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________________ [२१५ ] उवातियं - (स्पयाचितम्) मनौति (गू. मानता) उवायाते -(उपायातः) पहुंचा, गया । उन्नत्तेति--(उद्वर्तयति) उलट पुलट करता है। उणजातिएण-(ऊनजातिजेन) हलकी जाति में पैदा हुए एतीए -- (एतया) उसके साथ । एयाऽऽओ -- (अनागतः) इधर आया हुआ । एवंविहकज - (एवंविधकार्य सज्जया) इस प्रकार के काम करने में तत्पर रहनेवाली से | एह - (एतस्य ) इसकी । ओयत्तनि - (अपवर्तते) हटती असिय-(उच्छूित ) ऊंचा। ऊसियफलिहे - (उच्छ्रित परिधः ) जिनके द्वार की अर्गला हमेशा ऊंची ही रहती है अर्थात् जिसका गृहद्वार कमी वन्द नहीं होता है ऐसा- दानी। एकसंकलितयद्वा (एकशृङ्खलिकवद्धाः) जिनके नाम, अनुकम से लिखे हुए हैं। एगो --(एकतः) एक जगह एडेति-(एडयति) फेंकती ओलग्गिया- (अक्लगिताः) आश्रय लिया । ओलंडेनि - (ओलण्डयति) खडखडाता है । ओसहभेसजेणं-(औषधभैष जेन) एक द्रव्य से वनी हुई दवाई औषध; और अनेक द्रव्य से बनी हुई दवाई भपज [गूजराती : 'ओसडवेसड']। ओसोवणिं-(अवरवापिनीम् ) निद्रायुक्त कर देने की विद्या । एडेसि - (एलसि ) फेंकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002742
Book TitleJinagam Katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, Agam, & agam_related_other_literature
File Size9 MB
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