SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [२२९ ] पक्खिवावेत्तए -~~ ( प्रक्षेपापयि- तुम् ) अंदर रखने के लिये। पगडिया-(प्रकर्पिता ) बहार खींची। पञ्चप्पिणह- ( प्रत्यर्पयत) वापिस दो। पञ्चायाए-(प्रत्यायातः) पीछा आया, जन्म लिया । पच्चोरुहति-(प्रत्यवरोहन्ति) ऊतरते हैं। पच्छागयपाणे - (पश्चादागत प्राणः) फिर से चैतन्य पाया हुआ । पज्जुवासति --(पर्युपास्ते) सेवा करता है। पञ्चविहे - देखो टि. ४४. पञ्चाणुब्वइयं - देखो टि. ४६। पट्टियाए - (पट्टिकायाम् ) पाटी में। पडिग्गह-(प्रतिग्रह) पात्र। मढिच्छति - (प्रतीच्छति) पडिनिजाएहि --- (प्रतिनय) वापिस ला । पडिनाये-(प्रतिज्ञातम्) प्रतिज्ञा की। पडिपुन्न"-(प्रतिपूर्णसुचारकूर्म चरणः) प्रतिपूर्ण, सुन्दर और कछुवे के जैसे चरण हैं जिसके । पडिलाभेमाणे-(प्रतिलाभयन) देता हुआ । पडिबालेमाणा - (प्रतिपालय मानाः) प्रतीक्षा करते पणावेहि --(प्रणामय) दे, सामने रख । पणियसालानि--(पण्यशालाः) करियाणे बेचने के स्थान । पण्हि --(पृष्णि) पानी-ऐडी। पत्तए --(पत्रके) कागज के टुकडे में । पत्तियामि-(प्रत्येमि) विश्वास करता हुँ । पत्यरेऊण -(प्रस्तीर्थ) बिछा करके । यडिदिजाएजासि-(प्रतिदद्याः) वापिस देना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002742
Book TitleJinagam Katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, Agam, & agam_related_other_literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy