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भिन्न प्रकारके उच्चार अनुस्वारादि 'सि' (लोगंसि), 'हि' और 'म्मि' हैं । संस्कृत वैयाकरणोंने इस प्रत्ययके समान 'स्मिन्' (सर्वस्मिन् ) और 'इ' (देवे) प्रत्यय बताये हैं। आप ग्राकृत, पाली और संस्कृतके सप्तमीके एकवचनके प्रत्ययसे मालूम होता है कि 'स्मिन्' प्रत्ययके व्यवहारके लिये संस्कृतमें बहुत परिमित क्षेत्र है । तव प्राकृत एवं पालीमें वह सार्वत्रिक जैसा मालूम होता है। आप प्राकृत में 'कायसा,' 'जोगसा, बलसा,' इत्यादि 'सा' प्रत्ययवाले रूप तृतीया विभक्तिके एकवचनमें आते हैं। वैसे ही पाली भाषामें 'वलसा', 'जलसा, ' 'सुखसा' ऐसे 'सा' प्रत्ययवाले अनेक रूप आते हैं। आप प्राकृतमें भूतकालके वहुवचनमें पुच्छिसु, ', 'गच्छिसु' इत्यादि 'इंसु' प्रत्ययवाले रूप आते हैं । पालीमें भी अविसु', 'अपचिंसु , ' अगच्छिसु', ऐसे इंसु 'प्रत्यश्वाले रूपोंका प्रचार पाया जाता है । किसी सेट् धातुके भूतकालके तृतीय पुरुष बहुवचनमें 'इपुः ' ऐसा सेट् प्रत्यय संस्कृतमें प्रयुक्त होता है जो पूर्वोक्त 'इंसु' की साथ साम्य रखता है। आप प्राकृतके 'करित्तए', ‘गचिछत्तए', 'विहरित्तए' के 'तए' प्रत्ययका साम्य पालीके तुमर्थक तवे' प्रत्ययकी साथ स्पष्ट मालूम होता है। प्राचीन संस्कृत में तुम्' के अर्थमें 'तवे' और 'तवै' का प्रयोग मिलता है जो पूर्वोक्त पाली ‘तवे' के साथ समानता रखता है। इसी प्रकार प्राकृत और पालीके शब्दोंके उच्चारणमें भी अनेक तरहका साम्य है । जैसे:-इसि (ऋपि), उजु (ऋजु), वुड (वृद्ध), धम्म (धर्म), तिस्थ (तीर्थ), सच (सत्य), अच्छरिय (आश्चर्य)। इस कारणसे विद्यमान जैन आगमोंकी भाषाका कोई
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