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मित्तवज्जा
एकं चिप सलहिज्ज दिणेस - दियहाण नवरि निव्वहणं । आ जम्म एकमेकेहि जेहि विरहो च्चिय न दिट्ठो ॥ ६५ ॥ पडिवन्नं दिणयर - वासराण दोण्हं अखण्डियं सुहइ | सूरो न दिणेण विणा दिणो वि नहु सूरविरहम्मि ॥ ६६ ॥ मित्तं पय-तोयसमं सारिच्छं जं न होइ किं तेण । अहियाएइ मिलन्तं आवइ आवट्टए पढमं ॥ ६७ ॥ तं मित्तं कायन्त्रं जं किर बसणम्मि देसकालम्मि | आलिहियभित्तिवाउल्लयं व न परम्मुहं ठाइ ॥ ६८ ॥
तं मित्तं कायव्वं जं मित्तं कालकम्बलीसरिसं । उयरण धोयमाणं सहावरङ्गं न मेल्लेइ ॥ ६९ ॥
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