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प्रदक्षिणा करना । ८-२-७२ सूत्र के अनुसार दक्षिण, दाहिण ( दक्षिण) ये दो रूप होते हैं। आदाहिणं पदाहिणं के स्थान में इधर 'द' का लोप करके आयाहिणं, पयाहिणं प्रयोग किया गया है। कई जगह आदाहिणं पदाहिणं प्रयोग भी आता है
८. वदासी- व्याकरण के सामान्य नियम के अनुसार 'वदीअ' रूप होता है (८-३-१६३). परंतु ८-३-१६२ के अनुसार यह आपवादिकरूप आप प्राकृत में बनाया गया
उत्तरका
९. देवाणुप्पिया-'देवानां प्रियः - देवों के वल्लभ'। 'देवों के वल्लभ' अर्थ में 'देवानंपियो' शब्द का प्रयोग अशोक की धर्मलिपि में भी आता है। 'देवाणप्पिय' वा 'देवाणंपिय' की जगह 'देवाणुप्पिय' ऐसा आप्रयोग हुआ है। इस शब्द का प्रयोग श्रमणसंस्कृति के ग्रंथों में वारंवार आता है। परंतु ब्राह्मणसंस्कृति के पाणिनि उत्तरकालीन विद्वानों ने इसका 'मूर्ख' अर्थ बताया है । संभव है कि जैनों
और बौद्धों के इस प्रिय शब्द का उपहास करने के लिये, पाणिनि के वार्तिककार ने इसको 'मूर्ख' अर्थ में लगा लिया हो। इसके पहले इसका ऐसा अर्थ न था । वार्तिक के अनुसार ही जैनाचार्य हेमचंद्र ने भी जैनधर्म के इस अच्छे से अच्छे शब्द को स्वरचित कोश में 'जाल्म' का पर्यायरूप बताया है (अभिधानचिंतामणि, मर्त्यकांड श्लो. १६)। मूल सिद्धहेमव्याकरण में ऐसे अर्थ के लिये कोई स्थान नहीं है
इस मियत बताया है।
पाणिनि
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