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[११३ ]
सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी न वीससे पण्डिए आसुपन्ने । घोरा मुहुत्ता अवलं सरीरं भारुण्डपक्खी व चरऽप्पमत्ते ॥६॥ चरे पयाई परिसंकमाणो जं किंचि पास इह मण्णमाणो । लामन्तरे जीविय वूहइत्ता पच्छा परिन्नाय मलावधंसी ॥७॥ छन्दनिरोहेण उवेइ मोक्खं आसे जहा सिक्खियवम्मधारी । पुवाई वासाई चरऽप्पमत्ते तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं ||८|| स पुन्वमेवं न लभेज पच्छा एसोवमा सासयवाइयाणं । विसीयई सिढिले आउयमि कालोवणीए सरीरस्स भेए ॥९॥ खिप्पं न सकेइ विवेगमेडं तम्हा समुदाय पहाय कामे । समिञ्च लोयं समया महेसी आयाणुरक्खी चरमप्पमत्ते ॥१०॥ मुई मुहूं मोहगुणे जयन्तं अणेगरूवा समणं चरन्तं । फासा फुसन्ति असमंजसं च न तेसि भिक्खू मणसा पठस्से ॥१॥ मन्दा य फासा बहुलोहगिज्जा तहप्पगारेसु मणं न कुज्जा। रक्खिज्ज कोहं विणएज्ज माणं मायं न सेवे पयहेज लोहं ॥१२॥ जेऽसंखया तुच्छा परप्पाई ते पिजदोसाणुगया परज्झा। एए अहम्मे त्ति दुगुंछमाणो कंखे गुणे जाव सरीरभेउ ॥१३॥
त्ति बेमि ॥
(उत्तराभ्ययनम् ४)
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