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३५. दंडणाणिं - " दण्डनानि"। यहां दंडन शब्द का भाव नरक के दुःख से है। जिस तरह का नरक का स्वरूप जैनशास्त्र में आता है उसी तरह का महाभारतादि वैदिक ग्रंथों में और सुत्तनिपातादि बौद्ध ग्रंथों में भी मिलता है।
३६. जितसत्तू -जैसे बौद्ध जातकों में जहांतहां ब्रह्मदत्त राजा का नाम आता है वैसे ही जैन कथाओं में जितशत्रु राजा और उसके साथ धारिणी राणी का नाम आता है। कथा के आरंभ में किसी भी राजा का नाम आना ही चाहिए इस पद्धति के अनुसार कयाकारों ने इस नाम को जहांतहां रख दिया है। वास्तव में इस नाम का कोई राजा था या नहीं यह अतीत इतिहास के अन्धकार में है।
३७. सुंकेणं-“शुल्केन-मूल्य से"। सुंक के अतिरिक्त प्राकृत में शुल्क शन्द के संग और सुक प्रयोग भी होते हैं। हिंदी भाषा में जकात अर्थ में जो चंगी शब्द का व्यवहार होता है वह सुंग का ही भिन्न उच्चारण है।
३८. रुक्खाउन्धेयकुसलो-"वृक्षायुर्वेदकुशल:- वृक्षों के आयुर्वेद में कुशल " | वाराही संहिता में ५४ वां अध्याय में वृक्षायुर्वेद के संबंध में लिखा गया है। उसमें पेडों के रोगों का ज्ञान, उसकी चिकित्सा, फलनाश की चिकित्सा, पेडों के वृद्धि के प्रयोग इत्यादि पेड़ों के संबंध में सब हकीकत बताई गई है। और किस वृक्ष को कहाँ लगाना, कौन वृक्ष बीजरोप्य है अर्थात् बीज से लगाया जाता है
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