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(६) संयुक्त व्यंजनसे पहेंलेके 'ई' और 'उ' के स्थानमें अनुक्रमे 'ए' और 'ओ' का प्रयोग प्रायः होता है । उदा० बिल्वबेल्ल, पुष्कर-पोक्खर ।
(७) [अ] व्यंजनसे मिले हुए 'क' के स्थानमें प्राकृतमें 'अ' का प्रयोग होता है, और कितनेही शन्दोंमें 'इकार' और 'उकार' का मी प्रयोग होता है । उदा० धृतं-घयं, शुगालसिआल, वृद्ध-बुड्ढ ।
[आ] केवल अर्थात् व्यंजनसे नहीं जुड़े हुए 'र' के स्थानमें 'रि' का प्रयोग होता है । उदा० ऋद्धि-रिन्ति ।।
इ] समासवाले शब्दों में प्रारंभिक शब्दके 'ऋ' को अवश्य 'उ' हो जाता है। उदा० मातृप्वसा-माउसिआ (मासी)।
(८) 'कृप्त' के स्थानमें 'किलित्त' का प्रयोग प्राकृतमें होता है । और 'कुन्न' के स्थानमें 'किलिन्न 'का होता है।
(९) 'ऐ' के स्थानमें 'ए' का तथा 'औ' के स्थानमें 'ओ' का प्रयोग होता है । उदा. वैद्य-वेज, यौवन-जोव्वण ।
प्राकृतमें व्यंजनोंका प्रयोग __(१) एक ही शब्दके भीतर रहे हुए असंयुक्त क, ग, च, ज, त, द, प, व, य और व का प्रयोग प्राकृतमें नहीं होता है । किंतु उनके लोप होने के बाद उनका स्वर बचा रहता है । यदि वह बचा हुआ स्वर 'अ' और 'आ' से परे हो तो प्रायः उसके स्थानमे अनुक्रमसे 'य' और 'या' का प्रयोग हो जाता है । उदा० नगर-नयर, प्रजा-पया, शचि-सइ ।
(२) ख, घ, थ, ध, फ, में ये व्यंजन अनुक्रमसे क्+ह , ग+, त्+ह , दु+ह , पह, ब+ह से बने हुए हैं । लेकिन प्राकृत भाषामें ऊपर अंक २ के नियमानुसार विजातीय संयुक्त
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