह प्रत्यय लगा लेना। जैसे:होअमु, होआमु, होइमु, होएमु ३०
मात्र हो के रूप १ होम होमो २ होसु, होहि होह ३ होउ होंतु
कियातिपत्यर्थ
१-२-३ एकवचन बहुवचन
हसंतो हसमाणो हसेज्ज, हसेज्जा
(हू) हो होतो होमाणो होज्ज, होजा
एकवचन बहुवचन
कृदन्त
वर्तमानकृदंत हसंत, हसमाण, हसेंत, हसेमाण
(पुंलिंग वीर की तरह और नपुंसक कुल की तरह)
पुं०
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हसेंती, हसेता, हसई, हसेई, हसमाणी, हसमाणा, हसेमाणी, हसेमाणा ( इनमेंसे आकारांत गंगा की तरह और ईकारान्त गनि की तरह )
(हू) हो पुं० होत, होमाण, होएंत, होअंत, होएमाण, होअमाण
(पुंलिंग वीर की तरह और नपुंसक कुल की तरह ) स्त्री० होती, होता, होएंती, होएंता, होअंती, होता,
होमाणी, होमाणा, होअमाणी, होअमाणा, होएमाणी,
होएमाणा, होअई, होएई, होई ( आकारांत गंगा की तरह और ईकारान्त गति की तरह)
भूतकृदंत भूतकृदंतमें धातुको अ और त प्रत्यय लगते हैं। और उसके पहेले यदि अकार आवे तो उसको इ हो जाती है । उदा० हस् + अ = हस-हसिअ, हसित । हू + अ = हूअ-हूइअ, हूइत; हू-हूअ, हूत ।
हेत्वर्थकृदंत । धातुके अंगको तुं प्रत्यय लगनेसे हेत्वर्थकृदंत होता है और तुं के पहेले के अ को इ और ए हो जाता है । उदा० हसितुं, हसेतुं और हसिउं, हसे। (व्यंजनोंका प्रयोग नियम १)
संबंधकभूतकृदंत धातुके अंगको तुं, अ, तूण, तूणं, तुआण, तुआणं प्रत्यय लगनेसे संबंधकभूतकृदंत होता है। और उस प्रत्ययके प्रथम अ का प्रायः इ और ए हो जाता है । हसितुं, हसेतुं
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[ ३२ ]
हसिस, हसिनृण, हसेतूण, हसितगं, हसेतूणं, हरितुआण, हसिनुआणं, हसेतुआण, हसेतुआणं । और व्यंजनप्रयोग संबंधी नियम १ के अनुसार त् का लोप करके भी रूप समझना । जैसे हसिऊण, हसेऊण इ०
कर्ता सूचक कृदंत धातुके अंगको इर प्रत्यय लगानेसे उसका कर्तृसूचक कृदंत हो जाता है । हस्-इर = हसिर (हसनारा)
नोंध:-यहां मात्र प्राकृत भापामें प्रवेशके लिये वर्णविकार के सामान्य नियम, नाम और धातुके साधारण रूपाख्यान और कदंतके मोटे मोटे उदाहरण दिये गये हैं। अधिक जिज्ञासु हमारा विद्यापीटप्रकाशित प्राकृत व्याकरण देख लेवें ।
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जिनागमकथासंग्रहः
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पाए उक्खित्ते तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमार पुरओ कैटु जेणामेव सेमणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिकवुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति, करित्ता वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी
" एस णं देवाणुप्पिया ! मेहे कुमारे अम्हं एगे पुत्ते इटे, कंते, जीवियउस्सासए, हिययणंदिजणए, उंवरपुष्फ पिन दुलहे सवणयाए, किमंग पुण दरिसणयाए । से जहा नामए उप्पलेति वा पउमेति वा कुमुदेति वा पंके जाए जले संवड़िए नोवलिप्पइ पंकरएणं; गोवलिप्पइ जलरएणं, एवामेव मेहे
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[ ३६ ]
कुमारे कामेसु जाए, भोगेसु संवुड्डे, नोवलिप्पति कामरएणं, नोवलिप्पति भोगरएणं । - ___" एस णं देवाणुप्पिया ! संसारभउविगे, भीए जम्मणजरमरणाणं इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वतित्तए । अम्हे णं देवाणुप्पियाणं सिरसभिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया सिस्सभिक्खं ।"
तते णं से समणे भगवं महावीरे मेहरस कुमारस्स अम्मापिऊएहिं एवं वुत्ते समाणे एयमटुं सम्म पडिसुणेति ।
तते णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ उत्तरपुरस्थिमं दिसिभागं अवक्कमति, अवक्कमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयति । ___तते णं से मेहकुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पडसाडएणं आभरणमलालंकार पडिच्छति, पडिच्छित्ता हार-वारिधारसिंदुवार-छिन्नमुत्तावलिपगासाति अंसूणि विणिम्मुयमाणी विणिम्मुयमाणी, रोयमाणी रोयमाणी, कंदमाणी कंदमाणी, विलवमाणी विलन्माणी एवं वदासी
"जतियव्वं जाया । घडियचं जाया । परक्कमियव्वं जाया। अस्सिं च णं अढे नो पमादेयव्वं । अम्हपि णं एमेव मग्गे
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[ ३५ ]
भवउ " त्ति कटु मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसि पाउभूता तामेव दिसि पडिगया ।
तते णं से मेहे कुमारे सयमेव पंचमुडियं लोयं करेति, करित्ता जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति, करित्ता वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी---
" आलित्ते णं भंते ! लोए, पलिते गंभंते लोए, आलित्तपलित्ते णं मते लोए जराए मरणेण य । से जहाणामए केई गाहावती, अगारंसि दिशायमागंसि जे तत्य भंडे भवति अप्पभारे मोलगुरुए तं गेंहाय आयाए एगतं अवक्कमति-'एस मे णित्यारिए समाणे पच्छा पुरा हियाए, सुहाए, खमाए, णिस्सेसाए, आणुगामियत्ताए भविस्सति, एयामेव मम वि एगे आयाभंडे इटे, कंते, पिए, मणुन्ने, मैणामे, एस मे नित्थारिए समाणे संसारवोच्छेयकरे भविस्सति । तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाहि सयमेव पव्वावियं, सयमेव मुंडावियं, सेहावियं, सिक्खावियं, सयमेव आयार-गोयर-विणय-वेणइय-चरणकरण-जाया-मायावत्तियं धम्ममाइक्खियं "।
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[ ३८ ]
तते णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पञ्चायति, सयमेव आयार-गायर-विणय-वेणइय-चरण-करण-जायामायावत्तियं धम्ममातिक्खइ
__ " एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं, चिट्ठितव्वं, णिसीयव्वं, तुट्टियव्यं, भुंजियध्वं, भासियव्यं । एवं उद्याए उट्ठाय पाणेहिं, भूतेहिं, जीवेहि, सत्तेहिं संजमेणं संजमितव्यं । अस्सि च णं अटे णो पमादेयव्वं । " ___तते णं से भेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावरिरस अंतिए इमं एयारूवं धम्मियं उवएसं णिसम्म सम्म पडिवज्जइ, तमाणाए तह गच्छइ, तह चिट्ठइ, उढाए उट्ठाय पाणेहिं, भूतेहिं, जीवे हिं, सत्तेहिं संजमइ।
जं दिवसं च णं मेहे कुमारे मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइए, तस्स णं दिवसस्स पचावरण्हकालसमयसि समणाणं निग्गंथाणं अहारातिणियाए सेज्जासंथारएसु विभज्जमाणेसु, मेहकुमारस्स दारमूले सेज्जासंथारए जाए यावि होत्था ।
तते णं समणा निग्गंथा पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए, पुच्छणाए, परियट्टणाएं, धम्माणुजोगचिंताए य उच्चारस्स य पासवणस्स य अइगच्छमाणा य निग्गच्छमाणा य अप्पेगतिया मेहं कुमारं हत्थेहिं संघटृति; एवं पाएहिं सीसे, पोट्टे, कायसि; अप्पेगतिया ओलंति; अप्पेगइया पोलंडेंति; अप्पेगतिया
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[ ३९ ]
पायरयरेणुगुंडियं करेंति । एवं महालियं च णं रयणी मेहे कुमारे णो संचाएति° खणमवि अच्छिं निमीलित्तए ।
तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अयमेयारूवे अज्झथिए समुप्पैज्जित्था___" एवं खलु अहं सेणियस्स रन्नो पुत्ते, धारिणीए देवीए अत्तए मेहे । तं जया णं अहं भगारमज्झे वसामि तया णं मम समणा णिग्गंथा आढायंति, परिजाणंति, सक्कारेंति, संमागति, अढाई हेऊति पसिणाति कारणाई वाकरणाई आतिक्खंति, इटाहि कंताहिं वग्गूहि आलति, सलवेति । जप्पमितिं च णं अहं मुंडे भवित्ता आगारामओ अणगारियं पन्वइए, तप्पभितिं च णं मम समणा नो आढायंति....जाव नो संलवंति । अदुत्तरं च णं मम समणा निग्गंथा राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयांस वायणाए पुच्छणाए....*जाव संथाराओ आयंति, महालियं च णं रतिं नो संचाएमि अच्छि णिमिलावेत्तए । तं सेयं खलु मज्झं कलं, पाउप्पभायाए रयणीए, तेयसा जलंते सूरिए समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि आगारमज्झे वसित्तए " त्ति कटु एवं संपेहेति, संपेहित्ता अट्टदुहट्टवसट्टमाणसगए णिरयपडिरूवियं च णं तं रयणि खवेति, खवित्ता कलं, पाउप्पभायाए सुविमलाए रयणीए, तेयसा जलंते सूरिए जेणव समणे भगवं महावीरे
* पृष्ठ ३८, पंक्ति १५
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[ ४० ]
तेणामेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तिकखुत्तो आदाहिणं पदाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता पज्जुवासति । ___ तते णं " मेहा !" ति समणे भगवं महावीरे मेहं कुमार एवं वदासी--
“से णूणं तुम मेहा ! राओ पुष्वरत्तावरत्तकालसमयसि समणेहिं निग्गंथेहिं वायणाए पुच्छणाए....*जाव महालियं. च णं राई णो संचाएसि मुहुत्तमवि अच्छिं निमिलावेत्तए, तते णं तुभं मेहा ! इमे एयासवे अझस्थिए समुप्पज्जित्था
"तं सेयं खलु मम कलं पाउप्पभायाए रयणीए तेयसा जलंते सूरिए समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि आगारमज्झे आवसित्तए ति कट्ट अट्टदुहट्टवसट्टमाणसे रयणि खवेसि, खवित्ता जेणामेव अहं तेणामेव हव्वमागए, से गूणं मेहा ! एस अत्थे सम? ?"
" हंता अत्थे समटे ।"
“ एवं खलु मेहा ! तुमं इओ तच्चे अईए भवग्गहणे वेयडुगिरिपायमूले वणयरेहिं णिव्वत्तियागामधेज्जे, सेते, संखदल उज्जल-विमलनिम्मलदहिघण-गोखीरफेण-रयणियर-प्पंयासे,
* पृष्ठ ३८, पकि १७
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[ ४१ ]
सत्तुस्सेहे, णवायर, दसपरिणाहे, सत्तंगपतिट्ठिए सोमे, समिए, सुरूवे, पुरतो उदग्गे, समूसियसिरे, सुहासणे, पिटुओ बराहे, अतिया कुच्छी, अच्छिद्दकुच्छी, अलंबकुच्छी, पलंबलंबोदराहर करे, धणुपट्टागिइविसिटुपुट्टे, अलीणपमाणजुत्तपुच्छे, पडिपुन्नसुचारुकुम्मचलणे, पंडुरसुविसुद्ध निद्धणिरुवह यर्विसतिणहे, छदंते, सुमेरूप्पभे नाम हत्थिरीया होत्या ।
" तत्थ णं तुमं मेहा ! वहूहिं हत्थीहि य हत्थीणियाहि यलो एहि य लोहियाहि य कलभेहि य कलभियाहि य सद्भि संपरिवुडे, हत्थिसहस्सणायए, देसए, जूहवई, अन्नसि च बहूणं एकल्लाणं हत्थिकलभाणं आहेबच्चं करेमाणे विहरसि ।
“ तते णं तुमं मेहा ! णिञ्चप्पमत्ते, सई पठलिए, कंदप्परई, मोहणसी, अवितण्हे, कामभोगतिसिए बहूहि हत्थीहि य.... जाव संपरिवुडे वेयडुगिरिपायमूले गिरीसु य दरीसु य कुहरेसु य कंदरासु य उज्झरेसु य निज्झरेसु य वियरएसु य गड्डासु य पललेसु य चिल्ललेसु य कडयेसु य कडयपलुळेसु य तडीसु य वियडीसु य टंकेसु य कुडएसु य सिहरेसु य पव्भारेसु य मंचेसु य मासु य काणणेसु य वणेसु य वणसंडेसु य वणराईसु य नदीसु य नदीकच्छेसु य जूहेसु य संगमेसु य चावीसु य पोक्खरिणीसु य दीहियासु य गुंजालियासु य सरेसु य सरपंतियासु य सरसरपंतियासु य वणथरएहिं दिन्नवियारे
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[ ४२ ]
बहूहिं हत्थीहि य....*जाब सद्धिं संपरिवुडे बहुविहतह-पल्लवपउरपाणिय-तणे निम्मए निरुन्निग्गे सुहंसुहेणं विहरति ।
___तते गं तुमं मेहा ! अन्नया कयाई पाउस-चरिसारतसरय-हेमंत-वसंतेसु कमेण पंचसु उजसु समतिकतेमु, गिम्हकालसमयंसि जेट्टामूलमासे, पायवघससमुट्टिएणं, सुक्कतण-पत्तकयवर-मारुतसंजोगदीविएणं,महाभयंकरेणं हुयवहेणं वणदवजालासंपलित्तेमु वर्णतेसु, धूमाउलासु दिसासु, महावायवेगेणं संघट्टिएसु छिननालेसु आवयमाणेसु, पोल्लरक्खेसु अंतो अंतो झियायमाणे, पक्खिसंघेसु ससंतसु, संवट्टिएसु तत्थमिय-पसव-सिरीसिवेसु, अवदालियवयणविवरणिल्लालियग्गजीहे, महंततुंबइयपुन्नकन्ने, संकुचियथोरपीवरकरे, ऊसियलंगूलें, पीणाइयविरसरडियसद्देणं फोडयंते व अंवरतलं, पायदद्दरएणं कंपयंते व मेइणितलं, विणिम्मुयमाणे य सीयारं, सवतो समंता वल्लिवियाणाई छिंदमाणे, रुक्खसहस्सातिं तत्थ सुवहूणि णोल्लायंते, विणटरटेन्च णरवरिंदे, वायाइ व्व पोए, मंडलवाए ब्व परिभमंते अमिक्खणं अभिक्खणं लिंडणियर पहुंचमाणे पमुंचमाणे, बहूहिं हत्थीहि य.... *जाच सद्धि दिसोदिसिं विप्पलाइत्था । ___ " तत्थ णं तुम मेहा ! जुन्ने, जराजज्जरियदेहे, आठरे, मुंजिए, पिवासिए, दुब्बले, किलंते, नदुसुइए, मूढदिसाए सयातो.
* पृष्ठ ४१, पक्कि ६
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[ ४३ ]
जूहातो विप्पहूणे वणदवजालापारद्धे, उण्हेण य तण्हाए य छुहाए य परब्भाहए समाणे, भीए, तत्थे, तसिए, उव्विग्गे, संजातभए, सव्वतो समंता आधावमाणे परिधावमाणे एगं च णं महं सरं अप्पोदयं, पंकबहुलं, अतित्थेणं पाणियपाए उइन्नो ।
“तत्थ णं तुम मेहा! तीरमतिगते पाणियं असंपत्ते अंतरा चेव सेयंसि विसने। ___"तत्थ णं तुम मेहा ! पाणियं पाइस्सामि त्ति कटु हत्थं पसारेसि, से वि य ते हत्थे उदगं न पावति ।
___" तते णं तुम मेहा ! पुणरवि कायं पच्चुरिस्सामीत्ति कट्ट वलियतराय पंकसि खुत्ते । ____ " तते णं तुम मेहा ! अन्नया कदाइ एगे चिरनिजूंढे गयवरजुवाणए सगाओ जूहाओ कर-चरण-दंत-मुसलप्पहारेहि विपरद्धे समाणे तं चेव महद्दहं पाणीयं पादेउं समोयरेति ।
___" तते णं से कलभए तुम पासति, पासित्ता तं पुव्ववेरं समरति, समरित्ता आसुरुत्ते, रुटे, कुविए, चीडक्किए, मिसिमिसेमाणे जेणेव तुमं तेणेव उवागच्छति, उवागाच्छित्ता तुम तिखेहिं दंतमुसलेहिं तिखुत्तो पिटुतो उच्छुभति, उच्छुभित्ता पुव्ववेरं निज्जाएति, निजाइत्ता हसतुढे पाणियं पियति, पिइत्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए।
"तते णं तव मेहा ! सरीरगास वेयणा पाउमवित्थाः
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[ ४४ ]
विउला, कक्खडा, दुरहियाता पित्तज्जर-परिगयसरीरे दाहवर्कसीए यावि विहरिस्था। ____ "तते णं तुम मेहा ! तं दुरहियासं सत्तराईदिणं वेयणं वेदेसि । सवीसं वाससतं परमाउं पालइत्ता अट्टवसदृदुहट्टे कालमासे कालं किच्चा इहेव जंबुद्दीवे, भारहे वासे, दाहिणड्डभरहे, गंगाए महाणदीए दाहिणे कूले, विंझगिरिपायमूले एगेणं मत्तवरगंधहथिणा एगाए गयवर-करेणूए कुच्छिसि गयकलभए जणिते ।
"तते णं सा गयकलभिया णवण्हं मासाणं वसंतमासन्मि तुमं पयाया।
___" तते णं तुम मेहा ! गम्भवासाओ विप्पमुक्के समाणे गयकलभए यावि होत्था, रत्तुप्पलरत्तसूमालए, इद्वे णिगस्स जूहवइणो, अणेगहत्यिसयसंपरिबुडे रम्मेसु गिरिकाणणेसु सुहंसुहेणं विहरसि ।
___ “तते णं तुम मेहा ! उम्मुक्कवालभावे जोठवणगमणुपत्ते जूहवइणा कालध गुणा संजुत्तेण तं जूहं सयमेव पडिवज्जसि । ___" तते णं तुम मेहा ! वणयरेहिं निव्वत्तियनामधेज्जे चउदंते मेरुप्पभे हत्थिरयणे होत्था । तस्थ णं तुम मेहा ! सत्तंगपइदिए तहेब....*जाव पडिरूवे । तत्थ णं तुम मेहा! सत्तसइयस्त जूहस्स आहेबच्चं करेमाणे अभिरमत्था ।
* पृष्ठ ४१, पंकि १
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[ ४५ ]
" तते णं तुमं अन्नया कयाइ गिम्हकालसमयसि जेवामूले वणदवजालापलित्तेसु वर्णतेसु, धूमाउलासु दिसासु....*जाव मंडलवाए व्य परिभमंते, भीते, तत्थे, संजायभए बहिं हत्थीहि य कलाभियाहि य सींद संपरिबुडे सव्वतो समंता दिसोदिसिं विप्पलाइस्था।
"तते णं तब मेहा ! तं वणदवं पासित्ता अयमेयासवे अज्झथिए समुप्पज्जित्था-"कहिं गं मन्ने मए अयमेवारूचे अग्गिसंभवे अणुभूयपुव्वे ।"
तते ण तव मेहा ! लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं अज्झनसाणेणं सोहणेणं सुभेणं परिणामेणं तयावरणि जाण कम्मांणं खओवसमेणं ईहापूहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स सन्निपुब्वे जातिसरणे समुप्पज्जित्था ।
"तते णं तुम मेहा ! एयमद्रं सम्मं अभिसमेसि--'एवं खलु मया अतीए दोच्चे भवग्गहणे इहेब जम्बुद्दीचे दीवे भारहे वासे वियगिरिपायमूले अयमेयारूवे अग्गिसंभवे समणुभूए । ___“तते णं तुम मेहा ! तस्सेव दिवसस्स पच्चावरण्हकालसमयंसि नियएणं जूहेणं सद्धिं समन्नागए यावि होत्था । __ " तते णं तुम मेहा ! सन्निजाइस्सरणे चउर्दते मेरुप्पो नाम हत्थी होत्था ।
* पृष्ठ ४२, पंकि
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[ ४६ ]
" तते णं तुज्झं मेहा ! अयमेयारूवे अज्झत्थिए समुप्पज्जित्था - " तं सेयं खलु मम इयाणि गंगाए महानदीए दाहिणिलुंसि कूलंसि विंझगिरिपायमूले दवग्गि-संताणकारणट्ठा सएणं जूहेणं महालयं मंडलं वाइत्तए " त्ति कट्टु एवं संपेहेसि, संपे हित्ता सुहं सुहेणं विहरसि ।
" तते णं तुमं मेहा ! अन्नया कदाई पढमपाउसंसि महावुद्विकार्यंसि सन्निवइयांस गंगाए महानदीए अदूरसामंते वहूहिं हत्थी हिं कलभियाहि य सत्तहि यहत्यिसएहिं संपरिवुडे एगं महं जोयण परिमंडलं महतिमहालयं मंडलं घाएसि; जं तत्थ तणं वा पत्तं वा कटुं वा कंटए वा लया वा वल्ली वा खाणुं वा रुक्खे वा खुवे वा तं सव्वं तिक्खुत्तो आहुणिय आहुणिय पाएण उटुवेसि, हत्थेणं गेहसि, एगंते एडेसि ।
" तते णं तुमं मेहा ! तस्सेव मंडलस्स जदुरसामंते गंगाए महानदीए दाहिणिल्ले कूले विंझगिरिपायमूले गिरीसु य.... जाव विहरसि ।
" तते णं मेहा ! अन्नया कदाइ मज्झिमए वरिसारत्तसि महाविद्विकार्यसि संनिवइयंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छति, उचागच्छित्ता दोच्चपि मंडल घाएसि । एवं चरिमे वासारत्तंसि महावुद्धिकायांस सन्निवइयमाणांस जेणेव से मंडलें तेणेव उवाग
* पृष्ठ ४१, पंक्ति १३
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[ ४७ ]
च्छसि उवागच्छिता तच्चपि मंडलघायं करेसि । जं तत्थ क्षणं 1
,
चा....जाव सुहंसुहेणं विहरसि ।
6"
अह मेहा ! तुमं गइंदभावम्मि वट्टमाणो कमेणं नलिणिवणविवहणगरे हेमंते कुंद - लोद्धउद्धततुसारपउरम्मि अतिक्कंते, अहिणवे गिम्हसमयंसि पत्ते, वियमाणो वणेसु, वणकरेणुविविहृदिण्णकयपसवघाओ, तुमं उउयकुसुमकयचामरकन्नपूर परिमंडियाभिरामो, मयत्रसविंगसंतकडतड किलिन्नगंधमदवारिणा सुरभिजणियगंधो, करेणुपरिवारिओ, उउसमत्तजणितसोभो, काले दिणयरकरपयंडे, परिसोसियतरुवर सिहर भीमतरदंस णिज्जे, वाउलियादारुणतरे, भीमदरिसणिज्जे वट्टंते दारुणम्मि गिम्हे, धूममालाउलेणं, सावयसयंत करणेणं, अमहियवणदवणं वेगेण महामेहो व्व जेणेव कभ ते पुरा दवग्गिभयभीयहियएणं अवगयतणप्पएसरुक्खो रुक्खोसो दवग्गिसंताणकारणद्वाए जेणेव मंडले तेणेव पहारेत्थ गमणाए ।
" तत्थ णं अण्णे बहवे सीहा य वग्धाय विगया, दीविया, अच्छा य तरच्छा य पारासरा व सरभा य सियाला, बिराला, सुणहा, कोला, ससा, कोकंतिया, चित्ता, चिल्लला पुव्वपविट्ठा अग्गिभयविद्दुया एगयाओ विलधम्मेण चिट्ठति ।
" तते णं तुनं मेहा ! पाएणं गतं कंडुइस्सामीति कट्टु पाए
* पृष्ठ ४६, पंक्ति ९
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[ ४८ ]
उक्खित्ते । तसिं च णं अंतरंसि अन्नेहिं वलवंतेहिं सत्तेहिं पणोलिज्जमाणे पणोलिज्जमाणे ससए अणुपषिदे।
__ " तते णं तुम मेहा ! गायं कंडुइत्ता पुणरवि पाय पडिनिक्खामिस्सामि त्ति कट्ठ तं ससयं अणुपविटुं पाससि, पासित्ता पाणाणुकंपयाए, भूयाणुकंपयाए, जीवाणुकंपयाए, सत्ताणुकंपयाए सो पाए अंतरा चैव संधारिए, नो चेव णं णिक्खित्ते ।
"तते णं तुम मेहा ! ताए पाणाणुकंपयाए....जाच सत्ताणुकंपयाए संसारे परितीकते माणुस्साउए निबद्धे । ___" तते ण से वणवे अातिजाति रातिदियाइं तं वणं झामेइ, झामित्ता निटिए, उवरए, उवसंते, विज्झाए यावि होत्था।
“तते णं ते वहवे सीहा य....*जाव चिलला य तं वणदवं निद्वियं विज्झायं पासंति, पासित्ता अग्गिभयविप्पमुक्का तण्हाए य छुहाए य परव्भाहया समाणा ताण मंडलाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता सबओ समंता विप्पसरित्था ।
__" तए णं तुम मेहा ! जुन्ने, जराजज्जरियदेहे, सिढिलवलितयापिणिद्धगते, दुबले, किलंते, पिवासिते, अस्थामे, अबले, अपरकमे, अचंकमणओ वा ठाणुखंडे वेगेण विप्पसरिस्सामि त्ति कट पाए पसारेमाणे विज्जुहते विव रयतगिरिपब्भारे धरणितलंसि सव्वंगेहि य सन्निवइए।
* पृष्ठ ४७, पंक्ति १५
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[ ४९ ]
तते णं तब मेहा ! सरीरगसि वेयणा पाउन्भूआ ।
" तते ण तुम मेहा! तं दुरहियासं तिन्नि राइंदियाई वेवणं वेएमाणे विहरित्ता एगं वाससतं परमाउं पालइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे, भारहे वासे, रायगिहे नयरे, सेणितस्स रन्नो धारिणीए देवीए कुच्छिसि कुमारत्ताए पञ्चायाए।"
( श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रम्-अध्ययन )
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धुत्तो सियालो सियालेण भमंतेण हत्थी मओ दिट्ठो । सो चिंतेइ-"लद्वो मए उवाएण ताव णिच्छएण खाइयव्यो।" जाव सिंहो आगओ। तेण चिंतियं-“सचिट्टेण ठाइयव्वं एयस्स । "
सिंहेण भाणयं--" किं अरे! भाइणेज्ज ! अच्छिज्जइ ?" सियालेण भणियं-आमंति माम ! सिंहो भणइ-" किमेयं मयं?" ति । सियालो भणइ-" हत्थी।" " केण मारिमो?" " वग्धेण ।" सिंहो चिंतेइ-"कहमहं ऊणजातिएण मारियं भक्खामि !"
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[ ५१ ]
गओ सिंहो । णवरं वग्यो आगओ । तस्स कहियं-" सीहेण मारिओ, सो पाणियं पाउं णिग्गओ।"
वग्यो गहो । जाव काओ आगओ । सियालेण चितियं“जइ एयस्स ण देमि तओ 'काउ' 'काउ'त्ति वासियसद्देणं अण्णे कागा एहिति, तेसि कागरडणसद्देणं सियालादि अण्णे बहवे एहिति, कित्तिया वारेहामि ? ता एयस्स उवप्पयाणं देमि ।"
तेण तओ तस्स खंडं छित्ता दिण्णं । सो तं घेत्तूण गओ।
जाव सियालो आगओ। तेण णायमेयरस हठेण वारणं करेमित्ति भिउडि काऊण वेगो दिण्णो । णटो सियालो। उक्तं च:
उत्तम प्रणिपातेन, शूरं भेदेन योजयेत् । नीचमल्पप्रदानेन, सदृशं च पराक्रमः ।।
( दशकालिकवृत्तिः)
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३
संसयप्पा विणस्सs
ते णं काले णं ते णं समए णं चंपा नामं नयरी होत्था ! तीसे चपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थि मे टिसीमाए सुभूमिभाए नाम उज्जाणे होत्था, सव्वेोउयसुरभ्मे, नंदणवणे इव सुहसुरामसीयलच्छायाए समणुबद्धे ।
तरस णं सुभूमिभागरस उज्जाणरस उत्तरओ एगदे सम्मि माझ्याकच्छए । तत्थ णं एगा वरमऊरी दो पुट्टे, परियागते, पिहुंडीपंडुरे, निव्वणे, निरुवहए, भिन्नमुट्टप्पमाणे मऊरीअंडर पसवति, पसवित्ता सरणं पवखवाएणं सारखखमाणी, संगोवे - माणी, संविट्ठेमाणी विहरति ।
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[ ५३ ।
___ तत्थ णं चपाए नयरीए दुवे सत्यवाहदारगा परिवसंति, तं जहा- जिणदत्त कुत्ते य सागरदत्तपुत्ते य । सह जायया, सहवड़ियया, सहपंसुकीलियया, सहदारदरिसी, अन्नमन्नमणुरत्तया, अन्नमन्नमणुन्चयया, अन्नमन्नच्छंदाणुवत्तया, अन्नमन्नाहियतिच्छियकारया, अन्नमन्नेसु गिहेसु किच्चाई करणिज्जाई पञ्चणुभवमाणा विहरति ।
तते णं तेसि सत्यवाहदारगाणं अन्नया कयाई एगओ सहियाणं समुवागयाणं, सन्निसन्नाणं, सन्निविदाणं इमेयास्त्रे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था
"जन्नं देवाणुप्पिया ! अम्हं सुहं वा दुक्खं वा पन्नज्जा वा विदेसगमणं वा समुप्पज्जति तन्नं अम्हेहिं एगयओ समेच्चा णित्थरियध्वं " ति कटु अन्नमन्नमेयारूवं संगारं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्या ।
तते गं तेसिं सत्यवाहदारगाणं अन्नया कदाइ पुव्वावरण्हकालसमयंसि जिमियभुत्तुत्तरागयाणं समाणाणं, आयंताणं चोक्खाणं परमसुतिभूयाणं, सुहासणवरगयाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुलावे समुप्पज्जित्था---
" तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! कलं....विपुलं असणपाणखातिमसातिम उवक्खडावेत्ता तं विपुलं असणपाणखातिम
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[ ५४ ]
सातिमं धूवमुष्फगंधवत्थं गहाय सद्धि सभूमिभागस्स उज्जाणर उजाणसिरिं पञ्चणुभवमाणाणं विहरित्तए " त्ति कटु अन्लमन्नर एयमटुं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता कलं पाठव्भूए कौटुंबियपुरि सदाति, सद्दाविन्ता एवं वदासी___ "गच्छह णं देवाणुप्पिया । विपुलं असणपाणखातिमसातिमं उवक्खडेह, उवक्खडित्ता तं विपुलं असणपाणखातिमसातिमं धूवपुष्कं गहाय जेणेव सुभूमिभागे उजाणे, जेणव दापुक्खरिणी तेणामेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता नंदापुक्खरिणीतो अदूरसामंते थूणामंडवं आहणह, आहणित्ता आसित्तसंमजितोवलित्तं सुगंधवरगंधकलियं करेह, करित्ता अम्हे पडिवालेमाणा चिट्ठह ।"
तए णं सत्यवाहदारगा दोश्चपि कोटुंबियपुरिसे सहाति, सहावित्ता एवं वदासी----
" विप्पामेव लहुकरणजुत्तजोतियं, समखुरवालहीणं समलिहियतिक्खनसिंगएहिं नीलुप्पलकयामेलएहिं पवरगोणजुवाणएहिं पवरलक्खणाववेयं जुत्तमेव पवहणं उवणेह |" ते कि तहेव उवणेति ।
तते णं ते सत्थवाहदारगा व्हाया, सव्वालंकारभूसियसरीरा पवहणं दुरूहति, दुरूहित्ता चपाए नयरीए मझमज्झेणं जेणेक
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[ ५५ ]
सुभूमिभागे उज्जाणे, जेणेव नंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पचहणातो पच्चोरुहंति, पच्चोरुहित्ता नंदापोक्खरिणीं ओगाहिंति, ओगाहित्ता जलमज्जणं करेंति, जलकीडं करेंति, व्हाया पच्चुत्तरंति, जेणेव थूणामंडवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता थूणामंडवं अणुपविसंति, अणुपविसित्ता सव्वालं - कारविभूसिया, आसत्था, वीसत्था, सुहासणवरगया सद्धिं तं विपुलं असणपाणखातिमसातिमं धूवपुप्फगंधवत्थं आसाएमाणा, वीसाएमाणा, परिभुंजेमाणा एवं च णं विहरति ।
तते णं ते सत्यवाहदारगा पुव्वावरण्हकालसमयंसि थूणामंडवाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता हत्थसंगेलीए सुभूमिभागे वसु आलिवरएसु य कयलीघरेसु य लयाघरएसु य अच्छणघरएसु य पेच्छणघर एसु य पसाहणघर एसु य सालघर एसु य जालघरसु य कुसुमघर एसु य उज्जाणसिरिं पचणुभवमाणा विहरति ।
तते णं तें सत्थवाहदारया जेणेव से मालुयाकच्छए तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तते णं सा वणमऊरी ते सत्थवाहदारए एज्जमाणे पासति, पासित्ता भीया, तत्था, महयामहया सद्देणं केकारवं विणिम्मुयमाणी विणिम्मुयमाणी माझ्याकच्छाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खामत्ता एगंसि रुक्खडालयंसि ठिच्चा
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[ ५६ ]
ते सत्यवाहदारए मालुयाकच्छ्यं च अणिमिसाए दिट्टीए पेहमाणी पेहमाणी चिट्ठति ।
तते णं ते सत्यवाहदारगा अण्णमन्नं सहावेति, सद्दावित्ता एवं वदासी___" जहा णं देवाणुप्पिया ! एसा वणमऊरी अम्हे एउजमाणा पासित्ता भीता, तत्था, तसिया, उब्बिग्गा, पलाया, महता महता सद्देणं केकारवं विणिम्मुयमाणी अम्हे मालुयाकच्छयं च पेच्छमाणी पेच्छमाणी चिट्ठति, तं भवियब्वमेत्य कारणेणं " ति कट्ट मालयाकच्छ्यं अंतो अणुपविसंति, अणुपविसित्ता तत्थ णं दो पुढे परियागए अंडे पासित्ता अन्नमन्नं सदावेंति, सदावित्ता एवं वदासी
" सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे इमे वणमऊरीअंडए साणं जाइमंताणं कुक्कुडियाणं अंडएसु अ पक्खिवावेत्तए । तते णं ताओ जातिमंताओ कुक्कुडियाओ ताए अंडए सए य अंडए सएणं पक्खवाएगं सारक्खमाणीओ संगोवेमाणीओ विहरिस्संति । तते णं अम्हं एत्थं दो कीलावणगा मऊरपोयगा भविस्सति " त्ति कटु अन्नमन्नरस एतमटुं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता सए सए दासचेडे सद्दावेंति, सावित्ता एवं वदासी
" गच्छह णं तुब्भे देवाणुपिया | इमे अंडए गहाय
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[ ५७ ]
सगाणं जाइमंताणं कुक्कुडीणं अंडएसु पक्खिवह " ते वि पक्खिति।
तते णं ते सत्यवाहदारगा सद्धिं सुभूभिमागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पञ्चणुभवमाणा विहरित्ता तमेव जाणं दुरूढा समाणा जेणेव चंपानयरीए, जेणेव सयाई सयाई गिहाई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था । ___ तते णं जे से सागरदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए से जेणेत्र वणमऊरीअंडए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तसि मऊरीअंडयसि संकिते, कंखिते वितिगिच्छासमावन्ने, भेयसमावन्ने, कलुससमावन्ने किं नं ममं एत्थ किलावणमऊरीपोयए भविस्सति उदाहु णो भविस्सइ त्ति कट्टु तं मऊरीअंडयं अभिक्खणं अभिक्खणं उव्वत्तेति, परियत्तेति, आसारेति, संसारति, चालेति, फंदेइ, घट्टेति, खोभेति, अभिक्खणं अभिक्खणं कन्नमूलंसि टिट्टियावेति । तते णं से मऊरीअंडए अभिक्खणं अभिक्खणं उव्यत्तिज्जमाणे टिट्टियावेज्जमाणे पोच्चडे जाते यावि होत्था।
तते णं से सागरदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए अन्नया कयाई जेणेव से मऊरीअंडए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तं मऊरीअंडयं पोच्चडमेव पासति, पासित्ता " अहो णं मम एस किलावणए मऊरीपोयए ण जाए " त्ति कडु ओहतमणसंकप्पे शियायति ।
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[ ५८ ]
एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्रंथो वा निग्गंधी वा आयरियउवज्झायाणं" अंतिए पव्वतिए समाणे पंचमहव्यएस जाव छउञ्जीवनिकाए निम्गंथे पावयणे संकिते जाव कलुस - समावने से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं सावगाणं साविगाणं हील णिज्जे, खिसणिज्जे, गरह गिज्जे, परिभवणिज्जे परलोए वि य णं आगच्छति बहूणि दंडणाणि य संसारकंतारं अणुपरियट्टए ।
3Y
तते णं से जिणदत्तपुत्ते जेणेव से मऊरीअंडए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तंसि मऊरीअंडयंसि निस्संकितो सुवत्तए णं मम एत्थ कीलावणए मऊरीपोयए भविस्सती ति कट्टु तं मऊ अंडयं अभिक्खणं अभिक्खणं नो उव्वत्तेइ ....जाव* नो टिट्टियावेति ।
तते णं से मऊरीअंडर अणुव्वत्तिज्जमाणे भटिट्टियाविज्जमाणे ते णं काले णं ते णं समए णं उन्भिन्ने मऊरीपोयए एत्थ जाते । एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा पव्वतिए समाणे पंचसु महव्वएसु छसु जीवनिकारसु निग्गंथे पावयणे निस्संकिते निक्कंखिए निव्वितिमिच्छे से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं समणीणं जात्र वीतिवतिस्सति । ( श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रम् - अध्ययनं ३ )
* पृष्ठ ५७, पंक्ति १२
:०:
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सज्जणवज्जा
महणम्मि ससी महणम्मि सुरतरू महणसंभवा लच्छी। सुयणो उण कहसु महं न याणिमो कत्थ संभूओ ॥ ३२ ॥ सुयणो सुद्धसहावो मइलिज्जन्तो वि दुज्जणयणेण । छारेण दप्पणो विय अहिययरं निम्मलो होइ ॥ ३३ ॥ सुजणो न कुप्पइ चिय अह कुम्पइ मङ्गुलं न चिन्तेइ । अह चिन्तेइ न जम्पइ अह जम्पइ लज्जिरो होइ ॥ ३४ ॥ दढरोसकलसियस्स वि सुयणस्स मुहाउ विप्पियं कत्तो। राहुमुहम्मि वि ससिणो किरणा अमयं चिय मुयन्ति ॥ ३५॥ दिवा हरन्ति दुक्खं जम्पन्ता देन्ति सयलसोक्खाई । एवं विहिणा सुकयं सुयणा जं निम्मिया भुवणे ॥ ३६॥
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[ ६ ]
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न हसन्ति परं न थुणन्ति अप्पयं पियसयाई जम्पन्ति । एसो सुयणसहावो नमो नमो ताण पुरिसाणं ॥ ३७ ॥ अकए विकए वि पिए पियं कुणन्ता जयम्मि दीसन्ति । कविप्पिए विहुपियं कुणन्ति ते दुलहा सुयणा ॥ ३८ ॥
सव्वस्स एह पयई पियम्मि उप्पाइए पियं काउं । सुयणस्स एस पयई अकए वि पिए पियं काउं ॥ ३९ ॥ फरुसं न भणसि भणिओ चि हससि हसिऊण जम्पसि पियाई । सज्जण | तुज्झ सहावो न याणियो कस्स सारिच्छो ॥
( वज्जालगं )
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५
भारियासीलपरिक्खा
अस्थि अवंती नाम जणवओ । तत्थ उज्जेणी नाम नयरी रिद्धित्थिमियसमिद्धा । तत्थ राया जितस नाम । तस्स रण्णो धारिणी नाम देवी |
तत्थ य उज्जेणीए नयरीए दसदिसिपयासो इन्भो सागरचंदो नाम । भज्जा य से चंदसिरी । तस्स पुत्तो चंद सिरीए अत्तओ समुद्ददत्तो नाम सुरूवो ।
सो य सागरचंदो परमभागवउ दिक्खा संपत्ती भगवयगीयासु सुत्तओ अत्थओ य विदितपरमत्थो । सो य तं समुद्ददत्तं दारगं गिहे परिव्वायरस कलागहणत्थे ठवड् "अन्नसालासु सिक्खतो अण्णापासंडियदिट्ठी हवेज्जा " ।
22
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[ ६२ ]
ततो सो समुद्ददत्तो दारगो तस्त परिव्वायगस्स समी कलागहणं करेमाणो अण्णया कयाइ ' फलगं ठवेमि ' त्ति हिं अणुपविट्टो | नवरं च पासइ नियगजणणीं तेण परिव्वायगेण सद्धिं असम्भमायरमाणीं । ततो सो निग्गतो इत्थीसु विरागसमावण्णो, 'न एयाओ कुलं सीलं वा रक्खति ' त्ति चिंतिऊण हियएण निव्बंधं करेइ, जहा - न मे वीवाहेयव्वं ति । ततो से समत्तकलस्स जोणत्थस्स पिया सरिसकुल- रूव - विहवाओ दारियाओ वरेइ । सो य ता पडिसेहेइ । एवं तस्स कालो बच्चा ।
।
अण्णया तस्स सम्मएणं पिया सुरदुमागतो ववहारेणं । गिरिनयरे धणसत्थवाहस्त धूयं धणसिरिं पडिरूवेणं सुकेणं समुद्ददत्तस्स वरेइ । तस्स य अन्नायमेव तिहिगहणं काऊण नियनगरमागओ ।
ततो तेण भणितो समुद्ददत्तो - " पुत्त ! मम गिरिनयरे भंड अच्छइ, तत्थ तुमं सवयंसो वच्च । ततो तस्स भंडस्स विणिओगं काहामो " त्ति वोत्तूण वयंसाण य से दारियासंबंध संविदितं कयं ।
तोते सविभवाणुरूत्रेणं निग्गया, कहाविसेसण व पत्ता गिरिनयरं । बाहिरओ यं ठाणं धणस्स सत्यवाहस्स मणुस्सो पेसिओ, जहा ' ते आगओ वरो 'ति ।
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[ ६३ 1
ततो तेण सविभवाणुरूवा आवासा कया, तत्थ य आवासिया । रत्तीए आगया भोयणववएसेणं धणसत्यवाहगिहे, धणसिरीए पाणिग्गहणं कारिओ।
ततो सो धणसिरीए वासगिहं पविदो । ततो गेणं पइरिक जाणिऊण तीसे धणसिरीते चम्मदि दाऊण निग्गओ, वयंसाण च मझे सुत्तो। ततो पभायाए रयणीए सरीरावस्सकहेडं सवयंसो चेव निग्गतो बहिया गिरिनयरस्स । तेसिं वयंसाणं अदिद्वतो चेव नहो।
ततो से वयंसेहिं आगंतूणं [सागरचंदस्स] धणसत्यवाहस्स य परिकहियं गतो सो। तेहिं समंततो मग्गिओ, न दिवो । ततो ते दीणवयणा कइवयाणि दिवसाणि अच्छिठण धणसत्यवाहमापुच्छि ऊण गता नियगनयरं ।
इयरो वि समुद्ददत्तो देसंतराणि हिंडिऊण केणइ कालेण आगतो गिरिनयरं कप्पडियवेसछण्णो परूढनह-केस-मंसुरोमो । दिवो गेण धणसत्यवाहो आरामगतो । ततो तेणं पणमिऊणं भणिओ-" अहं तुम्भं आरामकम्मकरो होमि ।"
तेण य भणिओ-" भणसु, का ते भती दिज्जउ"त्ति ?!
ततो तेग भणिय-" न मे भहए फज्ज । अहं तुझं पसादाभिकखी । मम तुट्टीदाणं देज्जह " ति ।
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[
६४ ]
एवं पडिस्तुए आरामें कम्ममारदो काउं । ततो सो रुक्साउ गेयकुसलो तं आरामं कइवएहिं दिवसेहिं सव्वोउयपुष्फ-फलसमिद्धं, करेइ ।
ततो सो धणसत्यवाहो तं आरामसिरिं पासिऊणं परं हरिसमुवगतो । चिंतियं च णेणं-" किमेएणं गुणाइसयभूएण पुरिसेण आरामे अच्छतेण ? वरं मे आवारीए अच्छउ ” ति ।
ततो हविय-साहिओ दिण्णवत्थजुयलो ठवितो आवणे । ___ ततो तेण आय-चयकुसलेण" गंध त्तिनिउणत्तणेणं पुरजणो उम्मत्तिं गाहितो । ततो पुच्छितो जणेणं-" किं ते नामधेयं ?"
पभणइ य- "विणीयओ' ति में नामधेयं ।"
एवं सो विणीयओ विणयसंपन्नो सम्बनयरस्स वीससणिज्जो जातो।
.. रातो तेण सत्यवाहेण चिंतियं-" न खमं मे एस आवणे य अच्छंतो। मा एस रायसंविदितो वेज्ज, ततो रायणा हीरइ त्ति । वरमेस गिहे भंडारसालाए अच्छंतो।"
ततो तेण सगिहं नेऊण परियणं च सद्दावेऊण भणियं"एस वो विणीयो जे देइ तं मे पडिच्छियवं, न य से आणा कोवयब्ध" ति।
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[ ६५ ]
ततो सो विणीयओ घरे अच्छइ, विसेसओ य धणसिरीए जं चेडीकम्मं तं सयमेव करेइ । ततो धणसिरीए विणीयको सव्ववीसंभट्ठाणितो जातो। __ तत्थ य नयरे रायसेवी एक्को य डिंडी परिवसइ । इओ य सा धणसिरी पुन्वावरण्हसमए सत्ततले पासाए अट्टालगवरगया सह विणीयगेणं तंबोलं सभाणयंती अच्छइ ।
सो य डिंडी हाय-समालद्धो तस्स भवणस्स आसण्णेण गच्छति । धणसिरीए तंबोलं निच्छूढं पडियं डिडिस्सुवरि । डिडिणा निज्झाइया य, दिवा य णेणं देवयभूया । ततो सो अगंगवाणसोसियसरीरो तीए समागमुस्सुओ संवुत्तो । चिंतियं च णेणं-" एस विणीयओ एएसि सव्वप्पवेसी, एवं उत्तप्पामि । एयस्स पसातेणं एतीए सह समागमो भविस्सइ " ति।
ततो अण्णया तेण विणीयगो नियगभवणं नीओ । पूयासक्कारं च काउं पायपडिएण विण्णविओ-" तहा चेद्वसु, जेण मे धणसिरीए सह संजोग करेसि" ति ।
ततो सो " एवं होउ" त्ति वोत्तूण धणसिरीते सगासं गतो । पत्थावं च जाणिऊण भणिया गेणं धणसिरी डिंडियवयणं । ततो तीए रोसबसगाए भणिओ
" केवलं तुमे चेव एवं सलत्तं, अण्णो ममं न जीवंतो" ति।
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[ ६६ ]
सो सो बिइयदिवसे निगतो, दिवो य डिडिणा: मणिलो णेणं-- " किं भो वयंस ! कर कर्ज ?" ति।
ततो तेण तब्बयणं गृहमाणेणं भणियं - "घत्तीहं " ति। तो पुणरवि तेण दाणमाणेणं संगहियं करेत्ता विसज्जिओ ।
ततो सो आगंतूण धणसिरीए पुरतो विमणो तुहिको ठितो अच्छति । ततो तीए धणसिरीए तस्स मणोगयं जाणिऊण भणिओ
" किं ते पुणो डिंडी किंचि भणइ"?
तेण भणियं-" आमं" ति । तीए निवारितो-'न ते पुणो तस्स दरिसणं दायव्वं"।
पुणो य पुच्छिज्जमाणो तहेव तुहिको अच्छइ । ततो तीए तस्स चित्तरक्खं करेंतीए भणिओ-" वच्च, देहि से संदेसं, जहा-'असोगवणियाए तुमे अज्ज पसे आगंतव्वं" ति।
तेण तहा कयं । ततो सा असोगवणियाए सेज्जं पत्थरेऊण जोगमज्जं च गिहिऊण विणीयगसहिया अच्छइ । सो आगतो । ततो तीर सोवयारं मज्जं से दिण्णं । सो य तं पाऊण अचेतणसरीरो जाओ । ताते तस्सेव य संतियं असि कड़िा सीसं छिण्णं । पच्छा विणीयगो भणिओ-" तुझे अणत्थं कारिया, तुज्झ वि सीसं छिदामिति ।
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[ ६७ ]
तेण पायबडिएण मरिसाविया । विणीयगेणं धणसिरिसंदिद्वेणं कूयं खणित्ता निहिओ।
ततो अन्नया सुहासणवरगया धणसिरी विणीयगेण पुच्छिा -" सुंदरि ! तुम कस्स दिन्ना ?"
तीए भणियं-" उज्जेणिगस्स समुद्ददत्तस्स दिण्णा"।
तेण भणियं-" वञ्चामि, अहं तं गवेसित्ता आणेमि"ति मणिउं निग्गओ । संपत्तो य नियगभवणं पविट्ठो, दिवो य अम्मापिऊहिं, तेहि य कयंसुपाएहिं उवगूहिओ। ततो तेहिं धणसत्थवाहस्स लेहो पेसिओ ' आगतो भे जामाउओ ' त्ति ।
ततो सो वयंसपरिगहिओ मातापितीहि य सद्धिं ससुरकुलं गतो। तत्थ य पुणरवि वीवाहो कओ। ____ ततो तीए तस्स रूवोवलद्धी कया। दिवो य णाए विणीयओ । ततो तेण सव्वं संवादितं ।
(वसुदेवहिण्डी-प्रथमखण्डम् )
-
-:.:
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उवासगे कुंडकोलिए तेणं कालेणं तेणं समएणं कम्पिल्लपुरे नामं नयरे होत्था । तस्स कम्पिल्लपुरस्स नयरस्स बहिया सहस्सम्बवणे नामं उज्जाणे। तत्थ णं कम्पिल्लपुरे नयरे जियसत्तू राया होत्था ।
तत्थ णं कम्पिल्लपुरे कुण्डकोलिए नाम गाहावई परिवसइ, अड़े....दित्ते अपरिभूए । तस्स णं कुण्डकोलियरस पूसा नाम भारिया होत्था, कुण्डकोलिएणं गाहावइणा सद्धिं अणुरत्ता, अविरत्ता, इट्ठा पञ्चविहे" माणुस्सए कामभोए पञ्चणुभवमाणी विहरइ।
तस्स णं कुण्डकोलियस्स गाहावइस्स छ हिरण्यकोडीओ निहाणपउत्ताओ, छ हिरण्णकोर्डीओ वडिपउत्ताओ, छ हिरण्ण
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[ ६९ ]
कोडीओ पवित्थरपउत्ताओ, छ क्या दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्या।
से णं कुण्डकोलिए गाहावई बहूणं सत्थवाहाणं बहूसु कज्जेसु य कारणेसु य ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे....पडिपुच्छणिज्जे सयस्सवि य णं कुटुंबस्स मेढी, पमाणं, आहारे सव्वकज्जवडावए यावि होत्या ।
तेणं कालेण तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए । परिसा निग्गया। जियसत्तू निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता पज्जुवासइ ।
तए णं कुण्डकोलिए गाहावई इमीसे कहाए लद्धटे समाणे सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता कम्पिल्लपुरं नयरं मज्झमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणामेव सहस्सम्बवणे उजाणे, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता वन्दइ नमंसइ....पज्जुवासइ ।
तए णं समणे भगवं महावीरे कुण्डकोलियस्स गाहावइस्त तीसे य महइमहालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ____तए णं से कुण्डकोलिए गाहावई समणस्स भगवको महावीरस्स अन्तिए धम्मं सोचा निसम्म हडतुडे एवं वयासी
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[
७०
]
" सदहामि गं भन्ते ! निग्गन्थं पावयणं, पत्तियामि गं भन्ते ! निग्गन्थं पावयणं, रोएमि णं भन्ते ! निग्गन्धं पावयणं, एवमेयं भन्ते ! तहमेयं भन्ते ! अधितहमेयं भन्ते ! इच्छियमेयं भन्ते ! से जहेयं तुम्भे वयह, त्ति कटु जहा गं देवाणुप्पियाणं अन्तिए बहवे राईसर-तलवर-माडम्बिय-कोडुम्बिय-से द्वि-सत्यवाहप्प . भिइया मुण्डा भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइया,नो खलु अहं तहा संचाएमि मुण्डे भवित्ता पव्वइत्तए । अह णं देवाणुप्पियाणं अन्तिए पञ्चागुम्वइयं", सत्तसिक्खावइयं, दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजिस्सामि ।"
" अहासुहं, देवाणुप्पिया ! मा पडिवन्धं करेह " |
तए णं से कुण्डकोलिए गाहावई समणस्स भगवी महावीरस्स अन्तिए पञ्चाणुब्वइयं, सत्तसिक्खावइयं, दुवालसविहं सावयधम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता समयं भगवं महावीर तिक्खुत्तो वन्दइ,वन्दित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियाओ सहस्सम्बवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव कम्पिल्लपुरे नयरे, जेणेव सए गिहे, तेणेव उवागच्छइ ।
तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ बहिया जणवयविहारं विहरइ।
तए णं से कुण्डकोलिए समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे, उवलद्धपुण्णपावे, आसवसंवरनिज्जरकिरियाअहिगरणबंध
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[ ५१
मुक्खकुसले, असहेज्जे, देवासुरनागलुबष्णजक्खरक्खसकिनरकिपुरिसगरुलांधवमहोरगाइएहिं देवगणेहि निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जे, निग्गन्थे पावयणे निस्संकिये, निकंखिये, निधितिगिच्छे, अट्टीमींजपेमाणुरागरत्ते, "अयं आउसो ! निग्गंठेपावयणे
अटे, अयं परमद्धे, सेसे अणद्वे," जसियफलिहे, अवंगुयदुवारें, चियत्ततेउरपरघरदारप्पवेसे, चउद्दसमुद्दिष्टुपुण्णमासिणी पडिपुण्णं पोसह सम्म अणुपालेत्ता समणे निग्गथे फासुएसणिज्जेणे असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गहकंवलपायपुंछणेणं ओसहभेसज्जेणं पडिहारिएणं य पीढफलगसेज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणे विहरइ। ___तए णं से कुण्डकोलिए समणोपासए अन्नया कयाइ पुव्वावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवणिया, जेणेव पुढविसिलापट्टए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता नाममुद्दगं च उत्तरिज्जगं च पुढविसिंलापट्टए ठवेइ, ठवित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियं धम्मपण्णत्ति उवसम्पज्जित्ताणं विहरइ ।
तए णं तस्स कुण्डकोलियस्स समणोवासयस्स एगे देवे अन्तियं पाउमविस्था ।
तए णं से देवे नाममुदं च उत्तरिज्जं च पुढविसिलापट्टयाओ गेण्हंइ, गेण्हित्ता सखिडिणि अन्तलिक्खपडिवन्ने कुण्डकोलियं समणोवासयं एवं वयासी
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[ ७२ ]
५१
"हं भो कुण्डकोलिया समणोवासया ! सुन्दरी णं, देवाणुपिया, गोसालस्स मँङ्खालिपुत्तस्स धम्मपण्णत्ती, नत्थि उदाणे" इ वा कम्मे इ वा वले इ वा वीरिए इ वा पुरिसक्कारपरकमे इवा, नियया सव्वभावा; मङ्गुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्ती, – अत्थि उट्ठाणे इ वा ....जाव परक्कमे इवा, अणियया सव्वभावा 35 1
तए णं से कुण्डको लिए समणोवासए तं देवं एवं वयासी" जइ णं देवा ! सुन्दरी गोसालस्स मखलिपुत्तस्स धम्मपण्णत्ती, मङ्गुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्ती, तुमे णं, देवा ! इमा एयारूवा दिव्या देवडी, दिव्या देवज्जुई, दिव्वे देवाणुभावे किणा लद्धे किणा पत्ते किणा अभिसमन्नागए, किं उटुाणेणं.... जाव पुरिसकार परक्कमेणं, उदाहु अणुट्टाणेणं अकरमेणं.... जाव अपुरिसक्कारपरक्कमेणं ? "
तए णं से देवे कुण्डको लियं समणोवासयं एवं वयासी
८८
एवं खलु देवाणुपिया ! मए इमेयारूवा दिव्वा
देविडी अणुट्टाणेणं.... जाव अपुरिसकारपरकमेणं लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया । 11
දී
तए णं से कुण्डको लिए समणोवासए तं देवं एवं वयासी
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[ ५३ ] " जइ णं देवा ! तुमे इमा एयारूवा दिव्वा देविड़ी.... अणुट्ठाणेणं....जाव अपुरिसक्कारपरकमेणं लद्धा पत्ता अभिसमनागया, जेसि णं जीवाणं नत्थि उट्ठाणे इ वा....ते किं न देवा ! अह णं, देवा ! तुमे इमा एयाख्या दिव्या देविड़ी.... उटाणेणं....जाव परक्कमेणं लद्धा पत्ता अमिसमन्नागया, तो जं वदसि 'सुन्दरी णं गोसालस्स मङ्खलिपुत्तस्स धम्मपण्णत्ती, मङ्गली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्ती तं ते मिच्छा ।"
तए णं से देवे कुण्डकोलिएणं समणोवासएणं एवं वुत्ते समाणे सङ्किए, कङ्खिए, विइगिच्छासमावने कलुससमावन्ने नो संचाएइ कुण्डकोलियस्स समणोवासयस किंचि पामोक्खमाइक्खित्तए, नाममुद्दयं च उत्चिरिज्जयं च पुढविसिलापट्टए ठवेइ, उदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए।
(उवासगदसाओ-अध्ययनम् ६)
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कयग्घा वायसा इओ य किर अतीते काले दुवालसवरिसिओ दुभिक्खो आसी । तत्थ वायसा मेलयं काऊण अण्णोण्णं भणंति-" किं कायव्वमम्हेहिं ? वड्डो छुहमारो उवढिओ, नत्थि जणवएसु वायसपिडियाओ, अण्णं वा तारिसं किंचि न लभइ उज्झणधम्मियं, कहियं वच्चामो"? ति ।
तत्थ वुड़वायसेहिं भणियं-" समुद्दतडं वच्चामो । तत्य कायजला अम्हं भायणेज्जा भवंति । ते अम्हं समुद्दाओ मच्छए उत्तारिऊणं दाहिति । अण्णहा नत्थि जीवोवाओ।"
संपहारत्ता गया समुद्दतडं । ततो तुट्ठा कायंजला मच्छए उत्तारित्ता देंति । वायसा तत्थ सुहेण कालं गति ।
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[ ७५ ]
ततो वत्ते वारससंवच्छरिए दुभिक्खे जणवएसु सुमिखं जायं । ततो तेहिं वायसेहिं संपहारत्ता वायससंघाडओ "जणायं पलोएह" त्ति पेसिओ, जइ सुभिक्खं भविस्सइ तो गमिस्सामो।"
सो य संघाडओ अचिरकालस्स उबलद्धी करेत्ता आगतो। साहति य वायसाणं जहा-'जणवएसुं वायसपिडिआओ मुक्का माणीओ अच्छंति, उद्धेह, वच्चामो' त्ति।
ततो ते संपहारेंति - किह गंतव्वं ? त्ति ' जइ आपुच्छामो नथि गमणं' एवं परिगणेत्ता कायंजले सद्दावेत्ता एवं वयासी
" भागिणेज्जा ! वच्चामो ।". ततो तेहिं भणियं-" किं गम्मइ "। ततो भणति
" न सकेमो पइदिवसं तुम्हें अहोभागं पासित्ता अणुट्रिए चेव सूरे"। एवं भणित्ता गया।
( वसुदेवहिण्टी-प्रथमखण्ढम् )
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मित्तवज्जा
एकं चिप सलहिज्ज दिणेस - दियहाण नवरि निव्वहणं । आ जम्म एकमेकेहि जेहि विरहो च्चिय न दिट्ठो ॥ ६५ ॥ पडिवन्नं दिणयर - वासराण दोण्हं अखण्डियं सुहइ | सूरो न दिणेण विणा दिणो वि नहु सूरविरहम्मि ॥ ६६ ॥ मित्तं पय-तोयसमं सारिच्छं जं न होइ किं तेण । अहियाएइ मिलन्तं आवइ आवट्टए पढमं ॥ ६७ ॥ तं मित्तं कायन्त्रं जं किर बसणम्मि देसकालम्मि | आलिहियभित्तिवाउल्लयं व न परम्मुहं ठाइ ॥ ६८ ॥
तं मित्तं कायव्वं जं मित्तं कालकम्बलीसरिसं । उयरण धोयमाणं सहावरङ्गं न मेल्लेइ ॥ ६९ ॥
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[ ७७ ]
सगुणाण निग्गुणाण य गरुया पालन्ति जं जि पडिवन्न । पेच्छइ वसहेण समं हरेण बोलाविओ अप्पा ॥ ७० ॥ छिज्जउ सीसं अह होउ बन्धणं चयउ सव्वहा लच्छी। पडिवन्नपालणे सुपुरिसाण जं होइ तं होउ ।। ७१॥
दिढलोहसकालाणं अन्नाण वि विविहपासवन्धाणं । ताणं चिय अहिययरं वायावन्धं कुलीणस्स ।। ७२ ॥
(वज्जालगं)
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सुरप्पिओ जक्खो तेणं कालेणं तेणं समतेणं साकेयं णगरं । तस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे सुरप्पिए नाम जक्खाययणे। सो य सुरप्पिओ जक्खो सन्निहियपाडिहरो । सो वरिसे वरिसे चित्तिज्जइ । महो य से परमो कीरइ । सो य चित्तिओ समाणो तं चैव चित्तकर मारेइ । अह न चित्तिज्जइ तओ जणमारिं करेइ ।
ततो चित्तगरा सव्वे पलाइउमारद्धा । पच्छा रण्णा णायं,जदि सच्चे पलायति, तो एस जक्खो अचित्तिज्जतो अम्ह वहाए भविस्सइ ।
तेणं चित्तगरा एक्कसंकलितबद्धा पाहुडएहिं कया, तेसि सब्वे सिं णामाई पत्तए लिहिऊणं घडए छूढाणि । ततो वरिसे
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[ ७९ ]
चरिसे जस्स णाम उदाति, तेण विनयचो ! एवं कालो चच्चति ।
__ अण्णया कयाई कोसंबीओ चित्तगरदारओ घराओ पलाइओ तत्यागओं सिक्खगो । सो भमंतो साकेतस्स चित्तगरस्स घरं अल्लीणो। सोवि एगपुत्तगो थेरीपुत्तो । सो · से तस्स मित्तो जातो।
एवं तस्स तत्य अच्छंतस्स अह तंमि वरिसे तस्स थेरीपुत्तस्स वारओ जातो । पच्छा सा थेरी बहुप्पगारं रुवति ।
तं रुवमाणी थेरी कोसंवको भणति-“कि अम्मो रुदसि ?"
ताए सिद्रं । सो भणति - " मा रुयह । भहं एवं जखं चित्तिस्सामि।"
ताहे सा भणति-" तुम मे पुत्तो किं न भवसि?" " तोबि अहं चित्तेमि, अच्छह तुब्भे असोगाओ।"
ततो छदुभत्तं काऊण, अहतं वत्यजुअलं परिहित्ता, अट्ठगुणाए मुहपोत्तीए मुहं बंधिऊण, चोक्खेण य पत्तेण सुइभूएण णवएहि कलसएहिं पहाणेत्ता, णवएहि कुचएहिं, गवरहिं मल्लसंपुडेहिं, अल्लेसेहिं वण्णेहिं च चित्तेऊण पायवडिओ भणइ" खमह जं मए अवरद्ध " ति ।
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[ ८० ]
ततो तुदो जक्खो भणति -- " वरेहि वरं"
सो भणति - “ एयं चेव ममं वरं देहि, लोगं मा मारेह।"
- भणति - " एवं ताव ठितमेव, जं तुम न मारिओ, एवं अण्णेवि न मारेमि । अण्णं भण।"
__" जस्स एगदेसमवि पासेमि दुपयस्स वा चउप्पयस्स वा वा अपयस्स वा तस्स तदणुरूवं रूवं णिव्वत्तेमि । "
"एवं होउ" ति दिण्णो वरो, ततो सो लद्धवरो रण्णा सकारितो समाणो गओ कोसंबी गरि ।
( आवश्यकहारिभद्रीयवृत्तिः-विभाग: १)
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जामाउयपरिक्खणं वसंतपुरं नयरं । निद्धसो नाम तत्य आसि धिज्जाइओ। तस्स सुहा महेला लीलानिलओ । तेसिं च तिनि धूया जाया । कमेण य उन्नयं तारुनं पत्ता । नियसरिसविहवेसु कुलेसुं वीवाहिया ।
__जणणीए चिंतियं - "मझ दुहियरो कहं सुत्थिया होज्जा ? पइपरिणामे अन्नाए क्वहरतीओ ता गउरवपयं न भवति । गउरवरहियाणं य कओ सुहासंगो ? तओ कहमवि जामाउयाणं भावमहं जाणामि " ति चिंतिऊण नियधूयाओ भणियाओ -- " लद्धावसराहिँ पढमपसंगे पण्हिपहरेण निययपइणो सिरी हणणिज्जो।"
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[ ८२ ]
ताहि तहचिय कए पभावम्नि जणणीए ताओ पुच्छियाओ" किं तेण तुम्हें विहियं?"
जेट्टाए भणियं – “ सो मच्चरणमद्दणपरो भणइ – 'देवागुप्पिये ! किं नु दुक्खमणुपत्ता ? एवंविही पहारो तुन्ह चरणाणं न उचिओ। तुह ममम्मि अइगरुओ आसंघो, अन्नहा को गु एवं कुणइ ?"
जणणीए सा जेटा भणिया--" पुत्ति ! तुझं पई अइपेमपरव्वसो । तओ तं जं कुणसि तं सव् पमाणं होहिइ । तओ तस्स मा भाहि ।"
बीया धूया जणणि भणइ - " पहारसमणंतरं सो मणागं झिंखणकारी जाओ, खणंतराओ उवरओ" त्ति ।
जणणी तं भणइ -- " तुमए अरुच्चमाणन्मि विहिए सो झिंखणकारी होही, अन्नं निग्गहं नो काही । "
तइयाए धूयाए पुणो भणियं - " अन्मा ! मए तुह निदेसे कए संते सो दूरा दरिसियरोसो गेहथंभेण बंधिय मम कसघायसए दासी, भासियवं च तं दुकला ति । तो मे तए. एवंविहेकज्जसज्जाए न कज्जं ।"
तओ अस्स जामाउयस्स समीवं गंतु माऊए भणियं -
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[ ८३ ]
" कहं मे या ताडिया ? सा हि पढनपसंग तुज्झ पहिपह दाऊण अम्हं कुलधम्मं आइण्णा ।
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सो जंपड़ - " अम्हवि एस कुलधम्मो जइपुण सो कुलधम्मो कहवि न कज्जइ तो सा समुरकुलं न नंदेइ | "
तओ जणणीए पुत्तीए समीत्रमागन्तुं भणियं - " जहेव देवस्स वट्टिज्जासि तहेव पइणो वट्टिज्जासि । न अन्नहा इमो नुह पियकरो " त्ति |
( उपदेशपद )
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सद्दालपुत्ते कुंभकारे पोलासपुरे नाम नयरे । सहसम्बवणे उज्जाणे । जियसत्तू राया।
तत्थ णं पोलासपुरे नयरे सद्दालपुत्ते नामं कुंभकारे आजीविओवासए परिवसइ । आजीवियसमयंसि लढे गहियदे पुच्छिय? विणिच्छियद्वे अभिगयढे अद्विमिंजपेमाणुरागरत्ते ५ "अयमाउसो आजीवियसमए भट्ठे अयं परमद्वे सेसे अणद्वे" त्ति आजीवियसमएणं अप्पाणं भावमाणे विहरइ । ___ तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एक्का हिरण्ण. कोडी निहागपउत्ता, एका वडिपउत्ता, एक्का पवित्थरपउत्ता, एक्के चए दसगोसाहस्सिएणं वएणं।
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[ ८५ ]
तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स अग्गिमित्ता नाम भारिया होत्या |
तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीविभवासगस्स पोलासपुरस्स नगरस्स वहिया पञ्च कुम्भकारावणसया होत्या । तत्थ णं वहवे पुरिसा दिण्णभइभत्तवेयणा कलाकलिं बहवे करए य चारए य हिउए य घडए य अद्धघडए य कल्सए य अलिञ्जरए य जम्बूलए य उद्दियाओ य करेन्ति, अन्ने य से वहवे पुरिसा दिण्णभइभत्तवेषणा कलाकलिं तेहिं वहूहि कर एहि य.... जाव उट्टियाहि य रायमग्गांस वित्ति कप्पेमाणा विहरन्ति ।
तए णं से सदालपुत्ते आजीविओवासए अन्नया कयाइ पुव्वावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छ, उबागच्छित्ता गोसालस्स मङ्खलिपुत्तस्स अन्तियं धम्मपण्णति उवसम्पज्जित्ताणं विहरइ |
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए । परिसा निग्गया । जियसत्तू निग्गच्छइ, निग्ाच्छित्ता पज्जुवासइ ।
तए णं से सदालपुत्ते आजीविओवासए इमीसे कहाए लद्घट्टे समाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छई,
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उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ. करित्ता वन्दइ नमसइ, वन्दित्ता नमंसित्ता पजुवासइ ।
तए णं समणे मगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तीसे य महइमहालियाए परिसाऐ धम्म परिकहेइ ।
तए णं से सदालपुत्ते आजीविओवासए अन्नया कयाइ वायाहययं कोलालमण्डं अन्तो सालाहिंतो बाहिया नीणेइ, नीणित्ता आयवंसि दलयइ।
तए णं समणे भगवं महावीरे सदालपुतं आजीविओवासयं एवं वयासी
" सहालपुत्ता, एस णं कोलालमण्डे को?"
तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं एवं वयासी__ " एस णं, मन्ते ! पुन्विं मट्टिया आसी, तओ पच्छा उदएणं निमिज्जइ, निमिज्जित्ता छारण य करिसेण य एगयओ मीसिज्जइ, मीलिज्जित्ता चक्के आरोहिज्जइ; तओ बहवे करगा य घडया य उट्टियाओ य कज्जन्ति ।"
तए णं समणे मगध महावीरे सबालपुत्तं आाविओचासयं एवं वयासी
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[ ८७ ]
सद्दालपुत्ता ! एस णं कोलालभण्डे किं उट्टाणेणं पुरिसकारपरक्कमेणं कज्जन्ति. उदाहु अणुट्टाणेण अपुरिसक्कारपरक्कमेणं
कज्जन्ति ? "
तए णं से लद्दालपुत्ते आज़र्विवासए समणं भगवं महावीरं एवं बयासी -
" भन्ते ! अणुट्टाणेणं अपुरिसक्कारपरक्कमेणं, नत्थि उट्ठाणे इ वा.... नत्थि परक्कमे इ वा, नियया सव्वभावा ।
33
"
तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओबासयं एवं वयासी
แ सद्दालपुत्ता, जइ णं तुब्भं केइ पुरिसे वायाहयं वा पक्केल्लुयं वा कोलालभण्डं अवहरेज्जा वा विक्खिरेज्जा वा भिन्देज्जा या अच्छिन्देज्जा वा परिटुवेज्जा वा अग्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धि विटलाई भोगमोगाई भुञ्जमाणे विहरेज्जा, तस्स णं तुमं पुरिसस्स किं दण्डं वत्तेज्जासि ? "
" भन्ते ! अहं णं तं पुरिसं आओसेज्जा वा हणेज्जा वा बन्धेज्जा वा महेज्जा वा तज्जेज्जा वा तालेज्जा वा निच्छोडेज्जा वा निव्भच्छेज्जा वा अकाले चैव जीवियाओ ववरोवेज्जा । " सद्दालपुत्ता ! नो खलु तुब्भ केइ पुरिसें वायाहर्यं वा पक्लयं वा कोलालभण्डं अवहरइ वा....जाव परिट्ठवे वा.
66
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[ ८८ ]
अग्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धि विउलाई भोगभोगाई भुञ्जमाणे विहरइ, नो वा तुमं तं पुरिसं आओसेज्जासि वा हणेज्जसि वा....जाव अकाले चेव जीवियाओ ववरावेज्जसि, जइ नत्थि उहाणे इ वा नत्थि परकमे इ वा, नियया सव्वभावा ।।
" अह गं, तुब्भ केइ पुरिसे वायाहयं....जाव परिवेइ वा अग्गिमित्ताए वा....जाव विहरइ, तुम वा तं पुरिसं आओसेसि वा....जाव ववरोवेसि, तो जं वदसि नथि उटाणे इ वा.... • जाव नियया सव्वभावा, तं ते मिच्छा ।"
एत्य णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए सम्बुद्धे ।
तए णं से सहालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ, वन्दित्ता नमंसित्ता एवं वयासी -
" इच्छामि णं, भन्ते ! तुम्भ अन्तिए धर्म निसामेत्तए।"
तए णं समणं भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स धम्म परिकहेइ।
(उवासगदसाओ - अध्ययनं ७ )
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गामिल्लओ सागडिओ अस्थि कोइ कम्हिइ गामेलुओ गहवती परिवसइ । सो य अण्णया कयाई सगडं धण्णभरियं काऊणं, सगडे य तित्तिारें पंजरगयं बंधेत्ता पशिओ नयरं । नयरगतो य गंधियपुत्तेहि दीसइ । सो य तेहिं पुच्छिओ -- " किं एयं ते पंजरए " त्ति ।
तेण लवियं -“तित्तिरित्ति । तो तेहिं लवियं - " किं इमा सगडतित्तिरी विकायइ ?" तेण लवियं - "आमं, विकायइ"। तेहिं भणिओ -- " किं लब्भइ ?" सागडिएण भणियं - " काहावणेणं " ति ।
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[ ९. ]
ततो तेहिं काहावणो दिण्णा, सगडं तित्तिरं च घेत्तुं पयत्ता।
ततो तेणं सागडिएणं भण्णाति - " कीस एयं सगडं नेहि ?" त्ति।
तेहिं भणियं - " मोलेण लइययं " ति ।
ततो ताणं ववहारो जाओ, जितो सो सागडिओ, हिओं य सो सगडो तित्तिरीए समं । ___ सो सागडिओ हियसगडोवगरणो जोग -- खेम - निमित्तं आणिएल्लियं वइलं घेत्तूणं विकोसमाणो गंतुं पयत्तो, अण्णेण य कुलपुत्तएणं दीसइ, पुच्छिओ य - " कीस विक्कोससि ?"
तेण लवियं-" सामि ! एवं च एवं च अइसंधिओहं।"
ततो तेण साणुकंपेण भणिओ - "वच्च ताणं चेव गेहं, एवं च एवं च भणाहि " ति।
ततो सो तं वयणं सोऊण गओ, गंतूण य तेण भणिआ“ सामि! तुभेहिं मम भंडभरिओ सगडो हिओ ता इमं पि बइलं गेण्हह । मम पुण सत्तुयादुपालियं देह, जं घेत्तूण वच्चामि त्ति । न य अहं जस्स व तस्स व हत्थेणं गेण्हामि, जा तुज्झ घरिणी पाणेहि वि पिययरी सबालंकारभूसिया तीए दायव्वा, ततो मे परा तुट्ठी भविस्सइ । जीवलोगभंतरं व अप्पाणं मनिस्सामि ।"
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[ ९१]
ततो तेहिं सक्खी आहूया, भणियं च - " एवं होउ "त्ति । ततो ताणं पुत्तमाया सत्तुयादुपालियं वेत्तूण निग्गया, तेण सा हत्थे गहिया, घेत्तूण य तं पट्टिओ ।
।
तेहिं वि भणिओ
किमेयं करेसि ? "
--
तेण भणियं
सत्तुदो पालियं नेमि । "
ततो ताणं सद्देण महाजणी संग हिओ, पुच्छिया - " किमयं ?” ति । ततो तेहिं जहावत्तं सव्वं परिकहियं । समागयजणेण य मज्झत्येणं होऊण ववहारनिच्छओ सुओ, पराजिया य ते गंधियपुत्ता । सो य किलेसेण तं महिलियं मोयाविओ, सगडो अत्थेण सुबहुएण सह परिदिण्णो ।
16
"
( वसुदेवहिण्डी - प्रथमखण्डम् )
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१३ नडपुत्तो रोहो
उज्जेणी नामेणं वित्यिण्णसुरभवणा समुद्धरधणोहा मालवमंडलमंडणभूआ नयरी समत्थि । तत्थ जियसत्तू नामा रिउपक्खविक्खोहकारओ नयगुणसणाहो सह गुणी सुदढपणओ नरनाहो आसी ।
अह उज्जेणिसमीवे सिलागामो गामो । तत्थ य भरहो नडो । सो य तग्गामे पहू, नाडयविज्जाए लद्धपसंती य । तस्स णामेण रोहओ, गामस्स य सोहओ सुओ ।
I
अन्नया कयाइवि मया रोहयमाया । तओ भरहो घरकज्ज
करणकए अण्णं तज्जणणि संठवेइ ।
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रोहमओ य बालो । सा य तस्स हीलापरायणा हवइ । तो तेण सा भाणया-" अम्मो । जं ममं सम्मं न घट्टसि, न तं सुंदरं होही । एत्तो अहं तह काहं जह तं मे पाएसु पडसि।"
एवं कालो वच्चइ । अह अण्णया कयाइवि ससिपयासधवलाए रयणीइ सो एगसज्जाए जणगसहिओ पासुत्तो । तो रयाणिमज्झभागे उद्वित्ता उन्भएण होऊणं उच्चसरेणं जणओ उवाविय भासिओ जहा-" ताय ! पेक्खसु एस कोइ परपुरिसो जाइ !"
स सहसुटिओ जाव निद्दामोक्खं काऊणं लोयणेहिं जोएइ ताव तेण न दिट्ठो कोइ पुरिसो।
ततो रोहओ पुट्ठो- " वच्छा ! सो कत्थ परपुरिसो ?"
तेण जणओ भणिओ - " इमेणं दिसाविभागणं सो तुरियतुरियं गच्छंतो मे दिलो ।" ।
तओ सो महिलं नसीलं परिकलिय तीए सिढिलायरो जाओ । सा पच्छायावपरिगया भासइ
" वच्छ ! मा एवं कुणसु ।" रोहओ भणइ - " कहं मम लटुं न वट्टसि ?"
सा बेइ -- " अह लटुं वहिस्सं । तओ तुम तहा कुणसु जहा एसो तुह जणओ मज्झ आयरं कुणइ ।"
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[ ४ ]
इमं रोहेण पडिवन्नं । सावि तह वट्टिउं लग्गा |
अण्णया कयावि रपणिमज्झे सुत्तुट्टिओ सो जणगं भणइ" ताय ! सो एस पुरिसो ! पुरिसो ! "
पिउणां पुट्ठे -
((
तओ निययं चेव छायं दंसित्ता भणइ -
पेच्छह " त्ति ।
" सो कहिं " ति ।
आसी ? "
स विलक्खमणो जाओ, पुच्छइ. " किं सो वि एरिसो
चालेण ' आमं ' ति भणियं ।
जणओ चितइ - " अव्वो ! वालाण केरिसुल्लावा ! इय चितिऊण भरहो तीइ घणराओ संजाओ ।
( उपदेशपद )
-:०:
इमं
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-
-
चत्तारि मित्ता इह आसि वसंतपुरे परोप्परं नेह-निम्भरा मित्ता । खत्तिय-माहण-वाणिय-सुवण्णयार त्ति चत्वारि ॥ १ ॥ ते अस्थविढवणत्यं चलिया देसंतरं नियपुराओ । पत्ता परिम्भमंता भूमिपइझुम्मि नयरम्मि. ॥ २ ॥ रयणीइ तरस वाहिं उज्जाणे तरुतलम्मि पासुत्ता । पढमपहरम्मि चिटुइ जग्गंतो खत्तिो तत्थ ॥ ३ ॥ पेच्छइ तस्साहाए पलंबमाणं सुवण्णपुरिसं सो । विम्हियमणेण भणियं अणेण सो एस अत्यो त्ति ॥ ४ ॥ कणयपरिसेण संलत्तमन्थि अत्यो परं अणत्थजुओ। तो खत्तिएण वुत्तं जइ एवं ता अलं अम्ह ॥ ५॥
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[ ६६ ]
बीए जामे जग्गेइ माहणो सोवि पिच्छइ तहेव । तइयम्मि वाणिओ तं दट्ठण न लुभए तम्मि ॥ ६ ॥ जग्गइ चउत्थजामे सुवण्णयारो सुवण्णपुरिसं तं । दगुण विम्हियमणो भणइ इमं एस अत्यो त्ति ॥ ७ ॥
UV
।
पुरिसेण जंपियं एस अस्थि अत्थो परं अणत्थजुओ । जंपइ सुवण्णयारो न होइ अत्यो अणत्थजुओ ॥ ८ ॥
पुरिसो जंपइ तो किं पडामि ? पडसु त्ति जंपइ कलाओ। पडिओ सुवण्णपुरिसो छिंदइ सो अंगुलिं तस्स |॥ ९ ॥ खड्डाए पक्खित्तो सुवण्णपुरिसो सुवण्णयारेण । गोसम्मि पत्थिया ते सुवण्णयारेण तो भणिया ॥ १० ॥
किं देसंतरभमणेण अस्थि एत्थवि इमो कणयपुरिसो। खड्डाइ मए खित्तो तं गिण्हह विभज्जिउं सन्चे ॥ ११ ॥
तो सब्वेवि नियत्ता अंगुलिकणगेण भत्तमाणे । चणिओ सुवण्णयारो य दोवि पत्ता नयरमञ्झे ॥ १२ ॥ चिंतियमिमेहिं हणिमो खत्तियमाहणसुए उवाएण । अन्हं चिय दोण्हं जेण होइ एसों कणयपुरिसो॥ १३ ॥
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[ ९७ ]
भुत्तूण सयं मज्झे समागया गहियकुसुमतंबोला। खत्तियमाहणजुग्गं विसमिस्सं भोयणं घेत्तुं ॥ १४ ॥
बाहि ठिएहिं तं चेव चिंतियं किं चिरं ठिया मज्झे । तुब्भे त्ति भणतेहिं दुन्निवि खग्गेण निग्गहिया ॥ १५ ॥
विसमिस्सं भत्तं भुंजिऊण दिय-खत्तियावि वावन्ना। इअ एसा पाविडी पाविज्जइ पावपसरेणं ॥ १६ ॥
(कुमारपालप्रतिबोधः - चतुर्थः प्रस्तावः )
-
-:.:
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रोहिणीए दक्खत्तणं ते णं काले णं ते णं समए णं रायागहे नाम नयरे होत्था । तत्थ णं रायगिहे णयरे सेणिए नामं राया होत्था ।
तत्थ णं रायगिहे नयरे धण्णे नामं सत्थवाहे परिवसति अडे, दित्ते, विउलभताणे अपरिभूए । तस्स णं धण्णस्स सत्यवाहस्स भद्दा नाम भारिया होगा अहीणपंचिदियसरीरा कंता, पियदंसणा, सुरूवा ।
तत्स णं धन्नस्स सत्यवाहस्स पुत्ता भदाए याए अत्ताय चत्तारि सत्यवाहदारया होत्था, तं जहा--गणपाले, धणदेवे, धणगोवे, धणराखिए।
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[ ९९ ]
तस्स णं धण्णस्स सस्थवाहस्स चउण्हं पुत्ताणं भारियानो चत्तारि सुहाओ होत्था, तं जहा-उज्झिया, भोगवतिया, रक्खतिया, रोहिणिया।
तते णं तस्स धण्णस्स सत्यवाहस्स अन्नया कदाई पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झथिए समुप्पज्जित्था
___ "एवं खलु अहं रायगिहे णयरे बहुणं राईसर पभिईणं सयस्स कुटुंबस्स बहूसु कज्जेसु य करणिज्जेसु य कुटुंबेसु य मंतणेसु य गुज्झे, रहस्से, निच्छए, ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे, पडिपुच्छणिज्जे, मेढी, पमाणे, आहारे, आलंबणे, चश्खुमेढीभूते, सव्वकज्जवट्टावए ।
" तं ण णजइ जं मए गयसि वा चुयसि वा मयांस वा भग्गंसि वा लुग्गसि वा साडियंसि वा पडियंसि वा विदेसत्यसि वा विप्पवसियसि वा इमस्स 'कुटुंबस्स किं मन्ने आहारे वा आलंबे वा पडिबंधे वा भविस्सति ?
"तं सेयं खलु मम कलं विपुलं असणं पाणं खादि सादिमं उबावडावेत्ता मित्तणातिणियगसयणसंबंधिपरियो, चउण्हं सुण्हाणं कुलघरवगं आमंतेत्ता तं मित्तणाइणियगसयण
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{ १०० ]
चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गं विपुलेणं असणपाणखादिमसादिमेणं धूवपुप्फवस्थगंधमल्लालंकारेण सकारत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणाति० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरतो चठण्हं सुण्हाणं परिक्खणहयाए पंच पंच सालिअक्खए दलइत्ता जाणामि ताव का किहं वा सारक्खेइ वा संगोवेइ वा संवड्वेति
वा?"
___एवं संपेहेइ, संपेहित्ता मित्तणाति० चउण्हं सुण्हाणं कुलघरवग्गं आमंतेइ, आमंतित्ता विपुलं असणं पाणं खादिमं सादिम .... जाव सक्कारेति समाणेति, सक्कारिता सम्माणित्ता तस्सेब मित्तणाति० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरतो पंच सालिअक्खए गेण्हति, गेण्हित्ता जेद्दा सुण्हा उज्झितिया तं सद्दावेति, सद्दाबित्ता एवं वदासी___" तुम णं पुत्ता ! मम हत्याओ इमे पंच सालिअक्खए गेहाहि, गेण्हित्ता अणुपुज्वेणं सारक्खेमाणी संगोवेमाणी विहराहि । जया णं अहं पुत्ता! तुम इसे पंच सालिअक्खए जारजा, तया णं तुमं मम इमे पंच सालिअक्खए पडिदिजाएजासि" ति कटु सुहाए हत्थे दलयति, दलइत्ता पडिविसजेति।
तते णं सा उज्झिया धण्णस्स "तह ति। एयमद्रं पडिसुणति, पडिसुणित्ता घण्णस्स सत्थवाहूस्स हत्थाओ ते पंच
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[१०१ ]
सालिअक्खए गेण्हति, गेण्हित्ता एगंतमवक्कमति, एगंतमवक्कमियाए इमेयासवे अज्झथिए समुप्पजेत्था -
___ "एवं खलु तायाणं कोटागारंसि बहवे पल्ला सालीणं पडिपुण्णा चिटुंति, तं जया णं ममं ताओ इमें पंच सालअक्खए जाएस्सति, तया गं अहं पलंतराओ अन्ने पंच सालिअक्खए गहाय दाहामि " त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता ते पंच सालिअक्खए एगते एडेति, एडित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया यावि होत्या।
एवं भोगवतीयाए वि, णवरं सा छोलेति, छोल्लित्ता अणुगिलति, अणुगिलित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया ।
एवं रक्खिया वि, नवरं गेहति, गेण्हित्ता इमेयारूवे अज्झथिए समुप्पजेत्या
" एवं खलु ममं ताओ इमस्स मित्तनाति० चउण्ह सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरतो सहावेत्ता एवं वदासी—'तुम णं पुत्ता! मम हत्थाओं .... जाव पडिदिजाएजासि' ति कट मम हत्यंसि पंच सालिअक्खए दलयति, तं भवियवमेत्य कारणेणं " ति कुटुं एवं संपेहेति, संपेहित्ता ते पंच सालिअक्खए सुद्धे वत्थे बंधइ, बंधित्ता रयणकरंडियाए पक्खिवेइ,
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[ १०२ ] पक्खिवित्ता जसीसामूले ठावेइ, ठावित्ता तिसंझं पडिजागरमाणी विहरइ । ___तए णं से धण्णे सत्यवाहे तस्सेव मित्त० जाव चउत्यि रोहिणीयं सहं सद्दावेति, सद्दावित्ता.... जाव "तं भवियन्वं एत्य कारणणं, ते सेयं खलु मम एए सालिअक्खए सारक्खमाणीए, संगोवेमाणीए, संवड्डेमाणीए" त्ति कडु एवं संपहेति, संपेहित्ता कुलघरपुरिसे सद्दावेति, सद्दावित्ता एवं वदासी
"तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! एते पंच सालिअक्खए गेहह, गेण्हित्ता पढमपाउससि महावुद्विकार्यसि निवइयंसि समाणसि खुड्डाग केयारं सुपरिकम्मियं करेह, करित्ता इमे पंच सालिअक्खए वावेह, वावित्ता दोच्चंपि तचंपि उक्खयनिक्खए करेह, करित्ता वाडिपक्खेवं करेह, करित्ता सारसभाणा संगोवेमाणा अणुपुव्वेणं संवड्डेह"।
तते णं ते कोडुबिया रोहिणीए एतम€ पडिसुति, पडिसुणित्ता ते पंच सालिअक्खए गेण्हंति, गेण्हित्ता अणुपुवणं सारक्खंति संगोवंति विहरति । ___ तए णं ते कोडुंबिया पढमपाउससि महावुद्धिकार्यसि णिवइयसि समाणसि खुड्डाय केदारं सुपरिकम्मियं करेंति,
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[ १०३ ]
करिता ते पंच सालिअक्खए ववंति, ववित्ता दोचंपि तनि उक्खयनिहए करेंति, करिता वाडिपरिक्खेवं करेंति, करिता अणुपुव्वेणं सारक्खेमाणा संगोवेमाणा संवडेमाणा विहति ।
तते णं ते सालीअक्खए अणुपुव्वेणं सारक्खिज्जमाणा संगोविज्जमाणा संबड्डिज्जमाणा साठी जाया किण्हा किन्होभासा निउरंवभूया पासादीया, दंसणीया, अभिरूवा, पडिरूवा |
ततें णं ते साली पत्तिया, वत्तिया, गव्भिया, पसूया, आगयगंधा, खराड्या, बद्धफला, पक्का, परियागया, सलइया, पत्तइया, हरियपव्वकंडा जाया यावि होत्या ।
तते णं ते कोटुंबिया ते सालीए पत्तिए.... जाव सल्लइए पत्तइए जाणित्ता तिक्खेहिं णवपज्जणएहिं असियएहिं लुर्णेति, लुणित्ता करयलमलित करेंति, करिता पुणंति, तत्थ णं चोक्खाणं, सूयाणं, अखंडा, अफोडियाणं छडछड्डापूयाणं सालीण मागहए पत्थए जाए ।
तते णं ते कोडुंबिया ते साली नवएसु घडएलु पक्खिवंति, पक्खित्रित्ता उपलिंपति, उपलिपित्ता लंछियमुद्दिते करेंति, करिता कोट्ठागारस्स एगदेसंसि ठावेंति, ठावित्ता सारक्खमाणा संगोवमाणा विहरति ।
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[१०४ ]
तते गं ते कोडुंबिया दोच्चम्मि वासारत्तंसि पढमपाउससि महावुद्धिकार्यसि निवइयंसि खुड्डागं केयारं सुपरिकम्मियं करेंति, करित्ता ते साली ववंति, दोच्चं पि तचं पि उक्खयाणहए.... जाव लुणेति....जाव चलणतलमलिए करेंति, करिता पुणंति, तत्य णं सालीणं वहवे कुडए जाए,....जाव एगदेसंसि ठाति, ठावित्ता सारक्खमाणा संगोवेमाणा विहरति । ___ तते णं ते कोडुंबिया तच्चसि वासारतसि महावुदिकासि बहवे केदारे सुपरिकम्मिए करेंति,....जाव लुणेति, लुणित्ता संवहंति, संवहित्ता खलयं करेंति, करित्ता मलेति,....जाव बहवे कुंभा जाया।
तते ण ते को९विया साली कोट्टागारंसि पक्खिवंति,.... जाव विहरति । चउत्थे वासारत्ते वहवे कुंभसया जाया।
तते णं तस्स धण्णस्स पंचमयंसि संवच्छरांस परिणममाणसि पुन्वरत्तावरत्तकालसमयसि इमेयारूवे अज्झथिए समुप्पज्जित्था
" एवं खलु मम इओ अतीते पंचमे संवच्छरे चउण्हं सुण्हाणं परिक्खणट्टयाए ते पंच सालिअक्खता हत्थे दिन्ना । तं सेयं खलु मम कलं पंच सालिअक्खए परिजाइत्तए, जाणामि
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[ १०५ ]
तात्र काए किहं सारक्खिया वा संगोविया वा संवडिया ? " त्ति कट्टु एवं संपेहेति, संपेहित्ता कल्लं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं मित्तणाइ० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गं.... जाव सम्माणित्ता तस्सेव मित्तणाइ० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ जेदूं उज्झियं सदावेइ, सद्दा वित्ता एवं वयासी
። एवं खलु अहं पुत्ता ! इतो अतीते पंचमंसि संवच्छरंसि इमस्स मित्तणाइ० चउन्ह सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरतो तव हृत्यंसि पंच सालिअक्खए दलयामि, 'जया णं अहं पुत्ता ! एए पंच सालिअक्खए जाएजा तथा णं तुमं मम इमे पंच सालिअक्खए पडिदिजाएसि ' त्ति कट्टु तं हत्यांस दलयामि, से नूणं पुणा अट्टे समट्टे ?
35
" हंता अस्थि । "
"तं णं पुत्तां ! मम ते सालिअक्खए पडिनिजाएहि । "
तते णं सा उज्झितिया एयमटुं धण्णस्स पडिसुणेति, पंडिसुणित्ता जेणेव कोट्टागारं तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता पल्लातो पंच सालिअक्खए गेण्डति, गेव्हित्ता जेणेव घण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता घण्णं सत्यवाहं एवं
वदासी
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[ १०६ ]
" एए णं ते पंच सालिअक्खए" त्ति कट्ठ घण्णस्स सत्यवाहस्स हत्यसि ते पंच सालिअक्खए दलयति ।
तते णं धण्णे सत्थवाहे उज्झियं सवहसावियं करेति, करिता एवं वयासी - ___" किं णं पुत्ता! एए चेव पंच सालिअवखए उदाहु अन्ने ?"
तते णं उज्झिया धण्णं सत्यवाहं एवं वयासी -
" तं णो खलु ताओ ! ते चेव पंच सालिअक्खए एए णं अन्ने"।
तते ण से धण्णे उज्झियाए अंतिए एयमदूं सोचा णिसम्म आसुस्ते मिसिमिसेमाणे उज्झितियं तस्स मित्तनाति० चठण्ह सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ तस्स कुलघरस्स छारुज्झियं च छाणुज्झियं च कयवरुज्झियं च समुच्छियं च सम्मजिअं च पाउवदाई च ण्हाणोवदाई च बाहिरपेसणकारिं ठवेति ।
एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव पव्वतिते पंच य से महत्वयाति उज्झियाई भवंति, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं हीलणिजे संसारकतारं अणुपरियइस्सइ, जहा सा उझिया ।
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[ १०७ ]
}
एवं भोगवइया वि | नवरं तम्स कुलवररस फेडितियं कोहंतियं च पीसंतियं च एवं रुवंतियं च रंवंतियं च परिवेसंतियं च परिभायंतियं च अभितरियं च पेसणकारिं महाणसिणि ठवेइ ।
एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं समणो वा समणी वा पंच य से महन्वयाई फोडियाई भवंति से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं, बहूणं समणणिं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावियाणं हीलणिजे, जहा व सा भोगवतिया ।
एवं रक्खितिया वि । नवरं जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मंजू विहाडे, विहाडित्ता रयणकरंड - गाओ ते पंच सालिअक्खए गेण्हाति, गेण्हित्ता जेणेव घण्णे सत्यवाहे तेणेव उचागच्छइ, उवागच्छित्ता पंच सालिभक्खए धण्णस्स सत्यवाहस्स हत्थे दलयति ।
तते णं से धणे सत्यवाहे रक्खितियं एवं वदासी
" किं णं पुत्ता ! ते चेव एए पंच सालिअक्खए उदाहु अन्ने ? " त्ति ।
तते णं रक्खितिया घण्णं सत्यवाहं एवं वदासी
" ते चैव ते पंच सालिअक्खए णो अन्ने ।
""
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[ १०८ ]
तते गं से घण्णे सत्यवाहे रक्खितियाए अंतिए एयम सोच्चा हट्टतुट्ठ तस्स कुलघरस्स हिरन्नस्स य कंसदूस विपुलधणसंतसारसावतेज्जस्स य भंडागारिणि ठवेति ।
एवामेव समणाउसो !... जाव पंच य से महव्वयार्ति रक्खियातिं भवंति से णं इह भवे चेव वहूणं समणाणं, बहूणं समणीणं, बहूणं सावयाणं, वहूणं सावियाणं अच्चणिज्जे जहा ....सा रक्खिया ।
रोहिणिया वि एवं चेव । नवरं " तुब्भे ताओ । मम सुबहुयं सगडी सागडं दलाहि, जेणं अहं तुब्भं ते पंच सालिअक्खए पडिणिज्जाएम । "
तते णं से घण्णे सत्थवाहे रोहिणी एवं वदासी -
፡ " कहं णं तुमं मम पुत्ता ! ते पंच सालिअक्खए सगड - सागडेणं निज्जाइस्ससि ?
""
तते णं सा रोहिणी घण्णं सत्थवाहं एवं वदासी
“ एवं खलु तातो ! इओ तुम्भे पंचमे संत्रच्छरे इमस्स मित्त जाय बहवे कुंभसया जाया, तेणेव कमेणं । एवं खलु ताओ ! तुम्मे ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निज्जाएम । "
...
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[ १०९]
तते णं से धण्णे सत्यवाहे रोहिणीयाए सुवहुयं सगडसागडं दलयति । तते ण रोहिणी सुबहु सगडसागडं गहाय जेणेव सए कुलघरे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता कोदागारे विहाडेति, विहाडित्ता पल्ले उभिदति, उभिदित्ता सगडीसागडं भरेति, भरित्ता रायगिहं नगरं मझमज्झेणं जेणेव सए गिहे, जेणेव धण्णे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छति ।
तते ण रायगिहे नगरे बहुजणो अन्नमन्नं एवमातिक्खति
" धन्ने णं देवाणुप्पिया! धण्णे सत्थवाहे, जस्स गं रोहिणिया सुण्हा, जीए णं पंच सालिमक्खए सगडसागडिएणं निज्जाएति।" ___तते णं से धण्णे सत्यवाहे ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निब्जाएतिते पासति, पासित्ता हसतुटे पडिच्छति, पडिच्छित्ता तस्सेव मित्तनाति० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरतो रोहिणीयं सुण्हं तस्स कुलघरस्स बहुसु कज्जेसु य जाव रहस्सेसु य आपुच्छणिज्जं पमाणभूयं ठावेति ।
एवामेव समणाउसो ! .... जाव पंच महन्वया संवड्डिया भवंति. से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं अच्चणिज्जे संसारकतारं वीतीवइस्सइ जहा व सा रोहिणीया ।
(श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गम् , अध्ययन ७)
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चिम्भडियावंसगो एगो मणुस्सो चिन्भडियाणं भरिएण सगडेण नयरं पविसइ । सो पविमंतो धुत्तेण भण्णइ-"जो एवं चिन्भडियाण सगडं खाइज्जा तस्स तुमं किं देसि ?"
ताहे सागडिएण सो धुत्तो भणिओ-" तस्साहं तं मोयगं देमि जो नगरदारण ण णिफिडइ ।"
धुत्तेण भग्णति-" तोऽहं एयं चिन्भडियासगर्ड खायामि, तुमं पुण तं मोयगं देजासि जो नगरहारेण ण नीसरति ।"
पच्छा सागडिएण. अब्भुवगए धुत्तेण सक्खिणो कया । तओ सगड अहिद्वित्ता तेसिं चिन्भडियाणं मण मणयं चाक्खत्ता चक्खित्ता पच्छा तं सागडियं मोदकं मम्गति । ताहे सागडिओ भणति
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[ १११ ]
“ इमे चिभडिया ण खाइया तुमे । "
धुत्तेण भण्णति" जइ न खाइया चिन्मडिया अग्घवेह तुमं । "
तओ अग्घावसु कइया आगया, पासंति खाइया चिन्भडिया, ताहे कइया भणति " को एया खइया चिन्मडिया किणइ ? "
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तओ करणे ववहारो जाओ। 'खइय' त्ति जिओ सागडिओ | ताहं धुत्तेण मोदगं मग्गिज्जति । अच्चाइओ सागडिओ, जूत्तिकरा ओलग्गिया, ते तुट्ठा पुच्छति, तो जहावत्तं सव्वं कहेति । एवं कहिते तेहिं उत्तरं सिक्खाविओ ।
तओ तेण खुड्डुयं मोदगं णगरदारे ठवित्ता, भणिओ मोदगो - " जाहि, जाहि मोदग!" स मोदगो न णीसरइ नगरदारेण ।
तो तेण सागडिएण सक्खिणो वृत्ता - "मए तुम्हाकं समक्खं पडिन्नायं ' जं अहं जिओ भविस्सामि तो सो मोदगो मया दायन्त्रो जो नगरहारेण न णीसरइ, ' एसो न णीसरइ ।" ततो जिओ धुत्तो ।
( दशवैकालिकवृत्तिः )
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असंखयं जीवियं असंखयं जीवियं मा पमायए जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं । एवं विजाणाहि जणे पमत्ते किण्णु विहिंसा अजया गहिन्ति ? ॥१॥ जे पावकम्मेहि धणं मणूसा समाययन्ती अमई गहाय । पहाय ते पासपयट्टिए नरे वेराणुबद्धा नरयं दवन्ति ॥२॥ तेणे जहा सन्धिमुहे गहीए सकम्मुणा किञ्चइ पावकारी । एवं पया पेञ्च इहं च लोए कडाण कम्माण न मुक्ख अत्थि ॥३॥ संसारमावन परस्स अट्ठा साहारण जं च करेइ कम्म । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले न बन्धवा बन्धवयं उपेन्ति ॥४॥ वित्तण ताणं न लभे पमत्ते इगंमि लोए अदुवा परत्था । दीवप्पणढे व अणन्तमोहे नेयाउयं ददुमदद्रुमेव ॥५॥
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[११३ ]
सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी न वीससे पण्डिए आसुपन्ने । घोरा मुहुत्ता अवलं सरीरं भारुण्डपक्खी व चरऽप्पमत्ते ॥६॥ चरे पयाई परिसंकमाणो जं किंचि पास इह मण्णमाणो । लामन्तरे जीविय वूहइत्ता पच्छा परिन्नाय मलावधंसी ॥७॥ छन्दनिरोहेण उवेइ मोक्खं आसे जहा सिक्खियवम्मधारी । पुवाई वासाई चरऽप्पमत्ते तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं ||८|| स पुन्वमेवं न लभेज पच्छा एसोवमा सासयवाइयाणं । विसीयई सिढिले आउयमि कालोवणीए सरीरस्स भेए ॥९॥ खिप्पं न सकेइ विवेगमेडं तम्हा समुदाय पहाय कामे । समिञ्च लोयं समया महेसी आयाणुरक्खी चरमप्पमत्ते ॥१०॥ मुई मुहूं मोहगुणे जयन्तं अणेगरूवा समणं चरन्तं । फासा फुसन्ति असमंजसं च न तेसि भिक्खू मणसा पठस्से ॥१॥ मन्दा य फासा बहुलोहगिज्जा तहप्पगारेसु मणं न कुज्जा। रक्खिज्ज कोहं विणएज्ज माणं मायं न सेवे पयहेज लोहं ॥१२॥ जेऽसंखया तुच्छा परप्पाई ते पिजदोसाणुगया परज्झा। एए अहम्मे त्ति दुगुंछमाणो कंखे गुणे जाव सरीरभेउ ॥१३॥
त्ति बेमि ॥
(उत्तराभ्ययनम् ४)
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१८
कूणियजुद्धं
तते णं से कूणिए राया पउमाईए देवीए अभिक्खणं अभिक्खणं एयमट्टं विन्नविज्जमाणे अन्नदा कदाइ वेहलं कुमारं सद्दावेति, सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसवंकं च हारं जायति ।
तते णं से वेहल्ले कुमारे कूणिय रायं एवं वयासी
एवं खलु सामी ! सेणीएणं रत्ना जीवंतेणं चेव सेयणए वहत्यी अद्वारसवके य हारे दिष्णे । तं जइ णं सामी ! तुन्भे मम रजस्स य जणवयस्स य अद्धं दलयह ता णं अहं तु मं सेपणयं गंधहत्थि अट्ठारसर्वकं च हारं दलयामि । "
तते णं से कूणिए राया वेहल्लास कुमाररस एयमट्ठे नो आढाति, नो परिज, इ; अभिक्खणं अभिक्खणं सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसवकं च हारं जायति ।
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[ ११५]
" कूणिए रावा सेवणयं गंधहत्थि अद्वारसवंकं च हारं तं नाव न उद्दालेति ताव ममं सेयं सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसवंकं च हारं गहाय अंतेउरपरियालसंपरिवुडस्स सभंडमत्तोवकरणं आताए चंपातो नयरीतो पडिनिक्खमित्ता वेसालीए नयरीए अज्जगं चडगं" रायं उवसं पज्जित्ताणं विहरित्तए । "
०५२
एवं वेहल्ले कुमारे संपेहेति, संपेहित्ता कूणियस्स रनो अंतराणि पडिजागरमाणे विहरति ।
तते णं से वेहले कुमारे अन्नया कयायि कूणियस्स रनो अंतरं जाणति सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसर्वकं च हारं महाय अंतेउर परियालसंपरिवुडे सभंडमत्तोवकरणं आयाए चंपाओ नयरीतो पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव वेसाली नगरी तेणेव उवागच्छति वेसालीए नगरीए अजगं चेडयं रायं उवसंपज्जित्ताणं विहरति ।
ततेणं से कूणिए राया इमीसे कहाए लट्टे समाणे ' एवं खलु वेहले कुमारे ममं असंविदितेणं सेयणगं गंधहथि अद्वारसवंकं च हारं गहाय अजगं चेडयं उवसंपज्जित्ताणं विहरति । तं सेयं खलु मम सेयणगं गंधहथि अद्वारसत्रंक च हारं गिहिउं दूतं पेसित्तए ।' एवं संपेहेति दूतं सद्दावेति, एवं
वदासी
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[११६ ]
"गच्छ णं तुम देवाणुपिया! वेसालि नगरि । तत्थ णं तुमं मम अजगं चेडगं रायं वद्धावेत्ता एवं वयासी____ "एवं खलु सामी कूणिए राया विनवेति । 'एस णं वेहल्ले कुमारे कूणियस्स रनो असंविदितेणं सेयणगं अद्वारसर्वक च हारं गहाय इह हव्वमागते । तेणं तुम्भे सामी! कणियं रायं अणुगेण्हमाणा सेयणगं. अट्ठारसवंकं च हार कूणियस्स रनो पच्चप्पिणह, वेहलं कुमारं पेसेह' ।"
तते णं से दूए जेणेव वेसाली नगरी तेणेच उवागच्छति, उवागच्छित्ता चेडगं वद्धावित्ता एवं बयासी-"एवं खल्ल सामी ! कणिए राया विनवेइ । एस णं वेहल्ले कुमारे ( तहेव भाणियव्यं जाव ) वेहल्लं कुमारं संपेसेह ।"
तते णं से चेडए राया तं दूयं एवं वयासी-"जह चेव । णं देवाणुप्पिया! कूणिए राया सेणियस्स रनो पुत्ते चेलणाए देवीए अत्तए मम नत्तुए तहेव णं वेहल्ले नि कुमारे सेणियस्स रन्नों पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए मम नत्तुए । सेणिएणं रन्ना जीवंतेणं चेव वेहल्लस्स कुमारस्स सेयणके अट्ठारसवंके हारे पुन्वदिन्ने । तं जइ णं कूणिए राया वेहल्लस्स रजस्स य जण
यस्स य अद्धं दलयति तो णं अई सेयजल अटारसर्वकं च हारं कूणियस्स स्नो पञ्चप्पिणामि, वेहलं कुमारं पेसेमि ।"
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[ ११७ ] तं दूर्य संमाणेति, पडिविसंज्जेति ।
तते णं से दूते चेडएणं रन्ना पडिविसजिए समाणे बेसालि नगरि मज्झमझेणं निगच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव चंपा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कूणियं रायं वदावित्ता एवं वदासी
" चेडए राया आणवेति--जह चेव णं कूणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए मम नत्तुए....(तं चैव भणियध्वं जाव) वेहलं कुमारं पेसेमि' । तं न देति ण सामी ! चेडए राया सेयणगं अद्वारसर्वकं च हार, वेहल्लं नो पेसेति ।"
तते णं से कूणिए राया दुचं पि दूर्य सद्दावेति । सहावित्ता एवं वयासी---
"गच्छ णं तुम देवाणुप्पिया! वेसालि नगरि तत्थ णं तुमं ममं अजगं चेडगं राय वद्धावेत्ता एवं वयासी__ एवं खलु सामी! कूणिए राया विनवेइ - जाणि काणि रयणाणि समुप्पन्नति सव्वाणि ताणि रायकुलगामीणि । सेणियस्स रन्नो रज्जसिरिं कारेमाणस्स पालेमाणस्स दुवे रयणा समुप्पण्णा, तं०-सेयणए गंधहत्थी अटारसर्वके हारे। तं नं तुम्भे सामी ! रायकुलपरंपरागयं द्विइयं अलोवेमाणा सेयणगं गंधहात्थं
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से
[ ११८] अवारसा च हार कणियस्ता दलो पञ्चप्पिणइ, वेइल्लं कुमार पेसेह।" ___ तते णं से दूते तहेव....जाव चेडगं वद्धावेत्ता एवं वयासी
"एवं खलु सामी! कूणिए राया विनवेइ-जाणि काणि .... जाव वेहल्लं कुमारं पेसेह'।"
तते णं से चेडए राया तं दूर्य एवं वयासी-"जह चेव णं देवाणुप्पिया! कूणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते, 'चल्लणाप देवीए अत्तए (जहा पढमं जाव) वेहलं कुमारं च पेसेमि ।"
तं दूयं सक्कारेति, संमाणेति, पडिविसज्जेति । ___तते णं से दूए....जाव कूणियस्स रन्नो वद्धावित्ता एवं वयासी
" चेडए राया आणवेति-'जह चेव णं देवाणुप्पिया! कूणिए राया सेणियस्स रनो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए....जाव वेहलं कुमारं पेसेमि' । तं न देति णं सामी ! चेडए राया सेयणगं गंधहात्थं अद्वारसर्वकं च हारं, वेहल्लं कुमार नो पेसेति ।"
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[ ११९ ] तते गले कूणिए राया तस्स दूयस्स अंतिए एयमई सोचा निसम्म आसुरुत्ते मिसिमिसेमाणे तच्चं दूतं सद्दावेति, एवं वयासी
"गच्छ णं तुम देवाणुप्पिया ! बेसालीए नयरीए चेडगस्स रन्नो वामेणं पादेणं पायवीढं अक्कमाहि, अकमित्ता कुंतग्गेणं लेहं पणावेहि, पणावित्ता आसुल्ते मिसिमिसेमाणे तिवलीभिउडि निडाले साहहु चेडगं रायं एवं वयासि –'हं भो चेडगा राया। अपत्थियपत्थिया! एस णं कूणिए राया आणवेति – पञ्चप्पिणाहि णं कूणियस्स रन्नो सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसर्वकं च हारं, वेहल्लं कुमारं पेसेह | अहव जुज्झसन्ने चिट्ठाहि । एस णं कूणिए राया सबले, सवाहणे, सखंधावारे णं जुज्झसजे इहं हव्वं आगच्छति ।"
तते णं से दूते जेणेव चेडए राया तेणेव उवागच्छइ चेडगं रायं वद्धाचित्ता एवं वयासी
"एस सामी! मम विणयपडिवत्ती इमा ण कुणियस्स रनो'। आणत्तो चेडगस्स स्नो वामेणं पाएणं पादपीढं अक्कमति अकमित्ता आसुरुत्ते कुंतग्गेणं लेहं पणावेति (तं चैव) "....सखंधावारे णं इहं हव्वं आगच्छति ।"
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[ १२०]
तते णं से चेडए राया तस्स दूयस्स अंतिए एयमदूं सोचा निसम्म आसुरुते एवं वयासी -
___ "न अप्पिणामि णं कूणियस्स रण्णो सेयणगं अद्वारसवंकं हारं, वेहलं च कुमारं नो पेसेमि । एस णं जुज्झसज्जे चिट्ठामि ।"
त दूयं असक्कारित, असंमाणितं अवदारणं निछुहावेइ ।
तते णं से कूणिए तस्स दूतस्स अंतिए एयमटुं सोचा निसम्म आसुरुत्ते कालादीए दस कुमारे सद्दावेइ, सहाविता एवं वयासी
__ "एवं खलु देवाणुप्पिया! वेहल्ले कुमारे ममं असंविदितेणं सेयणगं गंवहत्थिं अट्टारसर्वकं अंतेउरं सभंडं च गहाय चंपातो निक्खमति, निक्खमित्ता वेसालि अजगं चेडगं उवसंपज्जित्ताणं विहरति । तते णं मए सेयणगस्स गंधहथिस्स अट्टारसर्वकस्स च हारम्स अदाए दूया पेसिया । ते य चेडएणं रना इमणं कारणेणं पडिसेहिता अदृत्तरं च णं ममं तच्चे दूते असक्कारिते अवदारेणं निछुहाविते । तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हें चेडगस्स रन्नो जुद्धं गिह्नित्तए !"
तए णं कालाइया दस कुमारा कूणियस्स रन्नो एयमटुं विणएणं पडिसुणेति ।
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[ १२१] तते णं से कूणिए राया कालादीते दस कुमारे एवं वयासी
"गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! सएसु सएसु रज्जेसु पत्तेयं पत्तेयं हत्थिखंधवरगया पत्तेयं पत्तेयं तीहिं दंतिसहस्सेहिं एवं तीहिं आससहस्सेहिं तीहिं मणुस्सकोडीहिं सद्धिं संपरिवुडा सन्विड्डीए सतेहिंतो सतेहितो नगरेहितो पडिनिक्खभित्ता मम
अंतियं पाउम्भवह ।" ____ तते ण ते कालाइया दस कुमारा कूणियस्स रनो एयम8 सोचा .... जाव जेणेव कूणिए राया तेणेव उवागता । ।
तते णं से कूणिए राया कोडुवियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावित्ता एवं वयासी -
"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! आभिसेक हत्थिरयणं पडिकप्पेह, हयगयरहजोहचाउरंगिणिं सन्नाहेह, मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह।
तते णं से कूणिए राया तीहिं दंतिसहस्सेहिं .... तीहिं आससहस्सहिं तीहिं मणुस्सकोडीहिं चंप नगरि मझमज्झेणं निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता जेणेव कालादीया दस कुमारा तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता कालाईएहिं दसकुमारेहि सद्धि एगतो मेलायति ।
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[ १२२ ] ससे से कूगिए राया तेत्तीसाए दंतिसहस्सेहि, तेत्तीसाए आससहस्सेहिं, तेत्तीसाए मणुस्सकोडीहिं सद्धिं संपरिवुडे सब्बिड्डीए सुभेहिं वसहीपायरासेहिं नातिविगटेहिं अंतरावासेहिं वसमाणे वसमाणे अंगजणवयस्स मज्झमझेणं निग्गच्छति, जेणेव विदेहे जणवये, जेणेब वेसाली नगरी तेणेव पहारेत्य गमणाते। ___तते णं से चेडए राया इमीसे कहाए लढे समाणे नव मल्लई नव लेच्छई कासीकोसलका अट्ठारस वि गणरायाणो सदावेति, सद्दावित्ता एवं वयासी - ___"एवं खलु देवाणुप्पिया! वेहल्ले कुमारे कूणियत्स रन्नो असंविदिते ण सेयणगं अद्वारसर्वकं च हारं गहाय इहं हन्वमागते । तते णं कूणिएणं सेयणगस्स अट्टारसर्वकस्स य अटाए ततो दूया पेसिया, ते य मए इमेणं कारणेणं पडिसेहिया । तते णं से कूणिए मम एवमटुं अपडिसुणमाणे चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे जुझसज्जे इहं हव्यमागच्छति । तं किं नं देवाणुप्पिया ! सेयणगं अद्वारसर्वकं कूणियस्स रन्नो पञ्चपि. णामो, वेहल्लं कुमारं पेसेमो उदाहु जुज्झित्या ?"
तते णं नव मलई, नव लेच्छती कासीकोसलगा अद्वारस वि गणरायाणो चेडगरायं एवं वदासी -
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[ १२३ ]
"
न एवं सामी ! जुत्तं वा पत्तं वा रायसरिसं वा जं पं सेयणगे अटूरिसर्वके च कूणियस्स रन्नो पञ्चप्पिणिज्जति, वेहल्ले य कुमारे सरणागते पेसिज्जति । तं जइ णं कूणिए रामा चाउरंगिणीए सेणा सार्द्ध संपरिवुडे जुज्झसज्जे इह हव्वमागच्छति, तते णं अम्हे कूणिएणं रन्ना सद्धिं जुज्झामो । "
ततेणं से चेडए राया ते नव मल्लई नव लेच्छई कासीको लगा अट्ठारस वि गणरायाणो एवं वदासी—
"जइ णं देवाणुप्रिया । तुव्भे कूणिएणं रन्ना सद्धि जुज्झह तं गच्छह णे देवाणुपिया । सतेसु सतेसु रज्जेसु तीहिं दंतिसहस्सेहिं, तीहिं आससहस्सेहिं, तीहि रहसहस्सेहिं, तीहिं मणुस्सकोडीहिं सार्द्ध संपरिवुडा य सतेहिंतो नगरेहिंतो पडिनिक्खमित्ता मम अंतियं पाउब्भवह । "
जाव
तते णं से चेडए राया तीहिं दंतिसहस्से हिं संपरिवुडे वेसालि नगरिं मज्झमज्झेणं निग्गच्छति, जेणेव ते नव मल्लती नव लेच्छती कासीकोसलका अट्ठारस वि गणरायाणो तेणेव उवागच्छति ।
****
तते णं से चेडए राया सत्तावन्नाए दंतिसहस्से हिं, सत्तावनाए आससहस्सेहिं, सत्तावन्नाए रहसहस्सेहि, सत्तावन्नाए
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[ १२४ ]
माणुस्सकोडीहिं सद्धिं संपरिवुडे सव्विडीए सुभेहिं वसहीपात - रासेहिं, नातिविगिट्ठेहिं अंतरेहिं वसमाणे वसमाणे विदेहं जणवयं मज्झंमज्ज्ञेणं निगच्छति, जेणेव देसपंते तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता खंधावारनिवेसणं करेति, करित्ता कूणिय रायं पडिवालेमाणे जुज्झसज्जे चिट्ठति ।
तते णं से कूणिए रांया सन्विड्डीए जेणेव देसप्पंते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता चेडगस्स रन्नो जोयणंतरियं खंधावारनिवेस करेति ।
तते णं ते दोन्नि वि रायाणो रणभूमिं सज्जार्वेति, सज्जावित्ता रणभूमिं जयंति ।
तते णं से कूणीए तेत्तीसाए दंतिसहस्सेहिं जाव मणुस्सकोडीहिं गरुलवूहं रएति, रइत्ता गरुलवूहेणं रहमुसल संगामं उवायाते ।
५४
तते णं से चेडए राया सत्तावन्नाए मणुस्सकोडीहिं सगडवूहं रएति, सगडवूहेणं रहमुसलं संगामं उवायाते ।
....
तणं ते दोन वि राईणं अणीया संनद्धा गहियाउहपहरणा मगतितेहिं फलतेहि निकठ्ठाहिं असीहिं असागएहिं तुहिं सजीवेहि य धणूहिं समुक्खितेहि सरेहि समुल्ललिताहिं
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[ १२५ ] वाहाहिं छिप्पत्तूरेणं वज्जमाणेणं महया उक्सिीहनायवोलकलकलरवेणं समुद्दरवभूयं पिव करेमाणा हयगया हयगतेहि, गयगया गयगतेहिं, रहगया रहगतेहिं, पायत्तिया पायत्तिएहि अन्नमन्नेहिं सद्धिं संपलग्गा यावि होत्था ।
तते णं ते दोण्ह वि राईणं अणीया णियगसामीसासणागुरत्ता महता जणक्खयं जणवहं जणप्पमडणं जणसंवट्टकप्पं नचंतकबंधवारभीमं रुहिरकडमं करेमाणा अन्नमन्नेणं सद्धिं जुज्झति ।
(निरयावलीसूत्रम्)
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१९
दुवे कुम्मा
ते णं काले णं नेणं समए णं वाणारसी नामं नयरी होत्या ।
तीसे णं वाणारसीए नयरीए वहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसि - भागे गंगाए महानदीए मयंगतीरद्दहे नामं दहे होत्या, - अणुपुव्वसुजायवप्पगंभीर सीयलजले, अच्छविमलसलिलपलिच्छन्ने, संछन्नपत्तपुप्फपलासे, बहुउप्पल - पउम - कुमुय - नलिण- सुभग सोगंधियपुंडरीय - महापुंडरीय सयपत्त - सहसपत्त - केसरपुप्फोचचिए, पासादीए, दरिसणिज्जे, अभिरूवे, पडिरूवे ।
तत्थ णं बहूणं मच्छाण य कच्छभाण य गहाण य मगराण य सुंसुमाराण य सइयाण य साहस्सियाण य सथसाह -
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[ १२७ ] सियाण य जूहाई निभ्भयाई, निरुविग्गाई सुहंसुहेणं अभिरममाणगाति अभिरममाणगार्ति विहरति ।
तस्स णं मयंगतीरदहस्स अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे मालयाकच्छए होत्था । तत्थ णं दुवे पावसियालगा परिवसति, - पावा, चंडा, रोहा, तल्लिच्छा, साहसिया, लोहितपाणी, आमिसत्थी, आमिसाहारा, आमिसप्पिया, आमिसलोला, आमिसं गवेसमाणा रत्ति वियालचारिणो दिया पच्छन्नं चावि चिट्ठति ।
तते णं ताओ मयंगतीरदहातो अन्नया कदाई सूरियसि चिरस्थमियांस, लुलियाए संझाए, पविरलमाणुसंसि णिसंतपडिणिसंतंसि समाणसि दुवे कुम्मगा आहारत्थी, आहारं गवेसमाणा सणियं सणियं उत्तरंति, तस्सेव मयंगतीरदहस्स परिपेरंतणं सव्वतो समंता परिघोलेमाणा परिवोलेमाणा वित्ति कम्पेमाणा विहरति ।
___तयणंतरं च णं ते पावसियालगा आहारत्थी आहार गवेसमाणा मालयाकच्छयाओं पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव मयंगतीरे दहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तस्सेब मयंगतीरदहस्स परिपेरतणं परिघोलेमाणा परिघोलेमाणा वित्ति कम्पमाणा विहरति ।
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[ १२८ ]
तते णं ते पावसियाला ते कुम्मए पासंति, पासित्ता जेणेव ते कुम्मए तेणेव पहारेत्थ गमणाए ।
तते णं ते कुम्मगा ते पावसियालए एजमाणे पासंति, पासित्ता भीता, तत्था, तसिया, उव्विग्गा, संजातभया हत्थे य पादे य गीवाए य सएहिं सएहिं कारहिं साहरंति, साहरिता निश्चला, निफंदा तुसिणीया संचिटुंति ।
तते णं ते पावसियालया जेणेव ते कुम्मगा तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता ते कुम्मगा सव्वतो समंता उब्बतेंति, परियतेंति, आसारेंति, संसारेंति, चालेंति घट्टेति, फंदेंति, खोभेति, नहेहिं आलुपंति, दंतेहि य अक्खोडेंति, नो चेव णं संचाएंति तेसिं कुम्मगाणं सरीरस्स आबाहं वा पवाहं वा वाबाहं वा उप्पाएत्तए छविच्छेयं वा करेत्तए ।
तते णं ते पावसियालया एए कुम्मए दोच्चं पि तच्चं पि सब्बतो समंता उन्वतेति .... जाव नो चेव णं संचाएंति करित्तए । ताहे संता, तंता, परितता, निम्विन्ना समाणा सणियं सणियं पञ्चोसक्केति, एगंतमवक्कमंति, निश्चला निकंदा तुसिणीया संचिटुंति । _____ तत्थ णं एगे कुम्मगे ते पावसियालए चिरंगते दूरंगए जाणित्ता सणियं सणियं एगं पायं निच्छुभति ।
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[ १२९ ]
तते णं ते पावसियालया तेणं कुम्मएणं सणियं सणियं एग पायं नीणियं पासंति, पासित्ता तार उक्किट्ठाए गईए सिग्धं, चवलं, तुरियं, चंडं, वेगित जेणेव से कुम्मए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तरस णं कुम्मगस्स तं पायं नहिं आलुपंति, दंतेहिं अक्खोडेंति, ततो पच्छा मंसं च सोणियं च आहारेंति, आहारित्ता तं कुम्मगं सव्वतो समंता उब्बतेंति .... जाव नो चैव णं संचाएंति करेत्तए, ताहे दोच्चं पि अवक्कमति । एवं चत्तारि वि पाया जाव सणियं सणियं गीवं णीणेति । तते णं ते पावसियालगा तेणं कुम्मण गीवं गीणियं पासंति, पासित्ता सिग्छ, चवलं, तुरियं, चंडं नहेहिं दंतेहिं कवालं विहाडेंति, विहाडित्ता तं कुम्मगं जीवियाओ ववरोवेंति, ववरोवित्ता मंसं च सोणियं च आहारेंति ।
एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरियउवज्झायाणं अंतिए पचतिए समाणे पंच य से इंदियाई अगुत्ताई भवंति, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समीणं सावगाणं साविगाणं हीलणिजे परलोगे वि य गं आगच्छति वर्णं दंडणाणं, संसारकतारं अणुपरियट्टति, जहा से कुम्मए अगुत्तिदिए ।
तते णं ते पावसियालगा जेणेव से दोच्चए कुम्मए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्वा तं कुम्मगं सम्वतो समंता उव्वतेंति
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[ १३० ]
.... जाव दंतेहिं अक्खुडेंति .... जाब नो चेव णं संचाएंति करेत्तए।
तते णं ते पावसियालगा पि तचं पि.... जाव नो संचाएंति तस्स कुम्मगस्स किंचि आवाहं वा विबाहं वा .... जाव छविच्छेयं वा करत्तए, ताहे संता, तंता, परितंता, निम्विन्ना समाणा जामेव दिसिं पाउन्भूआ तामेव दिसिं पडिगया।
तते णं से कुम्मए ते पावसियालए चिरंगए दूरगए जाणित्ता सणियं सणियं गीवं नेणेति, नेणित्ता दिसावलोयं करेइ, करित्ता जमगसमगं चत्तारि वि पादे नीणेति, नीणेत्ता ताए उक्किट्ठाए कुम्मगईए वीईवयमाणे वीईवयमाणे जेणेव मयंगतीरदहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरियणेणं सद्धिं अभिसमन्नागए यावि होत्या । ____ एवामेव समणाउसो! जो अम्हं समणो वा समणी वा पंच से इंदियातिं गुत्तातिं भवंति से णं इहभवे अच्चणिजे जहा उ से कुम्मए गुत्तिदिए।
(श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गम् , अध्ययनम् ४)
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जन्नस्स समुप्पत्ती सुणिऊण जन्नवयणं, पुच्छइ मगहाहिवो मुणिपसत्यं । जन्नस्स समुप्पत्ती, कहेहि भयवं परिफुडं मे ॥ ६ ॥ अह माणिउं पयत्तो, अणयारो सुमहुराए वाणीए । आसि अओज्झाहिवई, इक्खागुकुलुब्भवो राया ॥ ७ ॥ नामण महासत्तो, अजिओ भज्जा य तस्स सुरकन्ता । पुत्तो य वसुकुमारो, गुरुसेवाउज्जयमईओ ॥ ८॥ खीरकयम्बो चि गुरू, सत्थिमई हवइ तस्स वरमहिला । पुस्तो विहु पन्वयओ, नारयविपो हवइ सीसो ॥९॥ अह अन्नया कयाई, सत्थं आरण्णयं वणुद्देसे । कुणइ तओ अज्झयणं, सीससमग्गो उवज्झाओ॥ १०॥
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[ १३२ ]
अह बम्मणस्स पुरओ, आगासत्येण तेण साहूणं । जीवाण दयट्ठाए, भणियं अणुकम्पजुत्तेणं ॥ ११॥ चउसु वि जीवेसु सया, एक्को वि हु नरगभविओ भणिओ । सुणिऊण उवज्झाओ, खीरकयम्बो तो भीओ ॥ १२ ॥ वीसजिया सहाया, निययघरं तो लहुं समल्लीणो। भाणओ सत्यिमईए, पुत्त ! पिया ते न एत्थाओ ॥ १३ ॥ तेणं पिइए सिद्, एही ताओ अवस्स दिवसन्ते । तईसणूसुयमणा, अच्छइ मग्गं पलोयन्ती ॥ १४ ॥ अस्थमिओ चिय सूरो, तह वि घरं नागओ उवज्झाओ। सोगभरपीडियङ्गी, सत्थिमई मुच्छिया पडिया ॥ १५॥ आसत्था भणइ तओ, हा कटुं मन्दभागधेजाए । किं मारिओ सि दइओ, एगागी कं दिसं पत्तो ॥ १६ ॥ किं सव्वसङ्गरहिओ, पन्वइओ तिव्वजायसंवेगो। एवं विलवन्तीए, निसा गया दुक्खियमणाए ॥ १७ ॥ अरुणुग्गमे पयट्टो, पव्वयओ गुरुगवेसणढाए । पेच्छइ नईतडटुं, पियरं समणाण मज्झम्मि |॥ १८ ॥ निग्गन्थं पव्वइयं, दगुण गुरुं कहेइ जणणीए । सुणिऊण अइविसण्णा, सत्थिमई दुक्खिया जाया ॥ १९ ॥
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[ १३३ ]
अह नारओ वि तइया, गुरुपत्ति दुक्खियं सुणेऊणं । आगन्तूण पणाम, करइ संथावणं तीए ॥२०॥ तइया जियारिराया, पव्वइओ वसुसुयं ठविय रजे । आगासनिम्मलयरं, फलिहमयं आसणं दिव्वं ॥२१॥ पव्यययनारयाणं, तञ्चत्यनिरूवणी कहा जाया। अह नारएण भणिय, दुविहो धम्मो जिणक्खाओ ।। २२ ।। पढममहिंसा सच्चं, अदत्तपरिवजणं च बम्मं च । सधपरिग्गहविरई, महव्वया होन्ति पञ्च इमे ॥ २३ ॥ सेसा अणुव्वयधरा, गिहिधम्मपरा हवन्ति जे मणुया । पुत्ताइभेयजुत्ता, अतिहिविभागे य जन्ने य ।। २४ ॥ एत्तो अजेसु जन्नो, कायन्दो नारओ भणइ एवं । ते पुण अजा अबिज्जा, जवाइयंकुरपरिमुक्का ॥२५ ॥ तो पन्वएण भणियं, वुञ्चन्ति अजा पसू न संदेहो । ते मारिऊण कीरई, जन्नो एसा भवइ दिक्खा ॥ २६ ॥ तो नारएण भणिओ, पव्वयओ मा तुर्म अलियवादी । होऊण जासि नरयं, दुक्खसहस्साण आवासं ॥ २७ ॥ भणइ तओ पव्वयओ, अस्थि वसू अम्ह एत्थ मज्झत्यो। एगगुरुगहियविज्जो, तस्स य धयणं पमाणं मे ॥२८॥
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[ १३४ ]
अह पव्वयेण य लहुं, माया विसज्जिया वसुरायासं । भाइ पहु पक्खवायं, पुत्तस्स महं करेज्जासि ॥ २९ ॥ अह उग्गयम्मि सूरे, पव्चयओ नारयओ य जणसहिया । पत्ता नरिन्दभवणं, जत्यच्छइ वसुमहाराया ॥ ३० ॥ भणिओ य नारएणं, वसुराया सच्चवाइणो तुम्हे | जं गुरुजणोवइट्टं, तं चिय वयणं भणेज्जाहि ॥ ३१ ॥ जइ वीहिया अविजा, वुञ्चन्ति अजा पसू गुरुबइट्ठा । एयाणं इक्कयरं भणाहि सच्चेण सत्तो सि ॥ ३२ ॥ अह भणइ वसुनरिन्दो, तच्चत्थं पव्वण उल्लवियं । अलियं नारयवयणं, न कयाइ सुयं गुरुसगासे ॥ ३३ ॥ एवं च भणियमेत्ते, फलिहामय आसणेण समसहिओ । धरणिं वसू पविट्टो, असच्चवाई सहामझे ॥ ३४ ॥ पुढवी जा सत्तमिया, महातमा घोरवेयणाउत्ता । तत्थेव य उववन्नो, हिंसावयणालियपलावी ॥ ३५ ॥ विद्धि त्ति अलियवाई, पव्वययवसु जणेण उग्घुटुं । पत्तो चिय सम्माणं, तत्थेव व नारओ विउलं ॥ ३६ ॥ पावो वि हु पव्वयओ, जणधिक्कारेण दुमियसरीरो । काऊण कुच्छियत्तवं, मरिऊणं रक्खसो जाओ ॥ ३७ ॥
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[ १३५ ]
सरिऊण पुध्वजम्म, जणधिक्कारेण दुसहं वयणं । वेरपडिउञ्चणत्थे, बम्भणरूवं तओ कुणइ ॥ ३८॥ बहुकण्ठसुत्तधारी, छत्तकमण्डलुगणित्तियाहत्यो। चिन्तेइ अलियसत्थं, हिंसाधम्मेण संजुत्तं ॥ ३९ ॥ सोऊण तं कुसत्थं, पडिबुद्धा तावसा य विप्पा य । तरस वयणेण जन्नं, करेन्ति बहुजन्तुसंवाहं ॥ ४० ॥ गोमेहनामधेए, जन्ने पायाविया सुरा हवइ । भणइ अगम्मागमणं, कायव्वं नत्थि दोसोऽत्य ॥ ११ ॥ पिइमेहमाइमेहे, रायसुए आसमेहपसुमेहे । एएसु मारियव्वा, सएसु नामेसु जे जीवा ॥ १२॥ जीवा मारेयन्वा, आसवपाणं च होइ कायन्त्र । मंसं च खाइयव्वं, जन्नस्स विही हवइ एसा ॥४३॥
(पउम-चरियम् उद्देशः ११)
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जीवणोवायपरिक्खा वंभदत्तो कुमारो कुमारामञ्चपुत्तो सेट्रिपुत्तो सत्यवाहपुत्तो, एए चउरोऽत्रि परोप्परं उल्लावेइ - जहा को भे केण जीवइ ? तत्य रायपुत्तेग भणियं - " अहं पुनहिं जीवामि," कुमारामञ्चपुत्तेण भणियं -- " अहं बुद्धीए," सेट्ठिपुत्तेण भणियं - " अहं रूवस्सित्तणेण," सत्थवाहपुत्तो भणइ - " अहं दक्खत्तणेण ।"
ते भगंति -" अन्नत्थ गंतु विनाणेमो।"
ते गया अन्न णयरं जत्थ ण णज्नति, उज्जाणे आवासिया, दक्खस्स आदेसो दिन्नो-" सिग्धं भत्तपरिव्वयं आणेहि ।"
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[ १३७ ] सों वीहिं गंतुं एगस्स थेरवाणिययस्स आवणे ठिओ। तस्स बहुगा कइया एंति, तदिवसं को वि ऊसवो। सो ण पहुप्पति पुडए बंधेउं । तओ सत्यवाहपुत्तो दक्खत्तणेण जस्स जं उवउज्जइ लवणतेल्घयगुडसुंठिमिरिय एवमाइ तस्स तं देइ । अइविसिट्ठो लाहो लद्धो, तुदो भणइ -"तुम्हेत्य आगंतुया उदाहु वत्थन्वया ?"
सो भणइ -" आगंतुया ।" " तो अम्ह गिहे असणपरिग्गहं करेजह ।"
सो भणइ -" अन्ने मम सहाया उज्जाणे अच्छंति, तेहिं विणा नाहं भुंजामि"
तेण भणियं - " सव्वेऽपि एंतु ।"
तेण तेसिं भत्तसमालहणतंबोलाइ उवउत्तं तं पञ्चण्हं रूवयाणं ।
बिइयदिवसे रूवस्सी वणियपुत्तो वुत्तो -" अन्न तुमे दायन्वो भत्तपरिवओ।" __"एवं भवउ" ति सो उदेऊण गणियापाडगं गओ अप्पय मंडेउं । तत्थ य देवदत्ता नाम गणिया पुरिसवेसिणी बहूहिं रायपुत्तसेट्ठिपुस्तादीहिं मग्गिया णेच्छइ, तस्स य तं
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[ १३८ ]
रूवसमुदयं दहण खुब्भिया । पडिदासिए गंतूण तीए माउए कहियं जहा - दारिया सुंदरजुवाणे दिद्धि देइ ।
तओ सा भणइ -" भण एवं मम गिहमणुवरोहण एजह इहेव भत्तवेलं करेजह ।" तहेवागया, सइओ दव्यवओ कओ।
तइयदिवसे बुद्धिमन्तो अमञ्चपुत्तो संदिट्ठो अज्ज तुमे भत्तपरिव्वओ दायव्यो।
"एवं हवउ" ति सो गओ. करणसालं । तत्थ य तइओ दिवसो ववहारस्स छिज्जंतस्स परिच्छेज्ज न गच्छइ । दो सवत्तीओ, तासि भत्ता उपरओ, एकाए पुत्तो अस्थि, इयरी अपुत्ता य । सा तं दारयं णेहेण उवचरइ, भणइ य -" मम पुत्तो।" पुत्तमाया भणइ य -" मम पुत्तो"। तासिं ण परिच्छिज्जइ । तेण भणियं -" अहं छिंदामि ववहारं, दारओ दुहा कज्जउ, दव्वंपि दुहा एव । "
पुत्तमाया भणइ -" ण मे दव्वेण कज्ज दारगोऽवि तीए भवड, जीवन्तं पासिहामि पुत्तं ।"
इयरी तुसिणिया अच्छइ । ताहे पुत्तमायाए दिण्णो।
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[ १३९] तहेवागया, तहेव सहस्सं उवओगो ।
चउत्थे दिवसे रायपुत्तो भणिओ-" अज्ज रायपुत्त ! तुम्हेहिं पुण्णाहिएहिं जोगवहणं वहियव्वं । "
___ "एवं भवउ"त्ति। तओ राजपुत्तो तेसिं अंतियाओ णिग्गंतुं उज्जाणे ठियो।
तमि य णयरे अपुत्तो राया मओ । आसो अहिवासिओ। जीए रुक्खच्छायाए रायपुत्तो णिवण्णो सा ण ओयत्तति । तो आसेण तस्सोवरि ठाइऊण हिंसितं, राया य अभिसित्तो ।
तहेवागया। तहेव अणेगाणि सयसहस्साणि जायाणि ।
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२२
को नरगगामी इओ य चेईविसए सुत्तिमतीए नयरीए खीरकयंबो नाम उवज्झाओ । तस्स य पव्वयओ पुत्तो, नारओ नाम माहणो, वसू य रायसुओ। सेसा य ते सहिया वेयमारियं पढ़ति । कालेण य विसयसुहाणुकूलगतीए कयाई च साहू दूवे खीरकर्यबघरे मिक्खस्स ठिया । तत्थेगो अइसयनाणी, तेण इयरो भणिओ - "एए जे तिण्णि जणा, एएसि एक्को राया भविस्सइ, एगो नरगगामी, एगो देवलोयगामि" ति ।
तं य सुर्य खीरकदंबेण पच्छण्णदेसविएण। ततो से चिंता समुप्पण्णा--" वसू ताव राया भविस्सइ । पव्यय-नारयाणं को मण्णे नारगो भविस्सइ"? त्ति ।
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[ १४१] तेसिं परिच्छानिमित्तं छगलो गेण कित्तिमो कारिओ। लक्खरसगभं च कारिऊण गारओ गेण संदिवो -" पुत्त! इमो छगली मया मतेण थंमिओ, अज बहुलटुमीए संझावेला, बच्चसु, जत्थ कोइ न पस्सति तत्थ णं वहेऊण सिग्धमेहि" त्ति।
सो नारओ तं गहेऊण निग्गमो 'निस्संचाराए रच्छाए तिमिरगणे पच्छण्णं सत्येण वहेमि' ति चितेऊण 'उवरि तारगा नखत्ताणि य पस्संति' त्ति वणगहणमतिगतो। तत्य चिंतेइ- 'वणस्सइओ सचेयणाओ पसंति । देवकुलमागतो, तत्य वि देवो पस्सति, ततो निग्गतो चिंतेति- "भणियं - 'जत्थ न कोइ पस्सति तत्थ णं वहेयचो' तो अहं सयमेव पस्सामि ।" 'अवज्झो एसो नूणं-ति नियत्तो । उवज्झायस्स जहाविचारियं कहेइ । तेण भणिओ
"साहु पुत्त! नारय! सुट्ट ते चिंतियं । वच्च मा कस्सइ कहयसु त्ति एवं रहस्स" ति ।
बितियराईए य पव्वयओ तहेव संदिवो। तेण रत्थामुह सुण्णं जाणिऊण सत्येण आहतो, सिचो लक्खारसेण 'रुहिरं' ति मण्णमाणो सचेलं पहाओ, गिहमागतो पिउणो कहेइ ।
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[ १४२ ]
तेण भणिओ" पावकम्म ! जोइसियदेवा वणप्फतीओ य पच्छण्णचारियगुज्झयां पसंति जणचरियं । सयं च परसमाणो ' न पस्सामि ' त्ति विवाडेसि छगलगं । गतो सि नरगं । अवसर " ति ।
नारदो य गहिअविज्जो खीरकयंबं पूएऊण गओ सयं
ठाणं ।
वसू दक्खिणं दाउकामो भणिओ उवज्झाएण “ वसू ! पव्वयकस्स समाउयस्स रायभावं गतो सिणेहजुत्ता भविज्जासि । एसा मे दक्खिणा, अहं महंतो "त्ति ।
वसू य राया जातो चेईए नयरीए । खीरकदंबो य कालगतो । पव्वयओ उवज्झायत्तं करेइ ।
पव्ययसीसा य कयाई णारयसमीपं गया । ते पुच्छिआ नारएणं वेयपयाणं अत्यं वितहं वण्णेंति, जह – ' अजेहिं जतियव्वं ' ति, सो य अजसदो छगलेसु तिवरिस पज्जुव सिएस य बीएस वीहि-जवाणं वट्टए, पव्चयसीसा छगले भासति ।
नारएण चिंतियं - " वच्चामि पव्वयसमीवं । सो वितहवादी बहियन्बो, उवज्झायमरगदुक्खिओ य दट्ठव्वो " ति संपहारिऊण गतो उवज्झायगिहं । वंदिया उवज्झायिणी । पव्वयओ य संभासिओ " अप्पसोगेण होएयव्वं " ति ।
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[ १४३] कयाई च महाजणमझे पन्वयओ. 'रायपूजिओ अहं' ति गविओ पण्णवेति -" अजा छगला, तेहि य जइयव्वं " ति।
नारएण निवारिओ-" मा एवं भण। समाणो वंजणाहिलावो, अत्यो पुण धण्णेसु निपतति दयापक्खण्णुमतीए य"ति।
सो न पडिवज्जति। ततो तेसिं समच्छरे विवादे चट्टमाणे पन्वयओ भणति -" जइ अहं वितहवादी ततो मे जीहच्छेदो विउसाणं पुरओ, तव वा ।"
नारएण भणिओ-" किं पइण्णाए ? मा अधम्म पडिचज्जह । उवज्झायस्स आदेसं अहं वण्णेमि ।"
सो भणति --" अहं वा किं समईए भणामि ? अहं पि उवज्झायपुत्तो, पिउणा मम एवमातिक्खियं " ति ।
ततो नारएण भाणियं - " अस्थि णे तइयओ आयरियसीसो खत्तियहरिकुलप्पसूओ वसू राया उवरिचरो, तं पुच्छिमो, जणे सो लवति तं पमाणं।"
पव्वइएण भणियं -" एवं भवउ " ति ।
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[ १४४ ]
ततो पव्वण माऊर कहियं विवादवत्थु । तीए भणिओ ፡ पुत ! दुट्ठ ते कयं । नारओ पिउणो ते निच्चं सम्मओ गहणधारणासंपण्णो ।
सो भणति - " मा एवं संलवसि । अहं गिहीयसुत्तत्थो नारयकं वसुवयणवडिहयं छिण्णजीहं निव्वासेमि । दच्छिहिसि " 1 त्ति ।
सा पुत्तस्स अपत्तियंती गया वसुसमीवं । पुच्छिओ य तीए संदेहवत्युं - "किह एवं उवज्झायमुहाओ अवधारितं" ति । सो भणति - " जहा नारओ भणति तह तं, अहमवि एवंवादी ।
,,
ततो सा भणति - " जइ एवं तुमं सि मे पुत्तं विणासेंतओ, तओ तव समीवे एव पाणे परिन्द्रयामि " त्ति जीहं पगड्डिया |
पासत्येहि य वसू राया भणितो - " देव ! उवज्झाइणीए वयणं पमाणं कायव्वं । जं चेत्थ पावगं तं समं विभजिस्सामो " त्ति ।
सो तीसे मरणनिवारणत्थं पासत्येहि य पाहणेर्हि पव्त्रयगपक्खि एहिं गाहिओ । ततो कहंचि पडिवण्णो ' पव्वयपक्खं भणिस्सं 'ति । ततो माहणी कयकरजा गया संहिं ।
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[ १४५ ]
बितियदिवसे जणो दुहा जातो -" केइ नारयं पसंसिया, केइ पव्वयं । पुच्छि ओ वसू -" भण किं सच्चं ?" ति ।
सो भणति -" छगला अजा, तेहिं जइयव्वं " ति । ___ तम्मि समए देवयाए सच्चपक्खिकाए आहयं सीहासणं भूमीए ठवियं । वसु उवरिचरो होऊण भूमीचरो जातो।।
(वसुदेवहिण्डी-प्रथमखण्डम्)
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२३
साहसवज्जा (१) साहसमवलम्बन्तो पावइ हियइच्छियं न सन्देहो ।
जेणुत्तमङ्गमेत्तेण राहुणा कवलिओ चन्दो ॥ १० ॥ (२) तं कि पि साहसं साहसेण साहन्ति साहससहावा ।
जं भविऊण दिव्यो परम्मुहो धुणइ नियसीसं ॥ १०८ ॥ (३) थरहरइ धरा खुब्भन्ति सायरा होइ विन्मलो दइयो ।
असमववसायसाहस-संलद्धजसाण धीराणं ॥ १०९।। (४) जह जह न समप्पइ विहिवसेण विहडन्तकज्जपरिणामो। ___तह तह धीराण मणे वड्डइ बिउणो समुच्छाहो ॥ ११३॥ (५) हियए जाओ तत्थेव वड्डिओ नेय पयडिओ लोए ।
ववसायपायवो सुपुरिसाण लक्खिज्जइ फलेहिं ॥ ११५ ॥ (६) न महुमहणस्स वच्छे मझे कमलाण नेय खीरहरे ।
ववसायसायरे सुपुरिसाण लच्छी फुडं वसइ ॥ ११८॥
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दीणवज्जा (१) परपत्यणापवनं मा जणणि जणेसु एरिसं पुत्तं ।
उपरे वि मा धरिज्जसु पत्थणमङ्गो कओ जेण ॥ १३३ ॥ (२) ता एवं ताव गुणा लज्जा सच्चं कुलक्कमो ताव ।
__ ताव चिय अहिमाणो 'देहि' ति न भण्णए जाव॥१३॥ (३) तिणतूल पि हु लहुयं दीणं दइवेण निम्मियं भुवणे ।
वाएण किं न नीयं अप्पाणं पत्थणभएण || १३५ ॥ (१) थरथरथरेइ हिययं जीहा घोलेइ कण्ठमज्झम्मि ।
नासइ मुहलावणं 'दहि' त्ति परं भणन्तस्स ॥ १३६ ॥ (५) किसिणिजन्ति लयन्ता उदहिजलं जलहरा पयत्तण ।
धवलीहुन्ति हु देन्ता देन्त-लयन्तन्तरं पेच्छ ।। १३७॥
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२५
सेवयवज्जा
(१) जं सेवयाण दुक्खं चरित्तविवज्जियाण नरणाह ! | तं होउ तुह रिऊणं अहवा ताणं पि मा होठ ॥ १५१ ॥ (२) भूमिसयणं जरचीरबन्धणं बम्भचेरयं भिक्खा ।
मुणिचरियं दुग्गयसेवयाण धम्मो परं नत्थि ॥ १५२ ॥
(३) सन्चो छुहिओ सोहइ मढदेउलमन्दिरं च चच्चरयं । नरणाह ! मह कुडुम्बं छुछुहियं दुब्बलं होइ ॥ १६१ ॥ 1
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२६ सीहवज्जा
(१) किं करइ कुरङ्गी बहुसुएहि ववसायमाणरहिएहिं ।
एक्केण त्रि गयघडदारणेण सिंही सुहं सुबइ ॥ २००॥
(२) मा जाणह जइ तुङ्गत्तणेण पुरिसाण होइ सोण्डीरं । महोव मइन्दो करिवराण कुम्भत्थलं दलइ ॥ २०२ ॥
(३) बेण्णि वि रण्णुप्पन्ना वज्झन्ति गया न चेव केसरिणो । संभाविज्जइ मरणं न गञ्जणं धीरपुरिसाणं ॥ २०३ ॥
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२७
विजयो चोरो
ते णं काले णं ते णं समए णं रायगिहे णामं नयरे होत्था । तत्थ णं रायगिहे णयरे सेणिए नामं राया होत्या । तस्स णं रायगिहस्स नगरस्स वहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए गुणासिलए नामं चेतिए होत्था ।
तस्स णं गुणसिलयस्स चेतियस्स अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे जिग्णुज्जाणे यावि होत्था विणट्टदेवउले परिसडिय - तोरणघरे नाणाविहगुच्छ गुम्मलयावल्लिवच्छ च्छाइए अणेगवाल - सयसंकणिजे यावि होत्था ।
तस्स णं जिन्नुज्जाणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे भग्गकूवर यावि होत्था ।
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[१५१ ]
तस्स थे जिन्नुज्जाणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे मालयाकच्छए यावि होत्था,-किण्हे, किण्होभासे, रम्मे, महामेहनिउरंबभूते, बहूहिं रुक्खेहि य गुच्छेहि य गुम्मेहि य लयाहि य वल्लीहि य तणेहि य कुसेहि य खागुएहि य संछन्ने, पलिच्छन्ने, अंतो झुसिरे, बाहिं गंभीरे, अणेगवालसयसंकणिज्जे यावि होत्था ।
तत्थ णं रायगिहे नगरे धण्णे नामं सत्यवाहे अड्डे, दित्ते, विउलभत्तपाणे।
तस्स गं धन्नरस सत्यवाहस्स भद्दा नाम भारिया होत्था, -सुकुमालपाणिपाया, अहीणपडिपुण्णपंचिदियसरीरा, लक्खणवंजणगुणोववेया, माणुम्माणप्पमाणपडिपुन्नसुजातसव्वंगसुंदरंगी, ससिसोमागारा, कंता, पियदसणा, सुरूवा, करयलपरिमियतिव. लियमझा, कुंडललिहियगंडलेहा, कोमुदिरयणियरपडिपुण्णसोमवयणा, सिंगारागारचारुवेसा, पडिरूवा वंशा, अवियाउरी यावि होत्था ।
तस्स ण धण्णस्स सत्थवाहस्स पंथए नाम दासचेडे होत्था,-सव्वंगसुंदरंगे मंसोवचिते बालकीलावणकुसले यात्रि होत्या ।
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[ १५२ ]
तते णं से धण्णे सत्यवाहे रायगिहे नयरे बहूण नगरनिगमसेद्विसत्यवाहाणं अटारसण्ह य सेणिप्पसेणीण बहुसु कजेसु य कुटुंबेसु य मंतेसु य....जाव* चक्खुभूते यावि होत्था । नियगस्स वि य णं कुटुंबस्स बहुसु य कज्जेसु....जाव चक्खुभूते यावि होत्था ।
तत्थ णं रायगिहे नगरे विजए नामं तकरे होत्था,- पावे, चंडालरूवे, भीमतररुद्दकम्मे, आरुसियदित्तरत्तनयणे, भमरराहुवन्ने, निरणुकोसे, निरणुतावे, दारुणे, पइभए, निसंसतिए, निरणुकंपे, अहि व एगंतदिदिए, खुरे व एगंतधाराए, गिद्धे व
आमिसतलिच्छे, अग्गिमिव सव्वभक्खे, जलमिव सन्त्रगाही, उकंचणचणमायानियडिकूडकवडसाइसंपओगबहुले, जूयपसंगी, मज्जपसंगी, भोजपसंगी, मंसपसंगी, दारुणे, हिययदारए, साहसिए, संधिच्छेयए, विस्संभघाती, परस्स दव्वहरणम्मि निच्चं अणुबद्धे, तिव्ववेरे रायगिहस्स नगरस्स बहूणि अइगमणाणि य निग्गमणाणि य दाराणि य अवदाराणि य छिडिओ य खंडिओ य नगरनिद्धमणाणि य संवट्टणाणि य निव्वदृणाणि य जूवखलयाणि य पाणागाराणि ये वेसागाराणि य तकरघराणि य सिंगाडगाणि य तियाणि य चउक्काणि य चञ्चराणि य
* पृष्ठ ९९ पछि ९.
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[ १५३ ]
नागघराणि य भूयघराणि य जक्खदेउलाणि य सभाणिय पवाणि य पणियसालाणि य सुन्नघराणि य आभोएमाणे, मग्गमाणे, गवेसमाणे, बहुजणस्स छिद्देसु य विसमेसु य वसणेसु य अब्भुदएसु य उस्सवेसु य पसवेसु य तिहीसु य छणेसु य जन्नेसु य पव्वणीसु य मत्तपमत्तस्स य वक्खित्तस्स य वाउलस्स य सुहितस्स य दुक्खियस्स य विदेसत्थस्स य विष्पवसियस्स य मग्गं च छिदं च विरहं च अंतरं च मग्गमाणे गवेसमाणे एवं च णं विहरति ।
बहिया वि य णं रायगिहस्स नगरस्स आरामेसु य उजाणेसु य वाविपोक्खरणीदीहियागुंजालियासरेसु य सरपंतिसु य सरसपंतियास य जिण्णुज्जाणेसु य भग्गकूवएसु य माल्याकच्छएसु य सुसाणएसु य गिरिकंदरलेणउवट्ठाणेसु य विहरति ।
तते णं तीसे भद्दाए भारिपाए अन्नया कयाई पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारवे अज्झस्थिए समुपन्जित्था-"अहं धण्णेण सस्थवाहेण सद्धिं बहूणि वासाणि सद्दफरिसरसगंधरूवाणि माणुस्सगाई कामभोगाई पञ्चणुभत्रमाणी विहरामि । नो चेव णं अहं दारगं वा दारिगं वा पयायामि । तं धनाओ णं ताओ अम्मयाओ जात्र
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[ १५४ ]
सुलद्धे णं माणुस्सए जम्मजीवियफले तासिं अम्मयाणं, जासि मन्ने णियगकुच्छिसंभूयाति थणदुद्धलुद्धयाति महुरसमुल्लापगार्ति मम्मणपयंपियाति थणमूलकक्खदेसमागं अभिसरमाणातिं मुद्धयाई थणयं पिबति । ततो य कोमलकमलोवमेहिं हत्थेहिं गिण्हिऊणं उच्छंगे निवेसियाई देंति ससुल्लावए पिए सुमहुरे पुणो पुणो मंजुलप्पभणिते। तं अहं णं अधन्ना, अपुन्ना, अलक्खणा, अकयपुन्ना एत्तो एगमवि न पत्ता । तं सेयं मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जलते सूरिए धणं सत्थवाहं आपुच्छित्ता धण्णेणं सत्थवाहेणं अब्भगुन्नाया समाणी सुबहुं विपुलं असणपाणखातिमसातिम उवक्खडावेत्ता सुबहु पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारं गहाय बहूर्हि मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरिजणमहिलाहिं सार्द्ध संपरिबुडा जाई इमाई रायगिहस्स नगरस्स बहिया णागाणि य भूयाणि य जक्खाणि य इंदाणि य खंदाणि य रुद्दाणि य सेवाणि य वेसमणाणि य तत्थ णं बहूणं नागपडिमाण य....जाव वेसमणपडिमाण य महरिहं पुष्फच्चणियं करेत्ता जागुपायपडियाए एवं वइत्तए-'जइ णं अहं देवाणुप्पिया! दारगं वा दारिगं वा पयायामि, तो णं अहं तुभं जायं च दायं च भायं च अक्खयणिहिं च अणुवढ्वमि' त्ति कट्ट उवातियं उवाइत्तए ।"
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[ १५५ ]
तते ण सा भद्दा सत्यवाही धण्णेणं सत्यवाहणं अब्भणुनाता समाणी हद्वतुवा विपुलं असणपानखातिमसातिम उवक्खडावेति, उवक्खडावित्ता सुबई पुष्फगंधवत्थमल्लालंकार गेण्हति, गेण्हित्ता सयाओ गिहाओ निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता रायगिहं नगरं मज्झमझेणं निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता पुक्खरिणीए तीरे सुबहु पुष्फवत्थगंधमलालंकारं ठवेइ, ठवेत्ता पुक्खरिणं ओगाहइ, ओगाहित्ता जलमजणं करोति, जलकीडं करेति, करिता बहाया कयबलिकम्मा उल्लपडसाडिगा जाई तत्थ उप्पलाई सहस्सपत्ताई ताई गिण्हइ, गिण्हित्ता पुक्खरिणीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता तं सुबहुं पुप्फगंधमलं गेण्हति, गेण्हित्ता जेणामेव नागघरए य....जाव वेसमणघरए य तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तत्थ णं नागपडिमाण य....जाव वेसमणपडिमाण य आलोए पणामं करेइ, ईसिं पञ्चुन्नमइ, पच्चुन्नमित्ता लोमहत्थगं परामुसइ, परामुसित्ता नागपडिमाओ य....जाव वेसमणपडिमाओ य लोमहत्येणं पमज्जति, उदगधाराए अब्भुक्खेति, अन्भुक्खित्ता पम्हलसुकुमालाए गंधकासाईए गायाई लहेइ, लूहित्ता महरिहं वत्थारुहणं च मल्लारुहणं च गंधारुहणं च चुन्नारुहणं च वन्नारुहणं च करेति, करित्ता जाव धूवं डहति, डहित्ता जाणुपायपडिया पंजलिउडा एवं वयासी
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[ १५६ ]
" जइ णं अहं दारगं वा दारिगं वा पयायामि तो णं अहं जायं च....जाय अणुचडे मि" त्ति कट्टु उबातियं करेति, करिता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता 'विपुलं असणपाणखातिमसातिमं आसाएमाणी विहरति । जिमिया सुईभूया जेणेव सए गिहे तेणेव उवागया ।
अदुत्तरं च णं भद्दा सत्यवाही चा उद्दसमुद्दिपुन्नमासिणीसु विपुलं असणपाणखातिमसातिमं उवक्खडावेति, उवक्खाविता वहवे नागा य.... जाव वेसमणा य उवायमाणी नमसमाणी विहरति ।
तते णं सा भद्दा सत्यवाही अन्नया कयाइ कालंतरेणं आवन्नसत्ता जाया यावि होत्या ।
तते णं सा भद्दा सत्यवाही णवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अद्धमाण राईदियाणं सुकुमालपाणिपादं दारगं पयाया ।
तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे जातकम्मं करेंति, करिता तहेव विपुलं असणपाणखातिमसातिमं उवक्खडावेंति, उवक्खडावित्ता तहेब मित्तनाति० भोयावेत्ता अयमेयारूवं गोनं गुणनिष्पन्नं नामधेज्जं करेंति जम्हाणं अम्हं इमे दारए बहूणं नागपडिमाण य... जाव वेसमण
"
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[ १५७ ]
परिमाण य उवाइयलद्वे णं तं होउ णं अम्हं इमे दारए ' देवदिन्न ' नामेणं " "
तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो जायं च दायं च भायं च अक्खयनिर्हि च अणुवङ्गेति ।
तते णं से पंथए दासचेडए देवदिन्नस्स दारगस्स वालग्गाही जाए, देवादिनं दारयं कडीए गेहति, गेण्हित्ता बहूहि डिंभएहि य डिंभिगाहि य दारएहि य दारियाहि य कुमारेहि य कुमारिया हि य सद्धि संपरिवुडे अभिरममाणे अभिरमति ।
तते णं सा भद्दा सत्यवाही अन्नया कयाई देवदिन्नं दारयं ण्हायं, कयवलिकम्मं, कयकोटयमंगलपायच्छित्तं, सन्वालंकारभूसियं करेति, पंथयस्स दासचेडयस्स हत्थयंसि दलयति ।
तते णं से पंथए दासचेडए भद्दाए सत्यवाहीए हत्याओ देवदिनं दारगं कडिए गिण्हति गिण्हित्ता सयातो गिहाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता बहूर्हि डिंभएहि य डिभियाहि य कुमारियाहि यसद्धिं संपरिवुडे जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता देवदिनं दारगं एगंते ठावेति, ठावित्ता बहूहिं डिभएहि य कुमारियाहि य सद्धि संपरिवुडे पत्ते यावि होत्या विहरति
!
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[ १५८ ]
इमं च णं विजए तकरे रायगिहस्स नगरस्स बहूणि बाराणि य अवदाराणि य तहेव आभोएमाणे मग्गेमाणे गवेसेमाणे जेणेव देवदिन्ने दारए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता देवादिन्नं दारगं सव्वालंकारविभूसियं पासति, पासित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणालंकारेसु मुच्छिए, गढिए, गिद्धे, अझोववन्ने पंथय दासचेडं पमत्तं पासति, पासित्ता दिसालोयं करेति, करेत्ता देवदिन्नं दारगं गेण्हति, गेण्हिता कक्खसि अल्लियावेति, अलियावित्ता उत्तरिजेणं पिहेइ, पिहेइत्ता सिग्धं, तुरियं, चवलं रायगिहस्स नगरस्स अवदारेणं निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता जेणेव जिण्णुजाणे, जेणेव भग्गकूवए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता देवादेनं दारयं जीवियाओ ववरोवेति, ववरोवित्ता आभरणालंकारं गेहति, गेण्हित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरगं निप्पाणं निच्चेटुं जीवियविप्पजढं भग्गकूवए पक्खिवति, पक्खिवित्ता जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता मालुयाकच्छयं अणुपविसति, अणुपविसित्ता निच्चलं, निप्पंदे, तुसिणीए दिवसं खिवेमाणे चिट्ठति ।
तते ण से पंथए दासचेडे तओ मुहुत्ततरस्स जेणेव देवदिन्ने दारए ठविए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारगं तंसि ठाणसि अपासमाणे रोयमाणे कंदमाणे विलयमाणे
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[ १५९ ]
देवदिन्नदारगस्स सव्वतो समंता मग्गणगवेसणं करेइ, करिता देवदिन्नस्स दारगस्स कत्थइ सुर्ति वा खुति वा पउत्तिं वा अलभमाणे जेणेव सए गिहे जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता धणं सत्थवाहं एवं वदासी
"एवं खलु सामी! भद्दा सत्यवाही देवदिन्नं दारय व्हायं .... जाव मम हत्यंसि दलयति । तते णं अहं देवदिन दारय फडीए गिहामि, गिण्हित्ता .... जाव मग्गणगवेसणं करेमि, तं न णज्जति णं सामी! देवदिन्ने दारए केणइ हते वा अवहिए वा अवखित्ते वा" ___तते णं से धण्णे सत्यवाहे पंथयदासचेडयस्स एतमटुं सोच्चा णिसम्म तेण य महया पुत्तसोएणाभिभूते समाणे परसुणियत्ते चंपगपायवे घसत्ति धरणीयलंसि सव्वंगेहिं सन्निवइए ।
तते णं से धन्ने सत्यवाहे ततो मुहुत्तेतरस्स आसत्ये पच्छागयपाणे देवदिन्नस्स दारगस्स सव्वतो समंता मग्गणगवसणं करेति । देवदिन्नस्स दारगस्स कथइ सुई वा खुई वा पउत्ति वा अलभमणि जेणेव सए गेहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता महत्थं पाहुडं गेण्हति, गेण्हित्ता जेणेव नगरगुत्तिया तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तं महत्थं पाहुडं उवणयति, उवणतित्ता एवं वयासी
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[ १६. ]
- "एवं खलु देवाणुप्पिया! मम पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए देवदिन्ने नाम दारए इदे उंबरपुप्फ पिव दुलहे सवणयाए किमंग पुण पासणयाए । तते ण सा भद्दा देवदिन्नं पहायं सव्वालंकारविभूसियं पंथगस्स हत्ये दलाति .... जाव अवखित्ते वा, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! देवदिन्नदारगस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेह ।" ____तए ण ते नगरगोत्तिया धण्णेणं सत्यवाहेण एवं वुत्ता समाणा सन्नद्धबद्धवम्मियकवया, गहियाउहपहरणा धण्णेणं सत्यवाहणं सद्धिं रायगिहरस नगरस्स बहूणि अतिगमणाणि य .... जाव पवासु य मग्गणगवसणं करेमाणा रायगिहाओ नगराओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव जिण्णुजाणे जेणेव भग्गकूवए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरगं निप्पाणं, निच्चेटू, जीवविप्पजढं पासंति, पासित्ता हा! हा! अहो अकजमिति कह देवादिन्नं दारगं भग्गकूधामओ उत्तारेति, उत्तारित्ता धण्णस्स सत्थवाहस्स हत्थे गं दलयति । ___ तते णं ते नगरगुत्तिया विजयस्स तक्करस्स पयमग्गमणुगच्छमाणा जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता माल्याकच्छयं अणुपविसति, अणुपविसित्ता विजयं
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[ १६१ ]
तक्कर ससक्खें, सहोड, सगेवेनं, जीवग्गाहं गिहात, गाण्हत्त। अद्विमुदिजाणुको परपहारसंभग्गमहियगत्तं करेंति, करित्ता अवउडाबंधणं करेंति, करित्ता देव दिन्नगस्स दारगस्स आभरणं गेण्हति, गेण्हित्ता विजयस्स तकरस्स गीवाए बंधति, बंधित्ता मालुयाफच्छगाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता रायगिहं नगरं अणुपविसंति, अणुपत्रिसित्ता रायगिहे नगरे कसप्पहारे य लयप्पहारे य छिवापहारे य निवाएमाणा निवाएमाणा छारं च धूलि च कयवरं च उवार पकिरमाणा पकिरमाणा महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा एवं वदति
"एस णं देवाणुप्पिया! विजए नामं तकरे .... जाव गिद्धे विव आमिसभक्खी बालघायए बालमारए, तं नो खलु देवाणुप्पिया! एयरस केति राया वा रायपुत्ते वा रायमचे वा अवरज्झति, एत्थट्टे अप्पणो सयाति कम्माई अवरज्झंति" त्ति कंट्ट जेणामेव चारगसाला तेणामेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता हडिवंधणं करेंति,करित्ता भत्तपाणनिरोहं करेंति, करित्ता तिसंझं कसप्पहारे य जाव निवाएमाणा निवाएमाणा विहरति ।
तते णं से धण्णे सत्थवाहे मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरियणेणं साई रोयमाणे विलवमाणे देवदिन्नस्स दारगस्स
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[१६२ ]
सरीरस्स महया इड्डीसकारसमुदाणं निहरणं करेति. करिता बहूई लोतियातिं मयगकिच्चाई करेति, करित्ता केणइ कालंतरेणं अवगयसोए जाए यावि होत्था।
तते ण से विजए तक्करे चारगसालाए तेहिं बंधेहि, चधेहिं, कसप्पहारेहिं य तहाए य छुहाए य परब्भवमाणे कालमासे कालं किच्चा नरएसु नेरइयत्ताए उववन्ने ।
से णं ततो उव्यट्टित्ता अणादीयं, अणवदग्गं, दीहमद, चाउरंतसंसारकतारं अणुपरियटिस्सति । __ एवामेव जंबू! जे णं अम्हं निग्गंथो वा निग्गंधी वा आयरियउवझायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वतिए समाणे विपुलमणिमुत्तियधणकणगरयणसारेणं लुम्भति से विय एवं चेव ।
(श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गम् , अध्ययनम् २)
HOM
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२८
कमलामेला
बारवईए बलदेवपुत्तस्स निसदस्स पुत्तो सागरचंदो रूवेणं ठकिट्टो, सव्वेसि संवादीणं इट्टो |
तत्थ य बारवईए वत्थव्वस्स चैव अण्णस्स रण्णो कमलामेला नाम धूआ उक्किदुसरीरा । सा य उग्गसेणपुत्तस्स णभसेणस्स वरेल्लिया |
इतो य णारदो कलहदलियं विभग्गमाणो सागरचंदस्स कुमारस्स सगासं आगतो । अम्मुट्टिओ, उवविट्टे समाणे पुच्छति “भगवं । किंचि अच्छेरयं दिट्टं ?"
" आमं दिट्टं ।"
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[ १६४ " कहिं ! कहेह ।" " इहेव बारवईए कमलामेला णाम दारिया । "कस्सइ दिण्णिआ?" "आम "कयं मम ताए समं संपओगो भवेजा"? "ण याणामि" त्ति भणित्ता गतो ।
सो य सागरचंदो तं सोऊण णवि आसणे, णवि सपणे धिति लमति । तं दारियं फलए लिहंतो णामं च गिण्हतो अच्छति ।
णारदोऽवि कमलामेलाए अतिसं गतो। ताए वि पुच्छिओ --"किंचि अच्छेरयं दिटुपुव्वं" ति । __ सो मणति - "दुवे दिवाणि, स्वेण सागरचंदो, विरूवत्तणेण णभसेणओ" | सागरचंदे मुच्छिता, णहसेणए विरत्ता, णारएण समासासिता। तीए भणितं-- "भगवं किह मम सो भत्ता होजति?" ___ तेण भणियं-"अहं करेग तेण ते सह संजोग" ति । ततो तीसे रूवं पट्टियाए लिहिऊणं गतो सागरचंदसगास । गे तम्मि अज्झोववन्नो न खाति न पिबति ।
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[ १६५ ]
.ताहे सागरचंदस्स माता अण्णे अ कुमारा आदण्णा मरइ ति। ततो संबो उवागतो जाव पेच्छति सागरचंद विलवमाणं । तेणं सो चिंताकुलेण ण णातो एंतो। ताहे पच्छतो ठाइऊण संवेण अच्छीणि दोहि वि हत्येहि छादिताणि । सागरचंदेण भणितं --"कमलामेल" ति? ___ संबो हसिऊण भणति - "णाहं कमलामेला, कमलामेलो अहं पुत्ता!"|
सो पाएसु पडिऊणं भणति--" तात! उत्तमपुरिसा सच्चपइन्ना, तो मम कमलामेलं मेलवेहि" ति ।
संबेण अन्भुवगतं । ततो चिंतेति-"अहो मए आलो अमुवगओ। इदाणी किं सक्कमण्णहाकाउं? णिव्वहियब्वं ।।
ततो पज्जुन्नसगासं पाटिहारियं पन्नत्तिविज मग्गति । तेण दिन्ना।
ततो कमलामेलाए विवाहदिवसे विजाए पडिरूवं विउन्विऊणं अवहरिता कमलामेला चेव । तए उज्जाणे सागरचंदस्स तीए सह विवाह काऊणं उवललंता अच्छति ।
विजापडिरूवगं पि विवाहे वट्टमाणे अट्टहास काऊणं उप्पतितं । ततो जातो खोभो । ण णजति केण हारिय? ति।
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[१६६]
पारदो पुच्छितो साति .-" रेवतउन्नाणे दिद त्ति, केणवि विजाहरण अवहिय" ति। ___ततो सबलवाहणो णिग्गतो कण्हो । संवो विजाहररूवं काउणं संपलग्गो जुद्धं । सव्वे परातिता। कण्हेण साई लग्गो । ततो जाहेऽण गातो रुटो तातो ति, ततो से चलणेसु पडितो। कण्हेण अबाडितो।
संबेण मणितं- "एसा अम्हेहिं गवखेणं अप्पाण मुयंति किह वि संभाविता"। ..
ततो कण्हेण उवगमितो उग्गसेणो । पच्छा इमाणि भोगे भुंजमाणाणि विहरति ।
अरिद्रनमी समोसरितो। ततो सागरचंदो कमलामेला य सामिसगासे धर्म सोऊण गहिताणुव्वयाणे सावगाणि संवुत्ताणि ।
ततो सागरचंदो अटुमिचउद्दसीसु सुन्नघरे सुसाणेसु वा एगराइयं पडिमं गतो। णभसेणेणं आयण्णिऊणं तंबियाओ सूती घडाविताओ। ततो सुन्नघरे पडिनं ठियस्स तस्स वीससु वि अंगुलीणहेसु आहोडियातो, सम्ममहियासेमाणो य वेयणाभिभूतो कालगतो देवो जातो।
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[ १६७ ]
ततो बितियदिवसे गवेसंतेहि दिट्ठो । अक्कंदो जातो । दिट्टा सूतीतो । गवेसंतएहिं तंब कुट्टगसगासे उबलदं णभसेणएण कारितातो त्ति । रूसिता कुमारा । णभसेणगं मग्गति । जुद्धं दोण्ह वि बलाणं संप्पलग्गं । ततो सागरचंदो देवो अंतरे ठाऊणं उवसामेति । पच्छा कमलामेला भगवतो सगासे पव्वइया ।
( आवश्यक उपोद्घातनियुक्ति: - भावानुयोगः )
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२९
सम्मइगाहा दव्वं खित्तं कालं भावं पजाय-देस-संजोगे । भेदं च पडुच्च समा भावाणं पण्णवणपज्जा ॥६० ॥ ण हु सासणभत्तीमत्तएण सिद्धतजाणओ होइ । ण विजाणओ वि णियमा पण्णवणाणिच्छिओ णाम ॥ ६३ ॥ सुत्तं अत्यनिमेणं न सुत्तमेत्तेण अत्थपडिवत्ती । अत्यगई उण णयवायगहणलीणा दुराभिगम्मा ॥ ६४॥ तम्हा आहिंगयसुत्तेण अत्थसंपायणम्मि जइयव्वं । आयरियधारहत्था हंदि महाणं विलंबेन्ति ।। ६५॥
-
* इन गायाओं का सार टिप्पण नं. ५५ में दिया गया है यह देखना चाहिये ।
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[ १६९]
जह जह बहुस्सुओ संमओ य सिस्सगणसंपरिखुडो य । अविणिच्छिओ य समए तह तह सिद्वंतपडिणीओ ॥६६॥ चरण-करणप्पहाणा ससमय-परसमयमुक्कवावारा । चरण-करणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण याति ॥ १७ ॥ णाणं किरियारहियं किरियामेतं च दो वि एगता । असमत्या दाएउं जम्म-मरणदुक्ख मा भाइ ॥ ६८ ॥ नेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा न निव्वडइ । तस्स मुवणेकगुरुणो नमो अणेगंतवायरस ॥ ६९ ॥
(सन्मतितर्कप्रकरणम्-३ काण्डः)
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३०
नीइवज्जा
(१) सन्ते हि असन्ते हि य परस्स किं जपिएहि दोसेहिं । अत्थो जसो न लब्भइ सो वि अमित्तो कओ होइ ॥ ८२॥ (२) पुरिसे सच्चसमिद्धे अलियपमुक्के सहावसतुट्टे ।
तवधम्मनियममइए विसमा वि दसा समा होइ ॥ ८४ ॥ (३) सीलं वरं कुलाओ दालिद्दं भव्वयं च रोगाओ । विज्जा रज्जाउ वरं खमा वरं खुदु वि तवाओ ॥ ८५ ॥ (४) सीलं वरं कुलाभो कुलेण किं होइ विगयसीलेण । कमलाई कद्दमे संभवन्ति न हु हुन्ति मलिणाई ॥ ८६ ॥ (५) जं जि खमेइ समत्थो घणवन्तो जं न गन्यमुव्वहइ । जं च सविज्जो नमिरो तिसु तेसु अलङ्किया पुहवी ॥८७॥
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[ १७१]
(६) छन्दं जो अणुवट्टइ मम्मं रक्खइ गुणे पयासेइ ।
सो नवरि माणुसाणं देवाण वि वलही होइ ॥ ८८ ॥ (७) छणवञ्चणेण वरिसो नासइ दिवसो कुभोयणे मुत्ते ।
कुकलत्तेण य जम्मो नासइ धम्मो अधम्मेण ॥ ८९॥ (८) छन्नं धम्म पयर्ड च पोरिसं परकलत्तवञ्चणयं ।
गञ्जणरहिओ जम्मो राढाइत्ताण संपडइ ॥ ९० ॥
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धीरवज्जा (१) सिग्धं आरुह कजं पारद्धं मा कहिं पि सिढिलेसु ।
पारद्वसिढिलियाई कज्जाइ पुणो न सिज्झन्ति ॥ ९२ ॥ (२) झीणविहवो वि सुयणो सेवइ रणं न पत्थए अन्नं ।
मरणे वि अइमहग्धं न विकिणइ माणमाणिकं ।। ९४ ॥ (३) बे मग्गा भुवणयले माणिणि ! माणुन्नयाण पुरिसाणं ।
अहवा पावन्ति सिरिं अहव भमन्ता समप्पन्ति ॥१६॥ (8) नमिऊण जं विढप्पइ खलचलणं तिहुयणं पि किं तेण ।
माणेण जे विढप्पइ तणं पि तं निव्वुई कुणइ ।। १००॥ (५) ते धन्ना ताण नमो ते गल्या माणिणो थिरारम्भा।
जे गरुयवसणपडिपेल्लिया वि अन्नं न पत्यन्ति ॥१०१॥
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[ १७३ ]
(६) तुङ्गो चिय होइ मणो मणंसिणो अन्तिमासु वि दसासु । अत्यन्तस्स वि रविणो किरणा उद्धं चिय फुरन्ति ॥ १०२ ॥ (७) ता वित्थिष्णं गयणं ताव च्चिय जलहरा अइगहीरा ।
ता गरुया कुलसेला जाव न धीरेहि तुल्लन्ति ॥ १०४ ॥
(८) मेरू तिणं व सग्गं घरङ्गणं हत्यवित्तं गयणयलं ।
वाहलियाइ समुद्दा साहसवन्ताण पुरिसाणं ॥ १०५ ॥ (९) संघडियघडियविघडिय - घडन्त विघडन्तसंघडिज्जन्तं । अवहत्थिऊण दिव्वं करेइ धीरो समारद्धं ॥ १०६ ॥
-:०:
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पिउकिर्चावचारो मगहापुरे अरहंतसासणरओ उसमदत्तो नाम इब्भो । तस्स य सीलालंकारधारिणी धारिणी नाम भारिया । सा य पुण्णदोहला अतीतेसु नवसु मासेसु पयाया पुत्तं । कयजायकम्मस्स य कयं नाम "जंबु" ति: धाइपरिक्खित्तो य सुहेण वडिओ। कलाओ य गेण गहीयाओ। पत्तजोवणो य अलंकारमूओ मगहाविसयस्स जहासुहमभिरमइ ।। ___ तम्मि य समए भयवं सुहम्मो गणहरो रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए समोसरिओ। सोऊण य सुहम्मसामिणो आगमणं परमहरिसिओ बरहिणो इव जलधरनिनादं जंबुनामो पवहणाभिरूढो निजाओ। भयवंतं तिपयाहिणं काऊण सिरसा नमिऊण आसीणो।
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[ १७५ ]
गणहरेण जंबुनामस्स परिसाए य (धम्मो) पकहिओ। तं सोऊण जंबुनामो विरागमग्गमस्सिओ वंदिऊण गुरुं विनवेइ
- " सामि! तुभं अंतिए मया धम्मो सुओ, तं जाव अम्मापियरो आपुच्छामि ताव तुभं पायमूले अत्तणो हियमायरिस्सं।"
भगवया भणियं-"किच्चमेयं भवियाणं।" __ तओ पणमिऊण पवहणमारूढो जंबुनामो आगयमग्गेण य पट्रिओ। पत्तो य नियगभवणं । अम्मापियरं कयप्पणामो भणइ
"अम्मयाओ! मया अज सुहम्मसामिणो समीवे जिणोवएसो सुओ। तं इच्छं, जत्य जरामरणरोगसोगा नत्यि तं पदं गंतुमणो पव्वइस्सं । विसज्जेह में ।"
तं च तस्स निच्छयवयणं सोऊण बाहसलिलपच्छाइज्जवयणाणि भणति__ "सुट्ट ते सुओ धम्मो, 'अम्ह पुण पुव्यपुरिसा अणेगे अरहंतसासणरया आसी, न य 'पव्वइय' त्ति सुणामो । अम्हे वि बई का धम्म सुणामो, न उण एसो निच्छओ समुप्पन्नपुन्यो । तुमे पुण को विसेसो अज्जेव उवलद्धो जओ भणसि 'पव्वयामि त्ति?"
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[ १७६]
तओ भणइ जंबुनामो - " अम्मताओ ! को वि बहुणा
वि कालेण कज्जविणिच्छ्यं वच्चइ, अवरस्स थेवेणावि कालेणं
विसेसपरिण्णा भवति " ।
2
तओ भणति - " जाय। जया पुणो एहिति सुधम्मसामी विहरतो तया पव्वइस्ससि । "
"अम्मयाओ ! अहं संपयं वालभावेण भोयणाभिलासी जिम्भिदियपडिवद्धो, सुहमोयगो मे अप्पा । जया पुण पंचिदियविसय संपलग्गो भवेज्जा तया अणेगाणं जम्ममरणाणं आभागी भवेज्ज । ता मरणभीइरं विसज्जेह मं, पव्वइस्सं । "
एवं भणता कलणं परुण्णा भणइ णं जणणी -
" जाय ! तुमे कओ निच्छओ, मम पुण चिरकाल. चितिओ मणोरहो कया णु ते वरमुहं पासिज्जं ति । तं
जइ तुमं पूरेसि तो संपुण्णमणोरहा तुमे चैव अणुपव्वज्जा । "
भणिया य जंबुनामेणंपाओ तो एवं भवड, करिस्सं ते वयणं, ण उण पुणो पडिबधेयन्वो त्ति कल्लाणदिवसेसु अतीतेसु । "
" अम्मो ! जइ तुमं एसोऽभि
-&
- "जाय ! जं भणसि तं
तओ तीए तुट्टाए भणियं - तह काहामो । अस्थि णे पुव्ववरियाउ इन्भकन्नगाउ । ताउ
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[ १७७ ]
तुहाणुरूवाउ 'पुव्ववरियाउ' ति करेमो तेसिं सत्यवाहाणं विदितं " ___संदिदं च तेसि - पव्वइहिइ जंबुनामो कल्लाणे निव्वत्ते, किं भणह ?' ति।
तेसिं च णं वयणं सोऊण सह परिणीहि सलावो जातो विसण्णमाणसाणं 'किं काय'ति । ____सा य पवित्ती सुया दारियाहिं । ताओ एकेकनिच्छयाउ अम्मापियरं भणति-" अम्हे तुम्हेहिं तस्स दिन्नाउ, धम्मओ सो ने य भवति, जं सो अवसिहीति सो अम्ह वि मग्गो" त्ति ।
.. तं च तारिसं वयण सोऊणं सत्यवाहहिं विदिशं कयं उसभदत्तस्स।
पसत्थे य दिणे पमक्खिओ जंबुनामो विहिणा, दारियाउ वि सगिहेसु । तओ महतीए रिद्धीए चंदो विव तारगासमीवं गओ वधूगिहाति । ताहिं सहिओ सिरिधितिकित्तिलच्छीहि व निअगभवणमागतो। तओ कोउगसएहिं ण्हविओ सव्वालंकारविभूसिओ य अभिणंदिओ पउरजणेणं । पूजिया समणमाहणा, नागरया सयणों य पओसे वीसत्यो मुंजइ । जंबुनामो य
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[ १७८ ] मणिरयणपईवुज्जोयं वासघरमुत्रगतो सह अम्मापिऊहिं, ताहि य नववहूहि ।
एयम्मि देसयाले जयपुरवासिणो विंझरायस्स पुत्तो पभवो नाम कलासु गहियसारो, तस्स भाया कणीयसो पहू नाम । तस्स पिउणा रजं दिन्नं ति पभयो माणेण निग्गओ, विझगिरिपायमूले विसमपएसे सन्निवेसं काऊणं चोरियाए जीवइ ।
सो जंबुनामविभवमागमेऊण विवाहूसवमिलिअं च जणं, तालुग्घाडणिविहाडियकवाडो चोरभडपरिखुडो अइगतो भवणं । ओसोवितस्स य जणस्स पवत्ता चोरा वत्याभरणाणि गहेउं । भणिया जंबुनामेण असंभंतेण ---" भो! भो! मा छिव निमंतियागयं जणं"।
तस्स वयणसमं थंभिया ठिया पोत्यकम्मजस्खा विव ते निचिट्ठा । पभवण य वहुसहिओ दिट्ठो जवुनामो सुहासणगतो तारापरिविओ विव सरयपुण्णिमायंदो।
ते य चोरे थंभिए दगुण भणिओ पभवेणं
"भद्दमुह ! अहं विंशरायसुतो पभवो जइ सुतो ते । मित्तभावमुक्गयस्स मे तुमं देहि विज्ज थभिणि मोयणि च, अहं तव दो विज्जाओ देमि-तालुग्वाडणि ओसोवणि च ।
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[ १७९] भाणिओ जंबुनामेण -- "पभव! सुणाहि, अहं सयणं विभवं च इमं वित्थिन्नं चइऊण पभायसमए पव्वइउकामो, सावओ मया सब्बारंभा परिचत्ता।"
तं च सोऊण पभवो परमविम्हिओ उवविट्ठो- " अहो! अच्छरियं !! जं इमेणं एरिसी विभूई तणपूलिया इव सव्वहा परिचत्ता, एरिसो महप्पा वंदणीउ " त्ति विणयपणओ. भणइ
"जंबुनाम! विसया मणुयलोयसारा, ते इत्थिसहिओ परिभुजाहि । साहीणसुहपरिचायं न पंडिया पसंसति । अकाले पवइड कीस ते कया बुद्धी? परिणयवया धम्ममायरतो न गंरहिया ।"
पुणो कयंजली विन्नवेइ पभवो- “सामी! लोगधम्मो वि ताव पमाण कीरउ, पिउणो उवयारो कओ होइ, तेर्सि पुत्तपञ्चयं तित्ति वणंति वियक्खणा--'निरिणो य पुरिसो सग्गगामी होइ'"
ततो जंबुनामो भणइ -"न एस परमत्थी, पुत्तो पिउणो भवंतरगयस्स अविजाणओ उवयारबुद्धीए अवगार करिज्जा । न य पुत्तपञ्चया तित्ती पिउणो, 'सयंकयकम्म
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[ १८० ]
फलभागिणो जीवा'। जं पुत्तो देइ पियरं उद्दिसिऊण सा न भत्ती । जहा जम्मणं परायत्तं, तहा आहारो वि सकम्मनिविट्ठो। जे य खीणवंसा ते निराधारा अतित्ता सव्वमणागयकालं कह वट्टिहिंति ? पुत्तसंदिदै वा भत्तपाणं अचेयणं कहं पिउसमीवमेहति ? तमुदिस्स वा जं कयं पुण्णं? जो पिता पितामहो वा कम्मजोगेण कुंथु पिपीलिया वा तणुसरीरो जातो होज्जा, तम्मि य पदेसे जइ पुत्तो उदगं तन्निमित्तं तस्स देज्जा, तस्स कहं पस्ससि उवगारं अवगार वा? अहवा सुणाहि--- ___ "तामलित्तीनयरीते महेसरदत्तो सत्यवाहो। तस्स पिया समुद्दनामो वित्तसंचय-सारकखण-परिखुड्डिलोभाभिमूओ मओ मायाबहुलो महिसो जाओ तम्मि चेव विसए। माया वि से उवहि-नियडिकुसला बहुला नाम चोकखवाइणी पइसोकेण मया सुणिया जाया तम्मि चेव नयरे ।
" तम्मि य समए पिउकिच्चे सो महिसो गेण किणेठण मारिओ। सिद्धाणि य वंजणाणि पिउमंसाणि, दत्ताणि जणस्स | बितियदिवसे तं मंसं मज च आसाएमाणो, तीसे माउसुणिगाए मंसखंडाणि खिवइ, सा वि ताणि परितुवा भक्खड़।
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[ १८१]
" साहू य मासखवणपारणए तं गिमणुपविट्ठी, पस्सइ य महेसरदत्तं परमपीतिसंपत्तं । तदवत्थं च ओहिणा आभोएउण चितिअं अणेणं
""अहो ! अन्नाणयाए एस पिउमंसाणि खायइ, सुणिगाए य देइ साणि । ' ' अकज्जं ति य वोत्तूण निम्गओ ।
" महेसरदत्तेण चितियं - ' कीस मन्ने साहू अगहियभिक्खो 'अकज्जं ' ति य वोत्तृण निम्माओ ?' आगओ य सार्द्धं गवेसंतो, विवित्तपएसे दट्ठूण, वंदिऊण पुच्छर – · भयवं ! किं न गहियं मिक्खं मम गिहे ? जं वा कारणसुदीरियं तं कहेह' ।
साहुणा भणिओ 'सावग ! ण ते मंतुं कायव्वं ।' पिउरहस्सं कहियं । तं च सोऊण जायसंसारनिव्वेओ तस्सेव समीवे मुक्कगिहवासो पव्वइओ । "
(वसुदेवहिण्डी- प्रथम खण्डम् )
"
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टिप्पणियां
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१. तते णं-जहां शब्द से नहीं जुडा हुआ 'ण' का प्रयोग आता है वहां वह अलंकार के लिये समझना । 'तते' शब्द का अर्थ " उसके वाद" है। इस शब्द की मूल प्रकृति 'त' (तत्) शब्द है । 'ततो' 'तओ' (ततः) के समान इसकी उपपत्ति मालूम होती है। कई जगह 'तते' के अर्थ में 'तए' का भी प्रयोग आता है। संभव है कि 'तया' तथा 'तइया' (तदा) का उच्चारांतर यह 'तए' हो ।
२. अम्मापियरो-"मातापिता" । मातावाचक 'अंबा' शब्द का यह 'अम्मा' शब्द भिन्न प्रकार का उच्चार है। जैसे 'अंब' का 'आम' (आन) उच्चारण होता है वैसे ही म् के साहचर्य सेब का भी 'म' उञ्चारण हो गया है। इस शब्द का प्रयोग माता अर्थ में पाली में भी आता है।
३. कट्ट-'कृत्वा' के अर्थ में यह आर्पप्रयोग है। व्याकरण के नियम से यह निष्पन्न नहीं होता है। परन्तु उच्चारण की दृष्टि से इसका पृथक्करण इस प्रकार हो सकता है । ‘कृत्वा'गत स्वरसहित व का संप्रसारण अर्थात् उकार करके उच्चारभार समान रखने के लिये तकार का द्वित्व हो गया है -कृत्वा-कत्त-कटु ।
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४. जेणामेव -- येन एव --जेण एव'| "जिस तरफ" अर्थ का सूचक, विभक्त्यन्त प्रतिरूपक 'जेण' अव्यय है। उच्चार की सुगमता के लिये 'जेण एव' का 'जेणामेव' हो गया है। यह प्रयोग, प्राचीन प्राकृत में बहुत आता है ।
५. समणे भगवं- मागधी भाषा में पुलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'ए' प्रत्यय लगता है। तदनुसार 'समण' (श्रमण) शब्द से यह 'समणे' बना है । आप प्राकृत में कोई कोई प्रयोग मागधी भाषा के भी आते हैं।
भगवं-शौरसेनी में (८-४-२६५) के अनुसार 'भवत्' और 'भगवत्' शब्द के प्रथमा के एकवचन में न् का मकार हो जाता है। तदनुसार इस रूप की उपपत्ति होती है । मागधी की तरह आर्पप्राकृत में कोई प्रयोग शौरसेनीका भी आता है।
६. तिक्खुत्तो-'वार' के अर्थ में 'कृदस्' प्रत्यय का प्रयोग संस्कृत में आता है। आचार्य हेमचन्द्र ने इसके वदले प्राकृत व्याकरण में (८-२-१५८ सूत्र में ) 'हुत्तं' का प्रयोग बताया है। 'तिक्खुत्तो' शब्द में 'खुत्तो' रूप 'कृत्वस्' का सरल उपचारांतर है। यह 'खुत्तो' 'हुतं' का पूर्ववर्ती उच्चार मालूम होता है- कृत्वस्-खुत्तो-हुत्तं । पाली भाषा में 'खुत्तो' के स्थान में "खत्तुं" का प्रयोग आता हैतिखत्तुं ।
७. आयाहिणं पयाहिणं-' आदक्षिणं प्रदक्षिणं' । पूज्य पुरुष के आसपास दाहिनि ओर से वांई ओर घूमना ---
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प्रदक्षिणा करना । ८-२-७२ सूत्र के अनुसार दक्षिण, दाहिण ( दक्षिण) ये दो रूप होते हैं। आदाहिणं पदाहिणं के स्थान में इधर 'द' का लोप करके आयाहिणं, पयाहिणं प्रयोग किया गया है। कई जगह आदाहिणं पदाहिणं प्रयोग भी आता है
८. वदासी- व्याकरण के सामान्य नियम के अनुसार 'वदीअ' रूप होता है (८-३-१६३). परंतु ८-३-१६२ के अनुसार यह आपवादिकरूप आप प्राकृत में बनाया गया
उत्तरका
९. देवाणुप्पिया-'देवानां प्रियः - देवों के वल्लभ'। 'देवों के वल्लभ' अर्थ में 'देवानंपियो' शब्द का प्रयोग अशोक की धर्मलिपि में भी आता है। 'देवाणप्पिय' वा 'देवाणंपिय' की जगह 'देवाणुप्पिय' ऐसा आप्रयोग हुआ है। इस शब्द का प्रयोग श्रमणसंस्कृति के ग्रंथों में वारंवार आता है। परंतु ब्राह्मणसंस्कृति के पाणिनि उत्तरकालीन विद्वानों ने इसका 'मूर्ख' अर्थ बताया है । संभव है कि जैनों
और बौद्धों के इस प्रिय शब्द का उपहास करने के लिये, पाणिनि के वार्तिककार ने इसको 'मूर्ख' अर्थ में लगा लिया हो। इसके पहले इसका ऐसा अर्थ न था । वार्तिक के अनुसार ही जैनाचार्य हेमचंद्र ने भी जैनधर्म के इस अच्छे से अच्छे शब्द को स्वरचित कोश में 'जाल्म' का पर्यायरूप बताया है (अभिधानचिंतामणि, मर्त्यकांड श्लो. १६)। मूल सिद्धहेमव्याकरण में ऐसे अर्थ के लिये कोई स्थान नहीं है
इस मियत बताया है।
पाणिनि
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परंतु उसके लघुन्यासकार ने "देवानांप्रिय" शब्द का 'जु' और 'मूर्ख' अर्थ बताया है। पिछले मागमटीकाकारों ने तो देवाणुप्पिय की उपर्युक्त मूल व्युत्पत्ति को लक्ष में न रख कर, उसका साम्य 'देवानुप्रिय' से बताया है। संभव है कि “देवानांप्रिय' को उन्होंने अपने तत्कालीन साहित्य में मूर्ख अर्थ में देखा हो और इससे भ्रान्ति में पड कर यह नई विचित्र कल्पना की हो ।
१०. उंबरपुप्फमिव-उंबरे के पेड को फूल नहीं होते हैं इस लिये वे दुर्लभ है। इस प्रकार 'उंबरे के फूल की तरह दुर्लभ'। उंबर शब्द का संस्कृत उच्चार उदुंबर है । उंबर की तरह प्राकृत में दूसरा प्रयोग उउंबर भी होता है।
१५. से जहा नामए-बौद्ध पिटक ग्रंथों में इसके स्थान में 'सेय्यथा' प्रयोग आता है । उसका अर्थ 'तद्यथा' है। तत् शब्द का मागधी में पुलिंग में 'से' रूप होता है। परन्तु इधर आर्पता के कारण इसका प्रयोग नपुंसक लिंग में भी हुआ मालूम होता है। 'नामए' शब्द भी 'से' की तरह ही लिङ्गव्यत्यय से प्रयुक्त हुआ है। इसका संस्कृत उच्चारण नामकं -नाम है ।।
१२. पव्वतित्तए - "प्रव्रजितुम् - प्रव्रज्या लेने के लिय" । इस रूप के अंत का 'तए' 'तुम्' का अर्थ बताता है। पाली भाषा मैं तुम् के अर्थ में तचे का प्रयोग होता है
और पागिनीय ३-४-९ के अनुसार पैदिक संस्कृत में भी 'तवे' और 'तवै' का प्रयोग होता है। इन तीनों का
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साम्य परस्पर स्पष्ट है। उक्त रूप में मुख्य धातु ब्रज है। साधारण नियम के अनुसार 'तए' प्रत्यय लगने से उसका रूप 'पन्चइत्तए' होना चाहिए। और ऐसा कई जगह आता भी है। परन्तु इधर 'जि' के 'ज' का " व्यंजनों का प्रयोग" नियम १ अनुसार लोप हो कर, बचे हुए 'इ' स्वर के साथ त् का प्रयोग हुआ है। इसका खुलासा किसी भी प्राकृत व्याकरण में नहीं मिलता। अनेक प्रयोगों के देखने से मालूम होता है कि जहाँ उपर्युक्त नियम के अनुसार क् ग् च् ज् इत्यादि का लोप होता है वहाँ बचे हुए स्वर में तकार आ जाता है। जैसे कि सामाइअ (सामायिक) की जगह 'सामातीत'; आराधक की जगह 'आराहत' इ० आते हैं। इस तरह पुराणे रूपों में जो तकार आता है उसके लिए दो कल्पना हो सकतीं । एक तो लेखकों के लेखन सम्बन्धी भ्रम से क् गज वगेरे के लोप होने के बाद बचे हुए स्वर के स्थान में किंवा स्वरस्थानीय यकार के स्थान में 'त' लिखा गया हो। अथवा यह भी संभव है कि किसी काल में स्वरों के स्थान में त बोलने या लिखने की पद्धति ही रही हो। भरत के नाट्यशास्त्र में लिखा है कि चर्मण्वती नदी के पार अर्बुद के आसपास जो प्रदेश है, तत्सम्बन्धी पात्रों के लिये तकारवहुल भाषा का प्रयोग करना (ना. शा. अ. १७, श्लो० ६२)। अस्तु । इसी कथासंग्रह में भी 'पगासाइं' की जगह 'पंगासाति' और 'हेऊई' की जगह 'हेजति' ऐसे अनेक प्रयोग आते हैं । उन सब के त् का खुलासा उक्त पद्धति से कर लेना चाहिये ।
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१३. भंते --- यह शब्द 'भदंते' इस प्राकृत रूप का त्वरित उच्चार है। भदंते-भयंते-भंते । इस रूप की निष्पत्ति 'समणे' की तरह समझ लेना ।।
१४. झियायमाणंति --"जलता हुआ" | पाली में 'जलने' अर्थ में 'झाय्' धातु का प्रयोग आता है। इसी धातु से वर्तमान कृदन्त होकर 'झियायमासि' यह सप्तन्यंत आई शब्द बना है।
संस्कृत में क्षय अर्थ में और क्षि धातु का प्रयोग आता है। 'व्यंजनों का प्रयोग' नियम ७ टिप्पण ९ के अनुसार क्ष का झ होकर आर्ष प्रयोग की गति से, संभव है कि इन दोनों धातुओं में से किसी एक से यह प्रयोग बना हो । परंतु टीकाकार ने इसका संस्कृत प्रतिशब्द 'ध्मायमाने' बताया है।
१५. गहाय --" गृहीत्वा -- ग्रहण करके" | 'आदाय' 'निस्साय' इत्यादि रूपों की तरह यह आर्ष प्रयोग भी गह धातु से निष्पन्न हुआ मालूम होता है। व्याकरण में जो गह धातु के रूप निष्पन्न होते हैं उनमें इसके समान 'गहिय' 'गहिया' ये दो रूप हैं।
१६. गयाए - इस रूप की प्रकृति 'आया' (आत्मा) है। आर्ष होने के कारण इसको स्त्रीलिंग के तृतीया के एकवचन का प्रत्यय लगने से आयाए रूप हुआ है। आया के पर्याय अत्ता, आत्ता, आता शब्द भी आते हैं ।
१७. हियाए - "हिताय - हित के लिये"। चतुर्थी के एकवचन में 'य' प्रत्यय लगता है। तदनुसार 'हियाय' ऐसा
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होना चाहिए था । परंतु 'य' का आर्ष में ए उच्चार हो जाने से 'हियाए' रूप हो गया है। इसी तरह खमाए, सुहाए इत्यादि रूप भी समझ लेने ।
१८. मणामे-" सुंदर"। पाली साहित्य में इस अर्थ में 'मनाप' शब्द का प्रयोग आता है। 'मणाम' शब्द भी 'मनाप' का ही भिन्न उच्चारण है । मनाप, मणाव, मणाम ।
१९. पाणेहिं, भूतेहिं, जीवेडिं, सत्तेहिं - यद्यपि ये चारों शब्द लगभग समान अर्थवाले हैं तथापि टीकाकार ने इनका भेद इस प्रकार बताया है। स्पर्श और रसना इंद्रिय वाले, स्पर्श, रसना और घ्राणेंद्रियवाले; स्पर्श, रसना, घ्राण
और चक्षु इंद्रियवाले ये सब प्राण हैं। वनस्पति भूत है। जिनको श्रोत्रंद्रियादि पांचों इंद्रियों पूर्ण हैं वे सब जीव है । और बाकी के पृथ्वी, पाणी इत्यादि सत्त्व कहलाते हैं।
२०. संचाएति -"सकता है" । आचार्य हेमचंद्र ने लिखा है कि शक् के अर्थ में चय् धातु का प्रयोग प्राकृत में होता है । संचाएति' इसी चय का रूपान्तर है । संभव है कि शक् के आदि श् का च उच्चार करने से प्राकृत में चय धातु का व्यवहार हो गया हो-शक्-सय्-चय ।
अथवा संस्कृत में चय् और चाय यह दो धातु भी अलग अलग मिलते हैं। उनमें से किसी एक से भी इस रूप की निष्पत्ति हो सकती है। धातु अनेकार्थक होने से अर्थ की भी गरबड मिट सकती है। परंतु शक् से ही इस रूप की निष्पत्ति उचित जान पडती है।
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२१. समुप्पज्जित्था --" समुदपदिष्ट - उत्पन्न हुआ भूतकाल का यह आर्ष प्रयोग है। आचार्य हेमचंद्र ने तो भूतकाल में 'ईअ' 'सी' 'ही' और 'हीअ' के अतिरिक्त और प्रत्यय नहीं बताये हैं । परंतु आर्ष प्राकृत में भूतकाल सम्बन्धी ' इत्या' प्रत्ययवाले बहुत से क्रियापद आते हैं । पाली भाषा में भूतकाल में आत्मनेपद के तृतीयपुरुष के एकचचन में इत्थ प्रत्यय भी आता है, जैसे कि ' अभवित्य ' | संस्कृत भाषा में प्रत्येक आत्मनेपदी सेट् धातु से भूतकाळ में प्रायः इष्ट' प्रत्यय लगता है । इस तरह इत्य, इत्था, इष्ट इन तीनों प्रत्ययों में सादृश्य मालूम होता है । २२. हरिथराया उत्तम हाथी' । यहां पर जो उत्तम हाथी के लक्षण बताये गये हैं प्रायः वे संहिता के 'हस्तिलक्षण' प्रकरण में भी हैं । उक्त संहिता में हाथी की चार भद्र, मंद, मृग, और मिश्र । उनमें
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ही लक्षण वाराही
( अ. ६६ ) आतें
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भद्र' जाति का होता है ।
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२३. लिंडणियरं – “ लिंडे के समूह को - लीदको " । गूजराती भाषा में नासिका के मलका वाचक लींट' शब्द प्रसिद्ध है । । संस्कृत के 'लिष्ट' शब्द में से इसकी उत्पत्ति मालूम होती है । 'लिष्ट' शब्द के 'शू' का लोप कर देने से और 'ट' का 'ट' करके उसके पूर्व अनुस्वार लगा देने से ' लिंट' शब्द सहज ही हो जाता है - लिष्ट - लिट्ट-लिंट | उपर्युक्त लिंट से ही ' मल' अर्थ की सदृशता के कारण टू का द होकर 'लींड' शब्द बना हुआ मालूम होता है । लाद,
बताई है -
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उत्तम हस्ती
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लीद लींडी इ० शब्द भी इसी 'लिंट' के रूपान्तर है ।
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जैसे मल का वाचक लींट शब्द है वैसे ही 'सेटित ' शब्द भी इसी अर्थ में आता है । इसकी उपपत्ति भी 'लिष्ट' में से ही पूर्ववत् होती है । लेकिन इस पक्ष में श्लिष्ट के लू का लोप कर देना आवश्यक है । देशी भाषा में नासिका की ध्वनि' अर्थ में ' सिंढा' शब्द आता है वह भी श्लिष्ट का ही अपभ्रंश मालूम होता है। गूजराती का 'सेडा' शब्द भी इसी तरह आया है । नासिका के और कंठ के मल अर्थ में जो शब्द आते हैं वे सब लिष्ट धातु से बने हुए मालूम होते है । लेप्म का भ्रष्ट 'सळेखम' लेप्म शब्द में मात्र स्वरों के.. मिला देने से हो जाता है। 'लिप्' धातु का अर्थ चिकणाइ है इसी अर्थ के साम्य से मलवाचक उक्त सब शब्द इस धातु से बने हुए मालूम होते है । खेल शब्द भी नासिका के मल के अर्थ में आता है । इसकी उपपत्ति भी लेप शब्द के अक्षरों का व्यत्यय करने से और प् का खू बोलने से हो जाती है ।
लींड शब्द का साम्य यदि संस्कृत भाषा के लेप्दु शब्द के साथ बताया जाय तो लेप्टु, लेढु, लडु, लींड इस प्रकार उच्चारण भेद से लींड शब्द बन जाता है । परन्तु इसकी अपेक्षा पूर्वोक्त पद्धति द्वारा लिष्ट शब्द से इसका साम्य अधिक संगत लगता है ।
२४. कालधम्मुणा --" कालधर्मेण - कालधर्म से - मरण एकवचन में धम्म शब्द का पाकृत में अनेक जगह
से " । सामान्यतः तृतीया के ' धम्मेण ' रूप होता है । परन्तु
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'धम्मुणा' 'कम्मुणा' ऐसे तृतीयांतरूप भी आते हैं। पाली भाषा में भी ऐसे रूप होते हैं जैसे - कम्मुना, अधुना इ० ।
२५. लेस्साहि-संसार स्थित बद्ध आत्मा के एक प्रकार के अध्यवसाय को लेश्या कहते हैं। वे संख्या में छः है - कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म, शुक्ल । इनके स्वरूप को समझने के लिये यह एक उदाहरण है
(१) जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपनी सुखसुविधा के लिये हजारों प्राणियों को विवश रखें,- अर्थात् जिन प्राणियों के द्वारा वह स्वयं सुखसुविधा प्राप्त करता है, उन प्राणियों के सुख की जरा भी परवाह न करे, ऐसे मनुष्य की मनोवृत्ति को कृष्णलेश्या कह सकते हैं।
(२) जो मनुष्य अपने आराम में तो जरा भी कसर नहीं आने देता, परन्तु वह आराम जिन प्राणियों के शारीरिक श्रम से मिलता है, उनकी भी समय समय पर अजपोपण समान स्वार्थदृष्टि से कुछ सार संभाल लेता रहता है, इस मनुष्य की वृत्ति को नीललेश्या कहते हैं।
(३) जो व्यक्ति पूर्वोक्त न्याय से अपने सुखसंपादक परिश्रमजीवी प्राणियों की जरा और अधिक संभाल रखता है, ऐसे सुखैपी मनुष्य की चित्तवृत्ति को कापोतलेश्या कहते हैं।
___ इन तीनों चित्तवृत्तियों में प्राणियों के प्रति अकारण मैत्री की कल्पना तक नहीं होती। इनमें केवल स्वार्थ का ही निरंकुश शासन रहता है।
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( ४ ) जो मनुष्य अपने निजी आराम को तो कमती करे तथा आराम में सहायता देनेवाली व्यक्तियों की भी उचित रूप से ठीक ठीक सार सँभाल रक्खे इस मनुष्य की वृत्ति को तेजोलेश्या का नाम दिया जा सकता है ।
( ५ ) जो मनुष्य अपनी सुविधाओं को जरा और अधिक कमती कर के अपने आश्रितों की तथा अपने संसर्ग में आनेवाले अन्य भी प्रत्येक प्राणियों की - विना किसी खेद मोह और भय से - भले प्रकार सार सँभाल रखता है, उस मानव की मनोवृत्ति पद्मलेश्या कही जाती है ।
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( ६ ) जो शान्तात्मा अपने सुखसाधनों को सर्वथा न्यून कर के, मात्र अपने शरीरनिर्वाह योग्य साधारण सी सामग्री के लिये भी किसी प्राणी को लेशमात्र कष्ट न पहुंचावे, तथैव किसी वस्तु पर लोलुपता न हो- हृदय में सतत समभाव की स्थापना हो -- ऐसा व्यवहार रक्खे, एवं मात्र आत्मभान से ही संतुष्ट रहे, इस मनुष्य की सुविशुद्ध वृत्ति को शुकुलेश्या कहते हैं ।
२६. तयावरणिन्जाणं कम्माणं खओवसमेण - " तदावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमेन - ज्ञान को आवृत करनेवाले कर्मों के कुछ भाग के क्षय से और कुछ भाग के उपशमसे" 1
२७. ईहापूहमग्गणगवेसणं - " ईहा -अपोह - मार्गणगवेषणम् " । जब कोई अनुभूत वस्तु देखी जाती है तब पूर्वानुभव की स्मृति के लिये चित्त में जो व्यापारपरंपरा
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चलती है उसके घोतक थे लव शब्द है। यह मैंने पहले कहीं देखा है" ऐसे चित्तव्यापार को ईहा कहते हैं । जो इस समय दीख रहा है और जो पहले देखा है इन दोनों के साम्य वैषम्य को खोजने की तर्क कोटी को अपोह कहते हैं। इसी प्रकार उत्तरोत्तर बढती हुई निर्णय लानेवाली खोज को फम से मार्गण और गवेपण कहते हैं।
२८. सन्निपुठ्धे- "संज्ञिपूर्वम्"। जैन शास्त्र में " संज्ञी" (समनस्क) और " असंज्ञी" (अमनस्क ) इस प्रकार जीव के दो भेद माने गये हैं।
जिस माणी का पूर्वजन्म संज्ञी की योनि' का हो उसको 'सन्निपुग्ध' कहते हैं और उसको जो पूर्वभव का स्मरण होता है उसे भी " सनिपुत्र" कहते हैं।
२९. पहारेत्थ - "प्र+अधारयिष्ट- विचार किया" 'पहारेत्य' में आया हुआ 'इत्य' प्रत्यय भूतकाल का सूचक है। मार्ग प्राकृत में ही ऐसा प्रयोग आता है। विशेष के लिए देखो टिप्पणी नं. २१ ।
प्रका
३०. तेणं कालेणं तेणं समपणं-'तेन कालेन, तेन समयेन -- उस काल में और उस समय में।” यहां तृतीया विभक्ति सप्तमी के अर्थ में समझना । माकृत भाषा में इस प्रकार विभक्तिओं का व्यत्यय बहुत जगह. आता है।
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अपमा टीकाकारों का ऐला भी निभाया है कि ये फाले. ते समए' ऐसा सप्तम्यंत पदच्छेद करना और 'ण' को वाक्यालंकार अर्थ में समझना । आचार्य हेमचन्द्र ने विभक्तिओं के व्यत्यय के बारे में अपने प्राकृत व्याकरण ८, ३, में १३४ से ले कर १३७ तक के सूत्र बताये हैं।
३१. आयरियउवज्झायाणं-"आचार्योपाध्यायानाम्"। जैन शास्त्र में शिल्पाचार्य, कलाचार्य और धर्माचार्य इस भाँति आचार्य के तीन भेद बताये गये हैं। धर्मग्रंथो में विशेषतः धर्माचार्य का जिकर आता है। जो ज्ञान, दर्शन
और चारित्र में पूर्णतया सावधान हो, सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ के विषय में अपना खास कौशल रखता हो और संघ की व्यवस्था का आधारभूत हो उसको आचार्य कहते हैं। उसके
आंतरिक गुण इस प्रकार हैं। पंचेन्द्रिय का निग्रह, शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन, क्रोध, मान, माया और लोम से रहित होना, मन को वश में रखना, निस्पृहता और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को समझने की प्रतिभा ।
जो जिनभगवान के कहे हुए बारह अंग को पढाता हो, और उसके अनुसार ही उपदेश देता हो उसे उपाध्याय कहते हैं। इसके भी आंतरिक गुण आचार्य के समान होते हैं।
३२. पंचमहव्वपसु-"पंचमहानतेपु" मुमुक्षु के लिये जैन शास्त्र में पांच महाप्रत बताये गये हैं । जैसे कि :सब्वामओ पाणाइवायाभो वेरमणं, (सब प्रकार की हिंसा का
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त्याग) सब्बाओ मुसावायाओ बेरमणं, (सब प्रकार के असत्य का त्याग) सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं, (सर्व प्रकार की चोरी का त्याग) सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं, (सर्व प्रकार के मैथुन का त्याग) सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमण (सब प्रकार के परिग्रह का त्याग)। इसके अतिरिक्त सन्चाओ राइभोयणाओ वेरमणं (सर्व प्रकार के रात्रीभोजन का त्याग) भी बताया गया है। ऐसे व्रत वैदिक परंपरा में और बौद्ध परंपरा में भी हैं।
३३. छजीवनिकाएसु -" पड्जीवनिकायेषु -जीव के छ प्रकार के समूह में"। (१) पृथ्वीकाय-मिट्टी, (२) अप्काय-जल, (३) तेउकाय-तेज, अग्नि, (५) वाउकाय वायु, (५) वनस्पतिकाय-वनस्पति, (६) त्रसकाय-अन्य सब प्राणी, अळसिया से ले कर मनुष्य तक ।
__आचारांग सूत्र में (अध्य. १ उद्देश ६) अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, संमूर्छिम, उद्भिज, औपपातिक--- इस तरह से जीव के प्रकार अर्थात् भेद बताये गये हैं। ऐसे ही प्रकार अन्य दर्शनों में भी प्रसिद्ध है।
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३४. सावगाण-" श्रावकाणाम्"। श्रावक शब्द का सामान्य अर्थ 'सुननेवाला' होता है। लेकिन जैनशास्त्र में इसका अर्थ, जैनधर्म को पालनेवाला गृहस्थ है। इसके लिये दूसरा शब्द श्रमणोपासक भी है। श्रावक शब्द का प्रचार बौद्धग्रंथों में भी 'बुद्ध के उपासक' के अर्थ में आता है। स्त्री उपासकों को साविगा-श्राविका कहते हैं।
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३५. दंडणाणिं - " दण्डनानि"। यहां दंडन शब्द का भाव नरक के दुःख से है। जिस तरह का नरक का स्वरूप जैनशास्त्र में आता है उसी तरह का महाभारतादि वैदिक ग्रंथों में और सुत्तनिपातादि बौद्ध ग्रंथों में भी मिलता है।
३६. जितसत्तू -जैसे बौद्ध जातकों में जहांतहां ब्रह्मदत्त राजा का नाम आता है वैसे ही जैन कथाओं में जितशत्रु राजा और उसके साथ धारिणी राणी का नाम आता है। कथा के आरंभ में किसी भी राजा का नाम आना ही चाहिए इस पद्धति के अनुसार कयाकारों ने इस नाम को जहांतहां रख दिया है। वास्तव में इस नाम का कोई राजा था या नहीं यह अतीत इतिहास के अन्धकार में है।
३७. सुंकेणं-“शुल्केन-मूल्य से"। सुंक के अतिरिक्त प्राकृत में शुल्क शन्द के संग और सुक प्रयोग भी होते हैं। हिंदी भाषा में जकात अर्थ में जो चंगी शब्द का व्यवहार होता है वह सुंग का ही भिन्न उच्चारण है।
३८. रुक्खाउन्धेयकुसलो-"वृक्षायुर्वेदकुशल:- वृक्षों के आयुर्वेद में कुशल " | वाराही संहिता में ५४ वां अध्याय में वृक्षायुर्वेद के संबंध में लिखा गया है। उसमें पेडों के रोगों का ज्ञान, उसकी चिकित्सा, फलनाश की चिकित्सा, पेडों के वृद्धि के प्रयोग इत्यादि पेड़ों के संबंध में सब हकीकत बताई गई है। और किस वृक्ष को कहाँ लगाना, कौन वृक्ष बीजरोप्य है अर्थात् बीज से लगाया जाता है
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और कौन वृक्ष काण्डरोप्य है अर्थात् गाँठ से लगाया जाता है यह बात भी बताई गई है। इस विद्या में जो कुशल है उसको वृक्षायुर्वेदकुशल कहते हैं ।
३९. बहविय-" स्नापित - स्नान कराया हुआ" | हज्जाम अर्थात् नाई के अर्थ में प्राकृत में 'हाविय' और संस्कृत में तत्समान नापित शब्द का प्रयोग होता है । कोशकारों ने नापित' शब्द की व्युत्पत्ति कुछ और ही तरह से की है। परन्तु, जहाँ तक शब्द एवं अर्थ का सम्बन्ध है, वहां तक उपर्युक्त स्ना' धातु से सम्बन्ध रखनेवाली व्युत्पत्ति ही अधिक ठीक प्रतीत होती है । 'स्नान कराना' इस अर्थ में स्ना' धातु का प्रेरक प्रत्ययान्त 'स्नाप्' शब्द प्रयुक्त होता है । विचार करने से मालूम होगा कि इस प्रेरकान्त 'स्ना' धातु से ही पहाविय एवं नापित शब्द का उद्भव होना विशेष संगत है। क्योंकि आजकल भी नापित लोग स्नान कराने का काम करते हैं। बरात में वर को नापित ही स्नान कराता है। पुराने जमाने में भी इसी तरह की पद्धति थी ऐसा मालूम होता है। क्योंकि जैन आगमों में जहां शिरोमुंडन और उसके बाद शुद्ध होने की हकीकत का उल्लेख आता है वहाँ आलंकारिक शाला में नापित के पास जाने का उल्लेख मिलता है। नापित का दूसरा नाम आलंकारिक भी
४०. दिण्णवत्थजुयलो -- " दत्तवस्त्रयुगलः - जिसको दो वस्त्र दिये गये हैं"। भगवान महावीर के समय के
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लोग दो ही वस्त्र पहनते थे। देश की आबोहवा के अनुसार सब लोग ऐसा ही वेश रखते थे। जैन आगमों में बडे बडे संपत्तिवाले इभ्य श्रमणोपासकों के जो वर्णन आते हैं उनमें भी उनके लिये दो ही वस्त्र पहेरने का उल्लेख मिलता है। आजकल भी मिथिला और बंगाल बिहार में प्रायः यही प्रथा विद्यमान है ।
४१. आयवयकुसलेणं-" आयव्ययकुशलेन - उपार्जन करने में और व्यय करने में कुशल" । नीतिशास्त्रकारों ने कहा है कि आय का चतुर्थांश संगृहीत रखना, चतुर्थांश व्यापार में लगाना, चतुर्थांश धर्म और अपने भोग में लगाना, और चतुर्थांश अपने स्वजनों के पोषण में लगाना । दूसरे नीतिकार ऐसा भी कहते हैं कि आय से आधा, अथवा उससे ज्यादा अंश धर्म में लगाना और वाकी से पूर्वोक्त अपने दूसरे काम करने । ऐसा करनेवाला आयव्ययकुशल कहा जाता है। आचार्य हेमचंदरचित योगशास्त्र में धर्म के योग्य होनेवाले आदमी के जो गुण गिनाये गये हैं उनमें भी आयोचित व्यय करने का गुण खास गिनाया है ।
४२. गंधजुत्ति -"गंधयुक्ति"। पुराने जमाने के लोग अनेक प्रकार के सुगंधीद्रव्य अपने घरों में तैयार करते थे। वाराही संहिता में ७६ वां अध्याय सुगंधीद्रव्य बनाने की तरकीबें बताने को रचा गया है। उसके अनुसार गंधयुक्ति बनानेवाला गंधयुक्तिनिपुण कहा जाता था ।
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४३. कम्पिल्लपुरे - देखो ‘भगवान महावीर नी धर्मकयाओ' का कोश ।
४४. पञ्चविहे ----' पञ्चविधान् '। रूप, रस, गंध, शन्द और स्पर्श इनसे उत्पन्न होनेवाले पांच प्रकार के विलास ।
४५. पञ्चाणुव्वइयं -“पञ्चाणुव्रतिकम्" । पांच अणुव्रतवाला । पांच अणुव्रत के लिये देखो 'भगवान महावीरना दश उपासको' का कोश ।
४६. सत्तसिक्खावश्यं -" सप्तशिक्षाव्रतिकं - सात शिक्षाव्रतवाला" । देखो 'भ. म. ना दश उपासको' का कोश ।
४७. चउद्दसमुदि -'चतुदशी-अष्टमी-उद्दिष्टापूर्णमासीपु-चौदश, आठम, अमावस और पूनम इन तिथियों में' (विशेप के लिये देखो 'भ. म. नी धर्मकथाओ' का कोश)।
४८. पोसह -'पोषधम् ' जैनधर्म में प्रचलित एक प्रकार का व्रत । विशेष के लिये देखो ‘भ. म. ना दश उपासको' का कोश ।
४९. फासुपसणिज्जेणं- 'प्रासुक-एषणीयेन - जिसमें नीवजंतु नहीं है ऐसा और जिसको शास्त्र के अनुसार बराबर खोजा गया है ऐसा । जैन श्रमणों को प्रासुक और एषणीय आहार मिले तो ही लेना अन्यथा नहीं, ऐसा शास्त्रीय विधान है।
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[ २०३]
५०. गोसालस्त मललिपुत्तस्स - " गोशालस्यः मस्करिपुत्रस्य" । आजीवक संप्रदाय का एक प्रसिद्ध तीर्थकर । विशेष के लिये देखो 'भ. म. ना दश उपासको" का कोश ।
५१. उदाणे इ वा - " उत्थानमिति वा, कर्म इति वा, बलमिति वा, वीर्यमिति वा पुरुपकारपराक्रम इति वा" । गोशालक के संबंध में जैन और बौद्ध ग्रंथो में ऐसा कहा गया है कि वह नियतिवादी था । उसके नियतिवाद का स्वरूप जो उपलब्ध है वह इस प्रकार है:- वस्तुमात्र नियत है अर्थात् इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन कोई नहीं कर सकता है। इसी लिये गोशालक कहता है कि वस्तु का उत्थान-उत्पत्ति नहीं है। उसमें परिवर्तन करने के लिये कर्म का, बल का, वीर्य का, पौरुपपराक्रम का भी सामर्थ्य नहीं है। इसलिये गोशालक कहता है कि जगत में उत्थानादि वस्तु है ही नहीं, सब वस्तु नियत हैं, नियत थीं. और नियत रहेंगी; किसी को कोई दुःख या सुख नहीं दे सकता है और प्राणी जो दुःख या सुख भोगता है वह भी कोई कर्मकृत नहीं है, प्रत्युत नियत है। गोशालक के. संप्रदाय का दूसरा नाम आजीवक संप्रदाय भी है ।
५२. अजगं चेडगं -- "आर्यकं चेटकम् - पितामह अर्थात् दादा चेटक" । चेटक राजा वैशालिका था । वह गणसत्ताक राज्यों का मुखिया था । सूत्र में ऐसे अनेक: उल्लेख आते हैं कि काशी कोशल के नवमलकी (मल्ल)
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[ २०४ ]
और नवलेच्छकी (लिच्छवी) गणराजा चेटक के आज्ञाधारक थे। चेटकराजा हैहयवंश का था। उसकी सात कन्याएँ थी। उसकी ज्येष्टा नाम की लडकी भगवान महावीर के बड़े भाई नंदीवर्धन के साथ व्याही गई थी। वेहल्ल और कोणिक की माता चेलणा भी चेटक की लडकी थी। इसलिये चेटक, कोणिक और वेहल्ल का मातामह (नाना) होता था। चेटक की बहिन त्रिशला, भगवान महावीर की माता थी । चेटक के बारे में अधिक जानने के लिये पुरातत्त्व पु. १. पृष्ट २६३ का लेख देखना चाहिये ।।
__ ५३. गणरायाणो -"गणराजानः"। गणराजा का अर्थ करते हुए भगवती के टीकाकार अमयदेव लिखते हैं " समुत्पन्ने प्रयोजने ये गणं कुर्वन्ति ते गणप्रधाना: राजानो गणराजा : सामन्ता इत्यर्थ :"। प्रयोजन होने पर जो मिल करके प्रवृत्ति करते हैं वे गणराजा कहे जाते हैं। टीकाकार ने उन्हें सामंत कहे हैं । . टीकाकार का यह अर्थ केवल शब्दार्थ मात्र हैं। गणराज्य का खास अर्थ तो 'समुदाय का राज्य' ऐसा होता है ।
५४. रहमुसलं संगामं -"रथमुशलम् संग्रामम् - रथमुशल नाम का संग्राम" | भगवतीसूत्र के ७ वें शतक के ९ वें उद्देशक में रथमुशल संग्राम का वर्णन आता है । तदनुसार वह संग्राम वजी विदेहपुत्र और मल्लकी और लिच्छवी राजाओं के बीच में हुआ था। भगवतीसूत्र में 'रथमुशल' शब्द का अर्थ इस प्रकार बताया है। "घोडा,
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[ २०५३
सारथी और बैठनेवाले योद्धा से रहित सिर्फ मुशल सहित एक रथ हजारों मनुष्यों को कुचलता हुआ जिस संग्राम में दौडता है उस संग्राम का नाम रयमुशलसंग्राम है।"
५५. सम्मइगाहा-सन्मतिगाथाः - सन्मातितर्कप्रकरणकी गाथायें । ..
उन गाथाओं का भावानुवाद नीचे दिया जाता है:__“किसी भी प्रकार के मानव की मनोवृत्ति, किसी भी. प्रकार के तत्वजान व कर्मकाण्ड वा किसी भी प्रकार का सूक्ष्म वा स्थूल पदार्थ - इन सवों का स्वरूप को ठीक ठीक समझने के लिए उनके संबंध की निम्नलिखित बातें ध्यान में अवश्य रखनी चाहिए:
__ मूळ कारण, उत्पत्तिस्थान, समय, स्वभाव, होनेवाले व होनहार परिवर्तन, आधारस्थल, परिस्थिति -- आसपास के संयोग और भेदप्रभेद ॥ ६ ॥
शास्त्र की भक्तिमात्र से कोई भी भक्त, उनके स्वरूप को ठीक ठीक नहि पा सकता है, शायद उस प्रकार से भी कोई भक्त, शास्त्रज्ञ होने का साहस दिखलावे तो भी उनसे उस ज्ञात शास्त्र का विवरण करने की योग्यता तो आती ही नहीं ॥ ६३ ॥
अर्थ का स्थान सूत्र-शास्त्र-है यह तो ठीक है, परन्तु इस कारण से मात्र सूत्र को रट लेने से अर्थ का भान नहीं होता । अर्थ का ज्ञान तो गूढ नयवाद की वास्तविक समज पर निर्भर है ॥ ६ ॥
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[ २०६ ]
इस कारण से सूत्ररटी लोगों को चाहिए कि वे अर्थ के संपादन में प्रबल प्रयत्न करें। क्योंकि कितनेक मात्र सूत्ररटी, अकुशल व पृष्ट आचार्य अर्थ में गरवढ कर के उन महाशास्त्र की विडंबना करते हैं ॥ ६५ ॥
शास्त्र को समजने में जो ठीक निश्चित नहीं है ऐसा कोई आचार्य, प्रवाहगामी लोगों में बहुश्रुतपणे की ख्याति प्राप्त करता हो और उनका शिष्यसमुदाय भी ठीक ठीक हो तो वह आचार्य शास्त्र का प्रचारक नहीं है किन्तु शास्त्र का शन्नु है ॥ ६६ ॥ . व्रत और नियमो में ही जो शुष्क भाव से रत रहेते हैं और स्वसिद्धान्त को समजने में सर्वथा उपेक्षा रखते हैं ऐसे कर्मकाण्डी लोक, उन व्रत व नियमों का शुद्ध उद्देश को ही नहीं जान पायें हैं ॥ ६७ ॥
जो ज्ञान, आचार में नहीं लाया जाता है वह निष्फल है आर जो आचार में विवेक नहीं होता है वह आचारकर्मकाण्ड -भी निष्फल है अर्थात् ज्ञानरहित कोरा कर्मकाण्ड व कर्मकाण्डरहित कोरी विद्या यह दोनों एकान्त है। इस एकान्त --~~ कदाग्रह - मार्ग से जन्म और मृत्यु के फेरे नहीं मीट सकते ॥ ६८ ॥
जिसके बिना लोगों का व्यवहार भी सर्वथा नहीं हो सकता है ऐसा सर्वभुवनों का एकमात्र गुरु अनेकांलवाद - स्याद्वाद--को नमस्कार ॥ ६९ ॥
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कोश
अइगमणाणि--(अतिगमनानि) अचाइओ - ( अत्यायितः) प्रवेश के मार्ग ।
हैरान हुआ। अइसंधिओ-(भतिसंधितः)
अच्छणवरएसु-(भासनगृहेषु) ठगाया हुआ।
आसन लगे हुए घरों में। अओझाहिबई-(अयोध्याधि
__ अच्छतस्स - (आसीनस्य ) बैठे पतिः) अयोध्या का राजा
हुए का। अक्कमाहि-(भाकाम) आकांत अच्छतेण -(आसीनेन) बैठे कर ।
हुए से। मक्खयणिहिं-(भक्षयनिधिम् ) मंदिर का स्थायी कोश ।
अच्छा -(ऋक्षाः) रीछ । अक्खोडेंति - (भाक्षोदयन्ति)
अच्छिजइ-(आस्यते) क्यों] काटते हैं।
बैठा है। अग्धवेह -- (अर्घापयत) मूल्य
अजया - (अयताः) असंयमी फराओ ।
अजगं चेडगं -- देखो टि. ५२। अचंकमणओ-(अचंक्रमणत:) अज्झथिए - (आध्यात्मिकम् ) नहीं चलने से ।
संकल्प ।
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अज्झवसाणे - ( अध्यवसानेन ) अभिप्राय से ।
अट्टदुहट्टवसहमाणसगए - (भार्तदुःखार्त - वशार्त - मानसगतः )
आर्त नामक दुर्म्यान से
पीडित और चंचल मन
को पाया हुआ ।
भट्टालग
dans
[ २०८ ]
( अट्टालक) भटारी,
झरोखा |
अट्टगुणाए पड वाली से ।
(अष्टगुणया ) आठ
अट्ठारसव के ( अष्टादशवक्रः ) जिसमें अठार वक्रिमाएँ होती हैं ऐसा हार | * अट्टिमुट्ठिजां° - ( अस्थि - मुष्टि
- जानु - कूर्पर - प्रहार - संभग्न - मयित - गात्रम् ) हड्डी से, मुष्टि से, जानु से, कोहणी से प्रहार करके जिसका मात्र तोड दिया गया है
और मोड दिया गया है
०
अठ्ठीमीज - ( अस्थि-नजाप्रेमानुराग-रक्तः )
जैसा
अस्थि और मज्जा में प्रेम
है, वैसे प्रेम से अनुरक्त
अड्डातिजाति - (अर्घद्वितीयानि) अढाई |
अणइकमणिजे - ( अनतिक्रमणीयः ) कोई अतिक्रम नहीं करा सकता है ऐसा |
अणयारो - ( अनगारः ) घरवार
रहित, संन्यासी ।
अणुगिलति ( अनुगिलति ) निगल जाती 1
अणुट्टिए - ( अनुत्थिते ) उदय के पहिले ।
अणुपुन्व - ( अनुपूर्व - सुजात - वप्र - गंभीर - शीतलजल: ) जिसके वप्र-तट उत्तरोत्तर अच्छे हैं, और जिसमें गहरा एवं ठंडा जल है ऐसा |
* शब्द के भागे का यह ० चिह्न ' आगे और समास है जो छोड दिया गया है' ऐसा सूचन करता है । उसकी संस्कृत छाया से उसका भान होवेगा ।
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अणुवरोहेण -- ( अनुपरोधेन ) बेरोकटोक से
संकोच न
9
रख कर ।
अतित्थेणं-- ( अतीर्थेन) जहां घाट
नहीं था उस जगह से । अतियाकुच्छी- ( अजिकाकुक्षी: )
बकरी जैसी कुक्षीवालाअर्थात् बकरी की कुक्षी के समान कुक्षीवाला |
(अस्थामा ) निर्बल |
( अन्यो
अन्नमन्नमणुव्वयया न्यानुवजकाः ) एकदूसरे को अनुसरनेवाले । अन्नमन्नहियतिच्छियकारया
अत्यामे
(अन्योन्यहृदयेप्सित कारकाः) एकदूसरे के हृदय की इच्छा के माफिक करनेवाले |
अन्नाए - ( अज्ञाते) नहीं जाने
हुए ।
अपयस्स
[२०९ ]
--
( अपदस्य ) विना
पैरों के, सर्प आदि प्राणी
का |
अपासमाणे
नहीं देखता हुआ |
( अपश्यमानः )
अप्पिणामि --- ( अर्पयामि) देता हूँ । अप्पेगतिया - ( अपि एकैकाः ) कितने ही [ तकार उच्चारण के लिये देखो टि. १२,
क. १] ।
अबिजा - ( अवीजा:) वीजशक्ति से रहित ।
अमहिय – (अभ्यधिक) अधिकाधिक ।
अविभतरियं च (अभ्यन्त रि
फाम् च प्रेषणकारिकाम् ) अंदर का लाना ले जाना
करनेवाली ।
अवक्खेति
( अभ्युक्षति )
अभिषेक करती है ।
अवभुवगए - ( अभ्युपगते )
स्वीकार करने के बाद
अभिगय० ( अभिगतजीवाजीवः) जीव और अजीब के स्वरूप को पहिचानने
बाला ।
अभिरममाणगाति - ( अभिरममाणकानि ) खेलते हुए ।
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________________
[२१० ]
अभिसमेसि - ( अभिसमेषि
अभि + सम् + एषि )
जानता है। अमई- (अमतिम् ) दुर्बुद्धि । अम्मयाओ - ( अंविकाः )
माताएँ। अम्मो!'- (अम्ब !) हे माता । अरुचमाणम्मि --- (अरुच्यमाने)
पसन्द नहीं आवे ऐसा। अलोवेमाणा-(अलुम्पमानाः)
लोप नहीं करते हुए। अल्लियावेति-(आलीयते) धुसाड
देता है, रख लेता है। अल्लीण - (आलीनप्रमाणयुक्त
पुच्छः) बरावर लगा हुमा
और प्रमाणयुक्त है पुच्छ जिसका । अल्लेसोहि - (अलेश्यैः ) जिनमें
दूसरे रंग नहीं मिले हों
वैसे [रंगों से 11 अवउडाबंधणं-(दे०)* हाथ को
पीठ के पीछे बांधना ।
अवखित्ते--(अपक्षिप्तः) ललचाया
हुआ । अवदालिय°-(अवदारितवदन
विवरनिर्लालिताप्रजिह्वः) फाडे हुए मुखरूप विवर से, जिसका जिह्वा का अग्र
भाग लटकता है। अवगय० -(अपगततृणप्रदेशवृक्षः) जिस प्रदेश में तृण
और वृक्ष नहीं है । अवहस्थिजण-(अपहस्तयित्वा)
तिरस्कार करके । अवहिए-(अपहृतः) अपहृत। अवहिय ति -(अपहृता इति)
अपहत हुई थी, इस कारण
से ।
अवंगुयदुवारे-(अपावृतद्वारः)
जिनका गृहद्वार हमेशा
खुला रहता है। अवियाउरी-(भविजनयित्री)
जन्म नहीं देनेवाली।
* दे०=देश्य ।
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________________
असंखयं -- ( असंस्कृतम् ) टूटने पर जिसका संस्कार न हो सके वैसा ।
असंखया - ( असंस्कृताः ) अच्छे संस्कार से रहित ।
[ २११ ]
असोगाओ - ( अशोकाः ) शोकरहित । अहतं - ( अहतम् ) नहीं टूटा हुआ, अक्षत ।
महारातिणियाए - (यथारात्निकम्) रात्निक अर्थात् रत्न जैसा उत्तम - बढा आदमी । यथारात्निक अर्थात् बढे छोटे के क्रम से [ लिंगपरिवर्तन के लिये देखो टि. १६, क. १] 1
(अहिः इव) सर्प के
अहि व
-
समान ।
अंगजणवयस्स --- ( अङ्गजनपदस्य )
अंगदेश का [ देखो 'भगवान महावीरनी धर्मकयाओ' का कोश ]
|
अंतराणि - ( अंतराणि ) दोष 1
( अंतरावासे : ) बीच के मुकामों से 1
अंतरावासेहिं
अंतेउर -- ( अंतःपुर - परिवारसंपरिश्रुतस्य ) अंतःपुर के परिवार से परिवृत ऐसा
उसका |
अंबाडितो - (दे० ) तिरस्कृत | अंसागएहिं - ( अंसागतैः ) कंघे तक आये हुए ।
आइक्खियं - ( पाली - आचिक्खितं, संस्कृत-आ+चक्ष्, आख्यातं)
कहा हुआ ।
आइण्णा - ( आचीर्णा ) आचार में लाई हुई । आओसेज्जा - ( आक्रोशयेयम् )
आक्रोश करूं । आजीवियसमयंसि - (आजीविक - समये ) आजीविक पंथ के सिद्धांत में । आढायंति - ( आद्रियन्ते ) आदर
करते हैं ।
भाणतो - ( माज्ञप्तः ) जिसको आज्ञा दी गई है, वह 1
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________________
[ २१२ ]
आणिएल्लियं - (आनीतकम् ) विनय की क्रिया - अहिंसा लाया हुआ ।
आदि महाप्रतादि-आहारआतिक्खियं-(माख्यातम् ) कहा शुद्धि आदि क्रियाएँ-संयम
का निर्वाह-आहार का आदपणा-(दे०) विह्वल । परिमाण-उक्त कियाएँ जिस भाभिसेकं-(आमिपेक्यम् ) पट्ट में प्रवर्तित हों ऐसा [ हस्ती ] ।
[धर्म] । भाभोएमाणे-(आभोगयन् ) आरूसिया--(आरोषित) रोषदेखता हुआ।
युक्त । आयरं-(आदरम् ) आदर को। आरोहिज्जइ-(आरोप्यते) चढाया यायरियं-देखो टि. ३१ । जाता है । आयवयकुसलेण-देखो टि.४१।। आलिघरएसु-(आलिगृहेषु ) आयसि-(आतपे) धूप में । आलि नामक वनस्पति के आयंताण-(आचान्तानाम् ) जल घरों में ।
के आचमन से मुखशुद्धि आलो- (द०) झूठा आरोप । किये हुए।
आलोए-आलोके) देखते ही। आयाह-देखो टि, १६ फ. १।। आवन्नसत्ता--(आपनसत्त्वा) आयाभंडे--(आत्मभाण्डम् )आत्मा- गर्भवती।
रूप भांड अर्थात् पात्र । आवयमाणेसु-(आपतमानेषु) आयारगोयर° - ( आचार - गिरते हुए ।
गोचर - विनय-वनयिक- आवारीए--(दे० आपणिचरण-करण-यात्रा-मात्रा- कायाम् ) दुकान में । वृत्तिकम् ) आचार-माधु- आसत्था-(आश्वस्ताः) स्वस्थता करी की विधि-विनय- पाये हुए।
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________________
आस मेह - ( अश्वमेध ) अश्वमेध |
आसवसंवर"
(आस्रव संवर
निर्जरा-क्रिया अधिकरण
बन्ध - मोक्ष - कुशलः ) मनवचन और काय की शुभा
शुभ प्रवृत्ति
उक्त प्रवृत्ति
का निरोध
जिसके द्वारा
कर्मों का नाश हो ऐसी
किया- - ये सब के आधार
-
[ २१३ ]
---
भूत जीव - और वन्ध और मोक्ष इन तत्वों में
कुशल | आसंघो --- (आसंगः) आसक्ति ।
आसाएमाणी - ( आस्वादमाना ) स्वाद लेती हुई ।
आसारेति -- (आसारयति ) इधर से उधर के जाता है ।
आसित्तसंम ०
(आसिक्त
संमार्जित - उपलिप्तम् ) सींचा हुआ, साफ किया हुआ और लींपा हुआ ।
Created
आसुपने - ( आशुप्रज्ञः ) हाजर - जवावी |
आसुरुते कोधाविष्ट ।
आसे - ( अश्वः ) घोढा ।
आहारे - ( आधारः ) आधार
आहुणिय कर के ।
इब्भो
आहेवच्चं - (आधिपत्यम्) अधि
पतिपणा
( आसूर्ययुक्तः )
।
( आधूय ) हिला
( इभ्यः ) धनवान | [ विशेष के लिये देखो 'भ. म. नी धर्मकथाओं '
B
का कोश ] । इय - ( इति ) ऐसा ।
हापू
क. १।
देखो टि. २७,
उइन्नो - ( अवतीर्णः ) उतरा । उउयकुसुम - (ऋतुजकुसुम
कृत - चामरकर्णपूरपरिमण्डि - ताभिरामः ) ऋतुओं के फूलों से बनाये हुए चामर और कर्णपूर से परिमंडित
तथा सुंदर ।
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________________
[ २१४ ]
उऊसु-(तुषु) ऋतुओं में। उब्भिन्ने - ( उद्भिनम् ) प्रगट उक्कंचण - (उत्कंचन) हलकी हुआ ।
चीज को बडी बताना । उम्मति--(उन्मतिम् ) उन्माद । उक्खयनिक्खए-(उत्खातनिखा- उयएण-( उदकेन) जल से ।
तान् ) खोद दिये हुए। उल्लपडसाडिगा ---- (आर्द्रपटशाउच्छुभति - ( उत्सर्भति उत्+ टिका) जिसकी साडी और सभ्) मारता है ।
कपडे गीले हैं ऐसी । उज्झणधम्मियं - ( उज्झन- उल्लावेइ-(उल्लापयति) बुलवाता
धार्मिकम् ) फेंकने योग्यजूठा अन्न |
उवक्खडावेत्ता- (उपस्कारउट्टियाओ- ( उष्ट्रिकाः) घृत यित्वा) तैयार करा करके।
आदि प्रवाही पदार्थों के . उबटाणेसु-( उपस्थानेषु) एक भरने का ऊंट जैसे आकार प्रकार के मंडपों में । वाला मट्टी का एक पात्र- उवतप्पामि - ( उपतृप्या - विशेष ।
___ तर्पया-मि ) खुश करूं उड़ाए - (उत्थया) उत्थान- उवप्पयाणं - (उपप्रदानम् ) शक्ति से ।
लालच, कुछ देना । उटाणे --- देखो टि. ५१ । उवलद्वपुण्ण° - ( उपलब्धउदाति-(उत्तिति) उठता है, पुण्यपापः) पुण्य और * आता है।
पाप के स्वरूप को जाननेउत्तरिज -( उत्तरीयम् ) चद्दर, वाला ।
उवाहिनियडिकुसला -(उपधिउन्भएण ---- (ऊर्ध्वकेन ) खडा निकृति-कुशलाः ) छलहो कर के ।
कपट में कुशल ।
दुपट्टा ।
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________________
[२१५ ]
उवातियं - (स्पयाचितम्)
मनौति (गू. मानता) उवायाते -(उपायातः) पहुंचा,
गया । उन्नत्तेति--(उद्वर्तयति) उलट
पुलट करता है। उणजातिएण-(ऊनजातिजेन)
हलकी जाति में पैदा हुए
एतीए -- (एतया) उसके
साथ । एयाऽऽओ -- (अनागतः) इधर
आया हुआ । एवंविहकज - (एवंविधकार्य
सज्जया) इस प्रकार के काम करने में तत्पर
रहनेवाली से | एह - (एतस्य ) इसकी । ओयत्तनि - (अपवर्तते) हटती
असिय-(उच्छूित ) ऊंचा। ऊसियफलिहे - (उच्छ्रित
परिधः ) जिनके द्वार की अर्गला हमेशा ऊंची ही रहती है अर्थात् जिसका गृहद्वार कमी वन्द नहीं होता है ऐसा- दानी।
एकसंकलितयद्वा (एकशृङ्खलिकवद्धाः) जिनके नाम,
अनुकम से लिखे हुए हैं। एगो --(एकतः) एक जगह एडेति-(एडयति) फेंकती
ओलग्गिया- (अक्लगिताः)
आश्रय लिया । ओलंडेनि - (ओलण्डयति)
खडखडाता है । ओसहभेसजेणं-(औषधभैष
जेन) एक द्रव्य से वनी हुई दवाई औषध; और अनेक द्रव्य से बनी हुई दवाई भपज [गूजराती :
'ओसडवेसड']। ओसोवणिं-(अवरवापिनीम् )
निद्रायुक्त कर देने की विद्या ।
एडेसि - (एलसि ) फेंकता है।
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________________
[ २१६ ]
ओसोवितस्स -(अवसुप्तस्य )
सोता हुआ । ओहतमण -- (अवहतमनः
संकल्पः) जिसके मन का संकल्प टूट गया है |
कइया - (क्रयिकाः) खरीद ___ करनेवाले । कओ-(कुतः) कहां से । कटु ---- ( कृत्वा) करके | कडयेसु-(कटकेषु) पर्वत
के किनारों में । कप्पडिय - (कार्पटिकः )
भिक्षुक । कयवर-(कचवर) कूडा, मैला,
कचरा। करंसुपाएहि -( कृताश्रुपातैः)
आंसुओं के साथ । करगा - (करमाः) जल भरने
का पात्र। करणसालं - (करणशालाम् )
कचहरी में अदालत में । करणे -(करणे) न्यायालय
कचहरी में ।
करयलपरिमिय° - ( करतल
परिमित - त्रिवलिकमभ्या) जिसका कटीभाग मुष्टिग्राह्य
और त्रिवलीयुक्त है ऐसी
स्त्री। करिसेण - (करीषेण) कंडेसे । कलहदलियं—(कलहदलिकाम् )
कलह का कण । कसघायसए-(कपघातशतानि)
चाबुक के सौ प्रहार । कसप्पहारे - (कशप्रहारः)
चाबुक से ताडन । कहाविसेसेण -(कथाविशेषण)
विशेष प्रकार की बातचीत
करते हुए। कहियं - (कुत्र) कहाँ । कंडितियं -(खण्डयन्तिकाम् ) .
खांडनेवाली । कंपिलपुरे- देखो टि. ४३ । कंसदूस० ---- ( कांस्य-दूज्य
विपुलधन-सत्सार- स्वापतेयस्य) कांसा, कपडे, विपुल धन, सारवाला - कीमती द्रव्य (गहने वगेरे)।
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________________
[ २१७ ]
कायंजला -(कृतजला:) समुद्र
के आसपास रहनेवाला
पक्षीविशेष । कायसि -(काये) शरीर में कालकम्बली-कालकम्बलिका)
काली कमली। कालधम्मुणा -- देखो टि. २४,
किसिणिज्जन्ति --- (कृषण्यन्ते )
काले हो जाते हैं। किहं ---(कथम् ) कैसे; किस
प्रकार से | कीलावण- ( क्रीडापन) . खेलाना । कीलावणगा--(क्रीडापनकानि)
खिलोने । कंखिते-(कांक्षितः) उत्सुकता
से फल की राह देखता
हुआ । कुच्चएहि -(कूर्चेकः) फूची
काहं --- (करिष्ये ) करूंगा। काहामो- (करिष्यामः)
करेंगे । काहावणेणं ---- (कार्षापणेन)
कार्षापण (सुवर्ण के एक
सिक्के का नाम) से। काही--(करिष्यति) करेगा। किच्चइ-(कृत्यते) . दुःख
पाता है। किणा - (केन) किस प्रकार
से, किस हेतु से । किण्होभासा - (कृष्णावभासा)
कुइए --- (कुडवाः) धान्य
मापने का एक माप [विशेष के लिये देखो 'भ. म. नी धर्मकथाओ'
का कोश ] । कुढएसु-(कुटकेषु) नीचे की
ओर चौडे तथा ऊपर की ओर संकीर्ण, ऐसे पर्वतों
के स्थानों में । कुंडलुलिहिय° -(कुण्डलोल्लि
खितगण्डलेखा) कुंडल से
काळे ।
कित्तिमो-(कृत्रिमः) बनावटी। कित्तिया-(कियन्तः) कितनेक ।
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________________
[ २१८ ]
चमकती हुई है कपोल
पाली जिसकी । कुंदलोद्ध° - (कुन्दलोध्रउद्धत
तुषारप्रचुरे) जिस ऋतु में कुंद और लोध्र वृक्ष उद्धत [पुष्पसमृद्ध ] होते हैं और तुषार-वर्फ अधिक पडती
है, उस ऋतु में । फूणिए -(कोणिकः) [इस
राजा के लिये देखो 'भ. म.
नी धर्मकथाओं का कोश । केयारं-(केदारम् ) क्यारी
वदना) शरत् पूनम के चन्द्र जैसा प्रतिपूर्ण और
सौम्य है मुख जिसका। कोला -(कोडाः) सूअर । कोसंबको - ( कौशाम्बिकः)
कोशाम्बी का रहनेवाला । कोसंवीभो - ( कोशाम्बीतः )
कोशांबी से [ देखो 'भ. म. नी धर्मकथाओ' का कोश] |
HEEEEEEEEEEEEE
"
को ।
कोतिया - (फोकन्तिकाः )
लोमडी, लोकही। कोदृतियं - ( कुट्टयन्तिकाम् )
कूटनेवाली । कोडंवियपुरिसे - (कौटुंम्बिक-
पुरुषान् ) काम के लिये] रखे हुए कुटुंब के भादमी [देखो ‘भ. म. नी धर्म-
कथाओ' का कोश] । कोमुदिरयणियर- (कौमुदी
रजनीकर-प्रतिपूर्ण-सौम्य
खलयं-(खलकम् ) खला
खलिहान । खंडिओ - (दे०) किल्ले के
छिद्र अर्थात् क्षुद्रमार्ग । खंद - (स्कन्दः) कार्तिकेय । खाइयग्यो- (खादितव्यः) खाने
के योग्य । खाणुएहि-(स्थाणुकैः) ₹ठों
से, सूके पेडों से। खाति-(खादति) खाता है। खातिमसातिमं - ( खादिम
स्वादिमम् ) फळमेवा इत्यादि और इलायची लौंग इत्यादि ।
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[ २१९ ]
खिप्पामेव -- (क्षिप्रमेव) शीघ । प्रहरण को ग्रहण किये खीरहरे-(क्षीरधरे) समुद्र में। खीराइया-(क्षीरकिताः) दूध- गंधकासाईए- (गन्धकाशाच्या) वाळे हुए।
अंगोछे से । खुति-(क्षुतिम् ) छींक । गंधजुत्ति - देखो टि. ४२ । खुत्ते--(दे०) डूबा हुआ- गंधियपुत्तेहिं -(गान्धिकपुत्रैः) धंसा हुआ ।
गांधी के लडकों से । खुवे-(क्षुपः) छोटासा पेड। गाहावती-(गृहपतिः) गृहस्थ।
गिरिनगर - गिरनार-जूनागढ । गइंद- (गजेन्द्रः) बडा हाथी। गिहाति -- (गृहाणि ) घरों में। गड्डासु-(गर्तासु) खट्टों में। गुज्झया -(गुह्यकाः) यक्ष । गणरायाणो-देखो टि. ५३ ।। गुणसिलए - (गुणशिलके) गणित्तिया- (दे०) जाप गुणशिल चैत्य में । देखो
करने के लिये रुद्राक्ष की 'भ. म. नी धर्मकथाओं छोटी माला।
का कोश । गयघडदारणेण -(गजघटदार- गुंजालिया - ( गुंजालिका )
णेन ) हाथी के कुंभस्थल टेढी कियारी ।
को फाडनेवाले से। गुंडियं - (गुण्डितम् ) युक । गरुलवूह ---(गरुडव्यूहम् ) सेना गेण्हाहि ~(गृहाण) प्रहण कर।
की गरुड के आकार में गोमेह - (गोमेघ) गोमेध । व्यूहरचना ।
गोसालस्स-देखो टि. ५० । गहाय-देखो टि. १५, क. १। गहियाउहपहरणा - (गृहीता- छत्तीहं ---(दे० गवेपयिष्ये
युधप्रहरणाः) आयुध और तलास करूंगा।
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बाइत्तर - ( वातयितुम् ) घात करने के लिए ।
[ २२० ]
चउक्काणि ( चतुष्काणि ) चौक- वह स्थान, जहां चार रहते मिलते हों । चउद्दस - - देखो टि. ४७ | चउप्पयस्स -- (चतुष्पदस्य) चार पैर वाले प्राणी का | चच्चराणि ( चत्वराणि ) चौंक, चौराहा । चम्मद्दि - ( दे० सम्मर्द [ ? ] ) तूफान (?) ।
चयउ - ( त्यजतु) त्याग कर दें । चंडिक्किए - (चण्डैककः) प्रचंड | चंपा - एक नगरी दिखो 'भ. म. नी धर्मकथाओ' का कोश ] |
चारगसाला
( चा कशाला )
akdrag
कारागृह - जेल |
चिट्टितन्वं -- ( प्रा० चिह्; सं० स्था - तिष्ट - स्थातव्यम् ) स्थिति करना |
चित्तिज्जइ – (चित्र्यते) चित्रित किया जाता है !
चिमडियावंसगो (चिर्भटिकाव्यंसकः ) खीरों-चौडोंके लिये ठगाई करनेवाला । चियन्त्त - (दे० संमत ) संमत । चिरत्थमियंसि - (चिरास्तमिते)
सर्वथा अस्त होने पर चिल्लला - (दे० ) एक प्रकार के जंगली जानवर | चिल्ललेसु - (दे० ) कीचडवाळे स्थानों में । चुन्नारुहणं ( चूर्णारोपणम् ) सुगंधित चूर्णो का देव को चढाना ।
चेइए - ( चत्ये ) चिता पर
बनाया गया स्मारक [ देखो 'भ. म. नी धर्मकथाओं' का कोश ] | चेईविसए - ( चेदिविषये ) चेदी
देश में ।
www.
चेटुसु - ( चेष्टस्व ) चेष्टा कर । चोक्खवाइणी (चोक्षवादिनी)
चोक्ख
छूताछूत में आग्रह रखने
वाठी |
-
( चोक्ष ) निर्मल 1
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[ २२१]
छुहछुहियं -- (क्षुधाक्षुधितः )
भूखा । छुहमारो- (क्षुधामारः) भुख
मरा, दुकाल । छुहिओ-(मुधितः) जिसके
उपर चूना लगाया गया है। छूढाणि ---(क्षिप्तानि ) डाले
रखे। छोलेति - (दे० छल्ली छाल)
छाल निकालती है।
छगलो - (छागः ) यकरा । छज्जीवनिकाएसु-देखो टि.३३ । छणेसु - (क्षणेषु ) उत्सवों में। छटभत्तं--(पष्ठभकम् ) छ टंक
भक्त-आहार-नहीं लेने का व्रत अर्थात् लगातार दो
दिन वा उपवास । छविच्छेयं - (छविच्छेदम् )
चमडी को छेदना । छाणुझियं -(छगणोजिमकाम्)
गोवर को फेंकनेवाली। छारुझियं-(क्षारोज्झिकाम् ) ___ राख को फेंकनेवाली । छारेण -(क्षारेण) राख से । छिनउ - (छिद्यताम् ) काटा
जाय। छिप्पत्तरेणं - (दे० छिप्पत्तूर्येण) ___उस नाम के वाद्य से। छिय-(स्पृश) स्पर्श कर । छिवापहारे- (दे०) चीकना
चाबुक का प्रहार । छिडिओ ---- (दे० छिण्डिका: -
'छिद्र' से) पाड के छिद्र -मार्ग ।
जग्गंनो - (जागृत्) जागता
हुआ।
जणप्पमहुणं- (जनप्रमर्दनम् )
मनुष्यों का कचरघाण । जणमारि - ( जनमारिम् )
मनुष्यों के नाशकों। जन्नवयणं - (यज्ञवचनम् ) यज्ञ
शब्द । जप्पभिई - (यत्प्रभृति) जबसे । जम्बूलए -(जम्बूलकान् ) जांबून
के आकार के जलपात्र
विशेष, चंचू यानी सुराई । जयम्मि - (जगति) जगत में।
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________________
[ २२२ ]
जयंति -- (यजन्ति) पूजा करते जीवियविप्पजढं- (जीवितवि
प्रहीणम् ) जीवितरहित । जरचीर -- फटे हुए कपडे । जुजिए -(दे०) बुभुक्षित । जाएस्सति - ( याचिष्यते ) जूत्तिकरा - (युक्तिकराः) बुद्धिमांगेगा।
मान् लोग। जातकम्मं -(जातकर्म) जन्म- जूवखलयाणि - (युतखलकानि)
संस्कार [ देखो 'भ. म. नी चूत के स्थळ-जुए के अड़े।
धर्मकथाओ' का कोश। जोइसियदेवा - (ज्योतिपिकजातिसरण - ( जातिस्मरणम् )
देवाः) सूर्य, चंद्र, तारे पूर्व जन्म का स्मरण ।
इत्यादि । जायं-(यागम् ) याग को
जोएइ - (पश्यति ?) देखता है। पूजा को [ देखो 'भ. म.
जोगमज-(योगमद्यम्) मूर्छित नी धर्मकथाओ' का कोश |
करने के लिये उपयोग में
लाया जानेवाला एक प्रकार जालघरएसु - ( जालगृहेषु )
का मद्य । · जाली लगे हुए घरों में। जोयणतरियं-(योजनान्तरिकम् ) जितसत्तू - देखो टि. ३६ ।।
एक योजन का अंतरवाला। जिमियमुत्तु-(जिमितभुको
त्तरागतानार) खा पी कर झामेइ-(दे०) जलाता है । आये हुए।
[देखो झियायमाणसि] । जियारि-(जितारिः) अजित झियायति -(ध्यायति) ध्यान
राजा फा दूसरा नाम । चितन करता है। जीवंतो-(मजीविष्यत् )जीता झियायमाणसि-देखो टि. १४, रहता। .
क. १ ।
.
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[ २२३ ]
झिंखण - (दे०) रोप । णवएहिं - (नवकैः) नये से। झीणविहयो - ( क्षोणविभवः) णवाऽऽयए - ( नवाऽऽयतः)
जिसका विभव क्षीण हो। नव हाथ लंबा । गया है।
णित्थरियन्वं-(निस्तरितव्यम्) झुसिरे-(सुपिरः) पोला। पार जाना ।
णित्यारिए समाणे-(निस्तारितः टंकेसु-(टक्केषु) एक तरफ सन्) बचाया हुआ ।
कोरे हुए पर्वतों में । णिप्फिडइ - (निष्फेटति) यहार टिटियावेति -(टिट्टिकापयति) निकलता है ।
टट्टटट्ट अवाज होवे, इस णियगकुच्छिसंभूयाति-(नीजक तरह हलाता है।
कुक्षी-संभूतानि )जो अपनी टिइयं-(स्थितिकाम् ) रीति । कुक्षी से पैदा हुए हो, वे।
णिरय ---- (निरय) नरक । ठाणुखंडे ---(स्थाणुखण्डम् ) ढूंठा णिवत्तेमि - (निर्वर्तयामि) वृक्ष, ढूंठा ।
बनाऊ ।
णोलायंते-(नोदयन् ) उखाडता डालयंसि - (दे० 'दल' उपर हुआ ।
से) दाळ, शाखा । पहविय - देखो टि. ३९। . डिंडी-(दंडी ?) दंडधर पहाणोवदाई-(स्नानोपदायि- . पुरुप ।
काम् ) स्नान के लिये जल
देनेवाली । गजति - (ज्ञायते) जाना जाता
तए - (त्वया) तेरे से। णज्जति -(शायन्ते) ज्ञात हो। तच्च - (तृतीय) तीसरा ।
पहावय
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[ २२४ ]
तणणाले आ - (तृणालिकाः)
घास की पूलिका । तत्यमिय० -- (त्रस्तमृगप्रलय
सरीसृपेषु) मृग, प्रलय [ एक प्रकार फा जंगली पशु] और सर्पो के त्रस्त
होने पर । तत्था - (त्रस्ता) त्रास पाये
ताते (तपा) उसगे। तामलित्तीनयरीते - ( ताम्र
लिप्तिनगर्याम् ) बंगदेश की
राजधानी में । तालुग्याडणि० -(तालोद्घाट
नीविघाटितकपाट:) ताला खोल देने की विद्या से जिसने दरवज्जे खोल दिये
तमाणाए- (तम् आज्ञया )
उसको आज्ञा से । तयावरणिजाणं - देखो टि. २६
क. १ तरच्छा-(तााः ) जंगली
प्राणी, साप या घोडा । तल्लिच्छा --- (तल्लिप्साः ) उसको
प्राप्त करने की इच्छावाले। तसिया -- (तसिता) क्लेश
पाई हुई। तंवकुदृगसगासे -- (ताम्रकुट्टक- सकाशे) तांवा को कूटने
वाले के पास से । तवियाओ--- (ताम्रिकाः) तांबे
की।
तालेजा-(ताडयेयम् ) ताडना
करूं। तित्तिरि-(तित्तिरिम् ) तीतर
को । तिीत-- (तृप्तिम् ) तृप्ति को । तियाणि - (त्रिकानि) जहां
तीन रास्ते मिलते हैं वैसे
स्थान । तुटीदाणं -(तुष्टिदानम् ) इनाम । तुयाट्टियन्वं - (त्वग्वर्तिव्यम् ?)
करवट लेना, सो जाना। तूणेहिं - (तूणैः) बाणों से। तणं कालेणं० -देखो टि. ३० ।
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[ २२५ ]
शुणदुद्धलुद्धयाति --- (स्तनदुग्ध-
लुब्धकानि) स्तन के दूध
में लुब्ध । थणयं-(स्तनजम् ) दूध । थरहरइ - कांपती है। थभिणि --(स्तम्भिनीम् ) स्तब्ध
कर देने की विद्या। थूणामंडवं- (स्थूणामण्डपम् ) ___कपडे से ढका हुआ मंडप। थेर-(स्थविर) वृद्ध । थोर- (स्थूल ) बडा ।
दाहवकंतीए-(दाहव्युत्क्रान्तिकः)
दाहज्वरवाला। दाहामि -(दास्यामि) दूंगी। दाहिति - ( दास्यन्ति ) देंगे। दिण्णभइ०- (दत्तमृतिभक्त
वेतनाः) जिनको तनख्वाह, खाना और रोजी दी गई
दच्छिहिसि-(द्रक्ष्यसि) देखेगी। दद्दरएणं-(दर्दरेण ) पछाडने
दलयइ - (ददाति) देता है, ____डालता है। दसपरिणाहे-(दशपरिणाहः)
दश हाथ चौडा। दडणाण-दखा टि. ३५। दाय - (दायम् ) पर्व के
दिवस में देने का दान । दासी-(भदात्) दिया।
दिणेस-दियहाण - (दिनेश
दिवसानाम् ) सूर्य और
दिन के बीच में । दिण्णो -- (दत्तः) दिया । दिय - (द्विजः ) ब्राह्मण । दिया - (दिवा) दिन में । दिव्वं - (दैवम् ) अदृष्टको । दिसालोयं - ( दिशालोकम् )
आसपास दिशाओं का
देखना । दीविएणं-(दीप्तेन) जला
हुआ (अग्नि से)। दीविया ---- (द्वीपिकाः) दीपडा। दहिया - (दीर्घिकाः) एक
प्रकार की वापी-वावली ।
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[ २१६ ]
दीहियासु-(दीर्घिकासु) सीधी आकृति जैसा जिसका पीठनीकों में ।
भाग है। दुक्कुला-(दुष्कुला) दुष्ट कुल धण्णभरियं-(धान्यभरितम् ) वाली ।
अनाज से भरा हुआ । दुपयस्स- (द्विपदस्य) दो धण्णेसु-(धान्येषु ) धान्य । पैर वाला प्राणी का ।
धसत्ति- (घस इति) 'स' दुरहियासा - (दुरधिसह्या)
अवाज करके । दुःसह ।
धिजाइओ- (द्विजातिकः) दुरुहंति-(दूरोहन्ति) ऊपर
ब्राह्मण । जैन टीकाकार चडते हैं।
ब्राह्मणों पर अरुचि बताने दूरा-(दुरात्) दूर से ।
के लिये इसका प्रतिरूप देउलानि--(देवकुलानि) देव
. 'धिग्जातीयः' -भी बताते मंदिर । देसए -(देशकः) शिक्षा देने ।
धिति-(धृतिम् ) धैर्य । वाला । देसपंते --- ( देशप्रान्ते) देश के
धोयमाणं - (धाव्यमानम् )
धुलवाना। सीमाभाग में । दोच्चंपि--(द्वितीयमपि) दूसरी
नगरगुत्तिया - (नगरगोप्तकाः) दफे भी।
नगर की रक्षा करनेवाले। धणसिरीए - । प्रनाश्रियाः) नगरनिदुमणाणि -(नगरधनश्री के पाद।
निर्धमनानि) नगर के धणुपट्टा - (धनुःपत्राकृति- पाणी निकलने के मार्ग
विशिष्टपृष्टः) धनुष्य की 'गटर'
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[ २२५ ]
नच्चंतकबंध -- (नृत्यत्- निकटाहि -- (निष्कृयभिः)
कवन्ध-वार-भीमम् ) नाचते निकाली हुई - खुल्ली। हुए-धडों के - समूह से - निगमणाणि -(निर्गमनानि) भयंकर ।
निकलने के मार्ग । नटसुइए-(नष्टश्रुतिक:) जिसकी
निग्गंथो- (निर्ग्रन्थः) आंतर
कीमत श्रवणशक्ति मंद हो गई और बाह्य प्रथ-परिग्रह से
रहित, पापविमुक्त और नत्तुए ---(नप्तकः) लडकी का निप्रहपरायण को निर्घन्य लडका ।
कहते है। जैन भागमों नदीकच्छेसु- (नदीकच्छेषु) में यह शब्द जैन साधु के नदी के किनारों पर ।
लिये प्रयुक होता है। नमिरो-(नमः) नम्र । इसी अर्थ में बौद्ध ग्रन्यो नलिणि°-(नलिनीवनविध्वंसन
में निगंठ शब्द आता है। करे) कमलिनी के वन निच्छूढ-(निक्षिप्तम् , निष्ठयको नाश करनेवाला ।
तम्) यूंका हुआ । नागपडिमाण ---- ( नागप्रतिमा- निच्छोडेजा--(निश्छोटयेयम् )
नाम्) नागों की मूर्तिओं छीन लें । को।
निछुहावेइ-(निस्तुम्भापयति) नातिविगटेहि - (नातिविकृष्टः) निकलवा देता है ।
बहुत दूर दूर के नहीं। निजाएति-(निर्यातयति) पूर्ण नाममुई-(नाममुद्राम् ) नामयुक्त
करता है। मुद्रा-अंगठी
निजापतिते - (निर्यापिता निटरंब-(निकुरम्ब) समूह। निकाळे हुए ।
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निप्पाण रहित ।
निबंध - (निर्बन्धम् ) आग्रह | निब्भच्छेजा - (निर्भर्सयेयम् ) तिरस्कार करूं ।
[ २२८ ]
(निष्प्राणम्) प्राण
निमिज्जइ – (निमीयते) बांधी जाती है ।
● नियडि – (° निकृति ) बकवृत्ति ।
निरिणो ( निर् + ऋण:) ऋण
मुक्त । निवाएमाणा - ( निपातयमानाः ) लगाते हुए, मारते हुए ।
निष्वट्टणाणि
( निवर्तनानि )
जहां मार्ग खतम होते हैं
ऐसे स्थान |
निष्वणे - ( निर्वणान् ) घाव से रहित ।
निब्बु – (निर्वृतिम् ) शांति को निसंसतिए - (नृशंसकः ) निर्दय | निसामेत्तए - (निशमयितुम् ) सुनने के लिये ।
निहरणं - (निर्हरणम् ) स्मशान
यात्रा |
निहाण
नीणेइ
हैं
नीलुप्पलकया - ( नीलोत्पलकृतापीडै: ) जिसका छोगा
नील कमल से बनाया हुआ हो । नेयाउयं ( नैयायिकम् )
न्याययुक्त |
नेहित्ति - ( नयथ इति ) ले जाते हो ।
( निधान ) संग्रह |
( नयति ) ले जाता
पदपरिणामे
पइरिक्कं
पति के स्वभाव में 1
पक्केलयं
-
एकांत ।
पभोसे - ( प्रदोषे ) सायंकाल में ! पक्कीरमाणा - ( प्रकीर माणाः ) बिखेरते - डालते हुए ।
( पक्वम् ) पका
Tripapa
( पतिपरिणामे )
हुआ ।
( प्रतिरिक्तम् )
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________________
[२२९ ]
पक्खिवावेत्तए -~~ ( प्रक्षेपापयि-
तुम् ) अंदर रखने के लिये। पगडिया-(प्रकर्पिता ) बहार
खींची। पञ्चप्पिणह- ( प्रत्यर्पयत)
वापिस दो। पञ्चायाए-(प्रत्यायातः) पीछा
आया, जन्म लिया । पच्चोरुहति-(प्रत्यवरोहन्ति)
ऊतरते हैं। पच्छागयपाणे - (पश्चादागत
प्राणः) फिर से चैतन्य
पाया हुआ । पज्जुवासति --(पर्युपास्ते) सेवा
करता है। पञ्चविहे - देखो टि. ४४. पञ्चाणुब्वइयं - देखो टि. ४६। पट्टियाए - (पट्टिकायाम् )
पाटी में। पडिग्गह-(प्रतिग्रह) पात्र। मढिच्छति - (प्रतीच्छति)
पडिनिजाएहि --- (प्रतिनय)
वापिस ला । पडिनाये-(प्रतिज्ञातम्) प्रतिज्ञा
की। पडिपुन्न"-(प्रतिपूर्णसुचारकूर्म
चरणः) प्रतिपूर्ण, सुन्दर और कछुवे के जैसे चरण
हैं जिसके । पडिलाभेमाणे-(प्रतिलाभयन)
देता हुआ । पडिबालेमाणा - (प्रतिपालय
मानाः) प्रतीक्षा करते
पणावेहि --(प्रणामय) दे,
सामने रख । पणियसालानि--(पण्यशालाः)
करियाणे बेचने के स्थान । पण्हि --(पृष्णि) पानी-ऐडी। पत्तए --(पत्रके) कागज के
टुकडे में । पत्तियामि-(प्रत्येमि) विश्वास
करता हुँ । पत्यरेऊण -(प्रस्तीर्थ) बिछा
करके ।
यडिदिजाएजासि-(प्रतिदद्याः)
वापिस देना ।
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________________
( प्रस्तावम् ) मोका,
पत्थावं प्रसंग | पन्नन्तिविज्जं— ( प्रज्ञप्तिविद्याम् ) प्रज्ञप्ति नामक विद्या |
पठभारेसु - ( प्राग्भारेषु ) थोडे से नमे हुए पर्वतों के भागो में ।
पमायए - ( प्रमादयेः ) प्रमाद
करना ।
[ २३० ]
पहलसुकुमालाए
( पक्ष्मल
सुकुमारया ) पुष्प के केसर
की तरह सुकुमार से ।
पयई - ( प्रकृतिः ) स्वभाव | पयममी - (पदमार्गम्) पैदल
रास्ता ।
पयहेज्ज - ( प्रजहीत ) त्याग करें । पया - ( प्रजाः ) मनुष्यों को । पयाई - ( पदानि ) पैरों को 1 पयाया - ( प्रजाता ) जन्म दिया | पयायामि - ( प्रजनयामि ) जन्म दूं । परज्झा---- ( परस्याः ) आत्मा से व्यतिरिक्त जड पदार्थों में दृष्टि रखनेवाले 1
परपत्यणापवन्नम् - ( परप्रार्थना-प्रपन्नम् ) भिखमंगा । परभाहए ( पराभ्याहतः )
अधिक आघात पाया हुआ ।
( परम
उत्तम
भागवत संप्रदाय की दीक्षा ।
परम सुतिभूयाणं - ( परमशुचि
भूतानाम् ) बहुत स्वच्छ
---
परमभागवउदिक्खा भागवतदीक्षा )
हुए ।
परसुनियत्ते
( परशुनिकृतः )
परशु से कटा हुआ । परातिता - ( पराजिताः ) परा
जय को पाये हुए । परिघोलेमाणा – (परिघूर्णमाणाः)
घूमते हुए । परिपरतणं - (परिपर्यन्तेन) चारों
बाजु । परित्तीकते - ( परितीकृतः, परि-मितीकृतः ) छोटा किया
हुआ । परिभायतियं-- ( परिमाजयन्ति
काम् ) उत्सव के रोज परोसनेवाली ।
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________________
[ २३१ ]
पल्ला -- (पल्यानि) अनाज
भरने के भाजन । पवरगोण° --(प्रवरगोयुषकैः)
उत्तम जवान बेलों से। पवाणि-(प्रपाः) परर्वे-प्याऊ । पविट्रो-(प्रविष्टः) वडगया
परियत्तेति-(परिवर्तयति) बार-
बार धूमाता है । परियागते-(पर्यायागतान् ) कम
से बढे हुए । परिवेसतियं - (परिवेषयन्ति
काम् ) परोसनेवाली । परिसडियतोरणवरे - (परि
शटिततोरणगृहम् ) जहां पुराणे तोरण और घर के
टुफडे पडे है। परिसोसिय० ---(परिशोषित.
तस्वरशिखरमीमतरदर्शनीये) जिससे बडे बडे पेड की टोच सूक गई हो और जो देखने में भयानक
लगता है। पललिए-(प्रललितः) क्रीडाप्रिया पलवलंयोदरा-(प्रलम्बलम्बो
दराधस्करः) जिसके उदर,
ओंठ, और सूंड लंबे है। पलिच्छन्ने - (परिच्छन्नः)
आच्छादित । पललेसु-(पल्वनेषु) छोटा सा
तालाब ।
पसवेसु-(प्रसवेषु) पुत्रादि
जन्मप्रसंगो में । पसातेणं-(प्रसादेन) कृपासे । पसाहणघरएसु - (प्रसाधन
गृहेषु) सजावट करने के
घरों में। पसिणाति -(प्रश्नाः) प्रश्न । पसुमेहे-(पशुमेधे) पशुमेघ
यज्ञ । पहारेथ - देखो टि. २९,
पहुप्पति-(प्रभवति ) समर्थ
होता है । पचमहव्यएसु-देखो टि. ३२। पंडरसुवि० ---(पाण्डुर-सुविशुद्ध
स्निग्ध-निरुपहत- विशतिनखः) जिसके चीसो नख
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[ २३२]
पाणियपाए - (पानीयपाये)
पानी पीने के लिये
[निमित्तार्थक सप्तमी । पाणेहिं, भूतेहि - देखो
टि. १९, क. १। पादेउं-(पाययितुम् ) पीने के
लिये।
श्वेत, विशुद्ध, चिकने और सभी प्रकार के दोषोंसे रहित
हैं वह । पाइल्सामि - (पास्यामि)
पीऊंगा। पाउप्पभायाए -- (प्रातःप्रभा
तायाम् ) प्रातःकाल में
प्रमात होने पर । पाउन्भवहः- (प्रादुर्भवत)
हाजिर हो जाभो । पाउवदाई-(पादोपदायिकाम् )
पैर धोने के लिये जल
देनेवाली । पाउस-(प्राप्) वर्षाऋतु
(भाषाढ और श्रावण
मास)। पाडगं - (पाटकम् ) पाडा,
महला । पाडिहारियं-(प्रातिहारिकीम् )
बापिस हो सके ऐसी । पाडुहुएहि~ दे० (प्रतिभू...)
जामिन अर्थात् जमानत देनेवाले ।
पामोक्खं-(प्रमोक्षम् ) उत्तर,
जवाब । पायत्तिया - (पाशतिकाः)
पैदल सिपाही । पायपढिएण - (पादपतितेन)
पैरों में पड़ने से । पायवघंस-(पादपघर्ष ) वृक्षों
का प्रर्षण । पायाविया-(पायिता) पिलाई
पारासरा -- (पराशराः) एक
प्रकार के सर्प । पावति-(प्राप्नोति) पाता है
-पहुंचता है। पावयणं ----(प्रवचनम् ) शास्त्र । पावसियालगा-(पापशृगालकाः)
दुष्ट गीदड ।
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[२३३ ]
पिहेइ - (पिदधाति) ढकता
पासत्थेहि - (पार्थस्यैः) पास ___ में रहेनेवालोंने । पासपयहिए-(पाशप्रवृत्तकान्)
मोहादिपाश से प्रवृत्ति करते
रासवणस्स -( प्रस्रवणस्य,
प्रस्रवणाय ) लघुशंका के
लिये। पासं-(पाशम् ) फंदेको । पासिहामि-(द्रक्ष्यामि) देखूगी। पासुत्तो-(प्रसुप्तः) सोया
हुआ । पाहुई-(प्रामृतम्) भेट । पिइमेहमाइमेहे - (पितृमेध
मातृमेधे) पितृमेध और
मातृमेघ यज्ञ में । पिज --(प्रेय) प्रेम। पिटओवराहे-(पृष्ठतः वराहः)
पीठ से वराह जैसा । पिटंडीपंडुरे - (पिष्टपिण्डीपाण्डु
रान्) चावल के भाटे की
पिण्डी के समान श्वेत । पिहडए -- (पिठरकान्) एक
प्रकार के पात्र ।
पिंडियाओ-(पिण्डिकाः) बलि। पीढफलग-(पीठफलफ) पीठ
पीछे रखने का पाटिया । पीणाइय - (दे०) टीका
कारने इसके स्थान में
पैनायिक' (पीनाया) शब्द रक्खा है और उसका पर्याय देश्य 'महा' दिया हैं। 'महा' का अर्थ बलात्कार होता है । गुजराती में बलात्कार के अर्थ में जो ‘पराणे' शब्द है, उसका संबंध इस 'पीणाइय' शब्द से मालूम
होता है। पीसंतिय - (पेषयन्तिकाम् ).
पीसनेवाली । पुढए-(पुटकान् ) पुडिया ।। पुत्तपञ्चयं-- (पुत्रप्रत्ययम् )
पुत्रनिमित्तक । पुष्फञ्चणियं --(पुष्पार्च निकाम्)
पुष्पपूजाको।
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पुरिसबसणी
( पुरुष द्वेषिणी )
पुरुषों के प्रति द्वेष करने
वाली 1
पुष्वरत्तावरत
-
( पूर्व रात्र -
अपररात्र) रात्री का पूर्व
का
भाग और रात्री पिछला भाग [ शीघ्र उच्चारण के कारण अपर का
'र' प्राकृत में चला गया है ] |
पेच्च :- ( प्रेत्य ) परलोक । पेच्छणघरएसु जिसमें देखने की चीजें
( प्रेक्षणगृहेषु )
लगीं हों, ऐसे घरों में - नाटकगृहों में ।
पोल
----
पोचडे --- (दे० ) पोचा । पोत्थकम्मजक्खा
-
[ २३४ ]
―
यक्षाः ) मसाले से बनाई हुई यक्ष की मूर्ति जैसे
जट ।
पोलंडेड - (प्रोल्लण्डयति) वारचार टकराता है ।
( पुस्तकर्म
(दे० ) पहोळा [ गूज -
राती 'पोला' शब्द का
इससे खास
सम्बन्ध है ।
संस्कृत के विस्तीर्णता
सूचक 'पृथुल' शब्द का
प्राकृत रूप ' पिहुल' होता है । संभव है यह
' पिहुल' ही शीघ्र उच्चार
करने से
पोल्ल शब्द
बना हो ] ।
पोसहं - देखो टि० ४८ ।
―
फलगं
―
तक्ता-पाटी ।
फासा
फलतेहि - ( फलकैः ) ढाल से ।
फंदेइ
( स्पन्दयति ) थोडा
ANAND
- ( फलकं ) लिखने का
हिलाता है ।
www
'
बइलं -
प्रकार के दुःख ।
फासुएस णिज्जेण
४९ ।
को ।
बलियतरायं
गाढ !
( स्पर्शाः ) अनेक
देखो टि०
( वलिवर्दम् ) बैल
( बलिकतरम् )
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________________
[ २३५ ]
ढूंसट्स के रहने की रीति
से।
बोल -(दे०)[5] आवाज ।
भती- (मृतिः) वेतन,
बहुकण्ठसुत्तधारी --- (बहुकण्ठ
सूत्रधारी) कंठ में यज्ञो
पवीत-जनेऊ पहननेवाला। बहुलोहणिजा-(बहुलोभनीयाः) __ अधिक लुभानेवाले। वंधेउं - (वद्धुम् ) यांधने के
लिये । वारवइए - (द्वारवत्याम् )
द्वारिका में [देखो 'भ. म.
नी कथाओं' का टिप्पण] | वालग्गाही-(बालग्राही) बालक
को खेलानेवाला-रखने-
वाला । वाहसलिल'- (वाष्पसलिल-
प्रच्छादित-वदनानि) जिनके मुंख अश्रुजल से ढके
हुये है। वाहिरपेसणकारिं - (बाह्य
प्रेषणकारिकाम् ) बहार का
लाना ले जाना करनेवाली। विउणो- (द्विगुणः) दूना । बिलधम्मेणं- (विलधर्मेण)
जैसे दिल में अनेक मकोडे रहते हैं उसी तरह
भत्तपरिव्वयं-(भक्तपरिव्ययम्)
खानेपीने का खर्च । भंडागारिणि-(भाण्डागारिणीम् )
भांडार की व्यवस्था करने
वाली । भाइणेज - ( भागिनेय )
भाणजा । भायं - (भागम् ) मंदिर में
देने का नियत अंश । भारुण्डपक्खी--(भारण्डपक्षी)
एक तरह का अप्रमत्त. पक्षी । ऐसा कहा जाता है कि उसके दो मुख एक शरीर और तीन पैर
होते हैं । भासियवं-- (भाषितवान् )
बोला। भे-(युष्माकम् ) तुम्हारा ।
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________________
[ २३६ ]
मेष --- (भेद) दुद्धिमेद !
मइन्दो--(मृगेन्द्रः) सिंह । मइलिजन्तो-(मलिन्यमानः)
मलिन होता हुआ। सगतितेहिं - (दे०) हाथ में
येथे हुए। मगहापुरे--(मगधपुरे) मगध
देश की राजधानी में । मय्यया-(मागिता) चाही
सङ्गुली-(मङ्गला ) असुन्दर। मझमझेण- (मध्यमध्येन)
वीचवीच में । महो- (दे०) छोटा । मणय -- (मनाक्) अल्प। मणामे - देखो टि. १८,
मयवस° - (मदवश विकसत्कट
तटश्लिनगन्धमदवारिणा ) जिसके द्वारा मद के वश से खिले हुए गडतट गिळे हो गये हैं, ऐसे गंधवाले
मद के पानी से । मयंगतीरद्दहे--(मतङ्गतीरद्रह)
मतंगतीर नाम का द्रह [विशेष के लिये देखो . भ. म. नी धर्मकथाओं का
कोश] मरणभीइरं- (मरणभीरम् )
मरण से डरनेवाले को । मलायघंसी- (मलापध्वंसी)
मल को नाश करनेवाला। मल्लसंपुडोह - (मल्लसंपुटैः )
शराव से, कोडिये से। मलाव्हणं - (माल्यारोपणम् )
देव को माला चडानी । महइमहालियाए - (महाति
महत्यां) वही से वडी
[सभा ] में । महणम्मि -(मथने) मथन
करने में ।
सम्मणपयंपियाति - ( मन्मन-
प्रजाल्पितानि) वालक के
अन्यरत शब्द । मयगकिच्चाई -(मृतककृत्यानि)
मृत व्यक्ति के पीछे किये जानेवाले कार्य ।
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________________
[ २३७ ]
महं-(मह्यम्-मम) मेरे को। महंततुंब०- ( महातुम्वकित.
पूर्णकर्णः) जिसके कान वडे और तुबे के जैसे
गोळ हैं। महाणसिणि- (महानसिकीम्)
रसोईघर में काम करने
वाली । महालियं-(महती) सारी
[रात ] | (प्राकृत में 'ल' प्रक्षिप्त
माणमाणिकं-(मानमाणिक्यम् )
मानरूप माणिक्य को। माणुम्माण° - (मान-उन्मान
प्रमाण-) शरीर के अवयवों की, योग्य लवाई और चौडाई-शरीर की
योग्य ऊंचाई और वजन। मा भाहि - ( मा भैषी:)
डरना नहीं। माम -(दे मातुल) मामा। मालुयाकच्छए - ( मालुका
कच्छके) एक प्रकार की अधिक फैलती हुई वल्ली[ देखो 'भ. म. नी धर्म
कथाओ' टि. २, क. २]। मालेसु-- (मालेषु) पहाड
जैसे अंचे जमीन के ___ भागों में । माहण- (ब्राह्मण) ब्राह्मण । मिच्छा-(मिथ्या) मिथ्या । मिरिय - (मरीच ) मरी । मिसिमिलेमाणे --- ( अनुकरण
शब्द) क्रोधाग्नि से मिसमिस करता हुमा ।
महुमहणस्स-(मधुमथनस्य)
मधुदैत्य को मारनेवाला
कृष्ण । महुरसमुल्लावगाति - (मधुर-
समुल्लापकानि) मधुर मधुर
वोलनेवाले । महेजा- (मथेयम् ) हैरान
करूं । मंजूसं--(मञ्जूषाम् ) वडी पेटी
को [गूजराती गजूस' मंतुं-(मन्तुम् ) क्रोध । मंसु-(श्म) दाढी छ ।
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[ २३८ ]
मिहोकहा - ( मिथःकथा)
आपस की बातचीत । मीसिज्जइ -( मिथ्यते ) मिश्रित ____की जाती है। मुकमाणीओ - ( मुच्यमानाः)
मुक्त होती हुई। मुद्धयाई-(मुग्धकानि) मुग्ध
ऐसे बालक । मुहपोत्तीए – (मुखपोतिकया)
मुंह पर रखने का कपडा। मेढी-(मेठिः) आधारभूत । मेलयं--(मेलकम् ) मेल । मोयणि - (मोचनीम् ) मुक्त
कर देने की विद्या ।
रहमुसलं - देखो टि. ५४ । रंधतियं - ( रन्धयन्तिकाम् )
रांधनेवाली । राईसर° - (राजा-ईश्वर
तलवर-भाडम्बिक-कौटुंम्बिकश्रेष्ठी-सार्थवाह-प्रभृतयः) मांडलिक राजा-- युवराज अथवा अणिमादि सिद्धिवाला पुरुष - खुश होकर राजाने जिनको पट्टे दिये हैं ऐसे पुरुष - जिसके आसपास वसति व गाम न हो वैसे स्थान [ मडव] के मालिक - कुटुम्बपालक - श्रीदेवता की मूर्तियुक्त सुवर्णपट को जिन्होंने मस्तक पर लगाया है वैसे धनिक --- बडे बडे सार्थ को ले जानेवाले
पुरुष - इत्यादि । रायसुए --(राजसूये ) राजय
यज्ञ में । रुक्खाउब्वेयकुसलो- देखो
टि. ३८ ।
याणामि -(जानामि ) जानता
यावि -(च+अपि) भी ।
एच्छाए ---(रथ्यायाम् ) शेरी
गली में । रडण-(रटन) चिल्लाहट । स्यणियर -( रजनिकर ) चंद्र।
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[२३९]
लक्खरस -(लाक्षारस) लाख
का बनाया हुआ लाल
रस । लटुं-(लष्टम् ?) अच्छी तरह
रुचंति -- (रुन्धयन्तिकाम् ?).
शाली के तुष निकालने
वाली। रुचति-- (रौति) रोती है। रूवस्सित्तणेणं-- (रूपित्वेन).
सुन्दर रूपवाला होने से। रूवोवलद्धि - (रूपोपलब्धिः )
रूप की पहिचान । रेवतउज्जाणे- (रैवतोद्याने)
गिरनार के उद्यान में [ देखो ‘भ, म. नी धर्मकथाभो'
टि. २, क. ५। रोएमि -(रोचे) रुचि करता
लभे- (लभेत) प्राप्त करें । लयन्ता--(लान्तः) लेते हए । लयप्पहारे - (लताप्रहारः)
छडी, लाठी । लहुकरणजुत्तं० ---(लघुकरण
युक्तयोजितम् ) शीघ्र योजित किये हुए पुरुषों से जुता
हुआ । लिहंतो-(लिखन्) चित्रित
करता हुआ । लिंडणियर - देखो टि. २३.
क. १ । लुभए --- (लुभ्यते) लुब्ध
होता है। लुलियाए - (लुलितायाम् )
बीत गई है। रहेइ -(दे०) साफ करती
लइमयं-(लभितकम् ) लिया
लक्खण° - (लक्षण-व्यञ्जन
गुणोपेता) सामुद्रिक शास्त्र में कहे हुए शरीर के लक्षण
- शरीर पर निकले हुये तिल और मषा आदि व्यंजन-चिह्न और गुणों से युक्त ।
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[ २४०
लेण - (लयन) पहाड में . खुदे हुए पत्थर के घरों में । लेस्लाहिं - देखो टि. २५.
लोहएहि-(दे०) हाथी के
बच्चे के साथ [तृतीया
बहुवचन] । लोमहत्थगं- (लोमहस्तकम् )
रोमों का बना हुआ झाडू।
वइत्तए - ( वदितुम् ) कहने
के लिये। वक्खित्तस्य --- (व्याक्षिप्तस्य)
व्याक्षिप्त का। वग्गूहि-(वाग्भिः ) वचनों से । वञ्चइ -(ब्रजति) जाता है। प्वच्छ -- (वृक्ष) पेड ।। वच्छे-(वक्षसि ) छाती में । वहिज्जासि -(वर्तथाः) [तू]
वर्तन करना । वडो--(बडः; वृद्धः) वडा । वडावए -(वर्धापकः) बढाने
वणकरेणु -( वनकरेणुविविध
दत्तकजप्रसवघातः) जिस पर वन की हथानिओंने भनेक तरह से कमल के फूल का प्रहार दिया है,
ऐसा । वत्तेज्जासि -(वर्तेथाः) वर्तन
फरें। वस्थजुयल - देखो टि. ४०। वत्यवस्स- (वास्तव्यस्य)
रहनेवाले का । वस्थारुहणं - (वस्त्रारोपणम् )
देव को कपडा चढाना । वन्नारुहणं - (वर्गारोपणम्)
देव को रंग चढाना । चम्मिय -(वर्मित) आच्छादित किये हुए [कवच
वाले] | वयह -(वदथ ) तुम कहते
हो। क्या - (बजाः) दश हजार
गायों का एक ब्रज होता
वाला ।
वडि-(वृद्धिः) व्याज ।
वयासी-(भवादीत् ) बोला।
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________________
[ २४१ ]
वरमऊरी -(वरमयूरी ) उत्तम वायाइव - (वाताविद्ध) पवन मोरनी।
से डगमगता हुआ । वरिसारात-(वरात्र ) भाद्र- वायाबन्धं -( वाचावन्धं )
पद और आश्विन मास । वचन से बद्ध होना । वरेलिया-(वृता) वरी हुई। वायाहययं - ( वाताहतकम् ) ववरोवेजा -(व्यपरोपयेयम् ) वायु से सूखा हुआ। जान से मारूं |
वारो-(वारफ:) वारी । वसहीपायरासहिं -(वसति- बाल-(व्याल) व्याघ्र आदि
प्रातराशः) मुकाम और जंगली जानवर ।
सुबह के नास्ते से | वाहलिया - (दे०) क्षुद्र नदी चसहेण -(वृपभेण) बैल के -प्रवाह ।। [साथ ] |
विउसाणं - (विदुपाम् ) विद्वानों वंजणाहिलावो-(ध्यजनामि- के।
लापः) व्यंजनों का उच्चारण। विधायइ-(विकीयते) विकता वाउलस्स- ( व्याकुलस्य ) है ।। ध्याकुल का।
विकिणइ - ( विक्रीणाति ) वाउलिया- ( वातावल्या ) बेचता है।
पवन का झपाटा । विक्खिरेज्जा -(विकिरेत) अलग वाडि -(धृति) वाड ।
अलग कर दे। वाउल्लयं-(दे० वाउलया) विगया --(वृकाः) वरू । पुतली ।
विज्झाए - (विध्याते) शान्त वाणारसी --- (वाराणसी) बना- होने के बाद ।
रस । देखो म. म. नी विढप्पड - (दे०) पैदा करता धर्मकथाओ' का कोश |
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[ २४२)
विढदणथं --- (दे० उपार्जना- वियडीसु - (वितटीयु) जंगलों
र्थम् ) उपार्जन के लिये । में । [गुजराती बीड विणएज-(विनयेत् ) दूर करें।
शब्द का इसीसे संबंध विणार्सेतओ-(व्यनाशयिष्यत्)
मालूम होता है। 'बीड'
का संबंध 'विटप'-(वृक्ष) विनाश करेगा।
शब्द से मालूम होता है। विणिम्मुयमाणी - (विनिर्मुश्च
वियरएसु-(विदरेषु) नदी के माना) मुक्त करती हुई ।
किनारे पर खुदे हुए पानी वितिगिच्छा -(विचिकित्सा ) के स्थलों में । [गूजराती संशय ।
'वीरडा' शब्द का यह विदेहे - (विदेहे ) विदेह नामक मूल मालूम होता है और
देश में। उसकी राजधानी कूपवाचक मारवाडी 'वेरा' मिथिला है।
शब्द का भी यही मूल है। विन्नाणेमो- ( विजानीमः ) वियालचारिणो ~ (विकालजानें ।
चारिणः ) रात को घूमनेविप्पर -(विपराद्धः) हत वाले । हुआ ।
विराला - (विडालाः) विल्लेविप्पवसियस्स-(विप्रोषितस्य) विलाव ।
देशान्तर जाने को प्रवृति विलक्खमणो -(विलक्ष्यमनाः) करनेवाले का ।
लज्जित । विभवमागमेऊण -- (विभषम्- विवाडेसि - (व्यापादयसि)
आगम्य ) विभव को जान मार डालता है। कर ।
विहरति-(विहरन्ति ) आनंद विम्हलो-(विह्वलः) विह्वल। से रहते हैं ।
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[ २४३ ]
विहाडेति - ( विघाटयति ) ___खोलती है। वीतीवइस्सइ - ( व्यतिवजि
ध्यति) पार चला जायगा। वीससे ---(विश्वस्यात् ) विश्वास
करें। °वीसंभटाणितो - (विश्रम्भ-
स्थानीयः ) विश्वासपात्र । वीहिं -(वीथिम् । बाजार में। वूहइत्ता --(बंहयिता) पोषक। वेयमारिय- ( वेदम्-आर्यम)
आर्य वेद; जिसमें हिंसा का
विधान न हो ऐसा वेद । वेरपडिउलणत्ये -(दे० वैर.
प्रतिकुञ्चनार्थम् ) वैर का
बदला लेने के लिये । वेसमणाणि -- ( वैश्रमणानि ) __कुबेर की मूर्ति । वैसालीए - ( वैशाल्याम् ) वि.
शाला नाम की नगरी में [ देखो 'भ, म. नी धर्म- कथाओ' के कोश में 'महावीर' शब्द ] ।
सइ ~~ (सदा) हमेशा । सइयाण – ( शतिकानाम् )
सौ का । सकमण्णहाकाउं-(शक्यम्
अन्यथाकर्तुम् ) ऊलटा करने
का शक्य । सखिहिणि -- ( सकिङ्किणीम् )
घुघरी के साथ । सगडवूहेणं - ( शक्टव्यूहेन )
शकट के आकार में सेना
की व्यूहरचना । सगडीसागर्ड-(शकटीशाकटम्)
छकडी और छकडे । सगेवेनं--(सगैवेयम् ) ग्रीवा
से पकड के। सचिट्रेण -- ( सचेष्टेन) चेष्टा
सहित, सावधानता से । सञ्चपक्खिकाए ---- ( सत्यपक्षि
कया ) सत्य का पक्ष करने
वालीने । सजीयेहि -( सजीवैः) प्रत्यंचा
-दोरी सहित। सगियं - ( शनैः ) धीरे से ।
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[ २४४ ]
सतेणं - (स्वकेन ) अपने निज
के । सतेहिंतो- (स्वकेभ्यः) अपने। सत्तसिक्खाचइयं-देखो टि.
४६ । सत्तंगपतिटिए - ( सप्ताप्रति
ष्ठितः) सातों अंगों से प्रतिष्ठित [चार पैर, सुंढ,
पूंछ और पुंचिह] । सनुयादुपालियं - ( सक्तुक
द्विपालिकाम् ) सत्त की दो
पाली को । सत्तुस्सेहे-(सप्तोत्सेधः) सात
हाथ ऊंचा। सदावेति- (शब्दापयन्ते)
बुलाते हैं। सद्धि ---(सार्धम् ) सहित । सन्धिमुहे -(सन्धिमुखे) चोरी
के लिये भीत में किये
हुए छेद में। सन्निपुष्वे - देखो टि. २८,
सन्निहियपाडिहरो - ( सन्नि
हितप्रातिहार्यः) चमत्कार
वाला, प्रत्यक्ष प्रभाववाला। समाणि... समाः) मनष्यो
के बैठने के स्थान, और
चौपाल । समखुरवालिहाणं- (समक्षुर
वालिधानम् ) जिसके खुर
और पूंछ समान है। समणाउसो - (श्रमणायुष्मन्)
हे आयुष्मान् श्रमण ! समया-(समता ) समभाव से। समलिहियं० - (समलिखित.
तीक्ष्णशृङ्गः) जिसके सींग नोंकदार और बराबर
समान हैं। समालदो-(समालब्धः) सजा
हुआ । समालहण - (समालमन)
तैयारी । सभिए -(शमितः) शांत । समुक्खित्तेहि- (समुत्क्षिप्तः)
फैंके हुए।
सन्निवइए -(संनिपतितः) गिरा
हुआ ।
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________________
[ २४५ ]
समुच्छियं ---- (समुक्षिकाम् ) ___ पाणी छांटनेवाली । समुप्पजित्था -- देखो टि. २१,
क. १ । समूसियसिरे-(समुच्छ्रितशिरः) ___ऊंचे मस्तकवाला । समेच्चा - (समेत्य) मिल
करके। समोसरिए - (समवसृतः) आये
सम्मजि-- (समाजिकाम् )
झाडू देनेवाली । सरभा-(शरभाः) अष्टापद । सरय - (शरत् ) कार्तिक और
मार्गशीर्ष मास । सरयपुण्णिमायंदो--- (शरत्
पूर्णिमाचन्द्रः ) शरद ऋतु
की पूनम का चांद । सल्लइया-(शल्यकिताः ) जिनके
पत्ते शुष्क होने पर सली
बन गई है । सवयंसो- (सक्यस्य:) मित्र
सहित ।
सपहलाविवं--(शपयशापितान्) ____सोनंद दी हुई। सम्बोउय -- ( सर्वऋतुक) सब
ऋतुओं में । ससक्खं -(ससाक्षि) साक्षी
रखके । सहदारदरिसी- (सहदार
दर्शिनः) साथ में विवाह
किये हुए । सहपंसुकीलियया-(सहपांशु
क्रीडितकाः) धूल में साथ
खेले हुए। सहावरङ्गं- (स्वभावरङ्गम् )
स्वाभाविक रंग को। सहोई -(दे०) चोरी के
माल के साथ । संगारं - (संगारम् ) करार
संकेत को। संघाडओ-(संघाटकः, संघा___ तकः) दो की जोडी। संचाएति - देखो टि. २०,
संचाएमि -(संशकोमि) कर
सकता हूं।
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________________
[ २४६ ]
संताण -(संत्राण) रक्षण | संतियं -(सत्कं) उसके पास
का । संथावणं- . (संस्थापनम् )
सांत्वन । संपहारेत्ता - (संप्रधारयित्वा)
विचार करके । संपेहेति - (संप्रेक्षते) विचार
करता है। संवादीनं -- (शाम्बादीनाम् )
शांव आदि का । संलत - (संलपितम् ) कहा। संवट्टणाणि --(संवर्तनानि ) जहां ___ अनेक मार्ग मिलते हों,
ऐसे स्थान । संविटेमाणी - (संवेष्टमाना)
पोषण करती हुई । संसारेति - (संसारयति) चलित
करता है। साइसंपओग- ( सातिसं-
प्रयोग) उत्कंचनादि सहित
दुष्ट प्रवृत्ति करना । साकेयं ---(साकेतम् ) अयोध्या।
सारक्खमाणी - (संरक्षमाणा )
पालती हुई । सारिच्छो -(सदृक्षः ) सरीखा
समान । सालघरएसु - (शालगृहेषु)
शाल नामक पेड से बने
हुए गृहों में । सालिअक्खए- (शालिअक्षतान् )
अक्षत शालि । सावगाणं - देखो टि. ३४ । सावय°--(श्वापदशतान्तकरणेन)
सैकडो श्वापदों का अंत
करनेवाला। सासयवाइयाणं-(शाश्वतवादि
कानाम् ) आत्मा शाश्वत
है ऐसा कहनेवालों को। साहति -(साधयति ? ) कहता
साहरंति -(संहरन्ति) संकुचित
कर लेते हैं । सिक्खगो-(शैक्षकः ) सीखने
वाला।
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[ २४७ ]
सिक्खियक्म्सधारी--(शिक्षित-
वर्मधारी) शिक्षित और
कवच पहेने हुए। सिढिल° --- (शिथिलवलीत्वक्
विनद्धगात्रः) शिथिल और जिसमें वल पड गये हैं ऐसी चमडी से जिसका
गात्र ढका हुआ है। सिढिलेसु- (शिथिलेषु)
शिथिलों में । सिरो-(शिरः) मत्या । सिंगाडगाणि -(शृगाटकानि)
सिंघाडे के आकार जसे
रस्ते । सिंगारागार - (गुजारागार-
चारुवेषा) शृङ्गार के घर
बैसी और अच्छे वेपवाली। सीयारं-(सीत्कारं ) सीत्कार । सुइमूएण ---(शुचिभूतेन) शचि-
रूप-पवित्र से । सुणहा -(शुनकाः) कुत्ते । सुत्तिमतीए -- (शुक्तिमत्याम् )
शुक्तिमती में। सुत्थिया -(सुस्थिताः) स्वस्थ ।
सुसाणएसु ~ (स्मशानेषु)
स्मशानों में । सुहमोयगी- (सुखमोदकः)
सुख से आनंद करनेवाला । सुकेणं - देखो टि. ३७ । सूनी-(सूच्यः) सूइयाँ । सूमालए - (सुकुमालकः ) सु
कुमार । सूरो- (सूर्यः) सूर्य । सेजासंधारएसु-(शय्यासंस्तार
केषु) (१) सोने के लिये नियत की हुई जमीन में (२) रहने के स्थान में की
हुई पधारी में । सेगिए - (श्रेणिकः ) मगध
देश का राजा का नाम [देखो 'भ. म. नी धर्म
कयाओ' का कोश] । सेणिप्पलेणीणं - (श्रेणीप्रश्रेणी
नाम् ) वर्ण और उपवर्ण [ देखो ‘भ. म. नी धर्म
कथाओ' का कोश ] । सेयणए ---- ( सेचनकः) उक्त । नाम का श्रेणिक का पट्ट
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[ २४८ ]
इस्ती देखो 'भ. म.नी
धर्मकथाओ' का फोश | सेयं -- (श्रेयः) कल्याण । सेयंसि-(स्वेदे) कीचड। सेवाणि -- (शैवानि ) शिव की
मूर्ति की। सेहावियं - (सेधापितम् ) नि
पादित किया हुआ ।
गत्या) हाथ में हाथ मिला
फर के । हत्थिराया - देखो टि. २२,
क. १ 1 हव्व - (दे०) जल्दी । हिओ-(हत्तः) ले लिया। हियाए-देखो टि.१७, क. ११ हिंसितं--(हेषितम् ) घोडे का )
हिनहिनाना। हीरइ - (हियते) ले जाय । हीला - (हेला) तिरस्कार। हेजति -- (हेतवः ) युक्तियाँ। होहिइ-होही-(भविष्यति)
होगा।
हडिबंधणं- (दे०) हेड में
कैद में रखना। हत्ययंसि - (हस्तके) हाथ में। हत्थसंगेलीए ---(दे० हस्तसं
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