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परंतु उनकी प्रसिद्धि व्याकरण और कोशोंमें नहीं है अर्थात् उनका वाच्यार्थ साहित्य में प्रचलित नहीं है इसलिये वे भी देश्य शब्दों में परिगणित किये गये हैं । जिस प्रकार चंद्रके अर्धमें 'अमृतद्युति, ' ' अमृतांशु' इत्यादि शब्द कोशादिक में प्रसिद्ध हैं, उस प्रकार 'अमृतनिर्गम' शब्द चंद्रके अर्धमें कोशादिकमें प्रसिद्ध नहीं है । परंतु लोकभाषा में उसका चंद्र अर्थ प्रसिद्ध है । इस लिये ' अमयनिग्गगम' शब्द व्युत्पन्न होने पर भी देश्य गिना गया है । इसी प्रकार अन्भपिसाय - अभ्रपिशाच ( आमका पिशाचराहु ), जहणरोह - जघनरोह ( जघनसे उगनेवाला - ऊरु ) इत्यादि शब्द भी हैं ।
संसार, अनल, नीर, दाह ऐसे अनेक शब्द प्राकृतमें प्रयुक्त होते हैं जिनका उच्चारण बिलकुल संस्कृतके समान ही है । इस तात्पयको ले कर ही आचार्य दंडी और आचार्य हेमचंद्रादिने" 'तत्सम' और 'देशी' ऐसे प्राकृतके दो विभाग बताये हैं ।
उच्चारणभेद ही प्राकृत, संस्कृत और तन्मूलक भाषाओं के भेदका और विस्तारका कारण है ऐसा आगे कहा गया है । वह उच्चारणभेद क्यों होता है ? इसके भी अनेक कारण प्राचीन लोगोंने बताये हैं। जैसे कि :- भाषाके महत्त्वमें अश्रद्धा, विद्वानोंका अभिमान,
६. " तद्भव स्तत्समो देशीत्यनेकः प्राकृतक्रमः” । काव्या० १- ३३ |
७.
सूत्र ८-१-१.
८.
" सर्वेषां कारणवशात् कार्यो भाषाव्यतिक्रमः ॥ ३७ ॥ माहात्म्यस्य परिभ्रंशं मदस्यातिशयं तथा ।
प्रच्छादनं च विभ्रान्ति यथा लिखितवाचनम् | कदाचिदनुवादं च कारणानि प्रचक्षते ॥ ३४ ॥
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पड्भाषाचेद्रिका पा. ५
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