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________________ [ १८९] साम्य परस्पर स्पष्ट है। उक्त रूप में मुख्य धातु ब्रज है। साधारण नियम के अनुसार 'तए' प्रत्यय लगने से उसका रूप 'पन्चइत्तए' होना चाहिए। और ऐसा कई जगह आता भी है। परन्तु इधर 'जि' के 'ज' का " व्यंजनों का प्रयोग" नियम १ अनुसार लोप हो कर, बचे हुए 'इ' स्वर के साथ त् का प्रयोग हुआ है। इसका खुलासा किसी भी प्राकृत व्याकरण में नहीं मिलता। अनेक प्रयोगों के देखने से मालूम होता है कि जहाँ उपर्युक्त नियम के अनुसार क् ग् च् ज् इत्यादि का लोप होता है वहाँ बचे हुए स्वर में तकार आ जाता है। जैसे कि सामाइअ (सामायिक) की जगह 'सामातीत'; आराधक की जगह 'आराहत' इ० आते हैं। इस तरह पुराणे रूपों में जो तकार आता है उसके लिए दो कल्पना हो सकतीं । एक तो लेखकों के लेखन सम्बन्धी भ्रम से क् गज वगेरे के लोप होने के बाद बचे हुए स्वर के स्थान में किंवा स्वरस्थानीय यकार के स्थान में 'त' लिखा गया हो। अथवा यह भी संभव है कि किसी काल में स्वरों के स्थान में त बोलने या लिखने की पद्धति ही रही हो। भरत के नाट्यशास्त्र में लिखा है कि चर्मण्वती नदी के पार अर्बुद के आसपास जो प्रदेश है, तत्सम्बन्धी पात्रों के लिये तकारवहुल भाषा का प्रयोग करना (ना. शा. अ. १७, श्लो० ६२)। अस्तु । इसी कथासंग्रह में भी 'पगासाइं' की जगह 'पंगासाति' और 'हेऊई' की जगह 'हेजति' ऐसे अनेक प्रयोग आते हैं । उन सब के त् का खुलासा उक्त पद्धति से कर लेना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002742
Book TitleJinagam Katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, Agam, & agam_related_other_literature
File Size9 MB
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