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लोग दो ही वस्त्र पहनते थे। देश की आबोहवा के अनुसार सब लोग ऐसा ही वेश रखते थे। जैन आगमों में बडे बडे संपत्तिवाले इभ्य श्रमणोपासकों के जो वर्णन आते हैं उनमें भी उनके लिये दो ही वस्त्र पहेरने का उल्लेख मिलता है। आजकल भी मिथिला और बंगाल बिहार में प्रायः यही प्रथा विद्यमान है ।
४१. आयवयकुसलेणं-" आयव्ययकुशलेन - उपार्जन करने में और व्यय करने में कुशल" । नीतिशास्त्रकारों ने कहा है कि आय का चतुर्थांश संगृहीत रखना, चतुर्थांश व्यापार में लगाना, चतुर्थांश धर्म और अपने भोग में लगाना, और चतुर्थांश अपने स्वजनों के पोषण में लगाना । दूसरे नीतिकार ऐसा भी कहते हैं कि आय से आधा, अथवा उससे ज्यादा अंश धर्म में लगाना और वाकी से पूर्वोक्त अपने दूसरे काम करने । ऐसा करनेवाला आयव्ययकुशल कहा जाता है। आचार्य हेमचंदरचित योगशास्त्र में धर्म के योग्य होनेवाले आदमी के जो गुण गिनाये गये हैं उनमें भी आयोचित व्यय करने का गुण खास गिनाया है ।
४२. गंधजुत्ति -"गंधयुक्ति"। पुराने जमाने के लोग अनेक प्रकार के सुगंधीद्रव्य अपने घरों में तैयार करते थे। वाराही संहिता में ७६ वां अध्याय सुगंधीद्रव्य बनाने की तरकीबें बताने को रचा गया है। उसके अनुसार गंधयुक्ति बनानेवाला गंधयुक्तिनिपुण कहा जाता था ।
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