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________________ [ १९७ ] अपमा टीकाकारों का ऐला भी निभाया है कि ये फाले. ते समए' ऐसा सप्तम्यंत पदच्छेद करना और 'ण' को वाक्यालंकार अर्थ में समझना । आचार्य हेमचन्द्र ने विभक्तिओं के व्यत्यय के बारे में अपने प्राकृत व्याकरण ८, ३, में १३४ से ले कर १३७ तक के सूत्र बताये हैं। ३१. आयरियउवज्झायाणं-"आचार्योपाध्यायानाम्"। जैन शास्त्र में शिल्पाचार्य, कलाचार्य और धर्माचार्य इस भाँति आचार्य के तीन भेद बताये गये हैं। धर्मग्रंथो में विशेषतः धर्माचार्य का जिकर आता है। जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र में पूर्णतया सावधान हो, सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ के विषय में अपना खास कौशल रखता हो और संघ की व्यवस्था का आधारभूत हो उसको आचार्य कहते हैं। उसके आंतरिक गुण इस प्रकार हैं। पंचेन्द्रिय का निग्रह, शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन, क्रोध, मान, माया और लोम से रहित होना, मन को वश में रखना, निस्पृहता और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को समझने की प्रतिभा । जो जिनभगवान के कहे हुए बारह अंग को पढाता हो, और उसके अनुसार ही उपदेश देता हो उसे उपाध्याय कहते हैं। इसके भी आंतरिक गुण आचार्य के समान होते हैं। ३२. पंचमहव्वपसु-"पंचमहानतेपु" मुमुक्षु के लिये जैन शास्त्र में पांच महाप्रत बताये गये हैं । जैसे कि :सब्वामओ पाणाइवायाभो वेरमणं, (सब प्रकार की हिंसा का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002742
Book TitleJinagam Katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, Agam, & agam_related_other_literature
File Size9 MB
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