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( ४ ) जो मनुष्य अपने निजी आराम को तो कमती करे तथा आराम में सहायता देनेवाली व्यक्तियों की भी उचित रूप से ठीक ठीक सार सँभाल रक्खे इस मनुष्य की वृत्ति को तेजोलेश्या का नाम दिया जा सकता है ।
( ५ ) जो मनुष्य अपनी सुविधाओं को जरा और अधिक कमती कर के अपने आश्रितों की तथा अपने संसर्ग में आनेवाले अन्य भी प्रत्येक प्राणियों की - विना किसी खेद मोह और भय से - भले प्रकार सार सँभाल रखता है, उस मानव की मनोवृत्ति पद्मलेश्या कही जाती है ।
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( ६ ) जो शान्तात्मा अपने सुखसाधनों को सर्वथा न्यून कर के, मात्र अपने शरीरनिर्वाह योग्य साधारण सी सामग्री के लिये भी किसी प्राणी को लेशमात्र कष्ट न पहुंचावे, तथैव किसी वस्तु पर लोलुपता न हो- हृदय में सतत समभाव की स्थापना हो -- ऐसा व्यवहार रक्खे, एवं मात्र आत्मभान से ही संतुष्ट रहे, इस मनुष्य की सुविशुद्ध वृत्ति को शुकुलेश्या कहते हैं ।
२६. तयावरणिन्जाणं कम्माणं खओवसमेण - " तदावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमेन - ज्ञान को आवृत करनेवाले कर्मों के कुछ भाग के क्षय से और कुछ भाग के उपशमसे" 1
२७. ईहापूहमग्गणगवेसणं - " ईहा -अपोह - मार्गणगवेषणम् " । जब कोई अनुभूत वस्तु देखी जाती है तब पूर्वानुभव की स्मृति के लिये चित्त में जो व्यापारपरंपरा
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