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________________ वीचमें किसी प्रकारका कार्यकारणभाव है ही नहीं । किंतु जैसे आजकल भी एक ही भाषाके शब्दोंके भिन्न भिन्न उच्चारण मालूम होते हैं जैसे एक ग्रामीण ग्वाला जिस भाषाका प्रयोग करता है उसी भाषामा प्रयोग संस्कारापन्न नागरिक भी करता है, मात्र उच्चारणमें फरक रहता है, इसी कारणले उनको कोई भिन्न भिन्न भापाके बोलनेवाले नहीं कहता है-इसी तरह समाजके प्राकृत लोग प्राकृत उच्चार करते हैं और नागरिक लोग संस्कृत उच्चार करते हैं इससे ये दोनों भापा भिन्न हैं ऐसा कहनेका कौन साहस करेगा ? एक ही समयमें प्राकृत और संस्कृतके उच्चारका प्रवाह, इस प्रकार हमेशांसे ही चलता भा रहा है । इसमें कोई एक परवर्ती और दूसरा एक पुरोवर्ती ऐसा विभाग ही नहीं है। ____अस्तु । प्राकृत भाषाके विद्यमान जैन साहित्यमें भी आर्ष प्राकृतके और देवप्राकृतके प्रयोगोंको भी ठीक ठीक स्थान है। और ऐसे भी संख्यातीत शब्दोंके प्रयोग हैं जिनका उच्चारण बिलकुल संस्कृत के समान होता है। जिस प्राकृत शब्दकी व्युत्पत्ति अर्थात् प्रकृतिप्रत्ययका विभाग नहीं हो सकता है, और जिस शब्दका अर्थ मात्र रुढी पर अवलंबित है, वैसे शब्दोंको देश्य प्राकृत' कहते हैं। हेमचंद्रादि वैयाकरणोंने ऐसे शब्दोंको अव्युत्पन्न कोटिमें रक्खे हैं। जैसे कि:छासी-(छाश), चोरली-(श्रावण मासकी व०दि." चतुर्दशी), चोढ(बिरुव) इत्यादि ।और देश्य शब्दोंमें ऐसे भी अनेक शब्द हैं जो यौगिक और मिश्र होनेके कारण व्युत्पन्न जैसे मालूम होते हैं। ४. देशीनाममाला श्लो, ३. ५. व० बहुल. दि० दिवस. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002742
Book TitleJinagam Katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, Agam, & agam_related_other_literature
File Size9 MB
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