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होना चाहिए था । परंतु 'य' का आर्ष में ए उच्चार हो जाने से 'हियाए' रूप हो गया है। इसी तरह खमाए, सुहाए इत्यादि रूप भी समझ लेने ।
१८. मणामे-" सुंदर"। पाली साहित्य में इस अर्थ में 'मनाप' शब्द का प्रयोग आता है। 'मणाम' शब्द भी 'मनाप' का ही भिन्न उच्चारण है । मनाप, मणाव, मणाम ।
१९. पाणेहिं, भूतेहिं, जीवेडिं, सत्तेहिं - यद्यपि ये चारों शब्द लगभग समान अर्थवाले हैं तथापि टीकाकार ने इनका भेद इस प्रकार बताया है। स्पर्श और रसना इंद्रिय वाले, स्पर्श, रसना और घ्राणेंद्रियवाले; स्पर्श, रसना, घ्राण
और चक्षु इंद्रियवाले ये सब प्राण हैं। वनस्पति भूत है। जिनको श्रोत्रंद्रियादि पांचों इंद्रियों पूर्ण हैं वे सब जीव है । और बाकी के पृथ्वी, पाणी इत्यादि सत्त्व कहलाते हैं।
२०. संचाएति -"सकता है" । आचार्य हेमचंद्र ने लिखा है कि शक् के अर्थ में चय् धातु का प्रयोग प्राकृत में होता है । संचाएति' इसी चय का रूपान्तर है । संभव है कि शक् के आदि श् का च उच्चार करने से प्राकृत में चय धातु का व्यवहार हो गया हो-शक्-सय्-चय ।
अथवा संस्कृत में चय् और चाय यह दो धातु भी अलग अलग मिलते हैं। उनमें से किसी एक से भी इस रूप की निष्पत्ति हो सकती है। धातु अनेकार्थक होने से अर्थ की भी गरबड मिट सकती है। परंतु शक् से ही इस रूप की निष्पत्ति उचित जान पडती है।
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