SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २२५ ] नच्चंतकबंध -- (नृत्यत्- निकटाहि -- (निष्कृयभिः) कवन्ध-वार-भीमम् ) नाचते निकाली हुई - खुल्ली। हुए-धडों के - समूह से - निगमणाणि -(निर्गमनानि) भयंकर । निकलने के मार्ग । नटसुइए-(नष्टश्रुतिक:) जिसकी निग्गंथो- (निर्ग्रन्थः) आंतर कीमत श्रवणशक्ति मंद हो गई और बाह्य प्रथ-परिग्रह से रहित, पापविमुक्त और नत्तुए ---(नप्तकः) लडकी का निप्रहपरायण को निर्घन्य लडका । कहते है। जैन भागमों नदीकच्छेसु- (नदीकच्छेषु) में यह शब्द जैन साधु के नदी के किनारों पर । लिये प्रयुक होता है। नमिरो-(नमः) नम्र । इसी अर्थ में बौद्ध ग्रन्यो नलिणि°-(नलिनीवनविध्वंसन में निगंठ शब्द आता है। करे) कमलिनी के वन निच्छूढ-(निक्षिप्तम् , निष्ठयको नाश करनेवाला । तम्) यूंका हुआ । नागपडिमाण ---- ( नागप्रतिमा- निच्छोडेजा--(निश्छोटयेयम् ) नाम्) नागों की मूर्तिओं छीन लें । को। निछुहावेइ-(निस्तुम्भापयति) नातिविगटेहि - (नातिविकृष्टः) निकलवा देता है । बहुत दूर दूर के नहीं। निजाएति-(निर्यातयति) पूर्ण नाममुई-(नाममुद्राम् ) नामयुक्त करता है। मुद्रा-अंगठी निजापतिते - (निर्यापिता निटरंब-(निकुरम्ब) समूह। निकाळे हुए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002742
Book TitleJinagam Katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, Agam, & agam_related_other_literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy