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________________ [ २३२] पाणियपाए - (पानीयपाये) पानी पीने के लिये [निमित्तार्थक सप्तमी । पाणेहिं, भूतेहि - देखो टि. १९, क. १। पादेउं-(पाययितुम् ) पीने के लिये। श्वेत, विशुद्ध, चिकने और सभी प्रकार के दोषोंसे रहित हैं वह । पाइल्सामि - (पास्यामि) पीऊंगा। पाउप्पभायाए -- (प्रातःप्रभा तायाम् ) प्रातःकाल में प्रमात होने पर । पाउन्भवहः- (प्रादुर्भवत) हाजिर हो जाभो । पाउवदाई-(पादोपदायिकाम् ) पैर धोने के लिये जल देनेवाली । पाउस-(प्राप्) वर्षाऋतु (भाषाढ और श्रावण मास)। पाडगं - (पाटकम् ) पाडा, महला । पाडिहारियं-(प्रातिहारिकीम् ) बापिस हो सके ऐसी । पाडुहुएहि~ दे० (प्रतिभू...) जामिन अर्थात् जमानत देनेवाले । पामोक्खं-(प्रमोक्षम् ) उत्तर, जवाब । पायत्तिया - (पाशतिकाः) पैदल सिपाही । पायपढिएण - (पादपतितेन) पैरों में पड़ने से । पायवघंस-(पादपघर्ष ) वृक्षों का प्रर्षण । पायाविया-(पायिता) पिलाई पारासरा -- (पराशराः) एक प्रकार के सर्प । पावति-(प्राप्नोति) पाता है -पहुंचता है। पावयणं ----(प्रवचनम् ) शास्त्र । पावसियालगा-(पापशृगालकाः) दुष्ट गीदड । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002742
Book TitleJinagam Katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, Agam, & agam_related_other_literature
File Size9 MB
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