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परंतु उसके लघुन्यासकार ने "देवानांप्रिय" शब्द का 'जु' और 'मूर्ख' अर्थ बताया है। पिछले मागमटीकाकारों ने तो देवाणुप्पिय की उपर्युक्त मूल व्युत्पत्ति को लक्ष में न रख कर, उसका साम्य 'देवानुप्रिय' से बताया है। संभव है कि “देवानांप्रिय' को उन्होंने अपने तत्कालीन साहित्य में मूर्ख अर्थ में देखा हो और इससे भ्रान्ति में पड कर यह नई विचित्र कल्पना की हो ।
१०. उंबरपुप्फमिव-उंबरे के पेड को फूल नहीं होते हैं इस लिये वे दुर्लभ है। इस प्रकार 'उंबरे के फूल की तरह दुर्लभ'। उंबर शब्द का संस्कृत उच्चार उदुंबर है । उंबर की तरह प्राकृत में दूसरा प्रयोग उउंबर भी होता है।
१५. से जहा नामए-बौद्ध पिटक ग्रंथों में इसके स्थान में 'सेय्यथा' प्रयोग आता है । उसका अर्थ 'तद्यथा' है। तत् शब्द का मागधी में पुलिंग में 'से' रूप होता है। परन्तु इधर आर्पता के कारण इसका प्रयोग नपुंसक लिंग में भी हुआ मालूम होता है। 'नामए' शब्द भी 'से' की तरह ही लिङ्गव्यत्यय से प्रयुक्त हुआ है। इसका संस्कृत उच्चारण नामकं -नाम है ।।
१२. पव्वतित्तए - "प्रव्रजितुम् - प्रव्रज्या लेने के लिय" । इस रूप के अंत का 'तए' 'तुम्' का अर्थ बताता है। पाली भाषा मैं तुम् के अर्थ में तचे का प्रयोग होता है
और पागिनीय ३-४-९ के अनुसार पैदिक संस्कृत में भी 'तवे' और 'तवै' का प्रयोग होता है। इन तीनों का
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