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________________ [ २ ] आप प्राकृतकी उपपत्तिके लिये सारे व्याकरणमें आर्य सूत्रका ( ८-१-३ ) अधिकार बताया है । स्थान स्थान पर उसके उदाहरण भी जैन आगमोंमेंसे दिये गये हैं । किंतु आर्प प्राकृतके सर्व प्रयोगोंकी उपपत्तिके लिये उसमें प्रयत्न नहीं किया गया । आप प्राकृत और बौद्ध मूल त्रिपिटककी पाली भाषामें अधिक साम्य देखा जाता है । पाली शब्दका अर्थ अभी विवादास्पद है परंतु हमारी कल्पना में पाली शब्दकी उपपत्ति प्राकृत शब्दसे मालूम होती है। प्रकृति के स्थान में जैन ग्रंथोंमें कई जगह ' पयड़ी " शब्द आता है । ' पयड़ी' शब्दसे तद्धितान्त 'पायड़ी' शब्द हो कर उससे 'पाली' शब्द बननेमें व्युत्पत्तिशास्त्रकी कोई असंगति मालूम नहीं होती । कहनेका तात्पर्य यह है कि जिनागमोंकी आर्प प्राकृत और त्रिपिटकोंकी पाली भाषा, दोनोंमें अधिक साम्य देखा जाता है । थोडेसे उदाहरण देनेसे यह कथन और भी स्पष्ट हो जायगा । आई प्राकृतमै सप्तमीके एकवचन लोगंसि, लोगम्मि, लोगे, ऐसे तीन आते हैं । पाली में भी बुद्धस्मि, बुद्ध, बुद्धे, ऐसे आते हैं। आर्प प्राकृतका सप्तमीका एकत्रचन ' लोगंसि' में जुड़ा हुआ सप्तमीदर्शक प्रत्यय पालीका 'बुद्धस्मि ' बुद्धस्सि' रूपमें जुड़ा हुआ 'स्मि' प्रत्ययके साथ अधिक साम्य रखता है। ऐसे ही 'लोगम्मि ' का साम्य 'बुद्धन्हि' के साथ अधिक है। असल में 'स्मि' प्रत्ययके २. भगवतीसूत्र शतक १, उद्देशक ४. 46 कइ पयही कह बंध, कहिं च ठाणेहिं बंध पयडी । कs वेदे य पयडी, अणुभागो कइविहो कस्स ? " ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002742
Book TitleJinagam Katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, Agam, & agam_related_other_literature
File Size9 MB
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