Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और अनेकान्त आचार्य महाप्रज्ञ 2010_03 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरोध अस्तित्व का सार्वभौम नियम है । ऐसा कोई भी अस्तित्व नहीं, जिसमें विरोधी युगल एक साथ न रहते हों। एक भाषा में अस्तित्व को विरोधी युगलों का समवाय कहा जा सकता है । अनेकान्त ने इस सत्य का दर्शन किया । विरोधी युगलों के सह-अस्तित्व को भाषा अथवा परिभाषा दी । उनमें रहे हुए समन्वय के सूत्र खोजे । अनेकान्त जैन दर्शन का व्याख्या-सूत्र बन गया । अनेकान्त को समझे बिना जैन दर्शन को नहीं समझा जा सकता । निरपेक्ष और सापेक्ष दृष्टिकोण के समन्वय के सन्दर्भ में प्रस्तुत पुस्तक को पढ़ा जाएगा । दृष्टियां स्पष्ट होंगी तथा जैन दर्शन को नये संदर्भ में समझने का अवसर मिलेगा। 2010_03 For Private & Personal Use Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 जैन दर्शन और अनेकान्त Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन 2010_03 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन __ और अनेकान्त आचार्य महाप्रज्ञ 2010_03 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ © आदर्श साहित्य संघ, नई दिल्ली जैन दर्शन और अनेकान्त लेखक : आचार्य महाप्रज्ञ सम्पादक : मुनि दुलहराज प्रकाशक : कमलेश चतुर्वेदी प्रबन्धक-आदर्श साहित्य संघ २१०, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग नई दिल्ली-११०००१ संस्करण : सन् २००३ मूल्य : पचास रुपए मुद्रक : आर-टेक आफसेट प्रिंटर्स, दिल्ली-११००३२ JAIN DARSHAN AUR ANEKANT by Acharya Mahaprajna Rs. 50.00 2010_03 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50406003 प्रस्तुति मैत्री का सिद्धान्त आचार के क्षेत्र में प्रतिपादित हुआ है। विचार के क्षेत्र में भी उसका मूल्य कम नहीं है। अनेकान्त मूलत: मैत्री का वैचारिक सिद्धान्त है। विरोध अस्तित्व का सार्वभौम नियम है। ऐसा कोई भी अस्तित्व नहीं है, जिसमें विरोधी युगल एक साथ न रहते हों। एक भाषा में अस्तित्व को विरोधी युगलों का समवाय कहा जा सकता है। अनेकान्त ने इस सत्य का दर्शन किया। विरोधी युगलों के सह-अस्तित्व को भाषा अथवा परिभाषा दी। उनमें रहे हुए समन्वय के सूत्र खोजे । अनेकान्त जैन दर्शन का व्याख्या सूत्र बन गया। अनेकान्त को समझे बिना जैन दर्शन को नहीं समझा जा सकता। कुछ दार्शनिकों ने प्रश्न उठाया-अनेकान्त सापेक्ष दर्शन है। जैन दर्शन में निरपेक्ष सत्य को स्वीकृति नहीं है। निरपेक्ष के बिना सापेक्ष कैसे होगा? यह प्रश्न इसीलिए उठा कि अनेकान्त का स्वभाव हृदयंगम नहीं हुआ। अनेकान्त का भी अनेकान्त है । यह बात स्पष्ट होती तो यह प्रश्न नहीं उठता । प्रत्येक नय एकान्तवाद है। प्रत्येक नय का मत एक-दूसरे से भिन्न है। अनेकान्त का अर्थ है-अभिन्नता को स्वीकार करना और भिन्नता में सह-अस्तित्व की संभावना को खोजना । प्रत्येक द्रव्य का अस्तित्व निरपेक्ष है । आत्मा असंख्य प्रदेशात्मक अस्तित्व है । वह निरपेक्ष सत्ता है। अस्तित्व की दृष्टि से आत्मा और पुद्गल- दोनों समान हैं । यह अनेकान्त का सापेक्ष दृष्टिकोण है। इस निरपेक्ष और सापेक्ष दृष्टिकोण के समन्वय के संदर्भ में प्रस्तुत पुस्तक को पढ़ा जाए। दृष्टियां स्पष्ट होंगी। जैन दर्शन को नये संदर्भ में समझने का अवसर मिलेगा। प्रस्तुत पुस्तक के दो खण्ड हैं। पहला अनेकान्त और दूसरा जैन दर्शन । पहला लिखा हुआ और दूसरा बोला हुआ। फिर भी भाषा के भेद में विचार का भेद नहीं मिलेगा। प्रस्तुत पुस्तक के संपादन में मुनि दुलहराजजी तथा मुनि धनंजयकुमारजी ने निष्ठापूर्वक श्रम किया है। आचार्य महाप्रज्ञ 2010_03 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त १. द्वैतवाद २. स्याद्वाद और जगत् ३. विचार की आधारभित्ति : नयावाद सद्वाद ४. स्याद्वाद और जैन- दर्शन ५. आत्मवाद ६. आत्मवाद के विविध पहलू ७. कार्य-कारणवाद ८. ईश्वरवाद : कर्मवाद ९. नियमवाद १०. निर्वाणवाद ११. पुनर्जन्मवाद १२. अनेकान्तवाद १३. नैतिकता की धारणा अनुक्रम 2010_03 १-८२ a y a w ११ २८ ५९ ६६ ८३-१५५ ८५ ९३ १०३ ११२ १२३ १३३ १३९ १४७ १५५ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 2010_03 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वैतवाद सापेक्ष सत्य : निरपेक्ष सत्य ___हम जिस जगत् में सांस ले रहे हैं वह द्वन्द्वात्मक है । उसमें चेतन और अचेतन-ये दो द्रव्य निरन्तर सक्रिय हैं। इन दोनों का अस्तित्व स्वतन्त्र है-चेतन, अचेतन से उत्पन्न नहीं है और अचेतन चेतन से उत्पन्न नहीं है। चेतन भी त्रैकालिक है और अचेतन भी त्रैकालिक है। इन दोनों में सह-अस्तित्व है। दोनों परस्पर मिले-जुले रहते हैं। शरीर अचेतन है और आत्मा चेतन है। दोनों में पूर्ण सामंजस्य है। दोनों एक-दूसरे का सहयोग करते हैं। चेतन को अचेतन के माध्यम से और अचेतन को चेतन के माध्यम से समझने में सुविधा होती है। चेतन से अचेतन और अचेतन से चेतन प्रभावित है। अचेतन में ज्ञान नहीं है इसलिए वह चेतन के प्रभाव से मुक्त होने की बात सोच नहीं सकता । चेतन में ज्ञान है, इसलिए वह अचेतन के प्रभाव से मुक्त होने से बात सोचता है और उसके लिए उपाय करता है। इस तत्त्ववाद के आधार पर चेतन तत्त्व दो भागों में विभक्त है १. अचेतन से प्रभावित चेतन-बद्धजीव। २. अचेतन से अप्रभावित चेतन-मुक्तजीव । बद्धजीव की व्याख्या सापेक्ष दृष्टि से की जा सकती है। अचेतन की सापेक्षता के बिना बद्धजीव की व्याख्या नहीं की जा सकती। इस दृष्टि से बद्धजीव का अस्तित्व सापेक्ष सत्य है और मुक्तजीव का अस्तित्व निरपेक्ष सत्य है। इसी प्रकार चेतन से संपृक्त अचेतन पदार्थ परतंत्र होते हैं और चेतन से असंपृक्त अचेतन पदार्थ स्वतन्त्र होते हैं । परतन्त्र-अचेतन पदार्थ सापेक्ष-सत्य है और स्वतन्त्र-अचेतन पदार्थ निरपेक्ष-सत्य पक्ष-प्रतिपक्ष का सिद्धान्त जैन तार्किकों ने पक्ष और प्रतिपक्ष के सिद्धान्त का प्रतिणदन किया। उनका तर्कसूत्र है—जो सत् है वह प्रतिपक्षयुक्त है। इस तर्क का आधार आगम सूत्र में भी मिलता है। स्थानांग में बतलाया गया है कि लोक में जो कुछ है वह सब द्विपदावतार 2010_03 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ / जैन दर्शन और अनेकान्त (दो-दो पदों में अवतरित) होता है• जीव और अजीव स और स्थावर • सयोनिक और अयोनिक • आयु सहित और आयु रहित • इन्द्रिय सहित और इन्द्रिय रहित वेद सहित और वेद रहित • रूप सहित और रूप रहित • पुद्गल सहित और पुद्गल रहित • संसार समापत्रक और असंसार समापन्नक शाश्वत और अशाश्वत आकाश और नो- आकाश • धर्म और अधर्म • बंध और मोक्ष • पुण्य और पाप • आस्रव और संवर • वेदना और निर्जरा' त्रयात्मक अस्तित्व चेतन और अचेतन -- इन दोनों द्रव्यों का अस्तित्व त्रयात्मक है। उसके तीन अंग हैं १. धौव्य, २. उत्पाद, ३. व्यय । अस्तिकाय द्रव्य का धौव्य अंश है। पांच द्रव्य अस्तिकाय वाले हैं १. धर्मास्तिकाय २. अधर्मास्तिकाय ३. आकाशास्तिकाय ४. पुद्गलास्तिकाय ५. जीवास्तिकाय १. ठाणं २/१ 2010_03 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वैतवाद / १३ - अस्तिकाय का अर्थ है-प्रदेश-राशि। पुद्गलास्तिकाय की सबसे छोटी इकाई परमाणु है । वह वियुक्त अवस्था में परमाणु और संयुक्त अवस्था में प्रदेश कहलाता है। दो परमाणुओं के मिलने से बना हुआ स्कन्ध द्विप्रदेशी स्कन्ध कहलाता है। पुद्गलास्तिकाय को छोड़कर शेष चार अस्तिकाय अविभागी हैं। इनका एक ही स्कंध होता है। उसका कोई भी भाग कभी पृथक् नहीं होता। इसलिए चार अस्तिकायों के प्रदेश होते हैं, परमाणु नहीं होते। अवगाहन की दृष्टि से एक परमाणु एक प्रदेश के तुल्य होता है । एक जीवास्तिकाय के असंख्य प्रदेश होते हैं और वे सब चैतन्यमय होते हैं। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के असंख्य प्रदेश होते हैं। आकाश के अनन्त प्रदेश होते हैं। इनका अपना-अपना विशेष गुण है। धर्मास्तिकाय के सभी प्रदेशों में स्थिति में सहयोगी बनने की क्षमता है। अधर्मास्तिकाय के सभी प्रदेशों में गति में सहयोगी बनने की क्षमता है। आकाश के प्रदेशों में अवगाह देने की क्षमता है। पुद्गलास्तिकाय के परमाणुओं और प्रदेशों में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श की क्षमता है । इन पांचों अस्तिकायों के अपने-अपने विशेष गुण हैं । वे गुण अपने-अपने द्रव्य से कभी पृथक् नहीं होते और न कभी एक-दूसरे में परिवर्तित होते हैं। पांचों अस्तिकायों की द्रव्य राशि (mass) भी ध्रुव है। पुद्गलास्तिकाय विभागी द्रव्य है। इसलिए कभी परमाणु संयुक्त होकर स्कन्ध निर्मित कर देते हैं और कभी वियुक्त होकर वे परमाणु बन जाते हैं। अविभागी अस्तिकायों का एक प्रदेश भी कम हो तो वे अस्तिकाय नहीं कहलाते । उनका पूर्ण स्कन्ध ही अस्तिकाय कहलाता है। अस्तिकाय का नियम __ गौतम ने भगवान महावीर से पूछा 'भंते ! धर्मास्तिकाय के एक, दो, तीन आदि प्रदेशों को धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है? 'गौतम ! नहीं कहा जा सकता।' 'भंते ! उन्हें धर्मास्तिकाय क्यों नहीं कहा जा सकता?' 'गौतम ! चक्र का खंड चक्र कहलाता है या पूरा चक्र चक्र कहलाता है?' 'भंते ! चक्र का खंड चक्र नहीं कहलाता, पूरा चक्र चक्र कहलाता है।' 'गौतम ! छत्र का खंड छत्र कहलाता है, या परा छत्र छत्र कहलाता है?' 'भंते ! छत्र का खंड छत्र नहीं कहलाता, पूरा छत्र छत्र कहलाता है।' 'गौतम ! चर्मरत्न का खंड चर्मरत्न कहलाता है या पूरा चर्मरल चर्मरल कहलाता ___ 2010_03 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ / जैन दर्शन और अनेकान्त 'भंते ! चर्मरत्न का खंड चर्मरत्न नहीं कहलाता, पूरा चर्मरत्न चर्मरत्न कहलाता ' 'गौतम ! दंड का खंड दंड कहलाता है या पूरा दंड दंड कहलाता है ?" ‘भंते ! दंड का खंड दंड नहीं कहलाता, पूरा दंड दंड कहलाता है।' 'गौतम ! दुष्यपट्ट का खंड दुष्यपट्ट कहलाता है या पूरा दुष्यपट्ट दुष्यपट्ट कहलाता है ?' 'भंते ! दुष्यपट्ट का खंड दुष्यपट्ट नहीं कहलाता, पूरा दुष्यपट्ट दुष्यपट्ट कहलाता ' 'गौतम ! आयुध का खंड आयुध कहलाता है या पूरा आयुध आयुध कहलाता है ?? 'भंते! आयुध का खंड आयुध नहीं कहलाता, पूरा आयुध आयुध कहलाता है ।' 'गौतम ! मोदक का खंड मोदक कहलाता है या पूरा मोदक मोदक कहलाता है ? ' 'भंते ! मोदक का खंड मोदक नहीं कहलाता, पूरा मोदक मोदक कहलाता है ।' 'इसी प्रकार गौतम ! धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को यावत् एक प्रदेश न्यून धर्मास्तिकाय को धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता । प्रतिपूर्ण प्रदेशों को ही धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है।' अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के लिए भी यही नियम है। सीमा : व्यवहार और निश्चय नय की द्रव्य, द्रव्यराशि और उसका विशेष गुण त्रैकालिक (सार्वदेशिक और सार्वकालिक) होने के कारण धौव्य है । द्रव्य के प्रदेश न उत्पन्न होते हैं और न नष्ट होते हैं, इसलिए वे ध्रुव जानने वाला नय द्रव्यार्थिक नय है । यही निश्चय नय है । १. अंगसुताणि भाग-२, भगवती २/१३०-३५ २. उप्पज्जंति वियंति य, भावा नियमेण पज्जवनयस्स । दव्यट्ठिस्स सव्वं, अणुप्पन्नमविणङ्कं । (सन्मति प्रकरण १ / ११) द्रव्य के प्रदेशों में परिणमन होता है। वह उत्पाद और व्यय है । उसे जानने वाला नय पर्यायार्थिक नय है। यही व्यवहार नय है । 2010_03 हैं | उन्हें Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वैतवाद / १५ निश्चय नय इन्द्रिय सीमा को पार कर केवल आत्मा से होने वाला अतीन्द्रिय ज्ञान है। इसलिए वह व्यक्त पर्याय (व्यंजन पर्याय अथवा द्रव्य का वर्तमान स्थूल पर्याय) को भेदकर द्रव्य के मूल स्वरूप तक पहुंच जाता है। चीनी पुद्गल का एक व्यक्त पर्याय है। निश्चय नय से जानने वाले के लिए चीनी केवल सफेद रंग और मिठास वाली नहीं है । वह एक पौद्गलिक स्कन्ध है जिसमें प्रत्यक्ष हो रहे हैं, पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और आठ स्पर्श-पुद्गल के मौलिक गुण । निश्चय नय से जानने वाला द्रव्य के विभिन्न पर्यायों को मौलिक द्रव्य नहीं मानता । किंतु वह मूल द्रव्य को ही द्रव्य के रूप में स्वीकृति देता है । इसलिए उसकी दृष्टि में द्रव्य का जगत् सिकुड़ जाता है, अभेद प्रधान बन जाता है। व्यवहार नय बाह्य माध्यमों की सहायता से होने वाला इन्द्रिय ज्ञान है । इसलिए वह अव्यक्त पर्याय की सीमा में प्रवेश नहीं कर पाता, केवल व्यक्त पर्याय को ही जान पाता है। चीनी में सभी वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं, फिर भी व्यवहार नय से जानने वाला उसके व्यक्त पर्याय (सफेद रंग और मिठास) को ही जान पाता है। उसमें द्रव्य के मूल स्वरूप तक पहुंचने की क्षमता नहीं होती। अतः व्यवहार नय की दृष्टि का जगत् बहुत बड़ा होता है । वह व्यक्त पर्याय के आधार पर प्रत्येक द्रव्य को स्वतन्त्र रूप से स्वीकार कर लेता है। इसमें भेद प्रधान बन जाता है। भेदः अभेद अनेकान्त के अनुसार द्वैत और अद्वैत, भेद और अभेद के आधार पर प्रतिष्ठित हैं । द्वैत के बिना अद्वैत और अद्वैत के बिना द्वैत नहीं हो सकता । अभेद का चरम-बिन्दु है अस्तित्व। उसकी अपेक्षा अद्वैत सिद्ध होता है। अपने-अपने विशेषगुण की अपेक्षा से द्वैत सिद्ध होता है। जैसे दो द्रव्यों में अभेद और भेद का संबंध पाया जाता है, वैसे ही एक द्रव्य में अभेद और भेद-दोनों पाए जाते हैं। गुण और पर्याय द्रव्य (द्रव्य की प्रदेश राशि) में होते हैं, उसके बिना नहीं होते। इस अपेक्षा से द्रव्य तथा गुण और पर्याय में परस्पर अभेद है। जो द्रव्य है वह गुण नहीं है और जो गुण है वह पर्याय नहीं है। इस अपेक्षा से तीनों-द्रव्य, गुण और पर्याय में भेद है। एक ही द्रव्य द्रव्य की दृष्टि से एक और पर्याय की दृष्टि से अनेक है। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से द्रव्य एक या अखंड है। पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से द्रव्य में प्रदेश, गुण और पर्याय होते हैं, अतः वह अनेक है। धौव्य द्रव्य का शाश्वत अंग है । उत्पन्न होना और विनष्ट होना-ये द्रव्य के अशाश्वत अंग हैं। द्रव्य-जगत् का यह सार्वभौम नियम है कि ध्रौव्य के बिना उत्पाद और व्यय नहीं होते तथा उत्पाद और व्यय से 2010_03 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ / जैन दर्शन और अनेकान्त पृथक् कहीं धौव्य नहीं मिलता। दोनों विरोधी स्वभाव के हैं, पर दोनों में सह-अस्तित्व है और दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं I कण और प्रतिकण का सिद्धांत I 1 द्रव्य में शाश्वत और अशाश्वत का विरोधी युगल विद्यमान है । उसमें केवल एक विरोधी युगल ही नहीं किंतु ऐसे अनंत विरोधी युगल विद्यमान हैं। उन सबमें सह-अस्तित्व है । विरोधी और सह-अस्तित्व -- ये दोनों सार्वभौम नियम हैं । इस जगत् में कोई भी ऐसा अस्तित्व नहीं है जिसका पक्ष हो और प्रतिपक्ष नहीं हो तथा पक्ष और प्रतिपक्ष में सह-अस्तित्व न हो । यह दार्शनिक सत्य अब वैज्ञानिक सत्य भी बन रहा है । वैज्ञानिक जगत् में प्रति-कण और प्रति-पदार्थ के सिद्धांत मान्यता प्राप्त कर रहे हैं । परमाणु में जितनी संख्या एलेक्ट्रोन, प्रोटोन, न्यूट्रोन आदि कणों की होती है, उतनी ही संख्या प्रति कणों की भी होती है। एलेक्ट्रोन का प्रति-कण पोजिट्रोन, प्रोटोन का प्रति- प्रोटोन और न्यूट्रोन का प्रति-न्यूट्रोन होता है। परमाणु के नाभिक का जब विखंडन होता है तब ये प्रति - कण एक सेकेण्ड के करोड़वें भाग से भी कम समय के लिए अस्तित्व में आते हैं । उस समय कण और प्रति कण में टकराव होता है । फलस्वरूप गामा किरणें या फोटोन्स पैदा होते हैं । 1 वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि प्रति-कण कण का प्रतिद्वन्द्वी होते हुए भी उसका पूरक है । वे दोनों साथ-साथ रहते हैं । परस्पर एक-दूसरे का सहयोग करते हैं और उनमें क्रिया-प्रतिक्रिया का व्यवहार भी चलता है । उनके सह-अस्तित्व या सहयोग, विरोध या संघर्ष, क्रिया या प्रतिक्रिया को पेण्डुलम के उदाहरण से समझा सकता है। चार विरोधी युगल अनेकान्तवाद के आधार पर चार विरोधी युगलों का निर्देश किया जाता है— १. शाश्वत और परिवर्तन २. सत् और असत् (अस्तित्व और नास्तित्व) ३. सामान्य और विशेष ४. वाच्य और अवाच्य । इन चार विरोधी युगलों का निर्देश केवल एक संकेत है। द्रव्य में इस प्रकार के अनन्त विरोधी युगल होते हैं । उन्हीं के आधार पर अनेकान्त का सिद्धान्त प्रतिष्ठित हुआ है । 2010_03 + Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वैतवाद / १७ धौव्य प्रकम्पन के मध्य अप्रकम्पन है, परिवर्तन के मध्य शाश्वत है। पर्याय (उत्पाद-व्यय) अप्रकम्प की परिक्रमा करता हुआ प्रकम्प और शाश्वत की परिक्रमा करता हुआ परिवर्तन है। द्रव्य ध्रौव्य का प्रतिनिधित्व करता है। अस्तित्व में अपरिवर्तनशील और परिवर्तनशील-दोनों प्रकार के तत्त्व विद्यमान रहते हैं। कोई भी अस्तित्व शाश्वत की सीमा से परे नहीं है और कोई भी अस्तित्व परिवर्तन की मर्यादा से मुक्त नहीं है। ठीक ही कहा है 'द्रव्यं पर्यायवियुतं, पर्याया द्रव्यवर्जिताः। क्व कदा केन किं रूपाः, दृष्टाः मानेन केन वा ।।' यह पर्याय का द्वैतवाद है। परिणामीनित्य आंधी चल रही है । उसमें जितनी शक्ति आज है, उतनी ही कल होगी, यह नहीं कहा जा सकता। जो कल थी, उसका आज होना जरूरी नहीं है। इस दुनिया में एकरूपता के लिए कोई अवकाश नहीं है । जिसका अस्तित्व है, वह बहुरूप है । जो बाल आज सफेद हैं वे कभी काले भी रहे हैं। जो आज काले हैं, वे कभी सफेद होने वाले हैं। वे एक रूप नहीं रह सकते । केवल बाल ही क्या, दुनिया की कोई भी वस्तु एकरूप नहीं रह सकती। जैन दर्शन ने अनेकरूपता के कारणों पर गहराई से विचार किया है, अन्तर्बोध से उनका दर्शन किया है। विचार और दर्शन के बाद एक सिद्धान्त की स्थापना की। उसका नाम है—'परिणामी-नित्यत्ववाद' । ध्रुवता और परिणमन । इस सिद्धान्त के अनुसार विश्व का कोई भी तत्त्व सर्वथा नित्य नहीं है। कोई भी तत्त्व सर्वथा अनित्य नहीं है। प्रत्येक तत्त्व नित्य और अनित्य-इन दोनों धर्मों की स्वाभाविक समन्वति है । तत्त्व का अस्तित्व ध्रुव है। इसलिए वह नित्य है। ध्रुव परिणमन-शून्य नहीं होता और परिणमन ध्रुव-शून्य नहीं होता। इसलिए वह अनित्य भी है। वह एकरूप में उत्पन्न होता है और एक अवधि के पश्चात् उस रूप से च्युत होकर दूसरे रूप में बदल जाता है। इस अवस्था में प्रत्येक तत्त्व उत्पाद, व्यय और धौव्य—इन तीनों धर्मों का समवाय है। उत्पाद और व्यय—ये दोनों परिणमन के आधार बनते हैं और ध्रौव्य उनका अन्वयीसूत्र है । वह उत्पाद की स्थिति में भी रहता है और व्यय की स्थिति में भी रहता है । वह दोनों को अपने साथ जोड़े हुए है । जो 2010_03 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८/ जैन दर्शन और अनेकान्त रूप उत्पन्न हो रहा है, वह पहली बार ही नहीं हो रहा है और जो नष्ट हो रहा है वह भी पहली बार ही नहीं हो रहा है। उसके पहले वह अनगिनत बार उत्पन्न हो चुका है और नष्ट हो चुका है। उसके उत्पन्न होने पर अस्तित्व का सृजन नहीं हुआ और नष्ट होने पर उसका विनाश नहीं हुआ। धौव्य उत्पाद और व्यय का है किन्तु अस्तित्व की मौलिकता में कोई अन्तर नहीं आने देता। अस्तित्व की मौलिकता समाप्त नहीं होती। इस बिन्दु को पकड़ने वाले 'कूटस्थ-नित्य' के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। अस्तित्व के समुद्र में होने वाली ऊर्मियों को पकड़ने वाले 'क्षणिकवाद' के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं । जैन दर्शन ने इन दोनों को एक ही धारा में देखा । इसलिए उसने परिणामी-नित्वत्ववाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। भगवान् महावीर ने प्रत्येक तत्त्व की व्याख्या परिणामी नित्यत्ववाद के आधार पर की। उनसे पूछा गया—'आत्मा नित्य है या अनित्य ! पुद्गल नित्य है या अनित्य !' उन्होंने एक ही उत्तर दिया-अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता। इस अपेक्षा से वे नित्य हैं। परिणमन का क्रम कभी अवरुद्ध नहीं होता। इस दृष्टि से वे अनित्य हैं। समग्रता की भाषा में न नित्य हैं और न अनित्य, किंतु नित्यानित्य हैं। घटना के पीछे स्थायी तत्त्व तत्त्व में दो प्रकार के धर्म होते हैं-सहभावी और क्रमभावी । सहभावी धर्म तत्त्व की स्थिति और क्रमभावी धर्म उसकी गतिशीलता के सूचक होते हैं। सहभावी धर्म 'गुण' और क्रमभावी धर्म ‘पर्याय' कहलाते हैं। जैन दर्शन का प्रसिद्ध सूत्र है कि द्रव्यशून्य पर्याय और पर्यायशून्य द्रव्य नहीं हो सकता। एक जैन मनीषि ने कूटस्थनित्यवादियों से पूछा-'पर्यायशून्य द्रव्य किसने देखा?' 'कहां देखा?' 'कब देखा?', 'किस रूप में देखा, कोई बताए तो सही। उन्होंने ऐसा ही प्रश्न क्षणिकवादियों से पूछा—'वे बताएं तो सही कि द्रव्य-शून्य पर्याय किसने देखा? कब देखा? किस रूप में देखा? अवस्थाविहीन, अवस्थावान और अवस्थावानविहीन अवस्थाएं ये दोनों तथ्य घटित नहीं हो सकते । जो घटना-क्रम चल रहा है, उसके पीछे कोई स्थायी तत्त्व है। घटना-क्रम उसी में चल रहा है। वह उससे बाहर नहीं है । तालाब में एक कंकर फेंका और तरंगें उठीं। तालाब का रूप बदल गया। जो जल शान्त था, वह क्षुब्ध हो गया, तरंगित हो गया। तरंग जल में है। जल से भिन्न तरंग का कोई अस्तित्व नहीं है। जल में तरंग उठती है इसलिए हम कह सकते हैं कि तालाब तरंगित हो गया। तरंगित होना एक घटना है। वह विशेष अवस्थावान् में घटित होती है । जलाशय नहीं है तो जल नहीं है । जल नहीं है तो तरंग नहीं है । तरंग का 2010_03 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वैतवाद / १९ होना जल के होने पर निर्भर है। जल हो और तरंग न हो— ऐसा भी नहीं हो सकता । जल का होना तरंग होने के साथ जुड़ा हुआ है। जल और तरंग- दोनों एक-दूसरे में निहित हैं— जल में तरंग और तरंग में जल । पर्याय के आधार पर द्रव्य का बोध I द्रव्य पर्याय का आधार होता है । वह अव्यक्त होता है, पर्याप्त व्यक्त । हम द्रव्य को कहां देख पाते हैं । हम देखते हैं पर्याय को । हमारा जितना ज्ञान है, वह पर्याय का ज्ञान है । मेरे सामने एक मनुष्य है । मैं उसे नहीं जान सकता। मैं उसके अनेक पर्यायों में से एक पर्याय को जानता हूं और उसके माध्यम से यह जानता हूं कि यह मनुष्य है । जब आंख से उसे देखता हूं तो उसकी आकृति और वर्ण- इन दो पर्यायों के आधार पर उसे मनुष्य कहता हूं । कान से उसका शब्द सुनता हूं, तब उसे शब्द पर्याय के आधार पर मनुष्य कहता हूं। उसकी समग्रता को कभी नहीं पकड़ पाता । आम को कभी मैं रूप- पर्याय से जानता हूं, कभी गंध- पर्याय से और कभी रस- पर्याय से । किन्तु सब पर्यायों से एक साथ जानने का मेरे पास कोई साधन नहीं है। आंख जब रूप को देखती है तो गंध और रस पर्याय नीचे चले जाते हैं। गंध का पर्याय जब जाना जाता है तो रूप का पर्याय नीचे चला जाता है। इस समग्रता के सम्बन्ध मैं मैं कहता हूं कि मैं द्रव्य को नहीं देखता, केवल पर्याय को देखता हूं और पर्याय के आधार पर द्रव्य का बोध करता हूं । 1 1 हमारा पर्याय का जगत् बहुत लम्बा-चौड़ा और द्रव्य का जगत् बहुत छोटा है। एक द्रव्य और अनन्त पर्याय । प्रत्येक द्रव्य पर्यायों के वलय से घिरा हुआ है । प्रत्येक द्रव्य पर्यायों के पटल से छिपा हुआ है। उसका बोध कर द्रव्य को देखना इन्द्रिय ज्ञान के लिए संभव नहीं है । सूक्ष्म परिवर्तनों की व्याख्या इन्द्रिय ज्ञान से नहीं 1 परिणमन स्वभाव से भी होता है और प्रयोग से भी । स्वाभाविक परिणमन अस्तित्व की आन्तरिक व्यवस्था से होता है । प्रायोगिक परिणमन दूसरे के निमित्त से घटित होता है । निमित्त मिलने पर ही परिणमन होता है, ऐसी बात नहीं है । परिणमन का क्रम निरन्तर चालू रहता है । काल उसका मुख्य हेतु है । वह (काल) प्रत्येक अस्तित्व का एक आयाम है। वह परिणमन का आन्तरिक हेतु है । इसलिए प्रत्येक अस्तित्व में व्याप्त होकर वह अस्तित्व को परिणमनशील रखता है । स्वाभाविक परिणमन सूक्ष्म होता है । वह इन्द्रियों की पकड़ में नहीं आता। इसलिए अस्तित्व में 2010_03 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० / जैन दर्शन और अनेकान्त होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों की इन्द्रिय-ज्ञान के स्तर पर व्याख्या नहीं की जा सकती। जीव और पुद्गल के पारस्परिक निमित्तों से जो स्थूल परिवर्तन घटित होता है, हम उस परिवर्तन को देखते हैं और उसके कार्य-कारण की व्याख्या करते हैं। कोई आदमी बीमारी से मरता है, कोई चोट से, कोई आघात से और कोई दूसरे के द्वारा मारने पर मरता है। बीमारी नहीं, चोट नहीं, आघात नहीं और मारने वाला भी नहीं, फिर भी वह मर जाता है । जो जन्मा है, उसका मरना निश्चित है । मृत्यु एक परिवर्तन है। जीवन में उसकी आन्तरिक व्यवस्था निहित है। मनुष्य जन्म के पहले क्षण में ही मरने लग जाता है। जो पहले क्षण में नहीं मरता, वह फिर कभी नहीं मर सकता। जो एक क्षण अमर रह जाए, फिर उसकी मृत्यु नहीं हो सकती। बाहरी निमित्त से होने वाली मौत की व्याख्या उससे कठिन है किन्तु पूर्ण स्वस्थ दशा में होने वाली मौत की व्याख्या वैज्ञानिक या अतीन्द्रिय ज्ञान के स्तर पर ही की जा सकती है। सृष्टि का परिवर्तन उसके अस्तित्व में निहित है कुछ दार्शनिक सृष्टि की व्याख्या ईश्वरीय रचना के आधार पर करते हैं किन्तु जैन दर्शन उसकी व्याख्या जीव और पुद्गल के स्वाभाविक परिणमन के आधार पर करता है। सृजन, विकास या प्रलय-जो कुछ भी घटित होता है, वह जीव और पद्गल की पारस्परिक प्रतिक्रियाओं से घटित होता है। काल दोनों का ही साथ देता है। व्यक्त घटनाओं में बाहरी निमित्त भी अपना योग देते ही हैं। सृष्टि का अव्यक्त और व्यक्त–समग्र परिवर्तन उसके अपने अस्तित्व में स्वयं सन्निहित है। परिणमन सामुदायिक और वैयक्तिक दोनों स्तर पर होता है । पानी में चीनी घोली और वह मीठा हो गया। यह सामुदायिक परिवर्तन है। आकाश में बादल मंडराए और एक विशेष अवस्था का निर्माण हो गया। भिन्न-भिन्न परमाणु स्कन्ध मिले और बादल बन गया। कुछ परिणमन द्रव्य के अपने अस्तित्व में ही होते हैं । अस्तित्वगत जितने परिणमन होते हैं, वे सब वैयक्तिक होते हैं। पांच अस्तिकाय (अस्तित्व) हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय में स्वाभाविक परिवर्तन ही होता है। जीव और पुद्गल में स्वाभाविक और प्रायोगिक—दोनों प्रकार के परिवर्तन होते हैं। इनका स्वाभाविक परिवर्तन वैयक्तिक ही होता है। किन्तु प्रायोगिक परिवर्तन सामुदायिक भी होता है । जितना स्थूल जगत् है वह सब इन दो द्रव्यों के सामुदायिक परिवर्तन द्वारा ही निर्मित हैं। जो कुछ दृश्य है, उसे जीवों ने अपने शरीर के रूप में रूपायित किया है। इसे इन शब्दों में भी प्रस्तुत किया जा सकता है कि हम जो कुछ देख रहे हैं वह या तो जीवच्छशरीर है या जीवों द्वारा त्यक्त शरीर है। ___ 2010_03 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगठन और विघटन प्रत्येक अस्तित्व का प्रचय (काय, प्रदेश राशि) होता है। पुद्गल को छोड़कर शेष चार अस्तित्वों का प्रचय स्वभावतः अविभक्त है । उसमें संगठन और विभाजन नहीं होता । पुद्गल का प्रचय स्वभाव से अविभक्त नहीं होता । उसमें संगठन और विघटन — ये दोनों घटित होते हैं । एक परमाणु का दूसरे परमाणुओं के साथ योग होने पर स्कन्ध के रूप में रूपान्तरण हो जाता है और उस स्कन्ध के सारे परमाणु वियुक्त होकर केवल परमाणु रह जाते हैं। वास्तविक अर्थ में सामुदायिक परिणमन पुद्गल में ही होता है । दृश्य अस्तित्व केवल पुद्गल ही है । जगत् के नाना रूप उसी के माध्यम से निर्मित होते हैं। यह जगत् एक रंगमंच है । उसी पर कोई अभिनय कर रहा है तो वह पुद्गल ही है । वही विविध रूपों में परिणत होकर हमारे सामने प्रस्तुत होता है । उसमें जीव का योग भी होता है, किन्तु उसका मुख्य पात्र पुद्गल ही है । अस्तित्व के लिए परिणमन अनिवार्य I द्वैतवाद / २१ अस्तित्व में परिवर्तन होने की क्षमता है । जिसमें परिवर्तन होने क्षमता नहीं होती, वह दूसरे क्षण में अपनी सत्ता बनाए नहीं रख सकता । अस्तित्व दूसरे क्षण में रहने के लिए उसके अनुरूप अपने आप में परिवर्तन करता है और तभी वह दूसरे क्षण में अपनी सत्ता को बनाए रख सकता है । एक परमाणु अनंतगुना काला है, वही परमाणु एक गुना काला हो जाता है। जो एक गुना काला होता है, वह कभी अनन्त गुना काला हो जाता है । यह परिवर्तन बाहर से नहीं आता । यह द्रव्यगत परिवर्तन है । इसमें भी अनन्त गुणहीन और अनन्तगुण अधिक तारतम्य होता रहता है । अनन्तकाल के अनन्त क्षणों और अनन्त घटनाओं में किसी द्रव्य को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए अनन्त परिणमन करना आवश्यक है। यदि उसका परिणमन अनन्त न हो तो अनन्तकाल में वह अपने अस्तित्व को बनाए नहीं रख सकता । दो शक्तियां : ओघ और समुचित अस्तित्व में अनन्त धर्म होते हैं, कुछ अव्यक्त और कुछ व्यक्त । प्रश्न हुआ— ‘क्या घास में घी है?' इसका उत्तर होगा—- 'घास में घी है । किन्तु व्यक्त नहीं है । ' 'क्या दूध में घी है ?' 'दूध में घी है, पर पूर्ण व्यक्त नहीं है। दूध को बिलोया या दही को बिलोया, घी निकल आया ।' अव्यक्त धर्म व्यक्त हो गया । द्रव्य में 'ओघ' और 'समुचित' - ये दो प्रकार की शक्तियां काम करती हैं । 'ओघ' नियामक शक्ति है । उसके आधार पर कारण-कार्य के नियम की स्थापना की 2010_03 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ / जैन दर्शन और अनेकान्त जाती है। कारण कार्य के अनुरूप ही होता है। कारण अव्यक्त रहता है, कार्य व्यक्त होता है । यदि पूछा जाए–'घास में घी है या नहीं?' तो उत्तर होगा—'ओघ' शक्ति की दृष्टि से है किन्तु ‘समुचित' शक्ति की दृष्टि से नहीं है। पुद्गल द्रव्य में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-ये चारों मिलते हैं। गुलाब के फूल में जितनी सुगंध है, उतनी ही दुर्गन्ध है। किन्तु उसमें सुगन्ध व्यक्त है और दुर्गन्ध अव्यक्त । चीनी जितनी मीठी है, उतनी ही कड़वी है किन्तु उसमें मिठास व्यक्त है और कड़वाहट अव्यक्त । सड़ान में जितनी दुर्गन्ध है, उतनी ही सुगन्ध छिपी हुई है। परिवर्तन का चक्र राजा जितशत्रु नगर के बाहर जा रहा था। मंत्री सुबुद्धि उसके साथ जा रहा था। एक खाई आई। उसमें जल भरा था। वह कड़े-करकट से गंदा हो रहा था। उसमें मृत पशुओं के कलेवर सड़ रहे थे। दूर तक दुर्गन्ध फूट रही थी। राजा ने कपड़ा निकाला और नाक को दबा लिया। 'कितनी दुर्गन्ध आ रही है। राजा ने मंत्री की ओर मुड़कर कहा । मंत्री तत्त्ववेत्ता था। उसने कहा-'महाराज ! यह पुद्गलों का स्वभाव है।' उसने राजा के भाव की तीव्रता को अपनी भावभंगिमा से मंद कर दिया। बात वहीं समाप्त हो गई। कुछ दिन के बाद मंत्री ने राजा को अपने घर भोजन के लिए निमंत्रित किया। भोजन के मध्य राजा ने पानी पिया। अत्यन्त निर्मल, अत्यन्त मधुर और अत्यन्त सुगन्धित । राजा बोला—'मंत्री ! यह पानी तुम कहाँ से लाते हो ! इच्छा होती है कि एक गिलास और पीऊं । मैं तुम्हें अभिन्न मानता हूं किन्तु तुम मुझे वैसा नहीं मानते । तुम इतना अच्छा पानी पीते हो, मुझे कभी नहीं पिलाते।' मंत्री मुस्कराया और बोला-'महाराज, यह पानी उस खाई से लाता हूं, जहां आपने नाक-भौं सिकोड़ी थी और कपड़े से नाक ढकी थी।' राजा ने कहा—'यह नहीं हो सकता। यह पानी उस खाई का कैसे हो सकता है !' मंत्री अपनी बात पर अटल रहा। राजा ने उसका प्रमाण चाहा। मंत्री ने उस खाई का पानी मंगवाया। राजा की देख-रेख में सारी प्रक्रिया चली और वह पानी वैसा ही निर्मल, मधुर और सुगंधित हो गया जैसा राजा ने मंत्री के घर पीया था। . केवल पानी ही नहीं, हर वस्तु बदलती है। परिणमन का चक्र चलता है, वस्तुएं बदलती रहती हैं। 'ओघ' शक्ति की दृष्टि से हम किसी पौगलिक पदार्थ को काला या पीला, खट्टा या मीठा, सुगंधमय या दुर्गन्धमय, चिकना या रूखा, ठंडा या गर्म, हल्का या भारी, मृदु या कर्कश नहीं कह सकते। एक नीम के पत्ते में वे सारे धर्म विद्यमान हैं जो दुनिया में होते हैं। किन्तु 'समुचित' शक्ति की दृष्टि से ऐसा नहीं है। 2010_03 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वैतवाद / २३ उसके आधार पर देखें तो नीम का पत्ता हरा है, चिकना है। उसकी अपनी एक सुगंध है। वह हल्का है और मृदु है । हमारा जितना दर्शन है वह आनुवादिक और प्रात्ययिक परिणमन : ऊर्जा का उद्भव ___ पर्याय परिवर्तन के द्वारा वस्तुओं में बहुत सारी बातें घटित होती हैं। उनमें ऊर्जा की वृद्धि और हानि भी एक है। ऊर्जा परिणमन से ही प्रकट होती है। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया कि द्रव्य (Mass) को शक्ति (Energy) में और शक्ति को द्रव्य में बदला जा सकता है । इस द्रव्यमान, द्रव्य-संहति और शक्ति के समीकरण के सिद्धान्त की व्याख्या परिणामी-नित्यवाद के द्वारा ही की जा सकती है। आइंस्टीन से पहले वैज्ञानिक जगत् में यह माना जाता था कि द्रव्य को शक्ति में और शक्ति को द्रव्य में नहीं बदला जा सकता। दोनों स्वतंत्र हैं। किन्तु आइंस्टीन के बाद यह सिद्धांत बदल गया। माना जाने लगा-द्रव्य और शक्ति दोनों भिन्न नहीं किन्तु एक ही वस्तु के रूपान्तरण हैं। एक पौण्ड कोयला लें और उसकी द्रव्य-संहति को शक्ति में बदलें तो दो अरब किलोवाट की विद्युतशक्ति प्राप्त हो सकती है। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य में अनन्त शक्ति है। वह द्रव्य चाहे जीव हो या पुद्गल । काल की अनन्त धारा में वही द्रव्य अपना अस्तित्व रख सकता है जिसमें अनन्त शक्ति होती है। वह शक्ति परिणमन के द्वारा प्रकट होती रहती है। आज के वैज्ञानिक जगत् में जितना प्रयोग हो रहा है, उसका क्षेत्र पौद्गलिक जगत् है। पौद्गलिक वस्तु को उस स्थिति में लाया जा सकता है, जहां उसकी स्थूलता समाप्त हो जाए, उसका द्रव्य-मान या द्रव्य-संहति समाप्त हो जाए और उसे शक्ति के रूप में बदल दिया जाए। विश्व की व्याख्या दो नयों से ___जैन दर्शन ने द्रव्यार्थिक या पर्यायार्थिक–इन दो नयों से विश्व की व्याख्या की है। हम विश्व को अभेद की दृष्टि से देखते हैं तब हमारे सामने द्रव्य होता है। यह नीम, मकान, आदमी, पशु-ये द्रव्य ही हमारे सामने प्रस्तुत हैं। हम विश्व को जब भेद या विस्तार की दृष्टि से देखते हैं तब द्रव्य लुप्त हो जाता है। हमारे सामने होता है-पर्याय और पर्याय, परिणमन और परिणमन । आदमी कौन होता है? आदमी कोई द्रव्य नहीं है। आदमी है कहां ! आप सारी दुनिया में ढूंढे, आदमी नाम का 2010_03 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ / जैन दर्शन और अनेकान्त कोई द्रव्य आपको नहीं मिलेगा। आदमी एक पर्याय है। नीम कोई द्रव्य नहीं है। वह एक पर्याय है। दुनिया में जितनी वस्तुओं को हम देख रहे हैं, वे सारी की सारी पर्याय हैं। हम पर्याय को देख रहे हैं। द्रव्य हमारे सामने नहीं आता। वह आंखों से ओझल रहता है । इस सत्य को आचार्य हेमचंद्र ने इन शब्दों में प्रकट किया था अपर्ययं वस्तु समस्यमान । मद्रव्यमैतच्च विविच्यमानं । हम अभेद के परिपार्श्व में चलें तो पर्याय लुप्त हो जाएगा, बचेगा द्रव्य । हमारी दुनिया बहुत छोटी हो जाएगी। विस्तार से शून्य हो जाएगी। हम भेद के परिपार्श्व में चलें तो द्रव्य लुप्त हो जाएगा, बचेगा पर्याय । हमारी दुनिया बहुत बड़ी हो जाएगी। भेद-अभेद को निगल जाएगा। केवल विस्तार और विस्तार। परिणमन के जगत् में जैसा जीव है, वैसा ही पुद्गल है। किन्तु इस विश्व में जितनी अभिव्यक्ति पुद्गल द्रव्य की है, उतनी किसी की नहीं है । अपने रूप को बदलने की क्षमता जितनी पुद्गल में है, उतनी किसी में नहीं है। हमारे जगत् में व्यक्त पर्याय का आधारभूत द्रव्य यदि कोई है तो वह पुद्गल ही है। अनेकान्त ____ अनेकान्त के दो रूप हैं—नय और प्रमाण । द्रव्य के एक पर्याय को जानने - वाली दृष्टि नय है और अनन्त विरोधी युगलात्मक समग्र द्रव्य को जानने वाली दृष्टि प्रमाण है। जैन दर्शन में नयवाद का विकास पहले हुआ था और प्रमाणवाद का विकास बाद में। भगवान् महावीर के अस्तित्वकाल में नयवाद प्रचलित था। उनके निर्वाण की छठी-सातवीं शताब्दी के बाद प्रमाणवाद का विकास हुआ। दार्शनिक युग में प्रमाण-मीमांसा विकसित हुई, तब जैन दार्शनिकों के सामने भी प्रमाण-मीमांसा को विकसित करने की अनिवार्यता उपस्थित हुई। समन्तभद्र और सिद्धसेन ने नय को ही प्रधानता दी। हरिभद्र और अकलंक के युग में 'प्रमाण' को प्रधानता मिल गई। उस युग में एक प्रश्न उपस्थित हुआ कि नय प्रमाण है या अप्रमाण? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया, नय के द्वारा अनन्त धर्मात्मक वस्तु का एक धर्म ही ज्ञेय होता है। अखंड वस्तु ज्ञेय नहीं होती। इस दृष्टि से उसे प्रमाण नहीं माना जा सकता। दूसरा तर्क यह था कि नय के द्वारा वस्तु का एक धर्म ज्ञेय बनता है, वह भी यथार्थ ज्ञान है और यथार्थ ज्ञान को अप्रमाण कैसे कहा जा सकता है। इस दोहरी समस्या को ध्यान में रखकर तीसरा विकल्प खोजा गया—नय से अखंड वस्तु का निश्चय नहीं होता, इस अपेक्षा से नय प्रमाण नहीं है। उसके द्वारा 2010_03 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वैतवाद / २५ वस्तु-खंड का यथार्थ -ग्रहण होता है, इस अपेक्षा से वह अप्रमाण भी नहीं है । वह अप्रमाण तो है ही नहीं, पूर्ण बोध के अभाव में प्रमाण भी नहीं है, इसलिए उसे प्रमाणांश कहा जा सकता है । वास्तविक है नय 1 सच्चाई यह है कि प्रमाण वास्तविक नहीं है । वास्तविक है नय । हम द्रव्य को किसी एक या कुछ एक धर्मों के माध्यम से जानते हैं । अखंड द्रव्य का ज्ञान हमारे लिए संभव नहीं है । हमारा द्रव्य विषयक ज्ञान सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं है। परमाणु के विषय में एक शताब्दी पूर्व जो जानकारी थी, आज वह बहुत बदल गई है। उसका विराट् रूप अब वैज्ञानिक के सामने है। अभी भी उसके कुछेक धर्म ज्ञात हुए हैं । उसके अनन्त धर्म आज भी अज्ञात हैं । अज्ञात के समुद्र में ज्ञात, एक छोटे से द्वीप जैसा है । इस स्थिति में प्रमाण की वास्तविकता को बहुत मूल्य नहीं दिया जा सकता । नय एक वास्तविकता है । उसके द्वारा एक-एक धर्म का ज्ञान होता है और हमारा ज्ञानभंडार समृद्ध होता चला जाता है । नय की वास्तविकता ज्ञेय अनन्त है और हमारा ज्ञान भी अनंत है। ज्ञान दो भागों में विभक्त होगा— क्षमतात्मक ज्ञान और प्रयोगात्मक ज्ञान । हमारे ज्ञान में अनन्त ज्ञेय को जानने की क्षमता है, पर जब तक वह पूर्णरूपेण अनावृत नहीं होता, तब तक उसकी क्षमता पर एक आवरण रहता है । आवृत्त चेतना जब जानने को प्रवृत्त होती है तभी जानती है और एक साथ एक धर्म या एक घटना को ही जानती है। जिस समय हम आँख से देखते हैं, उस समय कान से नहीं सुनते और जिस समय कान से सुनते हैं उस समय आंख से नहीं देखते । देखने और सुनने का एक क्रम है। ये दोनों युगपत् नहीं होते । हमें ऐसा प्रतीत होता है कि हम एक साथ देख रहे हैं और सुन रहे हैं, किन्तु यह हमारी स्थूलदृष्टि है। सूक्ष्मदृष्टि के अनुसार देखने का समय भिन्न है और सुनने का समय भिन्न है । त्वरित कार्यों में हमें क्रम का पता नहीं चलता, इसलिए हम उन दोनों को एक साथ मान लेते हैं। जानने का यह क्रम नय की वास्तविकता को प्रमाणित करता है । अनन्त है अगम्य शब्द द्रव्य में अनन्त धर्म होते हैं । उन अनन्त धर्मों को जानने वाले नय भी अनन्त होते हैं । अनन्त एक अगम्य शब्द है। उसका कहीं आर-पार नहीं होता । अनन्त को 2010_03 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ / जैन दर्शन और अनेकान्त उपयोगी बनाने के लिए दो शब्द खोजे गए-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । द्रव्यार्थिक नय, द्रव्य के धौव्य अंश का प्रतिनिधित्व करता है और पर्यायार्थिक नय, द्रव्य के पर्याय अंश का प्रतिनिधित्व करता है । इन दो नयों के द्वारा विश्व के सभी द्रव्यों का विश्लेषण किया जा सकता है। भगवान महावीर से गौतम ने पूछा-'भंते ! आत्मा शाश्वत है या अशाश्वत?' भगवान ने उत्तर दिया-'द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से आत्मा शाश्वत है और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से वह अशाश्वत है।' नय व्यवस्था का आधार नय व्यवस्था का आधार है-अभेद और भेद का विरोधी युगल । अभेद भी सत्य है और भेद भी सत्य है । अभेद और भेद का विचार आध्यात्मिक और पदार्थ विज्ञान-इन दोनों दृष्टियों से किया गया है। • सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति और पुरुष का भेदज्ञान करना सम्यग् दर्शन है। उन्हें एक मानना मिथ्यादर्शन है। • वेदान्त के अनुसार प्रपंच और ब्रह्म को एक मानना सम्यग् दर्शन है और उसको भिन्न मानना मिथ्यादर्शन है। • जैन दर्शन के अनुसार चेतन और अचेतन को भिन्न मानना सम्यग् दर्शन है और उन्हें अभिन्न मानना मिथ्यादर्शन है। अभेद और भेद का यह चिन्तन आध्यात्मिक दृष्टि से किया गया है। पदार्थ विज्ञान का दृष्टिकोण पदार्थ-विज्ञान की दृष्टि से पदार्थ उभयात्मक (द्रव्य-पर्यायात्मक) है। उसके आधार पर दो नय बनते हैं-निश्चय नय और व्यवहार नय । • निश्चय नय द्रव्य या अभेद के आधार पर पदार्थ का निर्णय करता है। • व्यवहार नय पर्याय या भेद के आधार पर पदार्थ का निर्णय करता है। वेदान्त ने सत्य के तीन रूप माने हैं—पारमार्थिक, व्यावहारिक और प्रातिभासिक । ब्रह्म पारमार्थिक सत्य है। जगत् व्यावहारिक सत्य है। रज्जु-सर्प (रज्जु को सर्प मान लेना) प्रातिभासिक सत्य है। प्रातिभासिक व्यक्तिगत भ्रम है । व्यावहारिक सर्वसाधारण का भ्रम है। प्रातिभासिक जब तक दिखता है तब तक रहता है। व्यावहारिक जगत् दिखने के पहले भी और पश्चात् भी रहता है। प्रातिभासिक वस्तुविशेष के ज्ञान से बाधित हो जाता है, व्यावहारिक जगत् ब्रह्म के ज्ञान से बाधित . 2010_03 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वैतवाद / २७ होता है। प्रातिभासिक केवल साक्षी-दृष्टि है। व्यावहारिक जगत् का ज्ञान प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से होता है। बौद्ध दर्शन के अनुसार सत्य के दो रूप हैं—पारमार्थिक सत्य और संवृतिसत्य। अनित्यता का बोध पारमार्थिक सत्य है । यह वही है'-इस प्रकार का सादृश्यबोध संवृतिसत्य है। वेदान्त के अनुसार व्यावहारिक सत्य तथा बौद्ध दर्शन के अनुसार संवृतिसत्य अवास्तविक हैं । जैन दर्शन के अनुसार व्यवहार नय अवास्तविक नहीं है। 2010_03 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और जगत् यह विश्व भेदाभेद, नित्यानित्य, अस्तित्व-नास्तित्व और वाच्यावाच्य के नियमों से श्रृंखलित है। कोई भी द्रव्य सर्वथा भिन्न नहीं है और कोई भी सर्वथा अभिन्न नहीं है । कोई भी द्रव्य सर्वथा नित्य नहीं है और कोई भी सर्वथा अनित्य नहीं है। कोई भी द्रव्य सर्वथा अस्ति नहीं है और कोई भी सर्वथा नास्ति नहीं है। कोई भी द्रव्य सर्वथा वाच्य नहीं है, कोई भी सर्वथा अवाच्य नहीं है। जो द्रव्य है, वह सत्य है। वह भिन्न भी है, अभिन्न भी है, नित्य भी है, अनित्य भी है, अस्ति भी है, नास्ति भी है, वाच्य भी है, अवाच्य भी है। इन सहज सम्भत नियमों को समझने का जो दृष्टिकोण है, वह अनेकान्त है। इन नियमों की जो व्याख्या-पद्धति है, वह स्याद्वाद है। विश्व में इतना विरोध और इतना असामंजस्य है कि अनेकान्त के बिना उसमें अविरोध और सामंजस्य समझा नहीं जा सकता तथा स्याद्वाद के बिना उसकी सम्यक् व्याख्या की ही नहीं जा सकती। अभेद और भेद का नियम यह विश्व आकाशमय है। आकाश व्यापक है, शेष सब व्याप्त हैं। आकाश वहां भी है, जहां आकाशेतर कुछ नहीं है पर अन्य ऐसे नहीं हैं, जहां आकाश न हो। जहां अन्य भी हैं और आकाश भी है, वहां गति है, स्थिति है और दृश्यपरिवर्तन भी है। इसलिए उसे लोक कहा जाता है। जहां अन्य नहीं है, केवल आकाश है, वहां गति नहीं है, स्थिति नहीं है और दृश्य-परिवर्तन भी नहीं है, इसलिए उसे 'अलोक' कहा जाता है । सत्ता की दृष्टि से लोक और अलोक दोनों एक हैं, अविभक्त हैं । गति, स्थिति और दृश्य-परिवर्तन सर्वत्र नहीं हैं, इस दृष्टि से लोक और अलोक दो हैं-विभक्त है। गति और स्थिति की दृष्टि से लोक एक है-अभिभक्त है, पर कार्य की दृष्टि से वह एक नहीं है । गति का हेतु जो है, वह स्थिति का नहीं है और स्थिति का जो हेतु है वह गति का नहीं है । गतिशील द्रव्य दो हैं-पुद्गली (जीव) और पुद्गल । ये ही दो स्थितिशील हैं। दृश्य-परिवर्तन भी इन्हीं के योग से होता है, इन्हीं में होता है। अभेद दृष्टि से सत्ता ही पूर्ण सत्य है । भेद-वृष्टि के ६ प्रकार हैं 2010_03 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद और जगत् । २९ १. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, ३. आकाश, ४. काल, ५. पुद्गल, ६. जीव। पृथकता कार्य से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश ये तीनों लोक में परिपूर्ण व्याप्त हैं। इन्हें कथमपि पृथक् नहीं किया जा सकता। इनका पृथक्करण कार्य से ही होता है। गति हेतुक जो है वह धर्मास्तिकाय है। यह गति का अन्तिम हेतु है। स्थिति हेतुक जो है, वह अधर्मास्तिकाय है । यह स्थिति का अन्तिम हेतु है। जहां वायु भी नहीं है वहां भी गति होती है, और वह इसीलिए होती है कि धर्मास्तिकाय वहां है। अवगाह हेतु जो है, वह आकाश है।' परिवर्तन का हेतु काल है। जो संयुक्त होता है और वियुक्त होता है, वह पुद्गल है। जो चैतन्यमय है, वह जीव है।' भित्र : अभिन्न आकाश और काल को छोड़कर किसी भी द्रव्य की व्याख्या नहीं की जा सकती, इस दृष्टि से शेष सब द्रव्य आकाश और काल से सर्वथा भिन्न नहीं हैं। आकाश और काल गति-स्थिति के हेतु नहीं हैं और गति-स्थितिशील भी नहीं है, इसलिए वे शेष सब द्रव्यों से सर्वथा अभिन्न भी नहीं हैं। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को छोड़कर गति और स्थिति की व्याख्या नहीं की जा सकती, इस दृष्टि से जीव और पद्दल धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय से सर्वथा भित्र नहीं हैं। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय गति-स्थितिशील नहीं हैं, संयुक्त-वियुक्तधर्मा भी नहीं हैं, इसलिए वे जीव और पुद्गल से सर्वथा अभिन्न नहीं हैं। जीव के बिना पुद्गल की और पुद्गल के N46.4V १. स्थानांग ५/१७० : गुणओ गमणगुणे। २. वही, ५/१७१ : गुणओ ठाणगुणे। ३. वही, ५/१७२ : गुणओ अवगाहणागुणे। ४. वही, ५/९७४ : गुणओ गहणगुणे। ५. वही, ५/१७३ : गुणओ उवओगगुणे। 2010_03 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० / जैन दर्शन और अनेकान्त बिना जीव की व्याख्या नहीं की जा सकती। पुद्गल के बिना जीव की कोई प्रवृत्ति नहीं होती और जीव के बिना पुद्गल की स्थूल परिणति नहीं होती, इस दृष्टि से जीव और पुद्गल सर्वथा भिन्न नहीं हैं । जीव संयोग-वियोग-धर्मा नहीं है, रूपी नहीं है और पुद्गल चैतन्यमय नहीं है, इसलिए वे सर्वथा अभिन्न भी नहीं हैं । तात्पर्य की भाषा में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो सर्वथा अभिन्न ही है और ऐसा कुछ भी नहीं है, जो सर्वथा भिन्न ही है। अभिन्नता की दृष्टि से सारा विश्व एक है । भिन्नता की दृष्टि से सारा विश्व दो भागों में विभक्त है—चैतन्यमय और अचैतन्यमय। उपनिषद् का मत चेतन और अचेतन की उत्पत्ति के विषय में अनेक दार्शनिक अभिमत है। उपनिषद् के ऋषि कहते हैं—पहले असत् था, असत् से सत् उत्पन्न हुआ। कुछ ऋषि कहते हैं—असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती। सबसे पहले सत् ही था। उसने सोचा, मैं अनेक होऊं । इस कल्पना में सृष्टि उत्पन्न हुई। जो है, वह सब आत्मा ही है। जो कुछ हुआ है, वह आत्मा ही हुआ है। आत्मा ब्रह्म ही है। यह आत्माद्वैतवाद है। इसके अनुसार अचेतन, चेतन से उत्पन्न होता है। चेतन और अचेतन सर्वथा भिन्न नहीं हैं। भूताद्वैतवाद ___ अनात्मवाद के अनुसार पहले अचेतन ही था । पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु–ये चार भूत थे। इनसे चेतन उत्पन्न हुआ। यदि यह पता लगाना है कि मनुष्य की उत्पत्ति कैसे हुई तो संसार के विकास में ही उसकी खोज करनी होगी। मनुष्य का विकास जीवन के पहले रूपों में से होता है। उस विकास के दौरान ही विचार और सचेतन व्यवहार ने जन्म लिया है। इसका अर्थ यह है कि वस्तु अर्थात् वह वास्तविकता, जो अचेतन है, पहले से थी। मन अर्थात् वह वास्तविकता, जो सचेतन है, बाद में आई। १. छान्दोग्य ६।२१ : असतः सदजायत। २. वही, ६।२।२: कुतस्तु खलु सौम्य एवं स्यादिति होवाच कथमसतः सज्जायतेति। सत्त्वेव सौम्येदमन आसीत्। एकमेवाद्वितीयम् । तदैवत बहुस्यां प्रजायेयेति। ३. वही, ७।२५।२ : आत्मैवेदं सर्वम्। ४. वही, ७।२६।१: आत्मत एवेदं सर्वम्। ५. माण्डूक्य २: सर्व हि एतद् ब्रह्म अयमात्मा ब्रह्म। 2010_03 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद और जगत् / ३१ साथ ही इसका अर्थ यह भी है कि वस्तु या बाह्य वास्तविकता की सत्ता मन से स्वतन्त्र है । प्रकृति की इस समझ को भौतिकवाद कहते हैं। यह भूताद्वैतवाद है। इसके अनुसार अचेतन से चेतन उत्पन्न होता है। अचेतन और चेतन सर्वथा भिन्न नहीं हैं। अनेकान्त दृष्टि ____ अनेकान्त दृष्टि के अनुसार चेतन अचेतन से और अचेतन चेतन से उत्पन्न नहीं हैं। दोनों अनादि हैं, दोनों स्वतन्त्र और दोनों सापेक्ष हैं। चेतन का एक प्रतिभाग भी मिश्रित नहीं है। वह शुद्ध द्रव्य है । उसका प्रत्येक परमाणु (प्रदेश) अन्त तक चेतन ही रहता है। अचेतन का प्रत्येक परमाणु (प्रदेश) अन्त तक अचेतन ही रहता है। चेतन को अचेतन और अचेतन को चेतन के रूप में परिणत नहीं किया जा सकता। द्रव्य गुणों का संयुक्त रूप होता है। सब द्रव्यों की यही व्याख्या है। जो द्रव्य हैं, उन सबमें अनन्त गुण हैं और अनन्त गुणों के जितने समवाय हैं, वे सब द्रव्य हैं। इस भाषा में या तो द्रव्य अनन्त होंगे या एक। सच्चाई यह है कि वे अनन्त भी नहीं हैं और एक भी नहीं है। सर्वसाधारण गुणों की दृष्टि से द्रव्य एक ही है, किन्तु कुछ गुण ऐसे भी हैं, जो सर्वसाधारण नहीं हैं। उन्हीं की दृष्टि से द्रव्य अनेक हैं। गति और स्थिति विश्व-व्यवस्था के असाधारण गुण हैं। स्थूल पदार्थों की गति दृश्य निमित्तों से होती है, किन्तु सूक्ष्म स्कन्धों और परमाणुओं की गति में वायु या विद्युत आदि सहायक नहीं होते। वे उन्हें छू भी नहीं पाते। परमाणु की अप्रेरित गति बहुत तीव्र होती है। वह एक क्षण में ही लोक के निम्न भाग से ऊर्ध्व भाग तक चला जाता है। वहां उसकी गति का माध्यम गतितत्त्व (धर्मास्तिकाय) ही होता है। गतितत्त्व गतिमात्र में माध्यम बनता है, किन्तु जहां दृश्य माध्यम होते हैं, वहां उसकी अनिवार्यता ज्ञात नहीं होती। जहां दृश्य माध्यम कार्य नहीं करते, वहां उसका अस्तित्व स्वयं व्यक्त होता है। ईथर की कल्पना १८वीं एवं १९वीं शताब्दी के भौतिक विज्ञानवेत्ताओं के समक्ष यह स्पष्ट हो गया कि यदि प्रकाश की तरंगें होती हैं तो उनका कुछ आधार भी होगा। जैसे पानी सागर की तरंगों को पैदा करता है और हवा उन कम्पनों को जन्म देती है, जिन्हें हम १. एमिल बर्स, मार्क्सवाद क्या है? पृ.६८। 2010_03 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ / जैन दर्शन और अनेकान्त ध्वनि कहते हैं । अतः जब परीक्षणों से यह व्यक्त हुआ कि प्रकाश शून्य से भी होकर विचर सकता है, तब वैज्ञानिकों ने 'ईथर' (Ether) नामक एक काल्पनिक तत्त्व को जन्म दिया, जो उनके विचार में समस्त आकाश और पदार्थ में व्याप्त है । बाद में फैरेड ने एक अन्य प्रकार के ईथर का प्रतिपादन किया, जिसे विद्युत एवं चुम्बकीय शक्तियों के वाहक के रूप में माना गया । अन्ततः जब मैक्सवेन ने प्रकाश को एक 'विद्युत चुम्बकीय विक्षोभ' (Electromagnetic Disturbance) के रूप में मान्यता प्रदान की, तब ईथर का अस्तित्व निश्चित-सा हो गया ।' आकाश है आधार स्थिरता का माध्यम स्थिति तत्त्व है । एक परमाणु आकाश-प्रदेश में स्थित होता है, वहां उसका माध्यम स्थिति-तत्त्व ही होता है । आकाश स्थिति का माध्यम नहीं है । वह चर और स्थिर, दोनों तत्त्वों का माध्यम हैं। आधार - शून्य कुछ भी नहीं है । स्थूल पदार्थ के लिए स्थूल आधार होते हैं । सूक्ष्म या चतुःस्पर्शी स्कन्धों के लिए स्थूल आधार की अपेक्षा नहीं होती । उनका जो आधार है, वह आकाश ही है। एक पदार्थ की दूसरे पदार्थ से जो दूरी है, उसका आकाश ही है । इसके बिना सब पदार्थ स्वावगाही नहीं होते । ये तीन अस्तिकाय अरूपी हैं, इन्द्रियातीत हैं । ये विश्व व्यवस्था की अनिवार्य अपेक्षा से स्वीकृत हैं । गति, स्थिति और अवगाह (या विभाग) इन असाधारण गुणों से गति-तत्त्व (धर्मास्तिकाय), स्थिति-तत्त्व (अधर्मास्तिकाय) और अवगाह-तत्त्व (आकाशास्तिकाय) का अस्तित्व प्रमाणित होता है । पुगल : स्वतंत्र सत्ता का आधार संघात और भेद भी असाधारण गुण हैं। चार अस्तिकायों में केवल संघात है, भेद नहीं है । भेद के पश्चात् संघात और संघात के पश्चात् भेद - यह शक्ति केवल पुद्गलास्तिकाय में है । दो परमाणु मिलकर द्वि-प्रदेशी, यावत् अनन्त परमाणु मिलकर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध बन जाते हैं । वे वियुक्त होकर पुनः दो परमाणु यावत् अनन्त परमाणु हो जाते हैं । यदि संयोग-वियोग गुण नहीं होता तो यह विश्व या तो एक पिण्ड ही होता या केवल परमाणु ही होते । उन दोनों रूपों में से वर्तमान विश्व व्यवस्था फलित नहीं होती । पुद्गल द्रव्य रूपी है, इन्द्रियगम्य है, इसलिए इसका अस्तित्व बहुत स्पष्ट है, ष्ठ७.२रु १. डॉ. आइन्स्टीन और ब्रह्माण्ड, लिंकन बारनेद पृ. ४२ । 2010_03 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर इसकी स्वतन्त्र सत्ता का आधार यह संघात - भेदात्मक गुण है । चैतन्य भी असाधारण गुण है । अचेतन से चेतन की प्रक्रिया भिन्न होती है । ग्रहण, परिणमन, व्युत्सर्जन, स्वीकरण, सजातीय प्रजनन, वृद्धि, अनुभूति, ज्ञान आदि ऐसे धर्म हैं, जो चेतन में ही प्राप्त होते हैं। चेतन अरूपी है, इन्द्रियातीत है, उसका अस्तित्व चैतन्य गुण से गम्य है। 1 जीव और पुद्गल – इन दोनों अस्तिकायों के योग से विश्व की विविध परिणतियां होती हैं। तीन अस्तिकाय अपनी स्वरूप - मर्यादा तक ही परिवर्तित होते हैं । वे बाह्य निमित्तों से प्रभावित नहीं होते और न वे दूसरे द्रव्यों को प्रभावित करते हैं । उनका अस्तित्व और क्रिया सब दिशाओं में समान रूप से है । इसीलिए अमेरिकी भौतिक विज्ञानवेत्ता ए. ए. माईकेलसन और ई. डब्ल्यू. मोरले, ईथर सम्बन्धी परीक्षणों में सफल नहीं हुए। उन्होंने क्लीवलैण्ड में सन् १८८१ में एक भव्य परीक्षण किया । परीक्षण का निष्कर्ष स्याद्वाद और जगत् / ३३ उनके परीक्षण के पीछे निहित सिद्धान्त काफी सीधा था । उनका तर्क था कि यदि सम्पूर्ण आकाश केवल ईथर का एक गतिहीन सागर है तो ईथर के बीच पृथ्वी की गति का ठीक उसी तरह पता लगाना चाहिए और पैमाइश होनी चाहिए, जिस तरह नाविक सागर में जहाज के वेग को मापते हैं। जैसा कि न्यूटन ने इंगित किया था, जहाज के अन्दर के किसी यान्त्रिक परीक्षण द्वारा शान्त जल में चलने वाले जहाज की गति मापना असम्भव है । नाविक जहाज की गति का अनुमान सागर में एक लट्ठा फेंककर और उससे बंधी रस्सी की गांठों के खुलने पर नजर रखकर लगाते हैं । अतः ईथर के सागर में पृथ्वी की गति का अनुमान लगाने के लिए माईकेलसन और मोरले ने लट्ठा फेंकने की क्रिया सम्पन्न की । अवश्य ही यह लट्ठा प्रकाश की किरण के रूप में था । यदि प्रकाश सचमुच ईथर में फैलता है, तो इसकी गति पर पृथ्वी की गति के कारण उत्पन्न ईंथर की धारा का प्रभाव पड़ना चाहिए। विशेषतौर पर, पृथ्वी कि गति की दिशा में फेंकी गयी प्रकाश-किरण में ईथर की धारा से उसी तरह हल्की बाधा पहुंचानी चाहिए, जैसी बाधा का सामना एक तैराक को धारा के विपरीत तैरते समय करना पड़ता है, इसमें अन्तर बहुत थोड़ा होगा, क्योंकि प्रकाश का वेग (जिसका ठीक-ठीक निश्चय सन् १८४१ में हुआ) एक सेकेण्ड में १,८६,२८४ मील है, जबकि सूर्य के चारों ओर अपन धुरी पर पृथ्वी का वेग केवल बीस मील प्रति सेकेण्ड होता है, अतएव ईथर - धारा को विपरीत दिशा में फेंके जाने पर प्रकाश-किरण की गति १,८६,२६४ मील होनी चाहिए और यदि सीधी दिशा में फेंकी जाए तो १,८६,३०४ मील । इन विचारों को मस्तिष्क 2010_03 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ / जैन दर्शन और अनेकान्त में रखकर माईकेलसन और मोरले ने एक यन्त्र का निर्माण किया, जिसकी सूक्ष्मदर्शिता इस हद तक पहुंची हुई थी कि वह प्रकाश के तीव्र वेग में प्रति सेकेण्ड एक-एक मील के अन्तर को भी अंकित कर लेता था । इस यन्त्र में, जिसे उन्होंने ' व्यतिकरणमापक' (erferometer) नाम दिया, कुछ दर्पण इस तरह लगाए हुए थे कि एक प्रकाश-किरण कोदो भागों में बांटा जा सकता था और एक साथ ही दो दिशाओं में उन्हें फेंका जा सकता था । यह सारा परीक्षण इतनी सावधानी से आयोजित और पूरा किया गया कि इसके परिणामों में किसी तरह के सन्देह की गुंजाइश नहीं रह गयी। इसका परिणाम सीधे-साधे शब्दों में यह निकला - 'प्रकाश - किरणों के वेग में, चाहे वे किसी भी दिशा में फेंकी गयी हों, कोई अन्तर नहीं पड़ता ।' आइंस्टीन : ईथर के अस्तित्व का निरसन 'माइकेलसन और मोरले के परीक्षण के कारण वैज्ञानिकों के सामने एक व्याकुल कर देने वाला विकल्प आया । उनके सामने यह समस्या थी कि वे ईथर सिद्धान्त को— जिसने विद्युत्-चुम्बकत्व और प्रकाश के बारे में बहुत-सी बातें बतलायी थीं— छोड़ें या उससे भी अधिक मान्य कोपरनिकस - सिद्धान्त को, जिसके अनुसार पृथ्वी स्थिर नहीं, गतिशील है । बहुत से भौतिक विज्ञानवेत्ताओं को ऐसा लगा कि यह विश्वास करना अधिक आसान है कि पृथ्वी स्थिर है बनिस्बत इसके कि तरंगें — प्रकाश-तरंगें, विद्युत् चुम्बकीय तरंगें, बिना किसी सहारे के अस्तित्व में रह सकती हैं। यह एक बड़ी विकट समस्या थी— इतनी विकट कि इसके कारण वैज्ञानिक विचारधारा पच्चीस वर्षों तक भिन्न-भिन्न रही, एकमत न हो सकी। कई नयी कल्पनाएं सामने प्रस्तुत की गयीं और रद्द भी कर दी गयीं। उस परीक्षण को मोरले और दूसरे लोगों ने फिर शुरू किया, पर परिणाम वही निकला---' ईथर में पृथ्वी का प्रत्यक्ष वेग शून्य है । " ईथर प्रकाश की गति को प्रभावित नहीं करता इसलिए आइन्स्टीन ने उसके अस्तित्व का निरसन किया । किन्तु गति-नियामक तत्त्व के अभाव में पदार्थ अनन्त में कहीं भटक जाते और वर्तमान विश्व एक दिन प्रकाश-शून्य हो जाता । दृश्य जगत् का निमित्त जीव और पुद्गल बाह्य निमित्तों से भी प्रभावित होते हैं, परिवर्तित होते हैं । जीव पुद्गल को प्रभावित करता है और पुद्गल जीव को प्रभावित करता है, इसलिए इनमें १. डॉ. आईन्सटीन और ब्रह्माण्ड, पृ० ४३-४६ ॥ 2010_03 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और जगत् । ३५ स्वाभाविक और वैभाविक (बाह्य निमित्तज) दोनों प्रकार के परिवर्तन होते हैं। पुद्गली जीव का अस्तित्व ही हमारे प्रत्यक्ष है। पुद्गल-मुक्त जीव हमारी ज्ञान-धारा से परे हैं। आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन–छहों पर्याप्तियां पौद्गलिक हैं। इन्हीं के द्वारा जीव व्यक्त या ज्ञेय बनता है । दृश्य-जगत् जो है, वह पौद्गलिक है, किन्तु इसका निमित्त जीव ही है । सूक्ष्मस्कन्ध हमारी दृष्टि के विषय नहीं बनते । हमारी दृष्टि में आ सकें, इतनी स्थूलता उन्हें जीव के द्वारा ही प्राप्त होती है। जितने पुद्गल-दृश्य हैं, वे या तो जीव के शरीर-रूप में परिणत हैं या हो चुके हैं।' ___ज्ञान, दर्शन, सुख-दुःख की अनुभूति, वीर्य-ये जीव के गुण या कार्य हैं।' शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श-ये पुद्गल के गुण या कार्य हैं।' शब्द, आतप, उद्योत आदि संहति-रहित पदार्थ (Marsless matter) अथवा ऊर्जारूप (Energy) हैं। लिबनिज का अभिमत दृश्य-पदार्थ का मूल (Ultimate Constituent) परमाणु है। उनकी अनेक वर्गणाएं ( सजातीय, परमाणु समूह) हैं । वे मौलिक कण (Elementary Particles) समुदित होकर पदार्थ का निर्माण करते हैं । बाह्य निमित्तों से अथवा निश्चित काल-मर्यादा के अनुसार एक पदार्थ दूसरे पदार्थ में परिवर्तित भी हो जाता है। पुद्गल की विचित्र परिणति के कारण विश्व की व्यवस्था अनन्तरूपी है। महान् जर्मन गणितज्ञ लिबनिज ने लिखा है- 'मैं यह प्रमाणित कर सकता हूं कि न केवल प्रकाश, रंग, ताप और इस तरह की अन्य चीजें, अपितु गति, आकार और विस्तार भी वस्तु के ऊपरी गुण हैं । उदाहरण-स्वरूप, जैसे हमारी दृश्यशक्ति यह बतला देती है कि वह गोल, चिकनी और छोटी है । ये ऐसे गुण हैं, जो हमारी इन्द्रियों से पृथक् होने पर उस गुण से अधिक यथार्थता नहीं रखते, जिसे हम परम्परानुसार सफेद की संज्ञा देते हैं। बर्कले का कथन बर्कले ने कहा है-'वे सभी तत्त्व जिनसे इस संसार का ढांचा तैयार हुआ है, मानस को छोड़ देने के बाद कोई तथ्य नहीं रखते। जब तक हम उन्हें इन्द्रियों से १. आचारांग वृत्ति, १/१ २. उत्तराध्ययन अध्ययन २८/१०-११ ३. वही, २८-१२ ४.म. माइन्स्टीन और ब्रह्माण्ड १०१७ 2010_03 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ / जैन दर्शन और अनेकान्त ग्रहण नहीं करते या जब तक ये हमारे या अन्य किसी प्राणी के मानस में अपना अस्तित्व नहीं रखते, तब तक या तो उनका सर्वथा अस्तित्व ही नहीं होता या फिर वे किसी सनातन शक्ति के मानस में अपना अस्तित्व रखते हैं। आइन्स्टीन यह प्रकट करके कि आकाश-काल (Space-time) केवल अन्तर्ज्ञान के रूप हैं जिनको रंग, रूप और आकार की भांति चेतना से विलग नहीं किया जा सकता—इस तर्क की गाड़ी को अपनी अन्तिम सीमा तक ले गए। आकाश का अस्तित्व केवल पदार्थों के क्रम या उनकी व्यवस्था में है-इसके अतिरिक्त वह कुछ नहीं है। इसी प्रकार काल घटनाओं के एक क्रम के अतिरिक्त, जिससे हम उसे मापते हैं और कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रखता। वस्तुवाद स्यावाद के अनुसार वर्ण, गंध, रस और स्पर्श का अस्तित्व मानसिक नहीं है। ये पुद्गल के पर्याय (विवर्त) हैं। इन्हीं की अपेक्षा वे अशाश्वत हैं।' वर्णादि चतुष्टय की विविधता, चेतना या बाह्य वस्तु-सापेक्ष है, किन्तु उसका अस्तित्व चेतना या बाह्य वस्तु-सापेक्ष नहीं है । जैसे एकत्व, पृथकत्व सहज होता है, वैसे ही उनकी वर्णादि-चतुष्टयी की परिणति भी सहज होती है । छोटा-बड़ा, लघु-गुरु, ऋजु-वक्र जैसे सापेक्ष धर्म हैं—दो वस्तुओं की तुलना में उत्पन्न धर्म हैं, वैसे वर्णादिक . चतुष्टयी सापेक्ष धर्म नहीं है। यह वस्तुवाद है । स्पर्श मूल शक्ति है । रूखा, चिकना-ये उसकी अभिव्यक्ति के प्रकार हैं। इनकी कोई स्थायी सत्ता नहीं है । सौन्दर्य-असौन्दर्य, उपयोगी-अनुपयोगी आदि की कल्पना चेतना का रूप है । पर किसी वस्तु की अस्तिता चेतना का रूप नहीं है । दिक् और काल उपयोगितावाद के तत्त्व हैं । उनकी वास्तविक सत्ता नहीं है। आकाश और दिक् स्याद्वाद के अनुसार विश्व की अखण्डता चतुरूपात्मक है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन चारों के बिना उसकी व्याख्या नहीं हो सकती। द्रव्य अनन्त गुणों १. डॉ. आइनस्टीन और जन्माण्ड फ. १८ २. परमाणुपोग्गलेणं भन्ते? किं सासए, सिय असासए? गोयमा सिय सासए, सिय असासए । से केण डेणं भन्ते ! एवं बुच्चइ-सिय सासए? गोयमा दवट्ठयाए, सासए, वनपज्जवेहिं जाव फासपज्जवेहि, असासए।-भग०, १४/४९-५० ३. उत्तराव्ययन अध्ययन २८ 2010_03 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद और जगत् / ३७ का पिण्ड है। भाव उसकी अवस्थाएं हैं । वे भी अनन्त होती हैं । अवस्था से वियुक्त कोई द्रव्य नहीं होता और द्रव्य से वियुक्त कोई अवस्था नहीं होती। जितने परिवर्तन होते हैं, वे सब द्रव्य में ही होते हैं और जितने द्रव्य हैं वे सब परिवर्तन के कारण ही अपना अस्तित्व बनाये रखते हैं । परिवर्तन कहां होता है, इसकी व्याख्या क्षेत्र के बिना नहीं की जा सकती। इसके दो रूप हैं-आकाश और दिक् । आकाश वास्तविक है। दिक निरपेक्ष तत्त्व नहीं है, वह आकाश का ही कल्पित रूप है। ऊर्ध्व, निम्न आदि सापेक्ष हैं । उनका अस्तित्व हमारी चेतनाएं हैं। परिवर्तन कब होता है, इसकी व्याख्या काल के बिना नहीं की जा सकती। सापेक्ष काल का भी निरपेक्ष अस्तित्व नहीं है । वह द्रव्य का ही एक पर्याय है । उनका तिर्यक् प्रचय नहीं है-स्कन्ध नहीं है। वह केवल ऊर्ध्व प्रचय है—पौर्वापर्य या क्रम है। जो जीव और अजीव के परिवर्तन का क्रम हैं, वह नैश्चयिक काल है। ज्योतिश्चक्र पर आधारित जो घटनाचक्र है, वह व्यावहारिक या सापेक्ष काल है। आइन्स्टीन का मंतव्य ___आइन्सटीन की चतुर्विस्तारात्मक अखण्डता में द्रव्य के आकाश और काल से परिवर्तित भावों-पर्यायों का विचार है। उनके सापेक्षवाद के अनुसार 'एक रेलमार्ग एक विस्तारात्मक आकाशीय अखण्डता है और उस पर चल रही गाड़ी का चालक किसी भी समय किसी एक समन्वयात्मक बिन्दु-एक स्टेशन या मील के पत्थर को देखकर अपनी अवस्थिति को मालूम कर सकता है परन्तु एक जहाज के कप्तान को दो विस्तारों की चिन्ता करनी पड़ती है । समुद्र की सतह एक द्विविस्तारात्मक अखण्डता है और वे समन्वयात्मक बिन्दु-जिनसे नाविक द्विविस्तारात्मक अखण्डता में अपनी अवस्थिति का निश्चय करता है, अक्षांश और देशान्तर हैं। एक विमान चालक को अपना विमान त्रिविस्तारात्मक अखण्डता के बीच से ले जाना पड़ता है, अत: उसे न केवल अक्षांश और देशान्तर की, बल्कि पृथ्वी से अपनी ऊंचाई का भी ध्यान रखना पड़ता है। एक विमान चालक की अखण्डता जिस रूप में हम आकाश को देखते हैं, उसी से बनती है। दूसरे शब्दों में, हमारे संसार का आकाश एक त्रिविस्तारात्मक अखण्डता है। काल का महत्त्व 'लेकिन गति से सम्बन्धित किसी प्राकृतिक घटना की चर्चा करते समय आकाश में उसकी अवस्थिति को ही व्यक्त करना पर्याप्त नहीं है। यह भी बतलाना आवश्यक 2010_03 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ / जैन दर्शन और अनेकान्त है कि काल में स्थिति का परिवर्तन कैसे होता है । अतएव न्यूयार्क से शिकागो जाने वाली एक्सप्रेस गाड़ी का एक सही चित्र प्रस्तुत करने के लिए इतना कह देना ही काफी नहीं है कि वह न्यूयार्क से अलबानी, वहां से सिराक्यूस, फिर वहां से टोलेडो तथा उसके बाद शिकागो जाती है बल्कि यह बतलाना जरूरी है कि उन स्थानों पर वह किस समय पहुंचती है । यह कार्य या तो समय-सारिणी से पूरा हो सकता है या दृश्य - चित्र से । यदि न्यूयार्क और शिकागो के बीच के मील, एक लकीर खींचे हुए कागज पर नीचे की ओर निश्चित किए जाएं, घण्टे तथा मिनट लम्बित रूप में दिखाये जाएं और पृष्ठ के कोने से सामने के दूसरे कोने तक एक रेखा खींचकर मार्ग-आलेख प्रदर्शित किया जाए तो द्विविस्तारात्मक आकाश-काल अखण्डता में गाड़ी की प्रगति प्रदर्शित होगी। इस तरह के नक्शों से अधिकांश समाचार-पत्र पाठक परिचित हैं। उदाहरणस्वरूप स्टॉक मार्केट का नक्शा द्विविस्तारात्मक डॉलर - काल अखण्डता में आर्थिक घटनाओं को प्रकट करता है । इसी तरह न्यूयार्क से लास एंजिल्स जाने वाले एक विमान की उड़ान को एक चतुर्विस्तारात्मक आकाश-काल अखण्डता में चित्रित किया जा सकता है। यह तथ्य कि विमान 'क्ष' अक्षांश, 'य' देशान्तर और 'झ' ऊंचाई पर है, विमान कम्पनी के यातायात व्यवस्थापक के लिए कोई महत्त्व नहीं रखता, यदि सम्बन्धित काल की जानकारी न हो । अतएव काल चौथा विस्तार है और यदि कोई उड़ान को उसके सम्पूर्ण रूप में एक प्राकृतिक यथार्थता के रूप में देखना चाहता है तो इसे पृथक् पृथक उड़ान, चढ़ाई, सरकाव और उतार के रूप में नहीं बांटा जा सकता। इसे तो एक चतुर्विस्तारात्मक आकाश काल अखण्डता के / रूप में ही सोचना पड़ेगा ।' पंचास्तिकाय निरपेक्ष सत्य है दिक् और काल— इन दो सापेक्ष सत्यों को न लें तो निरपेक्ष सत्य पांच अस्तिकाय हैं । इनका अस्तित्व न तो हमारी चेतना में है और न एक-दूसरे की तुलना में अद्भुत है, किन्तु स्वतन्त्र है । इन भिन्न-भिन्न रूपों में अवस्थित अस्तिकायों और उनके कार्यों का जो समवाय है, वही विश्व है ।' ९. डॉ. आइन्स्टीन और ब्रह्माण्ड, पृ० ७२-७४ २. किमियं भंते! लोएति पवृच्चाई ? गोयमा ! पंचत्थिकाया, एसणं एवतिए लोएति पवुच्चई । - भगवती सूत्र, १३/५५ 2010_03 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद और जगत् । ३९ कुछ समालोचकों ने लिखा है कि स्याद्वाद हमें पूर्ण या निरपेक्ष सत्य तक नहीं ले जाता, वह पूर्ण सत्य की यात्रा का मध्यवर्ती विश्राम-गृह है । किन्तु इस समालोचना में तथ्य नहीं है । स्याद्वाद हमें पूर्ण या निरपेक्ष सत्य तक ले जाता है। उसके अनुसार पंचास्तिकायमय जगत् पूर्ण या निरपेक्ष सत्य है। पांचों अस्तिकायों के अपने-अपने असाधारण गुण हैं और उन्हीं के कारण उनकी स्वतन्त्र सत्ता है । इसके अस्तित्व, गुण और कार्य की व्याख्या सापेक्ष दृष्टि के बिना नहीं की जा सकती। चेतन में केवल चैतन्य ही नहीं है, उसके अतिरिक्त अनन्त धर्म और हैं, किन्तु चेतन चैतन्य धर्म की अपेक्षा से ही है, शेष धर्मों की अपेक्षा से वह चेतन नहीं है।' द्रव्य की सहज सापेक्षता एक धर्म से कोई द्रव्य नहीं बनता। सामान्य और असामान्य, सम्भूत होकर द्रव्य का रूप लेते हैं । वे सब सर्वथा अविरोधी नहीं होते, कथंचित् विरोधी भी होते हैं। वे सर्वथा विरोधी ही नहीं होते, कथंचित् अविरोधी भी होते हैं। यदि सर्वथा अविरोधी ही हों तो वे अनेक नहीं हो सकते और यदि वे सर्वथा विरोधी ही हों तो एक नहीं हो सकते । यह अविरोधी और विरोधी भावों का जो सामंजस्य या सह-अस्तित्व है, वह द्रव्य की सहज सापेक्षता है और द्रव्यगत सापेक्षता की सामंजस्यपूर्ण व्याख्या हमारी बौद्धिक सापेक्षता है। ___हम किसी भी निरपेक्ष सत्य को ऐसा नहीं पाते जो अपने स्वरूप की व्याख्या में सापेक्ष न हो । वेदान्ती ब्रह्म को पूर्ण या निरपेक्ष सत्य मानते हैं पर वह भी स्वभावगत सापेक्षता से मुक्त नहीं है। उपनिषद् की भाषा में 'ब्रह्म सकम्प भी है, निष्कम्प भी है, दूर भी है, समीप भी है, सबके अन्तर में भी है और सबके बाहर भी है। वह अणु से अणु और महान् से महान् है। भगवान महावीर की भाषा में जीव सकम्प भी है और निष्कम्प भी है, सवीर्य भी है और निर्वीर्य भी है। इन विरोधी रूपों में ही जगत् पूर्णता अर्जित करता है । तात्पर्य यह है कि पूर्ण वही हो सकता है जिसमें विरोधी धर्मों का समांजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व हो। -स्वरूप सम्बोधन, श्लोक ३ १. प्रमेयत्वादिभिर्घमरचिदात्मा चिदात्मक। ज्ञानदर्शनतस्तस्मात् चेतना-चेतनात्मकः॥ २. तदेजति तनेजति तरे तदन्तिके। तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः!! ३. कठोपनिषदः अणोरणीयान् महतो महियान ! ४. भगवती सूत्र, २५/४१ ५. वही, १/३७५ - ईशावास्योपनिषद्, ५ ___ 2010_03 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० / जैन दर्शन और अनेकान्त अस्तित्व और नास्तित्व का नियम ____सामान्य धर्मों की दृष्टि से जगत् एक है। द्रव्यत्व एक सामान्य धर्म है। वह परमाणु में भी है और चेतन में भी है । उसकी दृष्टि से परमाणु और चेतन भिन्न हैं। चैतन्य विशेष धर्म है। वह चेतन में है, परमाणु में नहीं है। उसकी दृष्टि से चेतन परमाणु से भिन्न है। सामान्य धर्मों की दोनों में अस्तिता है। एक-दूसरे के विशेष धर्मों की एक दूसरे में नास्तिता है। सामान्य धर्मों की अस्तिता से द्रव्य बनते तो वे अनेक नहीं होते। विशेष धर्म की नास्तिता से द्रव्य बनते तो विश्व की व्यवस्था सर्वथा वियुक्त होती, उसमें कोई सामंजस्य या सह-अस्तित्व नहीं होता। अस्तिता और नास्तिता-इन दोनों के योग से द्रव्य बनते हैं, इसीलिए विश्व की व्यवस्था संयुक्त है और उसमें विशेष धर्मों या विरोधी धर्मों का सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व प्रत्येक द्रव्य में अस्ति-नास्ति प्रत्येक द्रव्य में दो प्रकार के पर्याय होते हैं—अस्तित्व-पर्याय और नास्तित्वपर्याय । अस्तित्व-पर्याय जैसे द्रव्य के घटक होते हैं, वैसे ही नास्तित्व-पर्याय भी उसके घटक होते हैं। दोनों मिलकर ही उसकी स्वतन्त्र सत्ता की स्थापना करते हैं। . स्वर्ण और जल-ये दो द्रव्य हैं। स्वर्ण के घटक परमाणु जल के घटक परमाणुओं से भिन्न हैं। स्वर्ण विशुद्ध है और जल दो वायुओं के मिश्रण से उत्पन्न है। अपने-अपने घटक परमाणु उनसे अस्ति-पर्याय के रूप में सम्बद्ध हैं। वैसे ही एक-दूसरे के घटक परमाणु उनसे नास्ति-पर्याय के रूप में सम्बद्ध हैं। दोनों पर्याय एक साथ सम्बद्ध रहकर ही द्रव्य को स्वरूप प्रदान करते हैं। केवल अस्ति-रूप में कोई द्रव्य नहीं है, केवल नास्ति-रूप में भी कोई द्रव्य नहीं है, जितने द्रव्य हैं सब अस्ति-नास्ति रूप में है। द्रव्य केवल अस्ति...... केवल नास्ति ..... अस्ति-नास्ति.......है वस्तु-सत्य की दृष्टि से तीसरा विकल्प ही सत्य है। केवल अस्ति और केवल १. द्विविधाः पर्यायिण पर्यायाछिन्त्यन्ते... सम्बद्धष्ठासम्बद्धष्छ।' -विशेषावश्यक भाष्य ४८१-८२ पत्ति, पृ० १७८-८० 2010_03 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद और जगत् / ४१ नास्ति का निरूपण सापेक्ष दृष्टि से ही हो सकता है: स्यात्-अस्ति एव-किसी दृष्टि से है। स्यात्-नास्ति एव-किसी दृष्टि से नहीं है। स्वर्ण के परमाणु स्वर्ण के साथ अस्तित्व-रूप में सम्बद्ध हैं और जल के परमाणु उसके साथ नास्तित्व रूप में सम्बद्ध हैं । ००००० ०००० ००००० - ००००० - ००० जल है जल नहीं है नहीं है] स्वर्ण है ०००० ००००० ००००० ००००० - नहीं है । ००००० स्वर्ण है ००००० स्वर्ण नहीं है। ००००० अस्तित्व-नास्तित्व: दोनों जलगत है जल के परमाणु जल के साथ अस्तित्व रूप में सम्बद्ध हैं और स्वर्ण के परमाणु उसके साथ नास्तित्व-रूप में सम्बद्ध हैं। स्वर्ण के परमाणु जैसे स्वर्ण के साथ अस्तित्व रूप में सम्बद्ध हैं, वैसे ही यदि जल के साथ भी अस्तित्व-रूप में सम्बद्ध हों तो स्वर्ण और जल दो नहीं हो सकते। स्वर्ण के परमाणु जैसे जल के साथ नास्तित्व रूप से सम्बद्ध हैं, वैसे ही यदि स्वर्ण के साथ भी नास्तित्व रूप में सम्बद्ध हों तो स्वर्ण होता ही नहीं। जल के परमाणु स्वर्ण के साथ यदि नास्तित्व रूप में सम्बद्ध न हों तो जल और स्वर्ण-दो नहीं हो सकते। इस प्रकार अस्ति और नास्ति-दोनों पर्याय समन्वित या सापेक्ष होकर ही द्रव्य की स्वतन्त्र सत्ता का निर्माण करते हैं । इस सापेक्षता को समझकर ही हम भेद में अभेद की स्थापना कर सकते हैं। . अस्तित्व और नास्तित्व के नियम, स्व और पर शब्द का प्रयोग फिर विमर्श मांगता है । जल अपने घटक द्रव्यों की अपेक्षा से है तथा स्वर्ण के घटक द्रव्यों की 2010_03 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ / जैन दर्शन और अनेकान्त अपेक्षा से नहीं है, इस स्वीकृति में अनेकान्त की नयी स्थापना क्या है ? इसे एकान्तवादी भी स्वीकार कर लेंगे। पर का अर्थ दूसरा द्रव्य नहीं, किन्तु दूसरा पर्याय है। इस आधार पर अस्तित्व और नास्तित्व—दोनों एक द्रव्य में विद्यमान हैं। जल में पर्याय बदलते रहते हैं। वर्तमान का पर्याय सद्भाव होता है, भूत और भविष्य का पर्याय असद्भाव। जल का अपने सद्भाव पर्याय की अपेक्षा अस्तित्व है और अपने असद्भावपर्याय की अपेक्षा उसका नास्तित्व है । इस प्रकार अस्तित्व और नास्तित्वदोनों जलगत हैं । अस्तित्व और नास्तित्व-दोनों वक्तव्य नहीं हैं इसलिए वे अवक्तव्य भी हैं । अवक्तव्य के विषय में अनेक परिकल्पनाएं की जाती हैं। किन्तु इसका मूल अर्थ भगवती में स्पष्ट है। प्रश्न पूछा गया-'भंते ! द्विप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है? अनात्मा है? अथवा अवक्तव्य है ? उत्तर दिया गया—'वह स्व की अपेक्षा आत्मा है । पर की अपेक्षा आत्मा है । सद्भाव पर्याय और असद्भाव पर्याय—दोनों की अपेक्षा अवक्तव्य है।' द्रव्य केवल भेद... केवल अभेद... भेद-अभेद... है केवल भेद और केवल अभेद का निरूपण सापेक्ष दृष्टि से ही हो सकता है। स्यात् भेद एव-किसी दृष्टि से भेद ही है। स्यात् अभेद एव—किसी दृष्टि से अभेद ही है। स्वर्ण-भेद (विशेष) जल-भेद (विशेष) .पुद्गला अभेद (सामान्य) ......... पुद्गल वस्तु-सत्य पुद्गल है। स्वर्ण और जल सापेक्ष द्रव्य हैं। स्थायित्व और परिवर्तन-नियम कोई पूर्व परिचित व्यक्ति हमारे सामने आता है, तब हम कहते हैं—'यह वही है।' बरसात होते ही भूमि अंकुरित हो उठती है, तब हम कहते हैं—'हरियाली उत्पन्न 2010_03 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और जगत् / ४३ हो गयी।' कपूर हमारे हाथ में रहते-रहते उड़ जाता है, तब हम कहते हैं—'वह नष्ट हो गया।' यह वही है-यह नित्यता का सिद्धान्त है। हरियाली उत्पन्न हो गयी–यह उत्पत्ति का सिद्धान्त है । वह नष्ट हो गया-यह विनाश का सिद्धान्त है। द्रव्य की उत्पत्ति और विनाश : विभिन्न दृष्टिकोण द्रव्य की उत्पत्ति के विषय में परिणामवाद, आरम्भवाद, समूहवाद आदि अनेक अभिमत हैं । उसके विनाश के विषय में भी अनेक विचार हैं-रूपान्तरवाद, विच्छेदवाद आदि । परिणामवादी सांख्यदर्शन कार्य को अपने कारण में सत् मानता है । सत्कार्यवाद के अनुसार जो असत् है, वह उत्पन्न नहीं होता और जो सत् है वह नष्ट नहीं होता, केवल रूपान्तर होता है। उत्पत्ति का अर्थ है सत् की अभिव्यक्ति और विनाश का अर्थ है असत् की अभिव्यक्ति । आरम्भवादी न्याय-वैशेषिक कार्य को अपने कारण में सत् नहीं मानते। असत्-कार्यवाद के अनुसार असत् उत्पन्न होता है और सत् विनष्ट होता है। इसीलिए नैयायिक ईश्वर को कूटस्थ नित्य और प्रदीप को सर्वथा अनित्य मानते हैं । बौद्ध दार्शनिक स्थूल द्रव्य को सूक्ष्म अवयवों का समूह मानते हैं तथा द्रव्य-मात्र को क्षण-विनश्वर मानते हैं । उनके अभिमत में स्थिति कुछ भी नहीं है। जो एकान्त नित्यवादी हैं, वे भी परिवर्तन की उपेक्षा नहीं कर सकते, जो हमारे प्रत्यक्ष है । जो एकान्त अनित्यवादी हैं, वे भी स्थिति की उपेक्षा नहीं करते, जो हमारे प्रत्यक्ष है। इसीलिए नैयायिकों ने दृश्य वस्तुओं को अनित्य मानकर उनके परिवर्तन की व्याख्या की और बौद्धों ने सन्तति मानकर उनके प्रवाह की व्याख्या की। रूपान्तरण का सिद्धान्त ____ वैज्ञानिक जगत् में रूपान्तरण का सिद्धान्त सर्व-सम्मत है । उदाहरणस्वरूप, एक मोमबत्ती को ले लीजिए। जलाए जाने पर कुछ ही समय में उसका सम्पूर्ण नाश हो जाएगा। प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि मोमबत्ती का नाश होने से अन्य वस्तुओं की उत्पत्ति हुई।' इसी तरह जल को एक प्याले में रखा जाए और प्याले में दो छिद्र कर तथा उनमें कार्क लगाकर दो प्लेटिनम की पत्तियां जल में खड़ी कर दी जाएं और प्रत्येक पत्ती के ऊपर एक कांच का टूयूब लगा दिया जाए तथा प्लेटिनम की पत्तियों का 1. A Text Book of Inoraganic Chemistry by J. R. Partingtion, p. 15. ____ 2010_03 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ / जैन दर्शन और अनेकान्त सम्बन्ध तार द्वारा बिजली की बैटरी के साथ कर दिया जाए तो कुछ ही समय में पानी गायब हो जाएगा । साथ ही यदि उन प्लेटिनम की पत्तियों पर रखे गए ट्यूबों पर ध्यान दिया जाएगा तो दोनों में एक-एक तरह की गैस मिलेगी, जो ऑक्सीजन और हाइड्रोजन होगी। आधुनिक वैज्ञानिक शोधों से यह प्रमाणित हुआ है कि पुद्गल शक्ति में और शक्ति पुद्गल में परिवर्तित हो सकती है ।' सापेक्षवाद के अनुसार पुद्गल के स्थायित्व के नियम व शक्ति के स्थायित्व का नियम कर देना चाहिए । स्थायित्व और परिवर्तन सापेक्ष है स्याद्वाद के अनुसार सत् का कभी नाश नहीं होता और असत् का कभी उत्पाद नहीं होता। ऐसी कोई स्थिति नहीं होती, जिसके साथ उत्पाद और विनाश की अविच्छिन्न धारा न हो और ऐसे उत्पाद - विनाश नहीं होते, जिनकी पृष्ठभूमि में स्थिति का हाथ न हो । सब द्रव्य उभय-स्वभावी हैं। उनके स्वभाव की व्याख्या एक ही नियम से नहीं हो सकती । असत् का उत्पाद नहीं होता और सत् का विनाश नहीं होता। इस द्रव्यनयात्मक सिद्धान्त के द्वारा द्रव्यों (धौव्यांशों या मूलभूत तत्त्वों) की ही व्याख्या हो सकती है। इसके द्वारा रूपान्तरों (पर्यायों) की व्याख्या नहीं हो सकती। उनकी व्याख्या— असत् की उत्पत्ति और सत् का विनाश होता है— इस पर्यायनयात्मक सिद्धान्त के द्वारा ही की जा सकती है। इन दोनों को एक भाषा में परिणामी - नित्यवाद या नित्यानित्यवाद कहा जा सकता है। इसमें स्थायित्व और परिवर्तन के सापेक्ष रूप की व्याख्या है । इस जगत् में ऐसा कोई भी द्रव्य नहीं है, जो सर्वथा स्थायी ही है और ऐसा भी कोई द्रव्य नहीं है, जो सर्वथा परिवर्तनशील ही है। मोमबत्ती, जो परिवर्तनशील है, वह भी स्थायी है और जीव, जो स्थायी माना जाता है वह भी परिवर्तनशील है । स्थायित्व और परिवर्तनशीलता की दृष्टि से जीव और मोमबत्ती में कोई अन्तर नहीं है । ' १. A Text Book of Inoraganic Chemistry by G. S. Neuth, p. 237, २. General Chemistry by Linus Pauling, p. 4-5 ३. General and Inorganic Chemistry by P. J. Durrant, p. 18 ४. 'भावस्स णत्थि णासो, णत्थि अभावस्स उप्पादो :- पंचास्तिकाय, १५ 5. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, श्लोक ५ 2010_03 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद की मर्यादा कोरी स्थिति ही होती तो सब द्रव्य सदा एक रूप रहते, कहीं कोई परिवर्तन नहीं होता — न कुछ बनता और न कुछ मिटता, न कोई घटना होती, न कोई क्रम होता और न कोई व्याख्या होती । स्याद्वाद और जगत् / ४५ कोरे उत्पाद और व्यय होते तो उनका कोरा क्रम होता, पर स्थायी आधार के बिना वे कुछ रूप नहीं ले पाते । कर्तृत्य, कर्म और परिणामों की कोई व्याख्या नहीं होती । स्याद्वाद की मर्यादा के अनुसार परिर्वतन भी है और उसका आधार भी है। परिवर्तन-रहित कोई स्थायित्व नहीं है और स्थायित्व - रहित कोई परिवर्तन नहीं है । दोनों अपृथक्भूत हैं । परिवर्तन स्थायी में ही हो सकता है और स्थायी वही हो सकता है, जिसमें परिवर्तन हो । निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है— निष्क्रियता और सक्रियता, स्थिरता और गतिशीलता का जो सहज समन्वित रूप है, वही द्रव्य है । प्रत्येक द्रव्य अपने केन्द्र में ध्रुव, स्थिर और निष्क्रिय है। उसके चारों ओर परिवर्तन की अटूट श्रृंखला है । इसे हम परमाणु (व्यावहारिक परमाणु) की रचना के द्वारा समझ सकते हैं। अणु की रचना तीन प्रकार के कणों से मानी जाती है I १. प्रोटोन, २. इलेक्ट्रोन, ३. न्यूट्रोन । प्रोटोन धनात्मक कण है । यह परमाणु का मध्य बिन्दु होता है इलेक्ट्रोन ऋणात्मक कण है यह धनाणु के चारों ओर परिक्रमा करता है । न्यूट्रोन उदासीन कण होते हैं। अपरिवर्तन का नियम जीव के प्रयत्न से जो परिवर्तन होता है, वह प्रत्यक्ष है । किन्तु जीव में भी जो प्रतिक्षण परिवर्तन होता है— अस्तित्व की सुरक्षा के लिए जो सहज सक्रियता होती है अथवा निषेध की सुरक्षा के लिए जो विधि का प्रयत्न होता है - वह प्रत्यक्ष नहीं है । इसीलिए हमारी दृष्टि में किसी भी वस्तु का अस्तित्व व्यक्त (व्यंजन) पर्याय से होता है । अर्थ- पर्याय (सूक्ष्म सक्रियता) से हम किसी वस्तु का अस्तित्व मानने में सफल नहीं होते । 1 बहुत सारा परिवर्तन जीवों के प्रयत्न के बिना होता है— पदार्थ की स्वाभाविक गति से होता है । अनेक परमाणु मिलकर परिवर्तन करते हैं तब वह समुदायकृत कहलाता है | धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय में ऐकत्विक 1 2010_03 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ / जैन दर्शन और अनेकान्त परिवर्तन होता है। उत्पाद और विनाश दोनों का यही क्रम है। परमाणु स्वतन्त्र परमाणु के रूप में रहता है तो कम-से-कम एक समय और अधिक से अधिक असंख्यकाल तक रह सकता है। द्वयणुक स्कन्ध से लेकर अनन्ताणुक स्कन्ध के लिए भी यही नियम है। स्वाभाविक बंध यह समूचा जगत् अणुओं या प्रदेशों से निष्पन्न है। पुद्गल के अणु विश्लिष्ट हैं। शेष चारों अस्तिकायों के अणु श्लिष्ट हैं-परस्पर एक-दूसरे से अविच्छिन्न हैं। वे अनादि विस्रसा (स्वाभाविक) बन्ध से बंधे हुए हैं। वह बन्ध अनन्तकालीन या सर्वकालीन है। सादि-विससा बन्ध का काल-मान इस प्रकार होता है उत्कृष्ट १. बन्धन प्रत्ययिक एक समय असंख्य काल २. भाजन प्रत्ययिक अन्तर-मुहूर्त संख्येय काल ३. परिणाम प्रत्ययिक एक समय छह मास प्रायोगिक बंध जीव और पुद्गल अनादि प्रायोगिक बन्ध से बंधे हुए हैं। १. आलायन, २. आलीन, ३. शरीर, ४. शरीर-प्रयोग–ये सादि प्रायोगिक बन्ध है। इनका कालमान इस प्रकार होता है जघन्य उत्कृष्ट १. आलायन अन्तर-मुहूर्त संख्येय काल २. आलीन अन्तर-मुहूर्त संख्येय काल ३. शरीर एक समय अनन्तकाल ४. शरीर-प्रयोग एक समय जघन्य - अनन्तकाल - १. सन्मतिप्रकरण, ३/३२-३४ २. भगवती-सूत्र, ५/१६९ ३. वही, ८/३४७-४८ ४. वही, ८/३५०-५३ ५. वही, ८/३५४॥ ___ 2010_03 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद और जगत् । ४७ विश्व-संचालन : स्वाभाविक परिवर्तन सूक्ष्म परिवर्तन (अगुरु-लघु पर्याय) प्रतिक्षण होता है और सब द्रव्यों में होता है। स्थूल परिवर्तन (व्यंजन पर्याय) जीव और पुद्गल, इन दो ही द्रव्यों में होता है। वह पर-निमित्त से भी होता है और सहज भी होता है। असंख्यकाल के पश्चात् व्यंजन-पर्याय का निश्चित परिवर्तन होता है। सोने का परमाणु असंख्यकाल के पश्चात् सोने का नहीं रहता, वह दूसरे द्रव्य का प्रायोग्य बन जाता है। यह परिवर्तन ही विश्व-संचालन का बहुत बड़ा रहस्य है । सृष्टि के आरम्भ, विनाश और संचालन की व्यवस्था इसी स्वाभाविक परिवर्तन के सिद्धान्त पर आधारित है। अगुरु-लघु पर्याय (या अस्तित्व की क्षमता) की दृष्टि से विश्व अनादि-अनन्त है । व्यंजन-पर्याय की दृष्टि से विश्व सादि-सान्त है। स्वाभाविक परिवर्तन की दृष्टि से विश्व स्वयं संचालित है। प्रत्येक द्रव्य की संचालन-व्यवस्था उसके सहज स्वरूप में सन्निहित है। वैभाविक परिवर्तन की दृष्टि से विश्व जीव और पुद्गल के संयोग-वियोग से प्रजनित विविध परिणतियों द्वारा संचालित है। सापेक्षवाद : विश्व की व्याख्या विश्व की परिवर्तन और स्थायित्व की व्याख्या सापेक्षवाद इस प्रकार करता है। वैज्ञानिक निष्कर्षों के, आन्तरिक और बाह्य सीमाओं पर जो भी सूत्र प्राप्त हुए हैं, वे यह व्यक्त करते हैं कि ब्रह्माण्ड का निर्माण किसी निश्चितकाल में हुआ होगा। जिस अभिन्न हिसाब से यूरेनियम अपनी परमाणु-केन्द्रीय शक्ति को बिखेरता है (और चूंकि उसके निर्माण की किसी प्राकृतिक प्रणाली का पता नहीं चलता), उससे प्रकट होता है कि इस पृथ्वी पर जितना भी यूरेनियम है, सबका निर्माण एक निश्चित काल में हुआ होगा। भू-विज्ञानवेत्ताओं की गणना के अनुसार यह काल करीब बीस अरब वर्ष पूर्व रहा होगा। तारों के आन्तरिक भागों में दुर्धर्ष रूप से चलने वाली तापकेन्द्रीय प्रणालियां जिस तीव्रता से पदार्थ को प्रकाश-किरण में परिणत करती हैं, उससे अन्तरिक्ष-विज्ञानवेत्ता नक्षत्रीय जीवन का विश्वासपूर्वक हिसाब लगाने में समर्थ हैं। उनके हिसाब से अधिकांश दृश्य तारों की औसत आयु बीस अरब वर्ष है । इस प्रकार भू-विज्ञानवेत्ताओं और अन्तरिक्ष-विज्ञानवेत्ताओं के हिसाब ब्रह्माण्ड-वेत्ताओं के १. भगवती-सूत्र, ८/३५१ २. डॉ. आइन्स्टीन और ब्रह्माण्ड पृ० ११३-१४ 2010_03 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ जैन दर्शन और अनेकान्त हिसाब के बहुत अनुकूल ठहरते हैं, क्योंकि दौड़ती हुई ज्योतिर्मालाओं के प्रत्यक्ष वेग के आधार पर वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ब्रह्माण्ड का विस्तार-कार्य बीस अरब वर्ष पूर्व आरम्भ हुआ होगा। विज्ञान के अन्य क्षेत्रों में भी कुछ ऐसे लक्षण उपलब्ध हैं, जो इसी तथ्य को प्रकट करते हैं । अतएव ब्रह्माण्ड के अन्तत: विनाश की ओर इंगित करने वाले सारे प्रमाण काल पर आधारित उसके आरम्भ को भी निश्चयपूर्वक व्यक्त करते हैं। स्याद्वाद की भाषा यदि कोई एक अमर स्फुरणशील ब्रह्माण्ड (जिसमें सूरज, पृथ्वी और विशालकाय लाल तारे अपेक्षाकृत नवागन्तुक है) की कल्पना से सहमत हो जाएं तो भी आरंभिक उद्भव की समस्या शेष रह जाती है। इससे केवल उद्भवकाल असीम अतीत के गर्भ में चला जाता है, क्योंकि वैज्ञानिकों ने ज्योतिर्मालाओं, तारों, तारा-सम्बन्धी रजकणों, परमाणुओं और यहां तक कि परमाणु में निहित तत्त्वों के बारे में गणित की सहायता से जो भी लेखा-जोखा तैयार किया है, उसके हर सिद्धान्त की आधारभूत धारणा यह रही है कि कोई चीज पहले से विद्यमान अवश्य थी—चाहे वह उन्मुक्त न्यूट्रोन हो या शक्ति की राशि या केवल अगाध 'ब्रह्माण्डीय तत्त्व' जिससे आगे चलकर ब्रह्माण्ड ने यह रूप प्राप्त किया। स्याद्वाद की भाषा में विश्व के स्थायित्व और परिवर्तन (आरम्भ और विनाश, रूपान्तर या अर्थान्तर) को इस रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है: १. स्यात् नित्यं एव–एक दृष्टि से नित्य ही है। २. स्यात् अनित्यं एक-एक दृष्टि से अनित्य ही है। ३. स्यात् नित्यं स्यात् अनित्यं एक-युगपत् वस्तु नित्यानित्य ही है। द्रव्य केवल नित्य ..... केवल अनित्य.......... नित्यानित्य .......है। एक परमाणु विभिन्न अवस्थाओं से संक्रान्त होते हुए भी अन्तत: परमाणु ही है। वह अनन्त अवस्थाओं को और प्राप्त करके भी अन्तत: परमाणु ही रहेगा। यह नियम सभी द्रव्यों के लिए समान है। 2010_03 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद और जगत् / ४९ वाच्य और अवाच्य का नियम उपनिषद् का ब्रह्म न सत् है, न असत् है, किन्तु अवक्तव्य है। उसका स्वरूप बोधक वाक्य है-नेति-नेति । वह वाणी के व्यवहार से परे है। उपनिषदों में सकम्प-निष्कम्प, क्षर-अक्षर, सत्-असत्, अणु-महान आदि अनेक विरोधी युगल ब्रह्म में स्वीकृत हैं। इसलिए वह अवक्तव्य बन गया । वेदान्त का वाच्य है—नाम रूपात्मक जगत् । महात्मा बुद्ध ने१. लोक शाश्वत है। २. लोक अशाश्वत है। ३. लोक सान्त है। ४. लोक अनन्त है। ५. जीव और शरीर एक है। ६. जीव और शरीर भिन्न है। इन प्रश्नों को अव्याकृत कहा है। ऐकान्तिक शाश्वतवाद और ऐकान्तिक उच्छेदवाद उन्हें निर्दोष नहीं लगा, इसलिए वे नित्यानित्य की चर्चा में नहीं गए। उन्होंने इन प्रश्नों को अव्याकृत कहकर टाल दिया। उन्होंने जन्म-मरण आदि प्रत्यक्ष धर्मों को व्याकृत कहा। द्रव्य : वाच्य भी, अवाच्य भी भगवान् महावीर ने विरोधी धर्मों की अवहेलना भी नहीं की और उनकी सहस्थिति से विचलित भी नहीं हुए। वे विरोधी धर्मों की सहस्थिति से परिचित हुए, अत: उन्होंने किसी एक को वाच्य और किसी दूसरे को अवाच्य नहीं माना। उनकी नयदृष्टि के अनुसार विश्व का कोई भी द्रव्य सर्वथा वाच्य नहीं है और कोई द्रव्य सर्वथा अवाच्य नहीं है। प्रत्येक द्रव्य अनन्त विरोधी युगलों का पिण्ड है। उसके १.शेताश्वतर ४/१८ न सन्न चासत्। २. बहदारण्यक, ४/५/१५; स एष नेति नेति। ३. तैत्तिरीय २/४ यतो वाचो निवर्तन्ते। ४. कठोपनिषद् १/१२/२०; मुण्डकोपनिषद् २/२/१, श्वेताश्वतर १।८ ईशा०५ ५. मझिमनिकाय चूल मालुक्यसुत्त ६३ ६. वही, चूल मालुक्यसुत्त, ६३ ___ 2010_03 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० / जैन दर्शन और अनेकान्त सब धर्मों को कभी नहीं कहा जा सकता। एक काल में एक ही शब्द एक ही धर्म को व्यक्त करता है, इसलिए एक साथ अनन्त धर्मों का निरूपण नहीं किया जा सकता। इस नय-दृष्टि से द्रव्य अवाच्य भी है । प्रयोजनवश हम द्रव्य के किसी एक धर्म का निरूपण करते हैं, इस दृष्टि से वे वाच्य भी हैं । जब हम एक धर्म के द्वारा अनन्तधर्मात्मक द्रव्य का निरूपण करते हैं तब हमारी दृष्टि और हमारा वचन सापेक्ष बन जाते हैं। हम उस विवक्षित धर्म को अनन्तधर्मात्मक द्रव्य का प्रतीक मानकर एक के द्वारा सकल का निरूपण करते हैं । इस नियम को सकलादेश कहा जाता है। स्यात् शब्द इसी सकलादेश का सूचक है। जहां हमें एक धर्म के द्वारा समग्र धर्मों का निरूपण करना हो, वहां स्यात् शब्द का प्रयोग कर देना चाहिए। जैसे १. स्यात् अस्ति–यहां अस्ति धर्म के द्वारा समग्र धर्मी वाच्य है। २. स्यात नास्ति—यहां नास्ति धर्म के द्वारा समग्र धर्मी वाच्य है। द्रव्य में जिस क्षेत्र और जिस काल में अस्ति-धर्म होता है, उसी क्षेत्र और उसा काल में नास्ति-धर्म होता है, एक साथ वे दोनों कहे नहीं जा सकते, इसलिए हम कहते हैं ३. स्यात् अवक्तव्य-यहां अवक्तव्य पर्याय के द्वारा समग्र धर्मी वाच्य है। इसका तात्पर्यार्थ है-द्रव्य में अस्ति-नास्ति जैसे विरोधी धर्म युर.पत् हैं, पर उन्हें कहने के लिए हमारे पास कोई शब्द नहीं है । वे जिस रूप में हैं, उस रूप को युगपत् वाणी के द्वारा प्रकट करना शक्य नहीं है, इसलिए वे अवाच्य हैं। धर्मग्राही : धर्मीग्राही तीनों विकल्पों का निष्कर्ष यह है कि एक धर्म को समग्रधर्मी का प्रतीक मानकर हम द्रव्य का वर्णन करें तो वह वाच्य भी है और अनेक या समग्र धर्मों को हम एक साथ कहना चाहें तो वह अवाच्य भी है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु अपनी विचित्र परिस्थिति के कारण वाच्य और अवाच्य दोनों है। स्याद्वाद धर्मीग्राही है, इसलिए उसमें अवाच्य का पक्ष प्रधान है और वाच्य पक्ष गौण है। नयवाद धर्मग्राही है, इसीलिए उसमें वाच्य पक्ष प्रधान है और अवाच्य पक्ष गौण । इन्द्रियां : ज्ञान की सीमा हमारा ज्ञेय सत्य अनन्त हैं और वाच्य सत्य उसका अनन्तवां भाग है। हमारा १. 'पण्णवणिज्जाभावा, अणंत भागो उ अभिलपाणं' - विशेषावश्यक भाष्य, १४१ । 2010_03 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद और जगत् / ५१ घ्राण इन्द्रिय-ज्ञान सीमित है और हमारी भाषा की भी निश्चित सीमा है। प्रत्येक वस्तु अपने-आप में असीम है । ससीम के द्वारा असीम का दर्शन और निरूपण जो होता है, वह सापेक्ष ही होता है। धर्मी के एक धर्म के द्वारा जो आकलन व निरूपण होता है, वह अभेद-वृत्ति या अभेदोपचार से होता है। एक धर्म का आकलन या निरूपण स्वाभाविक सहज शक्ति से होता है। हमारी इन्द्रियां एक धर्मग्राही हैं। हमारा जो दृश्य-जगत् है, वह पौद्गलिक है। स्पर्श, रस, गंध और रूप-ये पुद्गल के गुण हैं और शब्द उसका कार्य है। हमारी पांचों इन्द्रियां क्रमश: इन्हें ग्रहण करती हैंस्पर्शन स्पर्श रसन रस गंध चक्षु श्रोत्र शब्द इन्द्रियां : वर्तमान का ज्ञान आम में स्पर्श आदि चारों गुण होते हैं। चारों इन्द्रियां उसे पृथक्-पृथक चार रूपों में ग्रहण करती हैं। स्पर्शन-इन्द्रिय के लिए वह एक स्पर्श है, रसन-इन्द्रिय के लिए वह एक रस है, घ्राण-इन्द्रिय के लिए वह एक गंध है, चक्षु-इन्द्रिय के लिए वह एक रूप है । इन्दियां ऋजु हैं, वे वर्तमान को जानती हैं, अतीत का चिन्तन और भविष्य की कल्पना उनमें नहीं होती। वे अपने-अपने विषय को जान लेती हैं, पर सब विषयों को मिलाकर जो एक वस्तु बनती है, उसे नहीं जान पातीं। स्पर्श, रस, गंध और रूप में भी अनन्त तारतम्य होता हैस्पर्श एकगुण संख्यातगुण असंख्यगुण अनन्तगुण रस गंध रूप नयवाद इन्द्रियां नहीं जान पातीं कि तारतम्य के आधार पर किस वस्तु को क्या कहना चाहिए। इसकी व्यवस्था मन करता है। वह इन्द्रियों के द्वारा गृहीत धर्मों को धर्मी के साथ संयुक्त कर देता है । चक्षु-इन्द्रिय के द्वारा केवल रूपधर्म का ग्रहण होता है। मन उस रूप-धर्म के द्वारा रूपी धर्मी का भी ग्रहण कर लेता है। हमारे ज्ञान का प्रथम 2010_03 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ / जैन दर्शन और अनेकान्त द्वार है इन्द्रिय और दूसरा द्वार है मन । हम सबसे पहले धर्म को जानते हैं, फिर धर्मी को। धर्म, धर्मी से वियुक्त नहीं है, इसलिए हमारी इन्द्रियां जब धर्म को जानती हैं, तब भी हमारा ज्ञान सापेक्ष होता है। क्योंकि धर्मी से पृथक् स्वतंत्र धर्म का कोई अस्तित्व नहीं है। धर्मी किसी एक धर्म के माध्यम से ही अपने को व्यक्त करता है, इसलिए हमारा धर्मी का ज्ञान भी सापेक्ष होता है । इन्द्रिय और मन में निरपेक्ष ज्ञान करने की क्षमता नहीं है, अर्थात् धर्मी से वियुक्त धर्म को तथा धर्म के माध्यम के बिना धर्मी को जानने की क्षमता नहीं है । धर्म-धर्मी के इस सापेक्ष ज्ञान को 'नय-वाद' या विकलादेश कहा जाता है। जितने धर्म हैं, उतने ही वचन-प्रकार हैं। जितने वचन-प्रकार हैं, उतने ही नयवाद हैं।' द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक द्रव्य की दो प्रधान अवस्थाएं हैं—अन्वय और परिवर्तन । परिवर्तन का क होता है और अन्वय उन क्रमिक अवस्थाओं की अटूट कड़ी होती है । तरंग एक क्रम है, जल उसमें सर्वत्र व्याप्त है। जल से तरंग को और तरंग से जल को पृथक नहीं किया जा सकता। जल और तरंग दोनों भिन्न अवस्थाएं हैं, उन्हें एक भी नहीं माना जा सकता। फिर भी हम कहीं-कहीं अन्वयी की उपेक्षा कर केवल अन्वय का प्रतिपादन करते हैं और कहीं-कहीं अन्वय की उपेक्षा कर अन्वयी का प्रतिपादन करते हैं। यह एकान्तवाद है पर यहां उपेक्षा का अर्थ निराकरण नहीं है, इसलिए यह निरपेक्ष एकान्तवाद नहीं है। अन्वयी के प्रतिपादन में अन्वय और अन्वय के प्रतिपादन में अन्वयी स्वयं-गम्य है। कभी हमारा दृष्टिकोण अन्वय-प्रधान (द्रव्यार्थिक) होता है और कभी परिवर्तन-प्रधान (पर्यायार्थिक) होता है। सच तो यह है कि हमारे जितने एकांगी दृष्टिकोण हैं, वे सब परिवर्तन-प्रधान हैं। फिर भी जब हम अन्वय का स्पर्श करते हुए परिवर्तन की व्याख्या करते हैं, तब हमारा दृष्टिकोण अन्वय-प्रधान बन जाता है और जब हम अन्वय का स्पर्श किए बिना केवल परिवर्तन की व्याख्या करते हैं तब हमारा दृष्टिकोण परिवर्तन-प्रधान बन जाता है। नैगम अन्वय सब कालों व स्थितियों में सामान्य होता है, इसलिए वह अभेद है। १. 'जावइयां वयण पहा, तावइया चेव होति णयवाया।'-सन्मति-प्रकरण, ३/४७ । 2010_03 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद और जगत् / ५३ परिवर्तन विलक्षण होता है, इसलिए वह भेद है। केवल अभेदात्मक या केवल भेदात्मक दृष्टिकोण से विश्व की व्याख्या नहीं की जा सकती। उसकी व्याख्या अभेद को गौण व भेद को प्रधान अथवा भेद को गौण व अभेद को प्रधान मानकर की जा सकती है। इस प्रणाली को नैगम नय कहा जाता है। संग्रह विश्व में अनेक धर्म ऐसे हैं, जो विलक्षण हैं, पर विलक्षणता में भी अस्तित्व या सत्ता ऐसा धर्म है, जो सबको एक साथ टिकाए और स्वरूप प्रदान किए हुए है। जब हम अस्तित्व-धर्म की दृष्टि से विश्व की व्याख्या करते हैं, तब समूचा विश्व हमारे लिए एक हो जाता है। विश्व के केन्द्र में सत्ता है । वह एक और अखंड है। वेदान्त चेतन को केन्द्र में मानकर विश्व को एक मानता है और संग्रह-दृष्टि सत्ता को केन्द्र में मानकर विश्व को एक मानती है। वह भी सापेक्ष दृष्टि है, अर्थात् सत्ता की अपेक्षा विश्व एक है। सब धर्मों की अपेक्षा अद्वैत वेदान्त का ब्रह्म भी नहीं है और सब धर्मों की अपेक्षा अद्वैतवाद का विश्व भी नहीं है। परम संग्रह या परम एकत्व की दृष्टि में अस्तित्व के अतिरिक्त और कोई प्रश्न ही नहीं होता। वहां एक ही तत्त्व होता है—जो सत् है, वह सत्य है और जो सत्य है, वह सत् है । अद्वैत-प्रणाली को संग्रह-नय कहा जाता है। व्यवहार आकाश सर्वत्र व्याप्त है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय असंख्य योजन तक आकाश से सहवर्ती हैं। आकाश, धर्म, अधर्म और जीव-ये चारों अमूर्त हैं, इसलिए वे अन्योन्य-प्रविष्ट रह सकते हैं । पुद्गल मूर्त है । अमूर्त और मूर्त में एकावगाह का विरोध नहीं है, इसलिए वे सभी एक साथ रह सकते हैं। सहज ही जिज्ञासा होती है-पांचों एकावगाह हो सकते हैं, तब उन्हें पृथक् क्यों माना जाए? इसका समाधान उनके विलक्षण स्वभाव के आधार पर ही किया जा सकता है। वे एक साथ रहते हुए भी अपने विलक्षण स्वभाव का परित्याग नहीं करते', इसलिए सत्ता व एकावगाह की दृष्टि से अपृथक् होते हुए भी वे विलक्षण स्वभाव परिणाम की दृष्टि से पृथक् हो १. अण्णोणं पविसंता, दिता ओगास मण्ण मण्णस्स। मेलंता विय निच्चं, समं, सभावं ण विजहंति ॥' -पंचास्तिकाय ७५ । 2010_03 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ / जैन दर्शन और अनेकान्त 1 जाते हैं । विश्व के इस पृथकत्व की व्याख्या पद्धति को 'व्यवहार- नय' कहा जाता है जब विश्व की व्याख्या समस्यामान दृष्टि से की जाती है, तब वह अद्वैत का रूप लेता है और जब उसकी व्याख्या विविच्यमान दृष्टि से की जाती है, तब वह द्वैत का रूप लेता है। अद्वैत और द्वैत—दोनों एक ही विश्व के दो पहलू हैं।' अद्वैत की सर्वथा अवहेलना कर द्वैत तथा द्वैत की सर्वथा अवहेलना कर अद्वैत की व्याख्या नहीं की जा सकती । जब हम केन्द्रोन्मुखी दृष्टि से देखते हैं, तब हम द्वैत से अद्वैत की ओर बढ़ते हैं । जब हम परिणामोन्मुखी व विकेन्द्रीकरण की दृष्टि से देखते हैं तब हम अद्वैत से द्वैत की ओर बढ़ते हैं। हमारा विकेन्द्रित दशा का चरम बिन्दु केन्द्र-लक्षी है और केन्द्रित दशा का चरम बिन्दु विकेन्द्र-लक्षी है— 1 ०००० पर्याय ० ०००० धर्म प्रदेश अधर्म सत्ता I द्रव्य 2010_03 जीव प्रदेश प्रदेश आकाश प्रदेश १. जैनसिद्धान्तदीपिका (प्रथम संस्करण), प्रकाश १, सूत्र ४१-४३ । गुण००००० पुद्गल परमाणु ० ० O ०० Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याबाद और जगत् / ५५ गुणात्मक जगत् गुण सामान्य ०००००० + ०००००० ०००००० विशेष ++++++ जीव +++++ पुद्गल धर्म ++ अधर्म + + + आकाश + + + + ०००००० ०००००० + + अद्वैत या द्रव्यात्मक जगत् हमारे लिए प्रत्यक्ष नहीं है, परिणाम हमारे प्रत्यक्ष होते हैं। हमारा अधिकांश समय परिणामात्मक जगत् में बीतता है। इस जगत् की रचना बहुत ऋजु है। इसमें सब कुछ वर्तमान है । भूत और भाली के लिए कोई स्थान नहीं है। भूत बीत जाता है, भावी अनागत होता है, इसलिए वे कार्यकर नहीं होते। वर्तमान अर्थ-क्रिया सम्पन्न है, इसलिए वह वस्तु-स्थिति है । यह परिवर्तन का सिद्धान्त है। यह अन्वय की व्याख्या नहीं दे सकता। इस पद्धति को 'ऋजुसूत्र-नय' कहा जाता परिणामात्मक जगत् पूर्ववर्ती तीन दृष्टिकोण द्रव्याश्रित परिणामों की व्याख्या देते हैं और प्रस्तुत दृष्टिकोण केवल परिणामों की व्याख्या देता है। द्रव्य दृष्टिगामी होता है और पर्याय दृष्टिद्वैतगामी । द्रव्य अद्वैत-अविच्छिन्न होता है और पर्याय विच्छिन्न होता है। विच्छेद के हेतु तीन गुण हैं—वस्तु, देश और काल । अविच्छेद और विच्छेदनय की अपेक्षा से तीन-तीन रूप बनते हैं वस्तुकृत अविच्छिन्न वस्तुकृत विच्छिन्न एक अनेक देशकृत अविच्छिन्न देशकृत विच्छिन्न ___ 2010_03 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ / जैन दर्शन और अनेकान्त अभिन्न कालकृत अविच्छिन्न अभिन्न कालकृत विच्छिन्न नित्य अनित्य द्रव्य-दृष्टि से विश्व अनेक है, अभिन्न है और नित्य है। पर्याय-दृष्टि से विश्व अनेक है, भिन्न है और अनित्य है। निरपेक्ष रहकर दोनों दृष्टियां सत्य नहीं हैं। ये सापेक्ष रहकर ही पूर्ण सत्य की व्याख्या कर सकती हैं। सत्य की मीमांसा सत्य की शोध अनादिकाल से चल रही है, किन्तु सत्य के अनन्त रूप हैं। मनुष्य अपनी दो आंखों से देखकर उसके एक रूप की व्याख्या करता है, इतने में वह अपना रूप परिवर्तन कर लेता है । वह उसके दूसरे रूप की व्याख्या का यत्न करता है, इतने में उसका तीसरा रूप प्रकट हो जाता है। इस दौड़ में मनुष्य थक जाता है, उसका रूप-परिवर्तन का क्रम चलता रहता है । इस प्रक्रिया में सापेक्षता ही मनुष्य को आलम्बन दे सकती है । जो एक रूप को पकड़ शेष सब रूपों से निरपेक्ष होकर उसकी व्याख्या करता है, वह उसका अगं-भंग कर डालता है। __चार्वाक् के अभिमत में इन्द्रिय-गम्य ही सत्य है, उपनिषदों के अनुसार अतीन्द्रिय (या प्रज्ञागम्य) ही सत्य है । जो दृश्यमान है, वह शब्द-मात्र, विकार-मात्र या नाम-मात्र है।' शंकराचार्य के अनुसार जो जिस रूप में निश्चित है, यदि वह उस रूप का व्यभिचारी न हो, तो वह सत्य है । जो जिस रूप में निश्चित है, यदि वह उस रूप का व्यभिचारी बनता है, तो वह अनृत है। विकार इसीलिए अनृत है कि वह निश्चित रूप का व्यभिचारी है। बौद्धों के अनुसार भेद ही सत्य है । वे वेदान्त की भांति अभेद को सत्य नहीं मानते और चार्वाक् की भांति इन्द्रिय-गम्य को भी सत्य नहीं मानते। अतीन्द्रिय भी उसकी दृष्टि में सत्य है। महात्मा बुद्ध की यह एक शिक्षा १. 'वाचारम्भगं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्।' २. तैत्तिरीय उपनिषद् २/१; शांकर भाष्य, पृ. १०३। -छान्दोग्य उपनिषद् ९/१/४। 2010_03 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और जगत् / ५७ थी-जीव-प्रवाह को इसी शरीर तक परिमित न मानना—अन्यथा जीवन और उसकी विचित्रताएं कार्य-कारण से उत्पन्न न होकर, केवल आकस्मिक घटनाएं रह जाएंगी।' विज्ञान सत्य की व्याख्या वैज्ञानिक जगत् में सत्य की व्याख्या व्यवहाराश्रित है। उसके अनुसार-एक यत्र प्रकाश को कणों से निर्मित रूप में व्यक्त करता है और दूसरा उसके तरंगों से निर्मित होने की बात बतलाता है । तो उसे उन दोनों का परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि परस्पर-पूरक स्वीकार करना चाहिए। अलग-अलग इन दोनों में से कोई भी प्रकाश की व्याख्या करने में असमर्थ है, पर साथ मिलकर वे ऐसा करने में समर्थ हो जाते हैं। सत्य की व्याख्या करने के लिए दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं और यह प्रश्न निरर्थक है कि इन दोनों में से कौन वस्तुत: सत्य है । प्रमाता भौतिक विज्ञान के भाववाचक कोश में वस्तुत: नामक कोई शब्द नहीं है। निश्चय सत्य : व्यवहार सत्य ___ आचार्य शंकर के शब्दों में यह लोक व्यवहार सत्य और अनृत का मिथुनीकरण है । ब्रह्म सत्य है, प्रपंच मिथ्या है । 'सत्यानृते मिथुनीकृत्य नैसर्गिकोऽयं लोकव्यवहारः।' स्याद्वाद की भाषा में लोक व्यवहार भी दो सत्यों का मिथुनीकरण है । उसके अनुसार के .. और प्रपंच (द्रव्य और परिणाम या विस्तार) दोनों सत्य हैं । एक वस्तु-सत्य या निश्चय-सत्य है, दूसरा व्यवहार-सत्य या पर्याय-सत्य है। निश्चय-नय पारमार्थिक भूतार्थ, अलौकिक, शुद्ध और सूक्ष्म है । व्यवहार-नय अपारमार्थिक, अभूतार्थ, लौकिक, अशुद्ध और स्थूल है। निश्चय-नय तत्त्वार्थ की व्याख्या करता है और व्यवहार-नय लौकिक सत्य या स्थूल पर्याय की व्याख्या करता है। आचार्य कुन्दकुन्द के अभिमत में निश्चय-नय की दृष्टि से परमाणु ही पुद्गल है, व्यवहार-नय की दृष्टि से स्कन्ध भी पुद्गल है। परमाणु के गुण स्वाभाविक और स्कन्ध के गुण वैभाविक होते हैं। परमाणु में स्वभाव-पर्याय (अन्य-निरपेक्ष परिणमन) और स्कन्ध में विभाव-पर्याय (पर-सापेक्ष परिणमन) होते हैं। - १. मझिमनिकाय भूमिका। २. द्रव्यानुयोगतर्कणा, ८/२३ । ३. नियमसार, २९। ४. वहीं, २७-२८ । ___ 2010_03 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ / जैन दर्शन और अनेकान्त यति भोज के शब्दों में- बाह्य के आन्तरिक रूप, बहुत व्यक्तियों के अभेद तथा द्रव्य- -नैर्मल्य ( पर - निरपेक्ष परिणमन) — द्रव्य के इस पारमार्थिक रूप की व्याख्या का दृष्टिकोण निश्चय नय है । यह मूल-स्पर्शी है, वस्तु सत्य को प्रकट करने वाला है। व्यक्तियों के भेद, व्यक्त पर्याय और कार्य-कारण एकत्व - द्रव्य के इस अपारमार्थिक रूप की व्याख्या का दृष्टिकोण व्यवहार नय है । यह परिणामस्पर्शी है । स्थूल सत्य को प्रकट करने वाला है ।' दोनों सापेक्ष हैं भगवान् से पूछा गया—' भगवन् ! प्रवाही गुण के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श कितने होते हैं ? भगवान् ने कहा - 'गौतम ! इसकी व्याख्या मैं दो दृष्टिकोणों से करता हूं१. व्यवहार-दृष्टि से, वह मधुर है।' २. निश्चय-दृष्टि से, वह पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ स्पर्श से युक्त हैं ।' इसी प्रकार भ्रमर के बारे में पूछा गया तो भगवान् ने कहा — व्यवहार- दृष्टि से वह काला है, निश्चय-दृष्टि से वह पांच वर्ण यावत् आठ स्पर्श से उपेत है । I व्यवहार दृष्टि से सत्-पर्याय सत्य होता है और निश्चय दृष्टि से सत्-पर्याय व अनन्त असत्-पर्यायों से युक्त द्रव्य सत्य होता है । निश्चय - दृष्टिकोण का प्रतिपाद्य सत्य निरपेक्ष और व्यवहार- दृष्टि का प्रतिपाद्य सत्य सापेक्ष होता है, किन्तु निरपेक्ष दृष्टि के बिना विश्व के केन्द्र तथा सापेक्ष दृष्टिकोण के बिना उसके विस्तार की व्याख्या नहीं की जा सकती, इसलिए निरपेक्ष और सापेक्ष सत्य जैसे परस्पर-सापेक्ष हैं, वैसे ही उनके प्रतिपादक निरपेक्ष और सापेक्ष दृष्टिकोण भी परस्पर - सापेक्ष हैं । स्याद्वाद की यही मर्यादा है। १. द्रव्यानुयोगतर्कणा, ८ / २४ । २. वही, ८ / २५ । ३. भगवती सूत्र, १८ / १०७ - १०८ । 2010_03 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार की आधारभित्ति : नयवाद उभयग्राही दृष्टि विचार निरालंब नहीं होता। उसके तीन आलंबन होते हैं—ज्ञान, अर्थ और शब्द । संकल्प प्रधान विचार ज्ञान के आलंबन से होता है, इसलिए उसे 'ज्ञानाश्रयी विचार' कहते हैं। अर्थ के आधार पर होने वाला विचार 'अर्थाश्रयी' कहलाता है। नैगमनय ज्ञानाश्रयी और अर्थाश्रयी-दोनों हैं। __तादात्मय की अपेक्षा से ही सामान्य-विशेष की भिन्नता का समर्थन किया जाता है । यह दृष्टि नैगमनय है। यह उबयग्राही दृष्टि है । सामान्य और विशेष दोनों इसके विषय हैं। इससे सामान्य विशेषात्मक वस्तु के एक देश का बोध होता है। सामान्य और विशेष स्वतन्त्र पदार्थ हैं---इस कणाददृष्टि को जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता। सामान्य रहित विशेष और विशेष रहित सामान्य की कहीं भी प्रतीति नहीं होती। ये में पदार्थ के धर्म हैं। एक पदार्थ की दूसरे पदार्थ, देश और काल में जो अनुवृत्ति होती है वह सामान्य अंश है और जो व्यावृत्ति होती है, वह विशेष अंश। केवल अनुवृत्ति रूप या केवल व्यावृत्ति रूप कोई पदार्थ नहीं होता। जिस पदार्थ की जिस समय दूसरों से अनुवृत्ति मिलती है, उसकी उसी समय दूसरों से व्यावृत्ति भी मिलती नैगमनय प्रमाण नहीं है सामान्य विशेषात्मक पदार्थों का ज्ञान प्रमाण से हो सकता है। अखण्ड वस्तु प्रमाण का विषय है। नय का विषय उसका एकांश है। नैगमनय बोध कराने के अनेक मार्गों को स्पर्श करने वाला है, फिर भी वह प्रमाण नहीं है। प्रमाण में सब धर्मों को मुख्य स्थान मिलता है। यहां सामान्य के मुख्य होने पर विशेष गौण रहेगा और विशेष के मुख्य बनने पर सामान्य गौण । दोनों को यथास्थान मुख्यता और गौणता मिलती है । संग्रहनय केवल सामान्य अंश का ग्रहण करता है और व्यवहारनय केवल विशेष अंश का। नैगमनय दोनों (सामान्य और विशेष) की एकाश्रयता का ___ 2010_03 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० / जैन दर्शन और अनेकान्त साधक है। प्रमाण की दृष्टि से द्रव्य और पर्याय में कथंचित् अभेद है । उससे भेदाभेद का युगपत् ग्रहण होता है । नैगमनय के अनुसार द्रव्य और पर्याय का सम- स्थिति में युगपत् ग्रहण नहीं होता । अभेद का ग्रहण भेद को गौण बना डालता है और भेद का ग्रहण अभेद को । मुख्य प्ररूपणा एक की होगी। प्रमाता जिसे चाहेगा उसकी होगी । आनन्द चेतना का धर्म है | चेतना आनन्द है— इस विवक्षा में आनन्द मुख्य बनता है, जो कि भेद है— चेतना की ही एक विशेष अवस्था है। आनन्दी जीवन की बात छोड़िए- इस विवक्षा में जीव मुख्य ै, जो अभेद है - आनन्द जैसी अनंत सूक्ष्म- स्थूल विशेष अवस्थाओं का अधिकरण है । I नैगमनय का अभिप्राय नैगमनय भावों की अभिव्यंजना का व्यापक स्रोत है । 'आनंद छा रहा है - यह ऋजुसूत्र नय का अभिप्राय है । इससे केवल धर्म या भेद की अभिव्यक्ति होती है । 'आनंद कहां !' – यह उससे व्यक्त नहीं होता । 'द्रव्य एक है' - यह संग्रहनय का अभिप्राय है । किन्तु 'द्रव्य में क्या है ? ' - यह नहीं जाना जाता । आनंद चेतना में होता है और उसका अधिकरण चेतना ही है, यह दोनों के संबंध की अभिव्यक्ति है । यह नैगमनय का अभिप्राय है । इस प्रकार गुण- गुणी, अवयव अवयवी, क्रिया- कारण, जाति-जातिमान् आदि में जो भेदाभेद-सम्बन्ध होता है, उसकी व्यंजना इस दृष्टि से होती है । पराक्रम और पराक्रमी को सर्वथा एक माना जाए तो वे दो वस्तु नहीं हो सकते। यदि उन्हें सर्वथा भिन्न माना जाए तो उनमें कोई संबंध नहीं रहता । वे दो हैं - यह भी प्रतीति-सिद्ध है । उनमें सम्बन्ध है - यह भी प्रतीति-सिद्ध है । किन्तु हम दोनों को शब्दाश्रयी ज्ञान द्वारा एक साथ जान सकें या कह सकें यह प्रतीति सिद्ध नहीं, इसलिए नैगमदृष्टि है, जो अमुक धर्म के साथ अमुक धर्म का सम्बन्ध बताकर यथासमय एक-दूसरे की मुख्य स्थिति को ग्रहण कर सकती है। 'पराक्रमी हनुमान' इस वर्णन शैली में हनुमान की मुख्यता होगी। हनुमान के पराक्रम का वर्णन करते समय उसकी (पराक्रम की) मुख्यता अपने आप हो जाएगी। वर्णन की यह सहज शैली ही इस दृष्टि का आधार है । I लोक व्यवहार : संकल्प की सत्यता इसका दूसरा आधार लोक व्यवहार है। लोक-व्यवहार में शब्दों के कितने और 2010_03 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार की आधारभत्ति : नयवाद / ६१ कैसे अर्थ माने जाते हैं, उन सबको यह दृष्टि मान्य करती है। इसका तीसरा आधार संकल्प है। संकल्प की सत्यता नैगम दृष्टि पर निर्भर है। भूत को वर्तमान मानना-जो कार्य हो चुका, उसे हो रहा है ऐसा मानना सत्य नहीं है। किन्तु संकल्प या आरोप की दृष्टि से सत्य हो सकता है। इसके तीन रूप बनते हैं१. भूत पर्याय का वर्तमान पर्याय के रूप में स्वीकार (अतीत में वर्तमान का संकल्प)-भूत नैगम है। २. अपूर्ण वर्तमान का पूर्ण वर्तमान के रूप में स्वीकार (अनिष्पन्नक्रिय वर्तमान में निष्पन्नक्रिय वर्तमान का संकल्प)-वर्तमान नैगम है। ३. भविष्य पर्याय का भूत पर्याय के रूप में स्वीकार (भविष्य में भूत का ___ संकल्प)-भावी नैगम है। जन्मदिन मनाने की सत्यता भूत नैगम की दृष्टि से है । रोटी पकानी शुरू की है। किसी ने पूछा-आज क्या पकाया है ! उत्तर मिलता है-'रोटी पकायी है।' रोटी पकी नहीं है, पक रही है, फिर भी वर्तमान नैगम की अपेक्षा 'पकाई है' ऐसा कहना सत्य है। नैगमनय : भेद और कार्य क्षमता और योग्यता की अपेक्षा अकवि को कवि, अविद्वान् को विद्वान् कहा जाता है। यह तभी सत्य होता है जब भावी का भूत में उपचार है । इस अपेक्षा को न भूलें। नैगम के तीन भेद होते हैं १. द्रव्य नैगम। २. पर्याय नैगम। ३. द्रव्य पर्याय नैगम। इसके कार्य का क्रम यह है १. दो वस्तुओं का ग्रहण। २. दो अवस्थाओं का ग्रहण। ३. एक वस्तु और एक अवस्था का ग्रहण । अनेकान्त दृष्टि का प्रतीक नैगमनय जैन दर्शन की अनेकान्त दृष्टि का प्रतीक है। जैन दर्शन के अनुसार 2010_03 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ / जैन दर्शन और अनेकान्त नानात्व और एकत्व—दोनों सत्य है । एकत्व निरपेक्ष नानात्व और नानात्व निरपेक्ष एकत्व—ये दोनों मिथ्या है । एकत्व आपेक्षिक सत्य है । ‘गोत्व' की अपेक्षा से सब गायों में एकत्व है। पशुत्व की अपेक्षा से गायों और अन्य पशुओं में एकत्व है। जीवत्व की अपेक्षा से पशु और अन्य जीवों में एकत्व है। द्रव्यत्व की अपेक्षा से जीव और अजीव में एकत्व है। अस्तित्व की अपेक्षा से समूचा विश्व एक है। आपेक्षिक सत्य से हम वास्तविक सत्य की ओर जाते हैं, तब हमारा दृष्टिकोण भेदात्मक बन जाता है। नानात्व वास्तविक सत्य है। जहां अस्तित्व की अपेक्षा है, वहां विश्व एक है। किन्तु चैतन्य और अचैतन्य, जो अत्यन्त विरोधी धर्म है, की अपेक्षा से विश्व एक नहीं है। उसके दो रूप हैं—चेतन जगत् और अचेतन जगत् । चैतन्य की अपेक्षा चेतन जगत् एक है किन्तु स्वस्थ चैतन्य की अपेक्षा चेतन एक नहीं है। वे अनन्त हैं। चेतन का वास्तविक रूप चेतन का वास्तविक रूप है—स्वात्म-प्रतिष्ठान । प्रत्येक पदार्थ का शुद्ध रूप यही स्व-प्रतिष्ठान है। वास्तविक रूप भी निरपेक्ष सत्य नहीं है । स्व में या व्यक्ति में चैतन्य की पूर्णता है । वह एक व्यक्ति-चेतन अपने समान अन्य चेतन व्यक्तियों से सर्वथा भिन्न नहीं होता, इसलिए उनमें सजातीयता या सापेक्षता है। चेतन और अचेतन में भी सर्वथा भेद ही नहीं, अभेद भी है । भेद है वह चैतन्य और अचैतन्य की अपेक्षा से है । द्रव्यत्व, वस्तुत्व, अस्तित्व परस्परानुगमत्व आदि-आदि असंख्य अपेक्षाओं से उनमें अभेद है। दूसरी दृष्टि से उनमें सर्वथा अभेद भी नहीं, भेद भी है। अभेद अस्तित्व आदि की अपेक्षा से है, चैतन्य की अपेक्षा से भेद भी है। उनमें स्वरूप-भेद है, इसलिए दोनों की अर्थक्रिया भिन्न होती है। उनमें अभेद भी है, इसलिए दोनों में ज्ञेय-ज्ञायक, ग्राह्य-ग्राहक आदि-आदि सम्बन्ध हैं। ___ संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र-ये तीनों अर्थाश्रयी विचार हैं। ये अर्थ के भेद और अभेद की मीमांसा करने वाले दृष्टिकोण हैं। संग्रह और व्यवहार ___अभेद और भेद में तादात्म्य संबंध है। संबंध दो से होता है। केवल अभेद या केवल भेद से कोई संबंध नहीं हो सकता। अभेद के दो रूप बनते हैं—शुद्ध और अशुद्ध । जहां केवल अस्तित्व का बोध होता है, उसके अतिरिक्त और कुछ 2010_03 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार की आधारभत्ति : नयवाद / ६३ नहीं होता, वह अभेद का शुद्ध रूप है। इसे निर्विकल्प महासत्ता कहा जाता है। जहां जाति या समुदाय का बोध होता है, वह अभेद का अशुद्ध रूप है । इसमें अभेद और भेद—दोनों मिश्रित हैं। 'मनुष्य जाति' में मनुष्यत्व भिन्न है, किन्तु शेष जातियों से वह भिन्न है, इसलिए उसे 'अवान्तर सामान्य' कहा जाता है। भेद के भी दो रूप बनते हैं—शुद्ध भेद और अशुद्ध भेद । पदार्थ का वह अवयव जिसके दो भाग न किए जा सकें, शुद्ध भेद है। इसे 'अन्त्य-विशेष' कहां जाता है । मध्यवर्ती सारे भेद या खंड अशुद्ध भेद हैं। वे 'अवान्तर विशेष' कहलाते ऋजुसूत्र इस नय के अनुसार क्रियाकाल और निष्ठाकाल का आधार एक द्रव्य नहीं हो सकता। साध्य-अवस्था और साधन-अवस्था का काल भिन्न होगा। तब भिन्न काल का आधारभूत द्रव्य अपने आप भिन्न होगा। दो अवस्थाएं समन्वित नहीं होती। भिन्न अवस्थावाचक पदार्थों का समन्वय नहीं होता। इस प्रकार यह पौर्वापर्य, कार्यकारण आदि अवस्थाओं की स्वतंत्र सत्ता का समर्थन करने वाली दृष्टि है। शब्दाश्रयी नय अर्थायी नय में अर्थ मुख्य होता है, शब्द गौण । शब्दायी नय में शब्द के अनुसार अर्थ का बोध होता है, इसलिए वहां शब्द मुख्य होता है, अर्थ गौण। शब्दायी नय तीन है-शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत। शब्दनय शब्दनय भिन्न-भिन्न लिंग, वचन आदि युक्त शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ स्वीकार करता है। यह शब्दरूप और उसके अर्थ का नियामक है । व्याकरण के लिंग, वचन आदि की अनियामकता को यह प्रमाणित नहीं करता। इसका अभिप्राय यह है १. पुल्लिंग का वाच्य अर्थ स्त्रीलिंग का वाच्य नहीं बन सकता । पहाड़ का जो अर्थ है वह 'पहाड़ी' शब्द व्यक्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार स्त्रीलिंग का वाच्य अर्थ पुल्लिंग का वाच्य नहीं बनता । 'नदी' के लिए 'नद' शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता। फलित यह है-जहां शब्द का लिंग-भेद होता है, वहां अर्थ-भेद होता २. एक वचन का जो वाच्य अर्थ है, वह बहुवचन का वाच्यार्थ नहीं होता। ___ 2010_03 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ / जैन दर्शन और अनेकान्त बहुवचन का वाच्य-अर्थ एकवचन का वाच्यार्थ नहीं बनता है । 'मनुष्य है' और 'मनुष्य है'-ये दोनों एक ही अर्थ के वाचक नहीं बनते । एकत्व की अवस्था बहुत्व की अवस्था से भिन्न है। इस प्रकार काल, कारक, रूप का भेद अर्थभेद का प्रयोजक बनता है। ____ यह दृष्टि शब्द-प्रयोग के पीछे छिपे हुए इतिहास को जानने में बड़ी सहायक है। संकेत-काल में शब्द, लिंग आदि की रचना प्रयोजन के अनुरूप बनती है। वह रूढ़ जैसी बाद में होती है । सामान्यत: हम ‘स्तुति' और 'स्तोत्र' का प्रयोग एकार्थक करते हैं किन्तु वस्तुत: ये एकार्थक नहीं हैं। एकश्लोकात्मक भक्तिकाव्य ‘स्तुति' और बहुश्लोकात्मक-भक्तिकाव्य ‘स्तोत्र' कहलाता है। 'पुत्र' और 'पुत्री' के पीछे जो लिंग-भेद की, 'तुम' और 'आपके' पीछे जो वचन-भेद की भावना है, वह शब्द के लिंग और वचन-भेद द्वारा व्यक्त होती है। शब्दनय शब्द के लिंग, वचन आदि के द्वारा व्यक्त होने वाली अवस्था को ही तात्त्विक मानता है। एक ही व्यक्ति को स्थायी मानकर कभी 'तुम' और कभी 'आप' शब्द से संबोधित किया जा सकता है। किन्तु नय उन दोनों को एक ही व्यक्ति स्वीकार नहीं करता। 'तुम' का वाच्य व्यक्ति लघु या प्रेमी है, जबकि 'आप' का वाच्य 'गुरु' या सामान्य है। समभिरूढ़ ___एक वस्तु का दूसरी वस्तु में संक्रमण नहीं होता। प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप में निष्ठ होती है। स्थूल दृष्टि से हम अनेक वस्तुओं के मिग या सहस्थिति को एक वस्तु मान लेते हैं किन्तु ऐसी स्थिति में भी प्रत्येक वस्तु अपने-अपने स्वरूप में होती है। जैन धर्म की भाषा में अनेक वर्गणाएं और विज्ञान की भाषा में अनेक गैसें आकाश-मण्डल में व्याप्त हैं। किन्तु एक साथ व्याप्त रहने पर भी वे अपने-अपने स्वरूप में हैं । समभिरूढ़ का अभिप्राय यह है कि जो वस्तु जहां आरूढ़ है, उसका वहीं प्रयोग करना चाहिए। यह दृष्टि वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए बहुत उपयोगी है। स्थूलदृष्टि में घट, कुट, कुम्भ का अर्थ एक है। समभिरूढ़ इसे स्वीकार नहीं करता। इसके अनुसार 'घट' शब्द का ही अर्थ घट वस्तु है । कुट शब्द का अर्थ घट वस्तु - १. स्तुतिश्चैकश्लोकप्रमाणा स्तोत्रं तु बहुश्लोकमानम्। 2010_03 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार की आधारत्ति : नयवाद / ६५ नहीं, घट का कुट में संक्रमण अवस्तु है । 'घट' वह वस्तु है, जो माथे पर रखा जाए। कहीं बड़ा, कहीं चौड़ा और कहीं संकरा, इस प्रकार जो कुटिल आकार वाला है, वह 'क्रुट' है । माथे पर रखी जाने योग्य अवस्था और कुटिल आकृति की अवस्था एक नहीं है । इसलिए दोनों को एक शब्द का अर्थ मानना भूल है । अर्थ की अवस्था के अनुरूप शब्द प्रयोग और शब्द प्रयोग के अनुरूप अर्थ का बोध हो, तभी सही व्यवस्था हो सकती है । अर्थ की शब्द के प्रति और शब्द की अर्थ के प्रति नियामकता न होने पर वस्तु-सांकर्य हो जाएगा। फिर कपड़े का अर्थ घड़ा और घड़े का अर्थ कपड़ा न समझने के लिए नियम क्या होगा? कपड़े का अर्थ जैसे तंतु समुदाय है, वैसे ही मृण्मय पात्र भी हो जाए और सब कुछ हो जाए तो शब्दानुसारी प्रवृत्ति-निवृत्ति का लोप हो जाता है, इसलिए शब्दों को अपने वाच्य के प्रति सच्चा होना चाहिए। घट अपने अर्थ के प्रति सच्चा रह सकता है, पट या कुट के अर्थ के प्रति नहीं। यह नियामकता या सच्चाई ही इसकी मौलिकता है। एवंभूत समभिरूढ़ में फिर भी स्थितिपालकता है। वह अतीत और भविष्य की क्रिया को भी शब्द-प्रयोग का निमित्त मानता है। यह नय अतीत और भविष्य की क्रिया से शब्द और अर्थ के प्रति नियम को स्वीकार नहीं करता। सिर पर रखा जाएगा रखा गया इसलिए वह घट है। यह नियम क्रियाशून्य है । घट वह है जो माथे पर रखा हुआ है । इसके अनुसार शब्द अर्थ की वर्तमान चेष्टा का प्रतिबिम्ब होना चाहिए। यह शब्द को अर्थ का और अर्थ को शब्द का नियामक मानता है। घट शब्द का वाच्य अर्थ वही है, जो पानी लाने के लिए मस्तक पर रखा हुआ है वर्तमान प्रवृत्तियुक्त है। घट शब्द भी वही है, जो घट-क्रियायुक्त अर्थ का प्रतिपादन करे । 2010_03 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सद्वाद वक्तव्य : अवक्तव्य अनेकान्त की पृष्ठभूमि में अनेक वाद अवस्थित हैं । उदाहरण के लिए अज्ञेयवाद और अव्यक्तवाद, ज्ञेयवाद और वक्तव्यवाद, अनिश्चयवाद, सापेक्षवाद और समन्वयवाद के नाम प्रस्तुत किए जा सकते हैं । जैन दार्शनिकों ने किसी भी द्रव्य को एकांगी दृष्टि से संज्ञेय और अवक्तव्य नहीं माना। उन्होंने द्रव्य को सर्वांगीण दृष्टि से देखा और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रत्येक द्रव्य अज्ञेय और ज्ञेय-दोनों प्रकार के पदों से समन्वित है। उसके अनन्त पर्याय एक साथ वक्तव्य नहीं हैं या जीवन की सीमित अवधि में भी वक्तव्य नहीं हैं, इस अपेक्षा से वह अवक्तव्य है। अवक्तव्य के विषय में दूसरा दृष्टिकोण यह हो सकता है जो पर्याय ज्ञेय बनते हैं उन्हीं का प्रतिपादन किया जाता है । अज्ञेय पर्याय शब्द के द्वारा प्रतिपादित नहीं होते, इसलिए वे अवक्तव्य ही रह जाते हैं। जानना ज्ञान का काम है, बोलना वाणी का । ज्ञान अनन्त है, ज्ञेय अनन्त है किन्तु वाणी अनन्त नहीं है, शब्दकोश अनन्त नहीं है। एक क्षण में अनन्त ज्ञान के द्वारा अनन्त ज्ञेय जाने जा सकते हैं, किन्तु वाणी के द्वारा कहे नहीं जा सकते। इस आधार पर द्रव्य के दो रूप बनते हैं १. अवक्तव्य, २. वक्तव्य। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के अनुसार अवक्तव्य का अनन्तवां भाग श्रुतनिबद्ध होता है। स्याद्वाद संभावनावाद हमारा ज्ञेय और वक्तव्य का जगत् बहुत छोटा है, अज्ञेय और अवक्तव्य के महासागर में द्वीप जैसा है। इसलिए भगवान महावीर ने संभावनावाद को स्वीकृति दी। स्याद्वाद को संभावनावाद कहा जा सकता है। 'स्याद्' शब्द के अनेक अर्थ होते १. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ३४१: पण्णवणिज्ज भावा, अंणंतभागो तु अणभिलप्पाणं। पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुयनिबद्धो॥ 2010_03 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सद्वाद / ६७ है। उनमें उसका एक अर्थ 'संभावना भी है । चेतन और अचेतन—दोनों की गतिशीलता के असंख्य-असंख्य नियम हैं। इन्द्रिय-चेतना की सीमा में काम करने वाले किसी भी मनुष्य को उन सब नियमों की जानकारी नहीं होती। उनमें से कुछेक नियमों की जानकारी होती है। जिन नियमों की जानकारी होती है, वह भी समग्ररूप से नहीं होती। अनेकान्त का प्रसिद्ध सूत्र है—जो एक को जान लेता है, वह सबको जान लेता है। जो सबको जान लेता है, वही एक को जान सकता है। एक परमाणु को समग्रता से जानने के लिए सब द्रव्यों को जानना जरूरी होता है। इसका कारण यह है कि सब द्रव्य परस्पर संबद्ध हैं। कोई एक द्रव्य अन्य द्रव्यों से सर्वथा भिन्न नहीं है और सर्वथा अभिन्न भी नहीं है। उन सबमें परस्पर भिन्नता भी है और अभिन्नता भी है। द्रव्यों के पारस्परिक भेद और अभेद के नियमों को जाने बिना किसी भी एक द्रव्य को समग्रता से नहीं जाना जा सकता। एक द्रव्य के शेष द्रव्यों से होने वाले संबंध और उसके नियम जान लिये जाते हैं तो सभी द्रव्य जान लिये जाते हैं। अनिश्चयवाद की घोषणा ____ कण-भौतिकी (पार्टिकल फिजिक्स) के क्षेत्र में हाईजनबर्ग ने अनिश्चयवाद का सिद्धान्त स्थापित किया—'एक प्रकार के कण एक ही प्रकार का व्यवहार नहीं करते । उनका व्यवहार बदलता रहता है। चेतना का व्यवहार बदलता ही है, किन्तु पदार्थ का व्यवहार भी बदलता है।' यह संभावनावाद या अनिश्चयवाद की महत्त्वपूर्ण घोषणा अनेकान्त का सिद्धान्त है-अचेतन और चेतन दोनों प्रकार के द्रव्यों में अनन्तअनन्त पर्याय होते हैं । वे दो प्रकार के हैं स्वाभाविक और सांयोगिक । स्वाभाविक पर्याय किसी निमित्त की अपेक्षा रखे बिना प्रतिक्षण उत्पन्न होते हैं और विलीन होते हैं । जैसे तरंग और जल को पृथक् नहीं किया जा सकता, वैसे ही द्रव्य और स्वाभाविक पर्यायों को पृथक् नहीं किया जा सकता। संयोग से होने वाले पर्याय कदाचित्क होते हैं। उनका प्रवाह नहीं होता। वे संयोग के मिलने पर उत्पन्न होते हैं और संयोग के १.(क) आयारो, ३/७४। जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ। जे सर्व जाणइ से एगं जाणइ॥ (ख) स्यादवादमंजरी, एको भावः सर्वथा येन दृष्टाः, सर्वेभावा सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टः, एको भावः सर्वथा तेन दृष्टा॥ 2010_03 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ / जैन दर्शन और अनेकान्त बिछुड़ने पर नष्ट हो जाते हैं। स्वाभाविक पर्याय : सांयोगिक पर्याय स्वाभाविक पर्याय क्षणवर्ती होता है । यह सार्वभौम नियम है । प्रत्येक द्रव्य पर यह लागू होता है। सांयोगिक पर्याय लम्बे समय तक टिकने वाली अवस्था है। उसके विषय में कोई सार्वभौम नियम नहीं बनाया जा सकता। स्वाभाविक पर्याय अव्यक्त और सूक्ष्म होता है। सांयोगिक पर्याय व्यक्त और स्थूल होता है । यांत्रिक उपकरणों से द्रव्य के जिन पर्यायों का अध्ययन किया जा रहा है, वे सब व्यक्त और स्थूल हैं। ये सार्वभौम नियम से बंधे हुए नहीं हैं, इसलिए इनका व्यवहार एक जैसा नहीं होता। संभावनावाद का आधार चेतन में भी अनन्त शक्ति है और अचेतन द्रव्य में भी अनन्त शक्ति है। ...क्त की दृष्टि से दोनों तुल्य हैं । शक्ति एक सामान्य गुण है, जो सब द्रव्यों में मिलता है। प्रत्येक द्रव्य का अपना एक विशेष गुण होता है। उसके आधार पर द्रव्य की मौलिकता या स्वतंत्रता स्थापित होती है। चैतन्य एक विशेष गुण है, जो पुद्गल में नहीं होता, केवल चेतन द्रव्य में ही होता है। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-ये पुद्गल के विशेष गुण हैं । ये केवल पुद्गल द्रव्य में ही होते हैं, चेतन में नहीं होते । गुण, द्रव्य का ध्रौव्य अंश है । वह निरन्तर द्रव्य के साथ रहता है। पर्याय उस ध्रुव अंश के साथ होने वाला परिवर्तन-चक्र है । एक परमाणु में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श नियमित रूप से होता है, यह सार्वभौम नियम है। विभिन्न परमाणुओं से एक जैसे ही वर्ण, गंध, रस और स्पर्श हों, यह आवश्यक नहीं है । इस सिद्धान्त से यह फलित होता है कि प्रत्येक द्रव्य सार्वभौम नियम (नियति) और परिवर्तनशील या आंशिक नियम–दोनों प्रकार के नियमों से नियमित है। यह परिवर्तनशील या आंशिक नियम ही संभावनावाद का आधार बनता है। स्यात् शब्द का अर्थ एक परमाणु, परमाणु के रूप में कम-से-कम एक समय तक और अधिक से अधिक असंख्यकाल तक रह सकता है। असंख्यकाल के बाद परमाणु का स्कन्ध १. भगवती, ५/१६९ 2010_03 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सद्वाद / ६९ रूप में बदलना नियति—सार्वभौम नियम है। असंख्यकाल की अवधि में उसका स्कन्ध रूप में बदलना एक संभावना है। वह जब चाहे बदल सकता है, इसके लिए कोई निश्चित नियम नहीं बनाया जा सकता । जो नियम एक परमाणु के लिए है वही नियम अनन्त परमाणुओं से बने स्कन्ध के लिए है। एक गुना काला पुद्गल कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक असंख्यकाल तक रह सकता है। उसके पश्चात् उसे अनन्त गुना काला होना ही होता है । यह सार्वभौम नियम है सभी वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के परिवर्तन का। पुद्गलों की दो प्रकार की परिणतियां होती हैंसूक्ष्म और स्थूल । सूक्ष्म सदा सूक्ष्म नहीं रहता और स्थूल सदा स्थूल नहीं रहता। असंख्यकाल के पश्चात् सूक्ष्म स्थूल में और स्थूल सूक्ष्म में बदल जाता है। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य में होने वाला परिवर्तन नियति और संभावना ---इन दोनों से जुड़ा हुआ है । हम वर्तमान पर्याय के आधार पर किसी संभावित पर्याय को अस्वीकार न करें । इस रहस्य को 'स्यात्' शब्द के द्वारा अनावृत किया गया है। परिवर्तन का नियम द्रव्य में कौन-सा पर्याय कब व्यक्त होगा, इसकी निश्चित घोषणा नहीं की जा सकती, इसलिए इसे अनिश्चयवाद भी कहा जा सकता है। संभावनावाद और अनिश्चयवाद-ये दोनों अनेकान्त में गर्भित हैं। 'स्यात्' शब्द से इसकी सूचना हमें उपलब्ध है। व्यवहार नय के नियम स्थूल नियम हैं । निश्चय नंय के नियम सूक्ष्म नियम हैं। सूक्ष्म नियमों का पता चलता है तब स्थूल नियम अविश्वसनीय बन जाते हैं। हमारा ज्ञात जगत् बहुत छोटा है, अज्ञात जगत् बहुत बड़ा है। पदार्थ में प्रतिक्षण पर्याय बदलते रहते हैं। उन बदलते हुए सभी पर्यायों और उनके परिवर्तन के सभी नियमों को हम नहीं जानते । परिवर्तन ज्ञात हो जाता है, पर उसका नियम ज्ञात नहीं होता। इसलिए जहां-जहां धुआं होता है, वहां-वहां आग होती है, ऐसी व्याप्ति सर्वत्र नहीं बनाई जा सकती। सापेक्षवाद 'स्यात्' शब्द का एक अर्थ 'अपेक्षा' है। सापेक्षवाद अनेकान्त का महत्त्वपूर्ण १. भगवती, ५/१७२। 2010_03 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० / जैन दर्शन और अनेकान्त सिद्धान्त है। प्रत्येक द्रव्य में पर्याय बदलते रहते हैं। किसी एक पर्याय के आधार पर उसका स्वरूप नहीं जाना जा सकता और न ही उसकी व्याख्या की जा सकती है । भिन्न-भिन्न देश और काल में होने वाले परिवर्तन द्रव्य की अनन्तता सूचित करते हैं, किन्तु उसके स्वरूप को अनावृत नहीं करते। उसके स्वरूप का निश्चय विशेष गुण (मौलिक गुण) के द्वारा होता है । द्रव्य (पदार्थ या वस्तु) का लक्षण है-अस्तित्व । अस्तित्व के तीन अवयव हैं-ध्रुवांश, उत्पाद और व्यय। जिसमें यह त्रयात्मक अस्तित्व नहीं होता, वह द्रव्य नहीं होता। पदार्थ का लक्षण पदार्थ का लक्षण बताया जाता है जो ठोस होता है, जिसमें भार होता है, जिसमें आयतन होता है, वह पदार्थ होता है। वैज्ञानिकों को कुछ ऐसे कण उपलब्ध हुए हैं, जिनमें द्रव्य-भार बिल्कुल नहीं है । इन कणों को उक्त परिभाषा के आधार पर पदार्थ नहीं माना जा सकता । इसीलिए वैज्ञानिक जगत् में यदा-कदा यह स्वर सुनने को मिलता है कि पदार्थ मर गया। वास्तव में ठोस होना, भार होना-पदार्थ के लक्षण नहीं हैं। ये उसकी विशिष्ट अवस्थाएं हैं। परमाणु और पुद्गल के सूक्ष्म स्कन्ध भारशून्य होते हैं। पुद्गल स्कन्धों का जब स्थूल परिणमन होता है तब उनमें 'भार' नाम की अवस्था उत्पन्न होती है। पुद्गल के परिणमन अनेक प्रकार के होते हैं१. परमाणु एक वर्ण, एक गंध, एक रस, दो स्पर्श । २. द्विप्रदेशी स्कन्ध । स्यात् एक वर्ण, स्यात् दो वर्ण । स्यात् एक गंध, स्यात् दो गंध । स्यात् एक रस, स्यात् दो रस । स्यात् दो स्पर्श, स्यात् तीन स्पर्श, स्यात् चार स्पर्श । ३. त्रि-प्रदेशी स्कन्ध स्यात् एक वर्ण, स्यात् दो वर्ण, स्यात् तीन वर्ण । स्यात् एक गंध, स्यात् दो गंध । स्यात् एक रस, स्यात् दो रस, स्यात् तीन रस । स्यात् दो स्पर्श, स्यात् तीन स्पर्श, स्यात् चार स्पर्श। ४. चतुःप्रदेशी स्कन्ध स्यात् एक वर्ण, स्यात् दो वर्ण, स्यात् तीन वर्ण, स्यात् चार वर्ण । स्यात् एक गंध, स्यात् दो गंध । स्यात् एक रस, स्यात दो रस, स्यात् तीन रस, स्यात् चार रस । ___ 2010_03 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यात् दो स्पर्श, स्यात् तीन स्पर्श, स्यात् चार स्पर्श । ५. पांच प्रदेशी स्कन्ध स्यात् एक वर्ण, स्यात् दो वर्ण, स्यात् तीन वर्ण, स्यात् चार वर्ण, स्यात् पांच वर्ण । स्यात् एक गंध, स्यात् दो गंध । स्यात् एक रस, स्यात् दो रस, स्यात् तीन रस, स्यात् चार रस, स्यात् पांच रस । स्यात् दो स्पर्श, स्यात् तीन स्पर्श, स्यात् चार स्पर्श । असंख्य प्रदेशी स्कन्ध में पांच प्रदेशी स्कन्ध जैसे - वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं। सूक्ष्म परिणति वाले अनन्त प्रदेशी स्कन्ध में भी पांच प्रदेशी स्कन्ध जैसे—-वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं । ' चार स्पर्श मौलिक हैं • परमाणु से लेकर सूक्ष्म परिणति वाले अनन्त प्रदेशी स्कन्ध – ये सब भारहीन होते हैं । परिणति बदलती है, वह सूक्ष्म से स्थूल हो जाती है, तब भार उत्पन्न होता है । स्याद्वाद और सद्वाद / ७१ • स्थूल परिणति वाले अनन्त प्रदेशी स्कन्ध में स्यात् एक वर्ण यावत् स्यात् पांच वर्ण, स्यात् एक गंध, स्यात् दो गंध, स्यात् एक रस यावत् स्यात् पांच रस, स्यात पांच स्पर्श यावत् स्यात् आठ स्पर्श होते हैं । ' अष्टस्पर्शी स्कन्ध में लघुत्व और गुरुत्व होता है । जयाचार्य ने स्पर्शवृद्धि की प्रक्रिया बतलाते हुए लिखा है— शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष – ये चार स्पर्श मौलिक हैं। शेष चार स्पर्श अनन्त प्रदेशी स्कन्ध की स्थूल परिणति के साथ उत्पन्न होते हैं । रुक्ष स्पर्श की बहुलता से 'लघु' स्पर्श उत्पन्न होता है और स्निग्ध स्पर्श की बहुलता से 'गुरु' स्पर्श उत्पन्न होता है । शीत और स्निग्ध स्पर्श की बहुलता से 'मुदृ' स्पर्श उत्पन्न होता है । उष्ण और रुक्ष स्पर्श की बहुलता से 'कर्कश' स्पर्श उत्पन्न होता है । व्यवहार की भिन्नता का निमित्त क्वाण्टम सिद्धान्त 'पदार्थ का स्वरूप ठोस है' - भौतिक विज्ञान की इस मान्यता ―――― १. भगवती, १८ / १११-१६ २. वही, १८/११७ । ३. वही १८/६ । 2010_03 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ / जैन दर्शन और अनेकान्त को स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार छोटे-छोटे कण पूरे ब्रह्माण्ड में फैले हुए हैं । वे कभी कण के रूप में दिखाई देते हैं और कभी तरंग के रूप में। इन कणों की परिवर्तनशीलता और उनके व्यवहार की अनेकरूपता का कारण पुद्गल द्रव्य की विविध परिणतियां हैं। पूरा आकाश पुद्गल वर्गणाओं से भरा हुआ है। वे कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त, कभी स्थूल और कभी सूक्ष्म, इस प्रकार नानारूपों में बदलती रहती हैं। एकराशि की पुद्गल वर्गणा दूसरी राशि में बदल जाती है। ये सारे परिवर्तन ही उनकी व्यवहार की भिन्नता के निमित्त बनते हैं, इसीलिए हमें पता चलता है कि एक ही प्रकार के कण सदा एक जैसा व्यवहार नहीं करते। वे भिन्न-भिन्न समयों में भिन्न-भिन्न प्रकार का व्यवहार करते हैं। हम वर्तमान पर्याय के आधार पर पदार्थ की व्याख्या करते हैं, यह हमारा सापेक्ष दृष्टिकोण हैं । अपेक्षा के मुख्य दृष्टि-बिन्दु चार हैं १. द्रव्य २. क्षेत्र ३. काल ४. भाव-पर्याय या परिणमन। एक के लिए जो गुरु है वही दूसरे के लिए लघु, एक के लिए जो दूर है वही दूसरे के लिए निकट, एक के लिए जो ऊर्ध्व है वही दूसरे के लिए निम्न, एक के लिए जो सरल है, वही दूसरे के लिए वक्र । अपेक्षा के बिना किसी की व्याख्या नहीं हो सकती-गुरु और लघु क्या है ? दूर और निकट क्या है ? ऊर्ध्व और निम्न क्या है ? सरल और वक्र क्या है? द्रव्य, क्षेत्र आदि की निरपेक्ष स्थिति में उसका उत्तर नहीं दिया जा सकता। द्रव्य अनन्त गुणों और पर्यायों का सहज सामंजस्य है । इसके सभी गुण और पर्याय सापेक्ष दृष्टि से नहीं समझे जा सकते हैं। एक गुण, द्रव्य के जिस स्वरूप का निर्माण करता है, वह उसी गुण की अपेक्षा से होता है, दूसरे गुण की अपेक्षा से नहीं होता। चेतन द्रव्य चैतन्य गुण की अपेक्षा से चेतन है। उसके सहभावी अस्तित्व, वस्तुत्व आदि गुणों की अपेक्षा वह चेतन नहीं है। निरूपण पद्धति : सापेक्षता कोई भी व्यक्ति द्रव्य को एक ही दृष्टि से नहीं देखता । देश, काल और परिस्थिति का परिवर्तन होने पर दृष्टि में भी परिवर्तन होता है, निरूपण की पद्धति भी बदलती ___ 2010_03 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद और सद्वाद / ७३ • सापेक्षता का पहला आकार-'दूध है'-यह केवल द्रव्य के आधार पर फलित होता है। सापेक्षता का दूसरा आकार—'मिठास है', 'सफेद रंग है'-यह केवल पर्याय के आधार पर फलित होता है। सापेक्षता का तीसरा आकार—'दूध में मिठास और सफेद रंग है' यह द्रव्य में पर्याय की अपेक्षा से फलित होता है। • सापेक्षता का चौथा आकार–'मिठास और सफेद रंग ही दूध है'-यह पर्याय की प्रधानता और द्रव्य की गौणता से फलित होता है।। द्रव्य का अपना स्वभाव दो द्रव्य परस्पर क्षीरनीरवत् मिल जाते हैं , फिर भी वे अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते। इस अपेक्षा से वे शाश्वत हैं। इसी अपेक्षा के आधार पर प्रत्येक द्रव्य का स्व-द्रव्य होता है। दो द्रव्य एक क्षेत्र में रहते हुए भी एक दूसरे से भिन्न अपना अस्तित्व बनाए हुए रहते हैं । इस अपेक्षा से प्रत्येक द्रव्य का स्व-क्षेत्र होता है। द्रव्य का अतीत, वर्तमान और भविष्य के पर्यायों से सम्बन्ध होता है। इस अपेक्षा से प्रत्येक द्रव्य का स्व-काल होता है। ) द्रव्य बदलता रहता है। इस अपेक्षा से प्रत्येक द्रव्य का स्व-भाव या स्व-पर्याय होता है। सापेक्षता का सूत्र सापेक्षता के आधार पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के दो वर्ग बन जाते हैंपहला वर्ग दूसरा वर्ग १. स्व-द्रव्य १. पर-द्रव्य २. स्व-क्षेत्र २. पर-क्षेत्र ३. स्व-काल ३. पर-काल ४. स्व-भाव ४. पर-भाव प्रत्येक द्रव्य में अनन्त विरोधी युगल हैं। उनके सह-अस्तित्व का ज्ञान और व्याख्या सापेक्षता के आधार पर ही की जा सकती है। एक नय से दूसरा नय भिन्न या विरोधी विचार वाला होता है। उन दोनों में सापेक्षता का सूत्र रहता है, इसलिए वे असत्य नहीं होते। वे अपने-अपने विचार का समर्थन करते हुए भी दूसरे के विचार का खंडन नहीं करते। इस सापेक्षता के आधार पर ही विरोधी विचारों का सह-अस्तित्व ___ 2010_03 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ / जैन दर्शन और अनेकान्त संगत बनता है। विरोधी विचार के कुछ बिन्दु १. द्रव्य वास्तविक है, पर्याय वास्तविक नहीं है। २. प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप में अवस्थित है। ३. प्रत्येक द्रव्य सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट है-न कभी उत्पन्न होता है और न कभी नष्ट होता है। ४. कार्य और कारण भिन्न नहीं है। ५. पर्याय वास्तविक है। उससे भिन्न द्रव्य का अस्तित्व नहीं है। ६. केवल वर्तमान क्षण ही वास्तविक है। ७. कारण के बिना ही कार्य उत्पन्न होता है। ८. उत्पाद निर्हेतुक होता है। ९. विनाश निर्हेतुक होता है। परिणमन का तारतम्य द्रव्य में स्वाभाविक परिणोम्होता रहता है। वह किसी बाह्य कारण से प्रेरित नहीं होता। उस परिणमन में कल्पनातीत तारतम्य होता है। वर्गीकृतरूप में उसके छह स्थान बतलाए गए हैं १. अनंतभागहीन अनंतभाग अधिक २. असंख्यातभागहीन असंख्यातभाग अधिक ३. संख्यातभागहीन संख्यातभाग अधिक ४. संख्यातगुणहीन संख्यातगुण अधिक ५. असंख्यातगुणहीन असंख्यातगुण अधिक ६. अनंतगुणहीन अनंतगुण अधिक कभी पर्याय का परिणमन इतना सघन होता है कि द्रव्य का कहीं पता ही नहीं चलता और कभी पर्याय का परिणाम इतना विरल होता है कि द्रव्य उभरकर सामने आ जाता है। इसी परिणमन के आधार पर यह सिद्धान्त फलित होता है कि द्रव्य-राशि (Mass) को ऊर्जा (Energy)में और ऊर्जा को द्रव्य-राशि में बदला जा सकता है। १. भगवती सूत्र, २५/३५०। ___ 2010_03 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद और सद्वाद / ७५ समन्वयवाद नित्य और अनित्य दोनों परस्पर विरोधी हैं। सत् और असत्-दोनों परस्पर विरोधी हैं। इन विरोधी धर्मों के सह-अस्तित्व के विषय में एक तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि दो मुख्य एक साथ नहीं रह सकते । किन्तु एक मुख्य और एक गौण-ये दोनों एक साथ रह सकते हैं । इस गौण और मुख्य करने की पद्धति का नाम 'समन्वय' 'द्रव्य नित्य है', इस वक्तव्य में ध्रौव्य अंश मुख्य हैं, उत्पाद और व्यय- ये दोनों अंश गौण हैं। 'द्रव्य अनित्य है'-इस वक्तव्य में उत्पाद और व्यय मुख्य हैं, और ध्रौव्य अंश गौण है। एक अंश की मुख्यता और दूसरे अंश की गौणता—यही दो विरोधी धर्मों के सह-अस्तित्व का आधार बनता है। जितने विरोधी धर्म हैं उन सबमें सह-अस्तित्व है। उनका सम्बन्ध-सूत्र है-समन्वय । इसके द्वारा किसी भी अंश के अस्तित्व में हस्तक्षेप नहीं होता किन्तु सम्बन्ध-सूत्र की खोज की जाती है। यह स्याद्वाद का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। सद्वाद ___जैन दर्शन के चिन्तन की शैली का नाम अनेकान्त दृष्टि और प्रतिपादन की शैली का नाम स्याद्वाद है । एक धर्म का सापेक्ष प्रतिपादन करने वाले नय वाक्य को 'सद्वाद' कहा जाता है। एक धर्म का निरपेक्ष प्रतिपादन करने वाला वाक्य 'दुर्नय' है। भगवान् महावीर के युग में प्रमाण और नय का स्पष्ट भेद नहीं था। उस समय प्रत्येक द्रव्य तथा उसके गुण और पर्याय का नयदृष्टि से विचार किया जाता था। द्रव्यार्थ, पर्यायार्थ, अव्यवच्छित्ति, व्यवच्छिति आदि-आदि प्रयोग उसके स्वयंभू प्रमाण हैं । उस समय नय वाक्य के साथ 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता था। 'सिअ अत्थि', 'सिअ नत्थि,' 'सिय सासएं' 'सिअ असासए'-ये शब्द नय-वाक्य के आगमयुगीन उदाहरण हैं। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् जब प्रमाण की व्यवस्था हुई तब प्रमाण, नय और दुर्नय—ये तीन विभाग किए गए। प्रमाण का प्रतिनिधि शब्द है-'स्याद्वाद', नय का प्रतिनिधि शब्द है-'सद्वाद' और दुर्नय का प्रतिनिधि शब्द है—'सदेववाद'। 2010_03 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ / जैन दर्शन और अनेकान्त नय और प्रमाण इस व्यवस्था के आधार पर प्रमाण और नय की परिभाषाएं निर्धारित की गईं । अनन्त धर्मात्मक द्रव्य या अखण्ड वस्तु का यथार्थ ज्ञान 'प्रमाण' होता है । अनन्त धर्मात्मक द्रव्य के एक धर्म का यथार्थ ज्ञान 'नय' होता है। इन परिभाषाओं की स्थापना के पश्चात् यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि क्या कोई व्यक्ति द्रव्य के त्रैकालिक धर्मों को जान सकता है । इसका उत्तर मिला, अतीन्द्रियज्ञानी जान सकता है, इन्द्रियज्ञान की सीमा में रहने वाला नहीं जान सकता। तो फिर अनन्त धर्मात्मक द्रव्य को किस आधार पर जाना जा सकता है । स्यात् शब्द : सापेक्षता का सूचक इन्द्रियों में पांच धर्मों (स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द) को जानने की क्षमता है । मन में स्मृति, कल्पना और चिन्तन की क्षमता है । इन्द्रिय और मन के आधार पर केवल पुद्गल द्रव्य का ग्रहण और संकलन हो सकता है । चित्त या बुद्धि में विश्लेषण और निर्धारण की क्षमता है । प्रतिभा अथवा औत्पत्तिकी बुद्धि में अदृष्ट, अश्रुत, अपठित, इन्द्रिय और मन के द्वारा अगृहीत धर्मों को जानने की क्षमता है । द्रव्य का अस्तित्व हमें बुद्धि द्वारा ज्ञात होता है । वास्तव में बुद्धि द्वारा द्रव्य का एक धर्म ही ज्ञात होता है किन्तु एक ही आश्रय में पृथक्-पृथक् अनेक धर्मों का ज्ञान होता है और वह ज्ञान जब संकलनात्मक होता है तब द्रव्य की स्थापना हो जाती है । इससे फलित होता है कि हमारे जानने की प्रक्रिया 'नय' है । 'प्रमाण' नयों का संकलन मात्र है । यदि प्रमाण की स्वतन्त्र व्यवस्था न की जाती, नय को ही प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता तो कोई कठिनाई नहीं होती । नय के साथ 'स्यात्' शब्द का प्रयोग द्रव्य के अनन्त धर्मों की सापेक्षता का सूचक था, इसलिए नय के द्वारा द्रव्य के धर्म और अनन्त धर्मात्मक द्रव्य-दोनों का ज्ञान सहज सम्भव हो जाता । सकलादेश : विकलादेश एक द्रव्य के प्रतिपादन के विषय में प्रमाण की सार्थकता सिद्ध नहीं की जा सकती । एक साथ अनेक धर्म नहीं कहे जा सकते, इस अवस्था में 'प्रमाण वाक्य' नहीं बन सकता । इस कठिनाई को पार करने के लिए 'सकलादेश' और 'विकलादेश' की व्यवस्था की गई । 'स्यात्' शब्द नय से तोड़ प्रमाण के साथ जोड़ा गया । एक काल-क्षण में एक शब्द एक धर्म का ही प्रतिपादन कर सकता है। 'शेष अनन्त धर्म 2010_03 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद और सद्वाद / ७७ अप्रतिपादित हैं, यह सूचित करने के लिए ही ‘स्यात्' शब्द का प्रयोग होता है । इस पद्धति में एक धर्म के माध्यम से पूर्ण द्रव्य का प्रतिपादन किया जाता है, इसलिए इसे 'सकलादेश' अथवा युगपत् (एक साथ) अनन्त धर्मों का प्रतिपादन करने वाला वाक्य कहा गया है। नय वाक्य ही वास्तविक है प्रश्न फिर वही उपस्थित होता है कि आखिर एक धर्म को मुख्य और शेष अनन्त धर्मों को गौण मानकर किया जाने वाला प्रतिपादन अनन्त धर्मों का प्रतिपादक कैसे हो सकता है ! इसके समाधान में एक युक्ति प्रस्तुत की गई कि अभेदवृत्ति और अभेदोपचार से युगपत् अनन्त धर्मों का प्रतिपादन किया जा सकता है । इस वक्तव्य का सहज ही यह निष्कर्ष है कि प्रमाण-वाक्य उपचरित वाक्य है । नयवाक्य विकलादेश अथवा एक क्षण में एक धर्म का प्रतिपादन होने के कारण अनुपचरित वाक्य है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि नय-वाक्य ही वास्तविक है। जानने और कहने की युगपत् पद्धति हमारे उपयोग में नहीं आती । हमारे लिए क्रम पद्धति ही उपयोगी नय : दुर्नय ___नय दृष्टि अथवा नय वाक्य के साथ ‘स्यात्' शब्द भले ही जुड़ा हुआ न हो, फिर भी वह उसमें अन्तर्गर्भित है, यह सच्चाई बहुत स्पष्टता के साथ अनुभव करनी चाहिए। एक द्रव्य के जितने पर्याय हैं, उतने ही उसके निरूपण और विश्लेषण के प्रकार हैं और जितने निरूपण अथवा विश्लेषण के प्रकार हैं, उतने ही नय हैं। एक द्रव्य में होने वाले सभी पर्याय सदृश ही नहीं होते, परस्पर विरोधी भी होते हैं । जितने विरोधी हैं, उतनी ही उनके सह-अस्तित्व की अपेक्षाएं हैं। सापेक्ष दृष्टि से निरूपण और विश्लेषण को सत्य माना जा सकता है। शेष पर्यायों को अस्वीकार कर निरपेक्ष दृष्टि से किया जाने वाला निरूपण और विश्लेषण दुर्नय बन जाता है। त्रि-मूल्यात्मक दृष्टिकोण पाश्चात्य तर्कशास्त्र में तार्किक निर्णय त्रिमूल्यात्मक माना जाता हैनिश्चितता संभाव्यता असंभाव्यता सत्य मूल्य आंशिक सत्य-मूल्य असत्य मूल्य 2010_03 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ / जैन दर्शन और अनेकान्त स्याद्वाद भी त्रि- मूल्यात्मक हैसार्वभौम नियम ( प्रमाण या नय) सामान्य नियम ( प्रमाण या नय) | 1 सापेक्ष - सत्य- मूल्य असत्य मूल्य निरपेक्ष- सत्य - मूल्य 'एवकार' का प्रयोग निरपेक्ष- सत्य - मूल्य और सापेक्ष - सत्य - मूल्य — दोनों के साथ होता है किन्तु निरपेक्ष सामान्य नियम के साथ जब उसका प्रयोग होता है तब नय दुर्नय बन जाता है । 'स्यात् अस्ति एव' - यह प्रमाण अथवा नय का प्रतीक है । 'सत् एव' - यह दुर्नय का प्रतीक है। इसमें निरपेक्ष सार्वभौम नियम और सापेक्ष सामान्य नियम की सूचना देने वाला 'स्यात्' शब्द प्रयुक्त नहीं है, सम्मत भी नहीं है । प्रमाण की सप्तभंगी निरपेक्ष सामान्य नियम (दुर्नय) I मध्यवर्ती आचार्यों ने प्रमाण और नय की सप्तभंगी की संयोजना की— १. स्यात् नित्य एव २. स्यात् अनित्य एव ३. स्यात् नित्य एव स्यात् अनित्य एव ४. स्यात् अवक्तव्य एव ५. स्यात् नित्य स्यात् अवक्तव्य एव ६. स्यात् अनित्य स्यात् अवक्तव्य एव ७. स्यात् नित्य स्यात् अनित्य स्यात् अवक्तव्य एव द्वैत सर्वत्र सम्मत है नित्य और अनित्य — यह एक विरोधी युगल है । अनेकान्तवाद के अनुसार सर्वथा नित्य अथवा सर्वथा अनित्य जैसा कोई द्रव्य नहीं है। इसलिए केवल नित्य या केवल अनित्य का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। जैसे चेतन और अचेतन - यह द्रव्य दृष्टि से द्वैतवाद है । वैसे ही नित्य और अनित्य- यह गुण या धर्म की दृष्टि से द्वैतवाद है । द्रव्य हो या उसका धर्म, द्वैत सर्वत्र सम्मत है। प्रथम दो भागों में इस विरोधी युगल या द्वैत का प्रतिपादन किया गया है। आत्मा अथवा पुद्गल कोई भी द्रव्य हो, वह धौव्यांश की अपेक्षा से नित्य है और पर्यायांश की अपेक्षा से अनित्य है । ‘स्यात् नित्य' और ‘स्यात् अनित्य' – ये दो भंग स्याद्वाद के आधारभूत तत्त्व हैं भगवान् महावीर ने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक—इन दो नयों की दृष्टि से द्रव्य की 1 2010_03 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सद्वाद / ७९ नित्यता और अनित्यता का अनेक बार प्रतिपादन किया था। शेष सब भंग विशेष अपेक्षा के आधार पर संयोजित किए गए हैं। तीसरे भंग में नित्य और अनित्य इन दो धर्मों का क्रमिक प्रतिपादन है । चौथे भंग में युगपत् दो धर्मों का प्रतिपादन हो नहीं सकता, इसलिए इसे अवक्तव्य कहा गया। शेष तीन भंग पूर्ववर्ती प्रथम तीन भंगों के साथ अवक्तव्य का संयोग करने से बनते हैं। द्रव्यगत द्वैतवाद नित्यत्व द्रव्य का धौव्य अंश है । अनित्यत्व उसका उत्पाद-व्ययात्मक पर्याय अंश है। वेदान्त के अनुसार पारमार्थिक तत्त्व नित्य है। बौद्ध दर्शन के अनुसार नित्यत्व गुण सम्पन्न कोई द्रव्य नहीं है। अस्तित्व सर्वथा अनित्य है। अनेकान्त का सिद्धान्त इन दोनों (वेदान्त और बौद्ध) से भिन्न है। उसके अनुसार प्रत्येक द्रव्य के नित्यत्व और अनित्यत्व अपरिहार्य अंग हैं। यह सिद्धान्त वेदान्त और बौद्ध के सिद्धान्तों का समन्वय करने की दृष्टि से प्रतिपादित नहीं है । इसका आधार है-द्रव्यगत द्वैतवाद । जैसे द्रव्य में द्वैत है, वैसे ही द्रव्यों में होने वाले गुणों में भी द्वैत है । नित्यत्व और अनित्यत्व—ये दोनों गुण अकेले नहीं होते। दोनों साथ ही होते हैं। यह गुणाश्रित द्वैतवाद दोनों गुणों के साथ होने का आधार बनता है। नित्यत्व परोक्ष गुण है। वह हमारे सामने स्पष्ट नहीं है। अनित्यत्व हमारे सामने स्पष्ट है इसलिए वह प्रत्यक्ष गुण है। केवल ज्ञानी के लिए नित्यत्व और अनित्यत्व—दोनों प्रत्यक्ष होते हैं । इन्द्रियज्ञानी अनित्यत्व के आधार पर नित्यत्व का अनुमान करता है। लंबाई-चौड़ाई की अवधारणा लम्बाई और चौड़ाई-पौगलिक पदार्थ के पर्याय माने जाते हैं। अनेकान्त के अनुसार लम्बाई-चौड़ाई की धारणा सापेक्ष है । आइन्स्टीन के अनुसार यह गति सापेक्ष है। एक व्यक्ति साइकिल पर चल रहा है। उसे मार्ग में आने वाली वस्तुएं जिस रूप में हैं, उसी रूप में दिखाई देंगी। एक व्यक्ति ट्रेन में यात्रा कर रहा है। उसे आने वाली वस्तुएं छोटी दिखाई देंगी। आणविक वाहन में यात्रा करने वाले को वे दिखेंगी ही नहीं। अतीत, भविष्य और वर्तमान प्रश्न ____ मन:पर्ययज्ञानी—दूसरों के मन को पढ़ने वाला अतीत और अनागत के विचारों को भी पढ़ लेता है । वह चिन्तित, चिन्त्यमान और अचिन्तित–तीनों कालों के विचारों को पढ़ सकता है । चिन्त्यमान पुद्गलों को जाना जा सकता है । चिन्तित (अतीतकालीन) 2010_03 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० / जैन दर्शन और अनेकान्त I और अचिन्तित (भविष्यकालीन) पुद्गलों को कैसे जाना जा सकता है, इस पहेली को सापेक्षवाद के द्वारा ही सुलझाया जा सकता है । सापेक्षवाद के अनुसार हमारी पृथ्वी पर काल की गणना सूर्य की गति पर निर्भर है। पृथ्वी से दो हजार प्रकाश वर्ष की दूरी वाले ग्रह पर रहने वाला मनुष्य किसी शक्तिशाली टेलिस्कोप से पृथ्वी की ओर देखे तो उसे अतीत का घटनाक्रम उसी प्रकार दिखाई देगा जैसे वह अभी घटित हो है । इस प्रकार हमारी पृथ्वी पर रहने वालों के लिए जो वर्तमानकाल है, वह अन्यग्रहवासियों के लिए भविष्य है। पृथ्वीवासी के लिए जो भूतकाल है, वह अन्यग्रहवासियों के लिए वर्तमान है। इसी प्रकार अन्यग्रहवासी के लिए जो वर्तमान है, वह पृथ्वीवासी के लिए भविष्य है । अन्यग्रहवासी का भूतकाल पृथ्वीवासी का वर्तमान काल है । इससे स्पष्ट प्रमाणित होता है कि अतीत, भविष्य और वर्तमान – ये सब सूर्य - गति- सापेक्ष हैं। रहा मूल द्रव्य निरपेक्ष: पर्याय सापेक्ष सापेक्षवाद के अनुसार पदार्थ की गति ही एकमात्र निरपेक्ष सत्ता है । प्रकाश की गति पर समय सिकुड़ जाता है। इस अवस्था में अतीत, भविष्य और वर्तमान का अन्तर समाप्त हो जाता है । प्रकाश की गति से चलने वाले यान में बैठा हुआ आदमी भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं को जान सकता है । यदि प्रकाश की गति से चलने वाले यान की गति बढ़ा दी जाए तो समय का प्रवाह विपरीत दिशा में होने लग जाएगा । वह भविष्य से और वर्तमान से अतीत की ओर लौटेगा । जैन दर्शन के अनुसार चेतन और अचेतन मूल द्रव्यों की निरपेक्ष सत्ता है। उनमें घटित होने वाले सारे पर्याय सापेक्ष हैं। निरपेक्ष जगत् के नियम सापेक्ष जगत् के नियम से भिन्न हैं । इसलिए निर्पेक्ष जगत् के नियमों के आधार पर सापेक्ष जगत् के नियमों और सापेक्ष जगत् के नियमों के आधार पर निरपेक्ष जगत् के नियमों की व्याख्या नहीं की जा सकती । काल्पनिक नहीं है पदार्थ की विविधता द्रव्य का वास्तविक या अपरिवर्तननीय स्वरूप उसके घटक अवयव (प्रदेश राशि) हैं। वह निर्पेक्ष हैं । वह इन्द्रियों से दृश्य नहीं है । हम द्रव्यात्मक जगत् को १. नदी सूत्र, ३२ । गोम्मटसार, जीवकाण्ड, ४० । 2010_03 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सद्वाद / ८१ नहीं जानते, केवल पर्यायात्मक जगत् को जानते हैं। पर्याय द्रव्य का बदलता हुआ स्वरूप है। हमारा दृश्य जगत् पर्याय का जगत् है । पदार्थ की विविधता काल्पनिक नहीं है। वह यथार्थ के सूर्य की रश्मियां हैं, जिनका संकोच और विस्तार होता रहता है। प्रकाश, ताप, विद्युत्-ये स्कन्ध के लक्षण हैं। इनके सभी नियम जीव-जगत् पर लागू नहीं होते। उनके अपने नियम हैं। इसलिए विज्ञान के नियमों से जीव जगत् की व्याख्या नहीं की जा सकती । दर्शनशास्त्र में सामान्य और विशेष-दो प्रकार के गुण माने जाते हैं. सामान्य गुण सब द्रव्यों से मिलते हैं । विशेष गुण द्रव्य की अपनी विशेषता होती है । चैतन्य जीव द्रव्य की अपनी विशेषता है। वह अजीव में नहीं मिलता अत: चैतन्य नियमो के आधार पर जीव की ही व्याख्या की जा सकती है। उनसे अजीव की व्याख्या नहीं की जा सकती। द्रव्य के जितने नियम हैं उतने ही बोध के मार्ग, दृष्टि के कोण और अभिव्यक्ति के प्रकार है। सूक्ष्म और स्थूल जगत् जीव और पुद्गल का जगत् सूक्ष्म और स्थूल-इन दो भागों में विभक्त है। सूक्ष्म जीव समूचे विश्व में व्याप्त है और स्थूल जगत् विश्व के एकछोटे से हिस्से में विद्यमान है। स्थूल जीवों को हम देख सकते हैं। हमारा चक्षु त्रिआयामी विश्व को जान सकता है। लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई-स्थूल जगत् का अस्तित्व इन तीनों आयामों में है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने चतुर्थ आयाम की खोज की। उसमें विद्यमान जगत् हमारे लिए दृश्य नहीं बनता। इन्द्रिय चेतना का ज्ञान सापेक्ष है। उसके द्वारा वस्तु के कुछेक स्थूल पर्याय जाने जा सकते हैं, शेष स्थूल पर्याय और सभी सूक्ष्म पर्याय उसके लिए अगम्य रहते हैं। 2010_03 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-दर्शन 2010_03 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवाद हिन्दुस्तान में दो परम्पराएं बहुत प्राचीन हैं। एक है श्रमण-परम्परा और दूसरी है ब्राह्मण-परम्परा। दोनों का इतिहास बहुत पुराना है। दोनों स्वतंत्र परम्पराएं रही हैं। जैन श्रमण-परम्परा को मानते हैं। भागवत का उल्लेख है-'भगवान ऋषभ ने श्रमणों का धर्म बताने के लिए ही जन्म धारण किया था।' श्रमण-परम्परा का ऐतिहासिक काल तीन हजार वर्ष पुराना है । भगवान पार्श्व और भगवान महावीर दोनों ऐतिहासिक व्यक्तित्व रहे हैं। प्रागऐतिहासिक काल बहुत पुराना है । उसका प्रारम्भ बिन्दु हैभगवान ऋषभ का अवतरण । इस काल-चक्र में भगवान ऋषभ जैन परम्परा के पहले तीर्थकर हैं। उन्होंने श्रमण-धर्म का प्रवर्तन किया। मध्यकाल में श्रमणों के अनेक सम्प्रदाय बने । भगवान महावीर के काल में श्रमणों के अनेक सम्प्रदाय थे। उनमें जैन, बौद्ध, आजीवक, परिव्राजक आदि मुख्य थे। वर्तमान में दो संप्रदाय रहे हैं----जैन और बौद्ध । सांख्य पहले अवैदिक था, श्रमण परम्परा में था, किन्तु बाद में उसका रूप बदल गया। जैनधर्म के प्राचीन नाम जैन श्रमण-परम्परा का एक धर्म है । उसके अनेक नाम प्रचलित रहे हैं-अर्हत्-धर्म, निर्ग्रन्थ-धर्म और वर्तमान में नाम प्रचलित है जैन धर्म। . भगवान ऋषभ अर्हत् थे। उनके लिए एक विशेषण आता है—'अर्हत् ऋषभ' । अर्हतों की एक परम्परा रही है। जो अपनी साधना के द्वारा अतीन्द्रिय ज्ञान को प्राप्त कर लेते थे और जीवन-मुक्त अवस्था में चले जाते थे, वीतराग की स्थिति में चले जाते थे, वे अर्हत् कहलाते थे । भगवान ऋषभ अर्हत थे अत: उनका धर्म आहेत् धर्म कहलाया। भगवान् महावीर श्रमण निर्ग्रन्थ के नाम से प्रख्यात थे । बौद्ध-साहित्य में निर्ग्रन्थ ज्ञानपुत्र महावीर का नाम मिलता है। अन्य २३ तीर्थंकरों के लिए अर्हत् विशेषण मिलता है, इन सबको अर्हत् कहा गया। महावीर को अर्हत् नहीं कहा गया। महावीर का विशेषण है ‘समणे निग्गंथे नायपुत्ते।' हो सकता है—महावीर ने अचेल साधना की थी, निर्वस्त्र साधना की थी। इसलिए उनके लिए निर्ग्रन्थ विशेषण का 2010_03 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ / जैन दर्शन और अनेकान्त प्रयोग किया गया। जैनधर्म के श्रमण-धर्म, आईत्-धर्म और निर्ग्रन्थ-धर्म-ये तीन प्राचीन नाम हैं। श्रमण दूसरे भी थे इसलिए अलग पहचान हो गई अर्हत्-धर्म और आर्हत् भी दूसरी परम्परा में थे अत: फिर अलग पहचान बनी निर्ग्रन्थ-धर्म । भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद कुछ समय तक निर्ग्रन्थ नाम ही प्रचलित रहा। किन्तु उनके निर्वाण की दूसरी शताब्दी में निर्ग्रन्थ नाम भी छूट गया। उसके स्थान पर 'जैन' नाम का प्रचलन शुरू हो गया। आज महावीर के शासन में साधना करने वाले जैन नाम से जाने जाते हैं। वर्तमान में महावीर का शासन जैन-धर्म के नाम से प्रख्यात है। आत्म-विद्या : जैनधर्म का मुख्य तत्त्व जैनधर्म की अपनी विशेषता क्या है ? जो लोग जैन शासन में दीक्षित होकर साधना करते हैं, उनके सामने एक प्रश्न है कि वे साधना क्यों करते हैं ? साधना करने का उद्देश्य क्या है और उसका स्वरूप क्या है ? इन दोनों तत्त्वों को स्पर्श करना बहुत आवश्यक है। जैनधर्म आत्मवादी धर्म है। इसका प्रधान तत्त्व है आत्मा। आत्मा को मानकर साधना और आराधना की जाती है । भारतीय दर्शनों में आत्मवाद का सिद्धान्त पुराना है। उपनिषदों के अध्ययन से पता चलता है कि क्षत्रिय लोग आत्मा के बारे में जानते थे। आत्म-विद्या पर क्षत्रियों का अधिकार था। क्षत्रियों द्वारा ब्राह्मणों को आत्म-विद्या दी गई। जैन-परम्परा के तीर्थंकर अधिकांश क्षत्रिय जाति के हुए हैं ।इससे यह बात स्वत: सिद्ध होती है कि आत्म-विद्या जैनधर्म का मुख्य तत्त्व रहा है। चैतन्य आत्मा का गुण है, अस्तित्व नहीं श्रमण-परम्परा की दो धाराएं हैं—जैन और बौद्ध । बौद्ध आत्मा के बारे में बहुत स्पष्ट भी नहीं हैं और अस्पष्ट भी नहीं हैं । आत्मवादी हैं, यह कहना भी कठिन है और निरात्मवादी हैं, यह कहना भी कठिन है । जिस धर्म में कर्मवाद और पुनर्जन्मवाद स्वीकृत है उसे अनात्मवादी कहना बहुत कठिन है और आत्मा की स्वीकृति नहीं है, अत: आत्मवादी कहना भी कठिन है । एक अव्याकृत प्रश्न है। किन्तु जैन-दर्शन में आत्मा के बारे में बहुत स्पष्ट अवधारणा है। भगवान महावीर ने आत्मा के बारे में एक नयी स्थापना की। जितने भी आत्मवादी दर्शन हैं, जो आत्मा को स्वीकारते हैं, वे आत्मा को मानते हैं किन्तु आत्मा क्या है? उसका स्वरूप क्या है ? इसका स्पष्ट उत्तर शायद वे नहीं दे पाते। आत्मा चैतन्यमय है, यह कहा जा सकता है किन्तु 2010_03 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवाद / ८७ चैतन्य आत्मा का स्पष्ट अस्तित्व नहीं है। वह आत्मा का गुण है, अस्तित्व नहीं है। आत्मा के अवयव हैं ___ आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है। आत्मा एक द्रव्य है, आत्मा एक अस्तिकाय है। यह भगवान् महावीर की बिल्कुल नयी और मौलिक स्थापना है। आत्मा के परमाणु होते हैं। यह बिल्कुल नयी बात है। परमाणु एक तत्त्व है। पुद्गल अचेतन तत्त्व के भी परमाणु और आत्मा के भी परमाणु। जहां परमाणु आता है उसे अचेतन ही समझा जाता है। भगवान् महावीर ने कहा-आत्मा के असंख्य प्रदेशों के एक पिंड का नाम है आत्मा; असंख्य प्रदेशों के एक संघात का नाम है आत्मा। पुद्गल और आत्मा के परमाणुओं में एक मौलिक अन्तर अवश्य है। पुद्गल के परमाणु पृथक्-पृथक होते हैं। एक परमाणु होता है और कई परमाणु मिलकर उनका संघात बन जाता है। वे मिल जाते हैं और बिछुड़ जाते हैं किन्तु आत्मा के परमाणुओं में ऐसा नहीं होता । उन्हें विभक्त नहीं किया जा सकता, पृथक् नहीं किया जा सकता। वे असंख्य परमाणु निरन्तर मिले रहते हैं, अविभक्त रहते हैं इसलिए उनका नाम प्रदेश रखा गया। प्रदेश और परमाणु में परिमाणात्मक अन्तर नहीं है। परिमाण में दोनों समान हैं। केवल संघातात्मक अन्तर है । परमाणु मिल सकते हैं, बिछुड़ सकते हैं। किन्तु प्रदेश उस अवस्था का नाम है जो संघात की अवस्था होती है। परमाणु अलग-अलग होते हैं और दो परमाणु मिल गए तो दो-प्रदेशी स्कन्ध हो गया। तीन परमाणु मिल गए, उसका नाम हो गया तीन-प्रदेशी स्कन्ध । संघात की अवस्था में परमाणु स्कन्ध कहलाता है और पृथक् अवस्था में वह परमाणु कहलाता है । आत्मा के असंख्य प्रदेश हैं, असंख्य परमाणु हैं, वे कभी पृथक् नहीं होते। हमेशा संघात रूप में रहते हैं, उनको परमाणु नहीं कहा गया, प्रदेश कहा गया। जितने स्थान का अवगाहन परमाणु करता है उतने स्थान का ही अवगाहन प्रदेश करता है । इस आधार पर कहा जा सकता है कि आत्मा के असंख्य प्रदेश हैं, अर्थात् असंख्य परमाणु हैं। इसका अर्थ है—आत्मा के अवयव हैं। आत्मा अनित्य भी है दर्शन के क्षेत्र में एक चर्चा रही है जिसके अवयव होता है वह अनित्य होता है। जो अवयव-रहित होता है वह नित्य होता है। अगर आत्मा के अवयव माने जाएं, प्रदेश माना जाए, तो आत्मा अनित्य हो जाएगी, शाश्वत नहीं रहेगी। हमारा शरीर एक अवयव है, हाथ-पैर सब अवयव हैं। अवयव हैं इसलिए शरीर शाश्वत 2010_03 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ / जैन दर्शन और अनेकान्त नहीं होता। घड़ा अनित्य है क्योंकि उसके अवयव होते हैं। मकान अनित्य है क्योंकि उसके अवयव होते हैं। तर्कशास्त्र का एक सिद्धान्त है-जिसके अवयव होते हैं, वह अनित्य होता है। ___आत्मा के बारे में दो अवधारणाएं रही हैं—एक शाश्वतवादी और दूसरी अशाश्वतवादी । सांख्य आदि दर्शनों की आत्मा शाश्वत आत्मा है और बौद्ध-दर्शन की आत्मा अशाश्वत आत्मा है। महात्मा बुद्ध ने किसी भी वस्तु को शाश्वत नहीं माना। जैन-दर्शन के सामने भी एक समस्या आई। अगर आत्मा के अवयव हैं, प्रदेश हैं तो आत्मा को अनित्य मानना पड़ेगा। इस प्रश्न पर जैन-दर्शन ने अनेकान्त दृष्टि से विचार किया और समाधान दिया कि आत्मा को अनित्य भी माना जा सकता है, नित्य भी माना जा सकता है। आत्मा नित्य है तो साथ-साथ अनित्य भी है। केवल नित्य नहीं है, केवल अनित्य नहीं है। आत्मा है मूलद्रव्य - चैतन्य आत्मा नहीं है । चैतन्य आत्मा का स्वरूप है। एक होता है गुण, एक होता है गुणी । जिसमें गुण रहता है, उसे गुणी कहा जाता है। गुणी है आधार, गुण है उसमें रहने वाला। एक है आत्मा और दूसरा है उसका रूप। आत्मा है असंख्य प्रदेशात्मक एक तत्त्व, एक अस्तिकाय और चैतन्य है उसका रूप। चैतन्य आत्मा नहीं, आत्मा चैतन्य नहीं, किन्तु आत्मा चैतन्य का एक रूप है । गुण और गुणी-ये सर्वथा पृथक् नहीं होते इसलिए न चैतन्य आत्मा से सर्वथा अलग होता है और न आत्मा कभी चैतन्य से अलग होती है । दोनों साथ-साथ रहते हैं। तर्कशास्त्र में गुण की परिभाषा है—'सहभावी धर्मो गुणः' । जो निरन्तर साथ रहता है, कभी अलग नहीं होता, उसका नाम है गुण । उष्णता अग्नि का गुण है । कभी भी उष्णता अग्नि से अलग नहीं होती। अग्नि हमेशा गर्म होगी, क्योंकि वह उसका गुण है। गुण गुणी से कभी पृथक् नहीं होता। चैतन्य आत्मा से कभी पृथक् नहीं होता। इस आधार पर बहुत सारे जैन दर्शन के व्याख्याकार भी आत्मा को चैतन्य बताते हैं किन्तु वास्तव में सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें, प्रज्ञात्मक दृष्टि से विचार करें, तो आत्मा और चैतन्य—ये दो बन जाते हैं। आत्मा के मूल द्रव्य और चैतन्य हैं उसमें रहने वाला मूल गुण । दोनों स्वतन्त्र बन जाते हैं किन्तु समग्रता की दृष्टि से दोनों स्वतंत्र नहीं हैं, दोनों निरन्तर साथ में रहने वाले हैं। आत्मा का लक्षण आत्मा का लक्षण क्या है ? यह भी एक प्रश्न है । लक्षण वह होता है जिसके 2010_03 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवाद / ८९ 1 I द्वारा किसी चीज को पहचाना जाता है । पहचान का साधन है लक्षण । आत्मा का लक्षण है उपयोग | चैतन्य आत्मा का स्वरूप है किन्तु वह उसका लक्षण नहीं बनता । आत्मा का लक्षण - उपयोग, चैतन्य की प्रवृत्ति । चैतन्य से आत्मा का पता नहीं चलता । चैतन्य की प्रवृत्ति से आत्मा का पता चलता है । मनुष्य गति करता है, चलता है, उसके चलने के पीछे एक इच्छा होती है । वह पहले इच्छा करता है और फिर चलता है । गति का पहला साधन है— इच्छा । इसलिए जीव के दो विभाग किए गए— त्रस और स्थावर । स्थावर गति नहीं करता । त्रस गति करता है । गति करना उसकी इच्छा की बात है । अपनी स्वतंत्र इच्छा से वह चलता है । इच्छा चेतना का एक उपयोग है । इसलिए उपयोग जीव की पहचान है । चलना, बोलना, खाना आदि-आदि प्रवृत्तियों के पीछे ज्ञान का उपयोग है इसलिए आत्मा का लक्षण है उपयोग । अन्तर जैन और सांख्य साधना-पद्धति में 1 सामान्यत: यह कहा जाता है— आत्मा अमर है, शरीर नश्वर है। जैन दर्शन ने आत्मा को शाश्वत माना किन्तु साथ-साथ में परिवर्तनशील, मरणधर्मा भी माना । वह परिणामधर्मा है । उसमें परिणमन होता है । परिणमन अनित्यता का लक्षण है । जैन दर्शन की दृष्टि से आत्मा नित्य और अनित्य- दोनों है । उसके स्वरूप का कभी परिवर्तन नहीं होता, चैतन्य कभी अचैतन्य नहीं बनता । उसके असंख्य प्रदेशों में परिवर्तन नहीं होता । इस दृष्टि से आत्मा अमर है । किन्तु आत्मा की नाना प्रकार की अवस्थाएं होती रहती हैं, इसलिए आत्मा अनित्य भी है । जो नित्यवादी दर्शन है, उसमें सांख्यदर्शन प्रधान है, उसमें आत्मा को बिल्कुल निर्लिप्त माना गया है। आत्मा में कोई मलिनता नहीं, कोई दोष नहीं । आत्मा सर्वथा निर्लिप्त है। जैनदर्शन में आत्मा को शुद्ध नहीं माना गया । आत्मा के आवरण होता है। वह ज्ञान के आवरण से आवृत्त होती है। मोहनीय कर्म से आत्मा विकृत बनती है। आत्मा में शक्ति का प्रतिस्खलन होता है । सांख्यदर्शन की साधना प्रकृति पर आधारित साधना पद्धति है। जैनदर्शन की साधना-पद्धति आत्मा पर आधारित है। यह दोनों में मौलिक अन्तर है । शुद्ध नहीं है शरीरधारी आत्मा जितनी भी शरीरधारी आत्माएं हैं उन्हें शुद्ध आत्मा नहीं कहा जा सकता। वे अशुद्ध आत्माएं हैं । यदि आत्मा सर्वथा शुद्ध होती तो साधना करने की जरूरत ही 2010_03 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० / जैन दर्शन और अनेकान्त नहीं होती। साधना की आवश्यकता तभी है जब आत्मा अशुद्ध रहती है। संसारी आत्मा को, पुद्गल-युक्त आत्मा को, यौगिक आत्मा कहा जा सकता है । जैन-दर्शन की दृष्टि से आत्मा के दो प्रकार बन जाते हैं—शुद्ध आत्मा और अशुद्ध आत्मा। शुद्ध आत्मा का अर्थ है-शरीरमुक्त आत्मा और अशुद्ध आत्मा का अर्थ है—शरीरयुक्त आत्मा। शुद्ध आत्मा में कोई भी आवरण नहीं होता, अशुद्धि नहीं होती। सारी अशुद्धियां समाप्त हो जाती हैं। शरीरधारी आत्मा को सर्वथा विशुद्ध नहीं कहा जा सकता। वीतराग आत्मा शुद्ध बन जाती है, फिर भी शरीर शेष रह जाता है, बन्धन शेष रह जाता है। उसे सर्वथा बन्धन-मुक्त नहीं कहा जा सकता। संसारी जीवों की आत्मा बन्धनयुक्त है, आवरणयुक्त है इसलिए अशुद्ध आत्माएं हैं, लौकिक आत्माएं हैं। इनमें आत्मा और पुद्गल—दोनों का योग है। यौगिक हैं हम सब हम सब यौगिक हैं । दूध में चीनी मिली दी। इस मिश्रण को दूध भी नहीं कहा जा सकता और केवल चीनी भी नहीं कहा जा सकता। दूध और चीनी का मिश्रण है। यह मिश्रण यौगिक कहलाएगा। आम का रस निकाला और दूध मिला दिया। उसे आम कहा जाए या दूध? न आम कहा जा सकता है और न दूध कहा जा सकता है। वह दोनों का योग है, मिश्रण है। प्रत्येक प्राणी की यही अवस्था है। उसे न आत्मा कहा जा सकता है और न पुद्गल कहा जा सकता है । वह आत्मा और पुद्गल का मिश्रण है। दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, सब कुछ यौगिक है। हम प्रत्येक प्रवृत्ति पर विचार करें । मनुष्य भोजन करता है । क्या आत्मा खाती है ? आत्मा को भोजन की जरूरत नहीं है। क्या पुद्गल भोजन करता है ? उसे भी भोजन की जरूरत नहीं है। आहार कौन करता है? न आत्मा आहार करती है और न पुद्गल आहार करता है। आहार करता है आत्मा और पुद्गल का योग । बोलता कौन है ? न आत्मा बोलती है और न पुद्गल बोलता है । आत्मा और पुद्गल का योग बोलता है । अगर आत्मा बोलती तो मुक्त आत्मा भी बोलती ही रहती। अगर आत्मा भोजन करती तो मुक्त आत्मा भी भोजन करती ही रहती। बड़ी समस्या पैदा हो जाती । जहां मुक्त आत्माएं हैं वहां खेती होती ही नहीं। उन्हें खाना भी उपलब्ध नहीं होता, बड़ी समस्या पैदा हो जाती। साधना के सूत्र शरीरमुक्त आत्मा के आधार पर आदमी सोचता है। कौन सोचता है ? चिन्तन कौन करता है? क्या आत्मा 2010_03 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवाद / ९१ करती है या पुद्गल करता है? चिन्तन न आत्मा करती है और न पुद्गल करता है। दोनों का योग करता है । ध्यान की अवस्था में कहा जाता है—चिन्तन को बन्द कर दो, सोचो मत, निर्विकल्प और निर्विचार रहो। अगर आत्मा का काम सोचना होता तो कभी रोका नहीं जा सकता। साधना उसके प्रतिकूल होती। साधना में निर्देश दिया जाता है—आहार का संयम करो, मत खाओ, उपवास करो। हम जब आत्मा की साधना में जाते है तब खाने का अभ्यास करना बहुत जरूरी नहीं है। बोलना आत्मा का स्वरूप नहीं है इसलिए जब आत्मा की साधना करनी है तो मौन का अभ्यास बहुत आवश्यक है। सोचना आत्मा का स्वभाव नहीं है। इसलिए आत्मा की साधना करते समय अचिन्तन या निर्विचार होना बहुत आवश्यक है। साधना का सूत्र श्वास कौन लेता है ? आत्मा लेती है या पुद्गल लेता है ? आत्मा भी विश्वास नहीं लेती और पुद्गल भी श्वास नहीं लेता। श्वास लेता है योग । आत्मा श्वास लेती तो फिर श्वास-संयम करने की कोई आवश्यकता नहीं होती, कुंभक करने की कोई जरूरत नहीं होती। आत्मा को तो निरन्तर श्वास लेना ही होगा। वर्तमान में श्वास जीवित मनुष्य की पहचान बना हुआ है । जहां श्वास, वहां जीवन और जहां श्वास नहीं, वहां - 'वन नहीं। शरीरधारी की पहचान है श्वास। श्वास नहीं है। इसका अर्थ है-मरण । आत्मा की पहचान श्वास के साथ जुड़ी हुई नहीं है। आत्मा श्वास नहीं लेती । आत्मा अमर है, मरती नहीं। श्वास लेना आत्मा का काम नहीं है । साधना का एक सूत्र है-श्वास का संयम करना। ___ आहार का संयम, वाणी का संयम, चिंतन का संयम और श्वास का संयम-साधना के ये चार महत्त्वपूर्ण सूत्र फलित हुए आत्मा के स्वरूप के आधार पर । वर्तमान का हमारा जो व्यक्तित्व है उसके आधार पर ये फलित नहीं होते। उसके आधार पर खाना, बोलना, सोचना और श्वास लेना—ये सब अत्यन्त अनिवार्य हैं। साधना के जो सूत्र फलित हुए हैं वे शरीर मुक्त आत्मा के आधार पर फलित हुए हैं। साधना का उद्देश्य है शरीर-मुक्त होना। सारे बन्धन समाप्त हो जाएं, स्थूल शरीर भी छूट जाए, सूक्ष्म शरीर भी छूट जाए-यह साधना का लक्ष्य है। इसके आधार पर साधना के ये चार सूत्र बन जाते हैं। गहरा सम्बन्ध है तत्त्वज्ञान और आचार में दर्शन और आचार को बांटा नहीं जा सकता । तत्त्वज्ञान आचार का सूचन देता ___ 2010_03 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ / जैन दर्शन और अनेकान्त है। आचार फलित होता है तत्त्वज्ञान के आधार पर । दोनों में गहरा सम्बन्ध है । इस दृष्टि से तत्त्वज्ञान और आचार को कभी अलग नहीं किया जा सकता। सहज प्रश्न होगा-आदमी को मौन क्यों करना चाहिए? विकास का लक्षण है बोलना। दो-तीन-चार इन्द्रिय वाले प्राणी भी बोलते हैं किन्तु स्पष्ट नहीं बोलते । पशु-पक्षी बोलते हैं किन्तु उनकी भाषा स्पष्ट नहीं होती । स्पष्ट भाषा केवल मनुष्य को मिली है । यदि स्पष्ट भाषा नहीं होती तो मनुष्य का समाज नहीं बनता, इतना विकास नहीं होता। भाषा विकास का मूल आधार है। फिर मौन क्यों? यदि मन का इतना विकास नहीं होता तो मनुष्य आज इतने बड़े-बड़े मकान खड़े नहीं कर सकता था। यदि कहा जाए- चिन्तन मत करो, निर्विचार रहो, यह सामाजिक बात नहीं लगती। न बोलना और न सोचना—यह सामाजिक बात नहीं है। फिर ये साधना के सूत्र क्यों बने?—यह एक ज्वलन्त प्रश्न है। अगर आत्मा का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता तो ये साधना के सूत्र कभी नहीं बन पाते। इसलिए सबसे पहले साधना का आधार, उसकी पृष्ठभूमि, उसका दर्शन और उसका तत्त्वज्ञान समझना बहुत जरूरी है। वह तत्त्वज्ञान जितना स्पष्ट होता है उतना ही साधना के प्रति आकर्षण बढ़ जाता है। 2010_03 , Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवाद के विविध पहलू धर्म की आराधना का मूल आधार है आत्मा। हमारे शरीर में आत्मा नहीं है। शरीर में आत्मा है, आत्मा अमूर्त है और शरीर मूर्त है । दार्शनिक जगत में एक प्रश्न बहुत चर्चित रहा है-अमूर्त के साथ मूर्त का सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? आत्मा और शरीर यौगिक है, एक मिश्रण है, दोनों साथ-साथ चल रहे हैं। पर यह मिश्रण कब बना और कैसे बना? यह सम्बन्ध की बात बहुत जटिल है। आत्मा मूर्त भी, अमूर्त भी __जैनदर्शन ने एक नयी स्थापना की-आत्मा शरीर से बंधी हुई है इसलिए वह सर्वथा अमूर्त नहीं है। आत्मा का अस्तित्व या स्वरूप अमूर्त हो सकता है । उसमें स्वरूपगत अमूर्तता हो सकती है, किन्तु वर्तमान में वह सर्वथा अमूर्त नहीं है । शरीर में बंधी हुई आत्मा मूर्त भी है। यदि आकाश की भांति आत्मा सर्वथा अमूर्त होती तो शरीर के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं होता। आकाश में वर्षा होती है, सर्दी होती है, धूप होती है, पर आकाश पर उसका कोई प्रभाव नहीं होता। न आकाश गीला होता है, न आकाश ठंडा होता है और न आकाश गर्म होता है । उस पर इनका कोई प्रभाव नहीं होता। यदि आत्मा आकाश की भांति सर्वथा अमूर्त होती है तो उस पर शरीर का कोई प्रभाव नहीं होता और वातावरण का भी उस पर कोई प्रभाव नहीं होता, किन्तु इनका आत्मा पर प्रभाव होता है। इसलिए यह मानना बहुत संगत है कि आत्मा कथंचित् मूर्त है । यह मूर्त और अमूर्त का योग कब बना, इसका कोई आदि-बिन्दु ज्ञात नहीं है। जब से आत्मा है, तब से वह शरीर के साथ है और इसीलिए वह मूर्तिमान बनी हुई है । भविष्य के आधार पर कहा जा सकता है-शरीर मुक्त होते ही आत्मा अमूर्त बन जाएगी। शरीर-मुक्त होने के बाद आत्मा पर हमारे जगत का वातावरण और पर्यावरण का कोई प्रभाव नहीं होता । मुक्त आत्मा न विकृत होती है, न अशुद्ध होती है । विकार और आवरण उस आत्मा में है जो आत्मा कथंचित मूर्त बनी हुई है। अमूर्त आत्मा में कोई विकार या आवरण नहीं होता। ___ 2010_03 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ / जैन दर्शन और अनेकान्त सांख्य दर्शन में आत्मा सांख्य दर्शन में आत्मा सर्वथा अमूर्त है। इसलिए उसमें न आत्मा का बंध होता है और न आत्मा का मोक्ष होता है । उसके अनुसार आत्मा कर्ता नहीं है और एक दृष्टि से भोक्ता भी नहीं है। वह उपचरित दृष्टि से भोक्ता हो सकती है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा सर्वथा अलिप्त नहीं है, सर्वथा अमूर्त नहीं है इसलिए वह सर्वथा शुद्ध नहीं है। शरीर और आत्मा—दोनों की भिन्नता का बिन्दु हम नहीं खोज सकते । यदि ऐसी अवस्था होती कि एक दिन आत्मा अमूर्त थी, बाद में शरीर के साथ संयोग हआ और वह मूर्त बन गई। जब आत्मा अमूर्त थी, तब बिल्कुल शुद्ध थी और शरीर का योग होते ही अशुद्ध बन गई। अगर ऐसा होता तो कुछ अलग बात होती । किन्तु संसारी आत्मा, अमुक्त आत्मा, कभी भी शरीर से मुक्त नहीं थी, शरीर-शून्य नहीं थी, इसलिए यह कल्पना नहीं की जा सकती। शरीर के साथ उसका सम्बन्ध कब हुआ, यह अज्ञात है। शरीर के साथ उसका सम्बन्ध कैसे हआ, यह अज्ञात है। इतना ज्ञात है-जब से संसार में आत्मा है, वह शरीर के साथ है। इससे आगे कुछ भी नहीं कहा जा सकता। आत्मा शरीर-परिमाण है ___'आत्मा शरीर के साथ है-इस आधार पर महावीर ने एक और नयी स्थापना की आत्मा शरीर-परिमाण है। आत्मा के बारे में एक सिद्धान्त यह है कि आत्मा व्यापक है । सांख्य दर्शन, नैयायिक दर्शन आदि जितने आत्मावादी दर्शन हैं, वे आत्मा को असीम मानते हैं, व्यापक मानते हैं। उनका मानना है-आत्मा पूरे संसार में फैली हुई है । जैन दर्शन की यह नयी स्थापना है-आत्मा व्यापक नहीं है । वह शरीर-परिमाण है। जितना शरीर है उतने में फैली हुई है। यदि एक चींटी का शरीर है तो आत्मा उस शरीर-परिमाण वाली है। यदि एक हाथी और सारस का शरीर है तो आत्मा उनके शरीर-परिमाण है । मनुष्य के शरीर में वह मनुष्य के शरीर-परिमाण है। सब आत्माएं समान हैं ___एक ओर जैन दर्शन का मानना है-सब जीव समान हैं। न कोई छोटा है और न कोई बड़ा है। दूसरी ओर एक हाथी की आत्मा और एक चींटी की आत्मा में स्पष्ट अन्तर दिखाई देता है। यह कैसे हो सकता है कि सब आत्मा समान हैं ? चींटी की आत्मा छोटी है और हाथी की आत्मा बड़ी है, यह सहज ही मान्य हो जाता है। 2010_03 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवाद के विविध पहलू / ९५ इस प्रश्न पर जैनदर्शन का अभिमत रहा-आत्मा द्रव्य प्रत्येक व्यक्ति में बिल्कुल समान है। प्रत्येक आत्मा के असंख्य प्रदेश या अविभक्त परमाणु हैं। किसी भी आत्मा में एक भी प्रदेश या परमाणु न न्यून है और न अधिक है। सबका प्रमाण समान है किन्तु परिमाण में अन्तर हो सकता है और परिमाण में जो अन्तर होता है वह शरीर के आधार पर होता है । इस विषय को स्पष्ट करने के लिए एक सिद्धांत की स्थापना की गई—संकोच-विस्तारवाद । आत्मा में यह क्षमता है कि वह अपने प्रदेशों का संकोच कर सकती है, विस्तार कर सकती है। आत्मा में संकोच और विस्तार-दोनों होता है । संकोच इतना किया जा सकता है कि सुई की नोक टिके उतने स्थान में अनन्त आत्माएं हो सकती हैं । यदि विस्तार किया जाए तो एक आत्मा समूचे लोकाकाश में फैल सकती है। चार चीजें समान मानी जाती हैं—लोकाकाश, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आत्मा। प्रत्येक के असंख्य प्रदेश हैं और सब समान हैं। पूरे लोकाकाश में एक आत्मा फैल सकती है और अनन्त आत्माएं एक सुई की नोक में समा सकती हैं। यह है आत्मा की संकोच-विकोच की शक्ति । संकोच-विस्तार का आधार केशी स्वामी ने राजा प्रदेशी को बताया-सब जीव समान होते हैं। उन्होंने एक उदाहरण के द्वारा इस तथ्य को समझाया-एक दीप को एक कमरे में रखा, पूरा कमरा प्रकाश से भर गया। उस दीप पर एक बड़ा-सा बर्तन लाकर रख दिया, प्रकाश उसमें सिमट गया, बाहर प्रकाश फैलना बंद हो गया। उसे हटाकर एक बिल्कुल छोटा-सा ढक्कन रखा, प्रकाश उसके भीतर सिमट गया। जैसे दीये के प्रकाश को ढक्कन के आधार पर संकुचित और विकसित किया जा सकता है, उसके प्रकाश से पूरे कमरे को प्रकाशित किया जा सकता है, संकुचित और विस्तृत बनाया जा सकता है, वैसे ही आत्मा शरीर के आधार पर अपना संकोच और विस्तार कर लेती है। आत्मा को बड़ा शरीर मिलेगा तो उसमें फैल जाएगी, छोटा मिलेगा तो उसमें सिकुड़ जाएगी। चींटी की आत्मा को मरकर एक बड़े शरीर में जाना है तो वह उतने में फैल जाएगी और हाथी की आत्मा को मरकर एक छोटे से कीटाणु में पैदा होना है तो उसकी आत्मा उतनी सिकुड़ जाएगी। यह है संकोच और विस्तार । आत्मा में संकोच-विस्तार की क्षमता है। शेष किसी द्रव्य में यह क्षमता नहीं है। न आकाश में संकोच और विस्तार होता है और न किसी दूसरे द्रव्य में ऐसा संभव होता है। आज यह माना जाने लगा है-आकाश सिकड़ता है, आकाश फैलता है, काल भी . 2010_03 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ / जैन दर्शन और अनेकान्त सिकुड़ता और फैलता है। हो सकता है—इस विषय पर एक नया अनुसंधान किया जाए। किन्तु अब तक संकोच और विस्तार की व्याख्या आत्मा के साथ ही की जाती रही है। संकोच और विस्तार सूक्ष्म शरीर के आधार पर होता है, स्थूल शरीर के आधार पर नहीं । स्थूल शरीर को छोड़कर जीव दूसरे जन्म में जाता है । एक हाथी के जीव को मरकर एक छोटे से शरीर में पैदा होना है तो वह सीधा पैदा नहीं होता, उसका सूक्ष्म शरीर, कर्म शरीर पहले ही सिकुड़ना शुरू हो जाता है और वह सिकुड़ा हुआ सूक्ष्म शरीर अपने स्थूल शरीर का उतना ही निर्माण करता है जितना उस जीव का होता है। यह संकोच और विस्तार-सूक्ष्म शरीर के आधार पर होता है। व्यवस्थित स्वीकृति जो दर्शन आत्मा को व्यापक मानते हैं उनके सामने भी एक बहुत बड़ा प्रश्न है-आत्मा व्यापक है किन्तु उसकी सारी प्रवृत्ति शरीर में मिलती है। सुख-दुःख का संवेदन वहां होता है जहां शरीर है । आत्मा व्यापक है और पूरे लोक में फैली हुई है किन्तु सारा ज्ञान और संवेदन इस शरीर के माध्यम से होता है। सांख्यदर्शन ने सूक्ष्मलिंग शरीर का संकोच-विस्तार माना है, शरीर के बिना व्यवस्था सम्यक् बैठती नहीं है। असीम और व्यापक आत्मा कुछ भी नहीं कर सकती। सब कुछ शरीर के माध्यम से होता है। शरीरगत सारी प्रक्रियाओं को स्वीकार करना आवश्यक होता है, इस दृष्टि से यह देह-परिमाण आत्मा की स्वीकृति एक व्यवस्थित स्वीकृति प्रतीत होती है। प्रश्न कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व का ___आत्मा के साथ जुड़ा हुआ एक प्रश्न है-कर्तृत्व और भोक्तृत्व का। आत्मा अपना संकोच और विस्तार करती है, वह क्यों करती है और कैसे करती है ? इसका कारण है-उसमें कर्तृत्व की शक्ति है। यदि उसका कर्तृत्व अपना नहीं होता तो वह कोई संकोच-विस्तार नहीं कर पाती। आत्मा कर्ता है और वह यह करती है अपने कर्म शरीर के कारण । इसका अर्थ है-आत्मा भोक्ता है। करने की स्वतंत्रता और भोगने की स्वतंत्रता—दोनों आत्मा में हैं। आत्मा का लक्षण बन गया—कर्ता और भोक्ता। इस बारे में दार्शनिक जगत में काफी मतभेद हैं । सांख्यदर्शन आत्मा को कर्ता नहीं मानता। उसके अनुसार सारा कर्तृत्व प्रकृति में है। प्रकृति ही कर्म करती है, प्रकृति ही बन्ध करती है और प्रकृति ही मुक्त होती है। आत्मा सर्वथा शुद्ध है। उनके न बन्ध होता है और न मोक्ष । 2010_03 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवाद के विविध पहलू / ९७ जैनदर्शन ने आत्मा को सर्वथा शुद्ध नहीं माना। इसलिए आत्मा का बंध भी होता है और आत्मा का मोक्ष भी होता है । आत्मा करती है, बंधती है । अपना कर्तृत्व और अपना भोक्तृत्व — दोनों आत्मा के साथ जुड़े हुए हैं 1 आत्मा के कर्तृत्व के साथ कर्मवाद के सिद्धांत का विकास हुआ। आत्मा के कर्तृत्व को जैनदर्शन में दो भागों में विभक्त किया गया — वैभाविक कर्तृत्व और स्वाभाविक कर्तृत्व, वैभाविक भोक्तृत्व और स्वाभाविक भोक्तृत्व । स्वाभाविक कर्तृत्व प्रत्येक दृव्य में निरन्तर परिणमन होता रहता है, परिवर्तन होता रहता है । आत्मा उस परिणमन की कर्त्ता है । आत्मा अपने स्वभाव को करती है, उसका कर्तृत्वभाव निरन्तर चलता रहता है । यदि एक क्षण भी उसका कर्तृत्वभाव बन्द हो जाए तो आत्मा का अस्तित्व समाप्त हो जाए । उसे निरन्तर कुछ न कुछ करना होता है पारिभाषिक शब्दावली में इसे कहा गया— अर्थपर्याय, स्वाभाविक पर्याय, स्वाभाविक परिणमन । परिवर्तन का चक्का स्वभाव से निरन्तर घूमता रहता है, कभी बन्द नहीं होता | आत्मा में निरन्तर परिणमन होता रहता है, इसलिए उसका अस्तित्व टिका रहता है । परिणमन बन्द हो जाए तो उसका अस्तित्व भी बन्द हो जाए। एक क्षण में आत्मा का अस्तित्व है। यदि वह दूसरे क्षण के योग्य अपने अस्तित्व को न बना सके तो उसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। अपने अस्तित्व को टिकाए रखने के लिए प्रतिक्षण करना होता है और यही आत्मा का स्वाभाविक कर्तृत्व है । वैभाविक कर्तृत्व I एक आत्मा मनुष्य बन गई और एक आत्मा पशु बन गई । एक आत्मा तिर्यंच योनि में चली गई, एक नरक गति में चली गई, एक देव गति में चली गई । यह है, वैभाविक कर्तृत्व । व्यक्ति अपने कर्तृत्व से मनुष्य बना है, उसे कोई बनाने वाला नहीं है । अपने कर्तृत्व से ही वह पशु गति में चली जाती है । यह उसका वैभाविक कर्तृत्व है । उसने अपने साथ एक ऐसा जाल रच रखा है जिसके कारण उसका कर्तृत्व चलता है और उसे नाना गतियों में भ्रमण करना पड़ता है । यह गतिवाद, नाना गतियों में परिभ्रमण का चक्र, आत्मा के कर्तृत्व के आधार पर चलता है । उसे दूसरा कोई करने वाला नहीं है । प्रश्न सुख-दुःख का इस कर्तृत्व के सिद्धांत के आधार पर साधना का एक बहुत बड़ा सूत्र प्रस्तुत 2010_03 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ / जैन दर्शन और अनेकान्त होता है दुनिया में कोई किसी को सुख-दुःख नहीं देता। यह मानना मिथ्या है कि अमुक आदमी ने मुझे सुख दिया और अमुक आदमी ने मुझे दुःख दिया। साधक कभी अपने सुख और दुःख को दूसरे पर आरोपित नहीं कर सकता। इस तथ्य को समझने में कुछ कठिनाई हो सकती है। प्रत्येक आदमी कहता है-उसने मुझे सुखी बना दिया और उसने मुझे बड़ा दुखी बना दिया। सुख-दुःख का आरोपण दूसरों पर होता है। आदमी अपने आपको बचा लेता है और दूसरों पर आरोपण कर देता है। यह मिथ्या भ्रम है। इसका टूटना बहुत जरूरी है। दूसरा आदमी कुछ भी नहीं करता, ऐसी बात नहीं है । वह किसी को सुख देना चाह सकता है और किसी को दुःख देना भी चाह सकता है। किन्तु उसके वश में नहीं है कि वह किसी को सुख दे सके और किसी को दुःख दे सके। वह केवल सुख के साधनों को जुटा सकता है, दुःख के साधनों को जुटा सकता है। वह दुःख देने वाले वातावरण और परिस्थिति का निर्माण कर सकता है, सुख देने वाले वातावरण या परिस्थिति का निर्माण कर सकता है। इससे आगे उसकी सीमा समाप्त हो जाती है। वह सुख-दुःख दे नहीं सकता, उनका निमित्त बन सकता है। संदर्भ दुःख का ___ एक साधक ध्यान की मुद्रा में खड़ा था। उसे देखते ही एक मनुष्य के मन में प्रतिशोध की आग भभक उठी। उसने सोचा यह कैसा आदमी है ! मेरी कन्या के साथ इसकी शादी निश्चित की गई और यह उसे छोड़कर संन्यासी बन गया। इस चिन्तन से उसके प्रतिशोध की आग अत्यधिक तीव्र बन गई। उसने सोचा-~-इसे अभी मार डालूं। पास ही श्मशान में आग जल रही थी। समीपस्थ तालाब में गीली मिट्टी थी। वह मनुष्य मिट्टी ले आया और उसने साधक के सिर पर पाल बांध दी। उस पाल में उसने जलते हुए अंगारे लाकर रख दिए। हम इस भाषा में सोचेंगे-उसने साधक को कितना दुःखी बना दिया। किन्तु जिसे दुःखी बनाया गया, वह क्या सोचता है?-यह अधिक महत्त्वपूर्ण है। वह आत्मलीन बन गया। वह परम ज्ञान एवं परम आनन्द भोग रहा है । कैवल्यज्ञान की प्राप्ति, मोहनीय कर्म का विलय और अनंत आनन्द उसमें प्रकट हो गया। वह सुख में डूब गया। बाहर से देखने वाला सोचता है—बेचारा कितना दुःखी है और करने वाला समझता है—मैने प्रतिशोध ले लिया, बदला ले लिया, दुःखी बना दिया। इन दोनों में कहीं कोई तालमेल नहीं है। 2010_03 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवाद के विविध पहलू / ९९ दूसरा आदमी दुःख की सामग्री जुटा सकता है पर किसी को दुःखी बना नहीं सकता । दुःखी होना अपने हाथ में है। जैनदर्शन का प्रसिद्ध सूत्र है-अप्पा कर्ता विकता य दुहाण या सुहाण य'-सुख-दःख की कर्ता और विकर्ता अपनी आत्मा है। यदि दूसरा कर्ता होता तो यह सिद्धांत गलत हो जाता। किन्तु यह सिद्धांत सही है, दूसरा कोई कर्ता नहीं है । कर्ता अपनी ही आत्मा है। सन्दर्भ सुख का सुख के संदर्भ में भी यही तथ्य सत्य की कसौटी पर खरा उतर सकता है। एक व्यक्ति बहुत उदास था, बहुत दु:खी था । उसे संवाद मिला था कि तुम्हारा जवान लड़का मर गया है। नौकर उसके दुःखी एवं उदास होने का कारण नहीं समझ पाए। उन्होंने सोचा आज स्वामी उदास कैसे? वे हर सुविधा जुटाना चाहते थे, उदासी मिटाने के लिए। गर्मी का मौसम था, पंखा चला दिया, वातानुकूलन शुरू हो गया। पीने के लिए ठंडा पेय सामने रख दिया। जितनी सुविधाएं जुटाई जा सकती थीं, वे सारी जुटा दी, किन्तु उदासी नहीं मिटी। वह भोजन करता है। सारी बढ़िया सामग्री सामने पड़ी है, पर मन में भयंकर दुःख और कष्ट है। सारी सुविधा की सामग्री और सुख की सामग्री होने पर भी वह बड़ा दुःखी है, बेचैन है । कोई किसी को सुखी बना नहीं सकता। दूसरा केवल सुख-सुविधा की सामग्री जुटा सकता है। चिन्ता है शरीर की कोई पैदल चलता है तो दूसरा कहता है—देखो ! बेचारा शरीर को कितना सता रहा है ! एक व्यक्ति गर्मी में बैठा है, पंखा नहीं चलाता है तो देखने वाला कहता है शरीर को कितना सताया जा रहा है। सर्दी को सहना, गर्मी को सहना और कष्ट को सहना, इसका अर्थ हो गया शरीर को सताना । शरीर को सताया जा रहा है-इसकी चिन्ता है किन्तु आत्मा को सताया जा रहा है-इसकी कोई चिन्ता नहीं व्यक्ति का सारा दृष्टिकोण शरीरलक्षी है। साधना का सूत्र है आत्माभिलक्षी होना। आत्मा के कर्तृत्व और आत्मा के भोक्तृत्व से साधना का यह सूत्र फलित हुआ। आत्मलक्षी दृष्टिकोण में शरीर का संयम महत्त्वपूर्ण होगा। शरीर का संयम होता है तो चंचलता कम होती है। आसन करने से, पद्मासन में बैठने से, शरीर को कष्ट होता है। सर्दी को सहना, गमी को सहना, आने वाले सारे तापों को सहना, शरीर को कष्ट देना है। यदि आत्मा का कर्तृत्व और भोक्तृत्व नहीं है तो सहने की 2010_03 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० / जैन दर्शन और अनेकान्त कोई जरूरत नहीं है । सुख-दुःख को करने वाली आत्मा है इसलिए सहना आवश्यक है । आत्मलक्षी होना शरीरलक्षिता को कम करना है। इससे सहन करने की बात स्वतः फलित होती है । दर्शन की दो धाराएं दर्शन के क्षेत्र में दो धाराएं हैं- एकात्मवाद और अनेकात्मकवाद । कुछ दर्शनों का मत है— आत्मा एक है। जैनदर्शन अनेकात्मवादी है । उसके अनुसार आत्मा अनंत हैं । प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है, कोई आत्मा ईश्वर का अंश नहीं है, ब्रह्मा का अंश नहीं है और न कोई माया या प्रपंच है। हर आत्मा का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है । संख्या की दृष्टि से अनंत अनंत आत्माएं हैं और उन सबका अपना-अपना कार्य है । अकेली आत्मा जन्म लेती है; अकेली आत्मा मरती है और अकेली आत्मा अपने सुख-दुःख का संवेदन करती है। उसका कोई हिस्सा नहीं बंटाता, उसमें कोई भागीदार नहीं बनता । सब कुछ अपना होता है । हो सकता है— इससे स्वार्थवाद के पनपने की संभावना की जा सके । प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है और सब कुछ अपना-अपना है, अपना सुख और अपना दुःख, अपना संवेदन और अपना ज्ञान, अपना जन्म और अपनी मृत्यु — यह नितान्त स्वार्थवाद है। अपनी ही चिन्ता करो, दूसरों की चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं । अपना किया कर्म अपने को भोगना है, दूसरा कोई बीच में नहीं आता । अच्छा करता है तो अच्छा भोगता है और बुरा करता है तो बुरा भोगता है । न बाप काम आता है, न माता काम आती है, न भाई काम आता है, न और कोई काम आता है । इससे स्वार्थवादी भावना पनपेगी। बस, अपना करो और अपना भोगो, दूसरों से क्या लेना-देना । प्रत्येक व्यक्ति सोचेगा - मैं दूसरों के लिए क्यों करूं ? दूसरे के लिए क्यों कर्म बांधू ? मेरा कर्म मुझे भुगतना है। एक ओर स्वार्थवाद का यह स्वर मिलता है तो दूसरी ओर मिलता है महायान का— जब तक सब जीवों की मुक्ति नहीं होती, तक तक मैं मोक्ष में जाना नहीं चाहता। एक ओर सबकी मुक्ति का विचार और दूसरी ओर अपनी मुक्ति का विचार । मुझे मुक्त होना है, दूसरों की दूसरे जानें, मुझे कोई चिन्ता नहीं है। अपनी मुक्ति का विचार और समष्टि की मुक्ति का विचार - दोनों दृष्टिकोणों में बड़ा अन्तर है । वास्तविक सच्चाई क्या है ? क्या यह मान लिया जाए – स्वतन्त्र या प्रत्येक आत्मा की भावना ने मनुष्य में स्वार्थ की भावना पैदा की है ? मनुष्य स्वार्थी बना है ? इसके दो पहलू हैं- दार्शनिक 2010_03 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवाद के विविध पहलू । १०१ और व्यावहारिक । दार्शनिक पहलू के आधार पर कहा गया-आत्मा एक है, व्यवस्था की दृष्टि से नाना आत्माएं हैं। हमारे सामने एक आत्मा नहीं है। एक आत्मा है, यह दार्शनिक प्रकल्पना है। व्यक्ति के सामने असंख्य आत्माएं हैं। हर मनुष्य की अपनी आत्मा है, हर पशु की अपनी आत्मा है। प्रश्न हुआ—यह कैसे? इस प्रश्न को समाहित करने के लिए एक पूरे मायावाद या प्रपंचवाद की कल्पना की गई। कहा गया वास्तव में आत्मा एक है किन्तु अनेक आत्माएं जो दिखाई दे रही हैं, वह व्यक्ति की दृष्टि का आभास है, मिथ्या दृष्टिकोण है । वह वास्तविक सच्चाई नहीं है । जैनदर्शन ने इसे वास्तविक सच्चाई माना है। प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है और अनंत आत्माएं हैं। यह अव्यावहारिक नहीं, काल्पनिक नहीं, आभास नहीं, किन्तु वास्तविक सच्चाई है। आत्मवाद : व्यावहारिक पहलू व्यावहारिक पहलू से देखें तो एकात्मवाद से एकता फलित होती है। सब आत्माएं एक हैं—इस अद्वैतवाद में एकता की साधना फलित हुई । कहा गया सबको एक ही अनुभव करें। प्राणी को ईश्वरीय अंश मानने वाले कहते हैं हम सब एक ही पिता के पुत्र हैं । हमारा एक ही परिवार है। यह बात बहुत अच्छी है । पर व्यवहार में कोई भी व्यक्ति अपने आपको एक पिता का पुत्र नहीं मानता। सब बंटे हुए हैं इसीलिए हिंसा, अपराध, दूसरों को सताना और दूसरों के प्रति क्रूर व्यवहार करना चल रहा है। एक ही पिता के पुत्र हों तो यह सब नहीं चलता । सच्चाई यह है-एक बाप के चार बेटों में भी विरोध और विग्रह चलता है। यह दर्शन की बात जीवन में अभी तक उतरी नहीं है । जैनदर्शन के अनुसार एकत्व की बात फलित नहीं होती। 'हम सब एक है'-यह फलित नहीं होता। उसके अनुसार फलित होता है-'हम सब समान हैं'। किन्तु व्यवहार में यह भी फलित नहीं होता। जैनदर्शन को मानने वाले भी समानता के आधार पर व्यवहार नहीं करते। सब आत्माएं हैं, किन्तु व्यक्ति का व्यवहार सबके प्रति समान नहीं है। उसमें बहुत विषमता है और सारा व्यवहार विषमतापूर्ण चल रहा है। आत्मवाद : दार्शनिक पहलू व्यावहारिक पहलू पर एकात्मवाद और अनेकात्मवाद दोनों में किसी को भी बहुत सफलता मिली है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। किसी व्यक्ति ने भले ही भावना के स्वर में कह दिया-मैं तब तक मोक्ष जाना नहीं चाहता, जब तक सब मोक्ष नहीं 2010_03 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ / जैन दर्शन और अनेकान्त चले जाते । कोई-कोई समानता के आधार पर ऐसा व्यवहार कर सकता है । यह एक आपवादिक स्वर हो सकता है किन्तु इसके आधार पर समाज में न तो एकत्व का प्रयोग हुआ और न समत्व का प्रयोग हुआ। व्यावहारिक दृष्टि से समाज में कोई परिवर्तन नहीं लगता। अनेक आत्मा मानने से या प्रत्येक आत्मा की स्वतंत्र सत्ता मानने से स्वार्थवाद पनपा, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। और एक आत्मा मानने से परमार्थवाद पनपा, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। प्रश्न दार्शनिक पहलू का है। उसके संदर्भ में कहा जा सकता है-एकात्मवाद की व्याख्या काफी जटिल है, व्यवहार के साथ उसकी संगति बिठाने में काफी . जटिलताएं हैं। प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा स्वतंत्र है, अनेकात्मवाद का यह सिद्धान्त दार्शनिक प्रक्रिया की दृष्टि से सरल और स्पष्ट अनुभव देने वाला है। मैं कौन हूँ? आत्मा के बारे में इन सारे सिद्धांतों को जानने के बाद जो निष्कर्ष आएगा, जो एक प्रश्न उभरेगा, वह होगा-मैं कौन हं? जब तक आत्मा के इतने पहलओं को नहीं जान लिया जाता, तब तक 'मैं कौन हूं?' यह बात समझ में नहीं आती और इसका उत्तर भी नहीं दिया जा सकता। साधना का महत्त्वपूर्ण प्रश्न है—'मैं कौन हूं?' साधना के इस प्रश्न को समाहित करने के लिए दर्शन के इतने सारे प्रश्नों को अपनाना जरूरी है और इन प्रश्नों को समझने के बाद ही व्यक्ति अपने आपको यह उत्तर दे सकता है-'मैं कौन हूं ?' 2010_03 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्य-कारणवाद एक कपड़ा है। प्रश्न हुआ-'कपड़ा किससे बनता है?' उत्तर मिला-'रुई से बनता है।' 'रुई कहां से आई?' 'कपास के पौधे से।' 'कपास का पौधा किससे बना? 'वनस्पति के जीव और पुद्गल—दोनों का योग मिला, कपास का पौधा बन गया।' कपड़े का कारण है रुई, रुई का कारण है कपास और कपास का कारण है जीव तथा पुद्गल का योग। प्रश्न और आगे बढ़ा-जीव किससे बना? परमाणु किससे बना? प्रश्न रुक जाता है, थम जाता है। इसका कोई उत्तर नहीं हो सकता। जीव के बारे में कोई कारण नहीं बताया जा सकता, परमाणु के बारे में कोई कारण नहीं बताया जा सकता। कारण की खोज यहां समाप्त हो जाती है। जीव कार्य नहीं है और उसका कोई कारण नहीं है । परमाणु कार्य नहीं है और उसका भी कोई कारण नहीं है। तर्कशास्त्र का सिद्धांत है-हर वस्तु में कार्य-कारण खोजो। यह एक स्थूल तथ्य है। व्यवहार के क्षेत्र में यह नियम लागू हो सकता है किन्तु सूक्ष्म जगत् में कार्य-कारण के सिद्धान्त का कोई अर्थ नहीं है । सूक्ष्म जगत् में न कोई किसी का कारण होता है और न कोई किसी का कार्य । जीव और परमाणु का अपना अस्तित्व होता है, उनका कोई कारण नहीं होता। यदि परमाणु का कोई कारण माना जाए तो कारण की श्रृंखला अनन्त बन जाएगी। वह कहीं थमेगी ही नहीं। तर्कशास्त्र में इसे अनवस्था दोष कहा जाता है। जीव का कारण मानने पर भी कार्य-कारण की श्रृंखला का कहीं अन्त नहीं होगा। 2010_03 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ / जैन दर्शन और अनेकान्त प्रश्न निरपेक्ष सत्य का सत्य के दो प्रकार हैं-सापेक्ष सत्य और निरपेक्ष सत्य । कुछ दार्शनिकों ने कहा—जैनदर्शन में जितने सत्य हैं, वे सारे सापेक्ष हैं। कोई निरपेक्ष सत्य नहीं है। ईश्वरवादी, ईश्वर को निरपेक्ष सत्य मानते हैं किन्तु जैनदर्शन में निरपेक्ष सत्य का कोई स्थान नहीं है। कपड़ा सत्य है किन्तु सापेक्ष सत्य है । अभी कपड़ा है और वह दस दिन में बदल जाएगा। सब कुछ सापेक्ष। वस्तुतः निरपेक्ष सत्य क्या है? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न रहा है। यदि इस प्रश्न पर तात्विक दृष्टि से विचार किया जाए तो जैनदर्शन के सामने यह कोई उलझन नहीं है। उसमें दोनों सत्य स्वीकार्य हैं। पंचास्तिकाय निरपेक्ष सत्य है । वह किसी की अपेक्षा से नहीं है, किसी कारण से नहीं है। वह कारण और अपेक्षा से मुक्त एक अहेतुक सत्य है। उसके पीछे कोई अपेक्षा नहीं है, कोई हेतु नहीं है। वह अपने स्वभाव से सत्य है । अस्तित्व स्वाभाविक है, वहां कार्य-कारण का सिद्धांत समाप्त हो जाता है। अनादि परिणमन है निरपेक्ष सत्य जैनदर्शन का एक सिद्धांत है-पारिणामिक भाव। उसे दो भागों में विभक्त किया गया—अनादि पारिणामिक और सादि पारिणामिक । जो मूल तत्त्व हैं, अस्तित्व हैं, वे अनादि पारिणामिक हैं। उनके परिणमन का आदि बिन्दु किसी को ज्ञात नहीं है। अस्तित्व का निरन्तर परिणमन होता रहता है, अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता रहता है, उसका कोई आदि बिन्दु नहीं खोजा जा सकता । पंचास्तिकाय, काल, लोक अलोक-ये सब अनादि पारिणामिक हैं। दूसरा है सादि पारिणामिक । मकान बना। पहले मकान नहीं था, मकान बन गया-यह सादि परिणमन है। कपड़ा नहीं था, कपड़ा बन गया, यह सादि परिणमन है। मनुष्य बन गया--यह सादि परिणमन है। निराधार भ्रम जितने सादि परिणमन हैं, उनमें कार्य-कारण को खोजा जा सकता है। जितने अनादि परिणमन हैं, उनमें कार्य-कारण को खोजने की कोई अपेक्षा नहीं होती । सादि परिणमन है सादि सत्य और अनादि परिणमन है निरपेक्ष सत्य । ___जैनदर्शन में निरपेक्ष सत्य की स्वीकृति नहीं है' यह भ्रम निराधार : अहेतुक है । जैन दर्शन में निरपेक्ष सत्य का स्पष्ट उद्घोष है । जितने मूल अस्तित्व हे अनादि 2010_03 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्य-कारणवाद / १०५ परिणमन हैं, वे सब निरपेक्ष सत्य हैं । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्किाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल -- ये सब निरपेक्ष सत्य हैं । लोक और अलोक भी निरपेक्ष सत्य हैं । इनके अतिरिक्त जितने भी सादि परिणमन हैं, वे सब सापेक्ष सत्य हैं । सापेक्ष सत्य में ही कार्य-कारण को खोजा जा सकता है। कारण के तीन प्रकार तर्कशास्त्र में तीन प्रकार के कारण माने गए हैं- उपादान कारण, निमित्त कारण और निवर्तक कारण, सहयोगी या सहकारी कारण । घड़ा बनाया जाता है उसका उपादान कारण है मिट्टी । उसका निवर्तक कारण है कुम्हार । उसके बनाने में जिन उपकरणों का प्रयोग होता है, वे हैं निमित्त कारण। जितने सादि परिणमन हैं उनमें इन तीनों कारणों को खोजा जा सकता है किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि तीनों कारण सर्वत्र उपलब्ध हों । उपादान कारण का होना अत्यन्त अनिवार्य है । सादि परिणमन और निमित्त भी अनिवार्य है। किन्तु निवर्तक सर्वत्र हो, यह आवश्यक नहीं है । घड़े और मकान के निर्माण में कर्त्ता की जरूरत होती है। आकाश में बादल बनते हैं । उनका कोई कर्ता नहीं है । यह स्वाभाविक परिणमन है। जहां स्वाभाविक परिणमन होता है, वहां कर्त्ता की जरूरत नहीं होती, दो कारण मिलकर कार्य की निष्पत्ति कर देते हैं । जो कार्य स्वाभाविक नहीं होते हैं, कृत होते हैं, उनमें तीनों कारण उपलब्ध होते हैं । I सृष्टि के निर्माण का प्रश्न कार्य और कारण की श्रृंखला पर अनेकान्त दृष्टि से विचार आवश्यक है । अनेक दार्शनिक सर्वत्र कार्य-कारण की अनिवार्यता स्वीकार करते हैं । सृष्टि का प्रारम्भ ईश्वर से होता है। ईश्वर कर्त्ता है और सृष्टि उसका कार्य है। इससे उपादान का प्रश्न और अधिक उलझ जाता है । ईश्वरवाद और कार्य-कारणवाद का भी परस्पर एक सम्बन्ध रहा है। कार्य-कारणवाद के आधार पर ईश्वर को स्वीकार किया जाता है । एक तर्क प्रस्तुत होता है- 'अगर सृष्टि कार्य है तो उसका कर्ता भी होना चाहिए । घड़ा एक कार्य है तो उसका भी कोई कर्त्ता है और उसका जो कर्ता है, वही ईश्वर । यह तर्क भी बहुत सुलझा हुआ नहीं। इस सन्दर्भ में अनेक प्रश्न उभर जाते हैं। ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण किया है। उसने संकल्प से किया या उपादान से ? अगर उपादान मांजूद थे और सृष्टि का निर्माण किया तो परमाणुओं के संघात से किया या ऐसे संकल्प से ही कर दिया ? ईश्वर ने संकल्प किया और सृष्टि बन गई । 2010_03 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ / जैन दर्शन और अनेकान्त कामघट्ट की कहानी विश्रुत है । चिन्तामणि व्यक्ति के पास है, संकल्प किया और सृष्टि तैयार हो गई, वस्तु तैयार हो गई। क्या संकल्प से सृष्टि का निर्माण हुआ या परमाणुओं के संघात से सृष्टि का निर्माण हुआ? यह दार्शनिक जगत् का बहुचर्चित प्रश्न है । उपादान मूल कारण है d यदि परमाणु आदि की सामग्री से सृष्टि का निर्माण हुआ है तो इसका अर्थ होगा ईश्वर भी अनादि है और परमाणु आदि का जगत् भी अनादि है । इस दृष्टि से सृष्टि का निर्माण कोई विशेष बात नहीं है। जैसे एक कुम्हार घड़ा बनाता है, एक शिल्पी मूर्ति का निर्माण करता है वैसे ही किसी ने सृष्टि का निर्माण कर दिया । इसे विलक्षण घटना नहीं माना जा सकता । प्रश्न है सामग्री का । सामग्री, उपादान मूल कारण है। उसे अनादि माने बिना कहीं व्यवस्था बैठती नहीं है। जैन दर्शन का यह स्पष्ट अभ्युपगम है । प्रत्येक पदार्थ अनादि है | चेतन और अचेतन—दोनों अनादि हैं। कार्य-कारण सर्वत्र मान्य नहीं जैनदर्शन की दूसरी महत्त्वपूर्ण स्वीकृति है— जितने पदार्थ कल थे, उतने ही आज हैं, उतने ही आगे रहेंगे। एक भी परमाणु न कम होगा और न ज्यादा होगा । जितने थे, उतने हैं और उतने ही रहेंगे । यह त्रैकालिक व्यवस्था है । न किसी को बनाने की जरूरत और न किसी के नष्ट होने की अपेक्षा । न कोई बनता है और न कोई बिगड़ता है, केवल परिवर्तन होता है, परिणमन होता है, रूपान्तरण होता है । L 'सब अपने स्वरूप में हैं' इसी आधार पर अनेकान्त के इस सिद्धांत - नित्यानित्यवाद का विकास हुआ । अस्तित्व की दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ नित्य है और दर्शन की दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ अनित्य है । जैन दर्शन के अनुसार न किसी को नित्य कहा जा सकता है और न किसी को अनित्य कहा जा सकता है। अगर परमाणु नित्य है तो आत्मा भी नित्य है | यदि परमाणु अनित्य है तो आत्मा भी अनित्य है । अगर आत्मा मरता है तो परमाणु भी मरता है और परमाणु अमर है तो आत्मा भी अमर है । आत्मा और परमाणु-दोनों अमर हैं, दोनों मरणधर्मा हैं। इन दोनों में परिवर्तन होता है, कोई परिवर्तन नहीं होता । यह अनादि और सादि परिणमन का सिद्धान्त है ! जहां परिणमन का सिद्धांत होता है, वहां कार्य-कारण की सीमा बहुत संकुचित हो जाती है। जैनदर्शन में कार्य-कारण को सर्वत्र नियमित नहीं किया गया । प्रत्येक कार्य 2010_03 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्य-कारणवाद / १०७ के पीछे कारण होना ही चाहिए, यह सिद्धान्त जैनदर्शन में सम्मत नहीं है। जहां केवल सादि परिणमन होता है, वहां यह सिद्धान्त लागू हो सकता है। अन्यत्र इसकी कोई अपेक्षा नहीं है। जगत् : दार्शनिक जगत् का अहं प्रश्न ____ दार्शनिक जगत का एक अहं प्रश्न है—यह जगत क्या है ? जिस जगत में हम जी रहे हैं, वह क्या है ? इसका बहुत सीधा उत्तर है-अनादि और सादि परिणमन का योग, इसका नाम है जगत । कुछ अनादि परिणमन हैं, वे सूक्ष्म हैं, मूल तत्त्व है। जो मूल तत्त्व हैं, सूक्ष्म हैं वे अदृश्य रूप में काम आ रहे हैं । जीव सूक्ष्म तत्त्व है, परमाणु सूक्ष्म तत्त्व है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय—ये अमूर्त हैं। इनका कोई मूर्तिकरण नहीं है। पुद्गल मूर्त हैं। किन्तु सूक्ष्म पुद्गल भी अनन्तान्त होते हैं। . जगत् को दो भागों में बांटा गया-दृश्य जगत् और अदृश्य जगत् । चार तत्वों का जगत् अदृश्य जगत् है, काल भी अदृश्य है। केवल पुद्गल का जगत् दृश्य बनता है। किन्तु सभी पुद्गल हमारे लिए दृश्य नहीं बनते। दो प्रकार की परिणतियां होती है-एक सूक्ष्म परिणति और दूसरी स्थूल परिणति । जिन पुद्गलों की परिणति स्थूल बन जाती है, उन्हें आंख के द्वारा देखा जा सकता है। जिनकी परिणति सूक्ष्म रहती है, उन्हें आंख के द्वारा नहीं देखा जा सकता । वे दृश्य होते हुए भी अदृश्य बने रहते हैं, चक्षु का विषय नहीं बनते । जैसे-जैसे शक्ति का विकास होता है, अदृश्य दृश्य बनते चले जाते हैं। चर्मचक्षुओं से जिन वस्तुओं को नहीं देखा जा सकता, उन्हें वर्तमान में माइक्रस्कोप के द्वारा देखा जा सकता है, सूक्ष्म यान्त्रिक उपकरणों के द्वारा देखा सकता है। हमारी इन्द्रियों की पटुता यंत्र के माध्यम से और अधिक बढ़ जाती है। एक अतिशयज्ञानी, अवधिज्ञानी और मन:पर्यवज्ञानी सूक्ष्म पुद्गल को देख सकता है। अमूर्त पदार्थ को सर्वज्ञ के सिवाय कोई नहीं देख सकता। अवधि, मन:पर्यव, प्रातिभ, जातिस्मरण आदि से सम्पन्न व्यक्ति सूक्ष्म पुद्गलों को देख सकते हैं । जो पुद्गल चर्मचक्षु के विषय नहीं बनते, वे अतीन्द्रिय ज्ञान का विषय बन जाते हैं। दृश्य जगत् क्या है? सारा दृश्य जगत् दो भागों में बंट जाता है-चक्षु से देखा जाने वाला दृश्य जगत और अतिशय ज्ञान के द्वारा देखा जाने वाला दृश्य जगत । अदृश्य कैसे बनता है? सूक्ष्म की स्थूल परिणति कैसे होती है? सूक्ष्म को स्थूल कौन करता है? ये 2010_03 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ / जैन दर्शन और अनेकान्त प्रश्न भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । जैनदर्शन ने इन पर बहुत सूक्ष्मता से विचार किया है। इनमें ईश्वर कर्तृत्व स्वीकार करने की कोई अपेक्षा नहीं हैं। सूक्ष्म से स्थूल बनने की प्रक्रिया जीव और पुद्गल के संयोग से स्वाभाविक रूप से स्वत: चलती है, चल रही है। सारा दृश्य जगत जीव-शरीर का जगत् है। एक कपड़ा वनस्पतिकायिक जीव का शरीर है। एक पत्थर पृथ्वीकायिक जीव का शरीर है। पानी, जो प्यास बुझाता है, अप्कायिक जीव का शरीर है। आग अग्निकायिक जीव का शरीर है। हवा चल रही है, स्पर्श के द्वारा उसका बोध होता है, वह वायुकायिक जीवों का शरीर है। मनुष्य त्रसकायिक जीवों का शरीर है । इस जगत् का प्रत्येक दृश्य पदार्थ जीव का शरीर है। दृश्य जगत् के दो विकल्प बनते हैं—जीवित शरीर और जीवमुक्त शरीर । जितना दृश्य जगत् है, जो दिखाई दे रहा है, वह जीवयुक्त या जीवमुक्त शरीर है। प्रत्येक व्यक्ति जीवित शरीर को देखता है अथवा मृत शरीर को । दृश्य जगत्. के ये दो ही विकल्प हैं । उसका तीसरा कोई विकल्प नहीं है। जैनदर्शन के दो प्रसिद्ध पारिभाषिक शब्द हैं-सचित्त और अचित । जिसमें जीव विद्यमान हो, वह सचित्त शरीर है। जिसका जीव चला गया, जो मृत्त हो गया, वह अचित्त शरीर वाला होता ___यह नियम अत्यन्त व्यापक है कि जो दृश्य जगत् है, स्थूल जगत् है, वह सारा का सारा जीव का शरीर है । जीव के द्वारा उसका स्थूलीकरण हुआ है। सिद्धान्त पुद्गल वर्गणा का ___जीव पुद्गलों की वर्गणाओं को ग्रहण करता हरता है। एक व्यक्ति बोलता है किन्तु वह तब तक नहीं बोल पाता जब तक वह भाषा-वर्गणा के पुद्गल को ग्रहण नहीं कर लेता। वर्गणा का सिद्धान्त अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । जैनदर्शन में पुद्गलों तत्त्व को अनेक वर्गणाओं में बांटा गया। उनमें मुख्य वर्गणाएं हैं—शरीर-वर्गणा, भाषावर्गणा, मनो-वर्गणा, कर्म-वर्गणा आदि-आदि । यदि वर्गणाओं का विस्तार किया जाए तो उनकी एक लम्बी तालिका प्रस्तुत हो सकती है । इस आकाश मण्डल में भाषा-वर्गणा के पुद्गल भी हैं, चिन्तन की वर्गणा के पुद्गल भी हैं, मनो-वर्गणा के पुद्गल भी हैं, श्वासोच्छ्वास वर्गणा के पुद्गल भी हैं, किन्तु बोलने में वे ही पुद्गल काम आएंगे, जो भाषा-वर्गणा के हैं। श्वासोच्छ्वास के पुद्गल बोलने के काम नहीं आएंगे। यदि आदमी को श्वास लेना है तो श्वासोच्छवास के पुद्गल काम आएंगे, भाषा-वर्गणा 2010_03 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्य-कारणवाद / १०९ पुद्गल काम नहीं आएंगे। पूरे आकाशमंडल में इतनी सारी व्यवस्थाएं हैं। इसका अर्थ है-जिस समय हम जो काम करते हैं. उस समय उसी वर्गणा के पुद्गल हमारे काम आते हैं। जीवित कार्य का नाम है भावक्रिया __इस सिद्धान्त से साधना का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र फलित होता है—भावक्रिया। यह जैन साधना पद्धति का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शब्द है। काम दो प्रकार के होते हैं-मुर्दाकाम और जीवितकाम । एक कार्य मृतकार्य होता है, एक कार्य जीवित कार्य होता है। एक व्यक्ति अंगुली हिला रहा है, माला जप रहा है, अपने इष्ट का स्मरण कर रहा है, यह एक कार्य है। किन्तु यदि उसकी अंगली हिल रही है। माला के मनकों पर और मन चक्कर लगा रहा है दुनिया के किसी कोने में तो वह कार्य मृतकार्य होगा। यदि अंगुली माला के मनकों पर चल रही है और मन भी केवल इष्ट स्मरण में केन्द्रित है, इसका अर्थ है-वह कार्य जीवित कार्य है। इस जीवित कार्य का नाम है- भावक्रिया। भावक्रिया का अर्थ है-जिस समय हम जो करें, हमारा मन उसी में लगा रहे, हम उसी काम को जानते हुए करें, कोई भी काम अनजाने में न करें । साधना सूत्र के निर्धारण में वर्गणा का सिद्धान्त बहुत सहयोगी बना है। आवश्यक है साधना में अलगाव __ वर्गणा के सिद्धांत का एक फलित है—प्रवृत्ति की सीमा । बोलते समय भाषा वर्गणा के पुद्गल ही काम आ सकते हैं, श्वास-वर्गणा या कर्म-वर्गणा के पुद्गल काम नहीं आ सकते। जिस कार्य में जो निमित्त बनता है, उपादान बनता है, उसी का उपयोग होता है। प्रत्येक वर्गणा की एक निश्चित सीमा है। भाषा-वर्गणा का काम अलग है, मनोवर्गणा का काम अलग है, श्वास-वर्गणा का काम अलग है। सबकी अपनी-अपनी सीमा है, अपना-अपना कार्य है। साधना के क्षेत्र में भी यह अलगाव आवश्यक है। साधक जिस समय खाए, उस समय केवल खाए ही। बोले तो केवल बोले, चले तो केवल चले, सुने तो केवल सुने । यह नहीं होना चाहिए कि चलने के साथ-साथ चिन्तन भी चले। जैन साधनापद्धति में यह मान्य नहीं है। भगवान महावीर ने चलने की विधि का जो निर्देश दिया है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने कहा—साधक जिस समय चले उस समय केवल चले। केवल चलने का अर्थ है-न बोले, न सोचे, न खाए। और किसी काम में नहीं, केवल चलने में ___ 2010_03 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० / जैन दर्शन और अनेकान्त ही शरीर की सारी प्रवृत्ति नियोजित हो जाए । चलने वाला और चलना-दो न रहे, गति और गन्ता एक बन जाए, यह है भावक्रिया। भेद विज्ञान का सूत्र हृदय जगत् में वर्गणाओं की एक व्यवस्था है। इस पौद्गलिक व्यवस्था से साधना के अनेक सिद्धान्त फलित होते हैं । व्यक्ति दृश्य जगत् में रहता है, अदृश्य जगत् में जीता है। प्रत्येक साधक का चिन्तन होना चाहिए-मैं दृश्य नहीं हूं, दृश्य जगत् मेरा नहीं है क्योंकि दृश्य जगत् केवल पुद्गल है। साधक के चिन्तन का एक संदर्भ होता है-मैं धर्मास्तिकाय नहीं हूं। वह अचेतन है, उसका काम है गति में सहयोग। मैं अधर्मास्तिकाय नहीं हूं, वह भी अचेतन है, उसका काम है स्थिति में सहयोग। मैं आकाश भी नहीं हं. वह भी अचेतन है। मैं पगल भी नहीं हूं, वह मूर्तिमान् है, अचेतन है। मैं इन सबसे परे हूं। अचेतन से परे, मूर्तिमान से परे, मैं केवल चैतन्य हूं। मैं चेतन अमूर्त अस्तित्व का धनी हूं । जिसका स्वरूप बनता है चैतन्य और जिसका लक्षण बनता है उपयोग, वह मैं हूं, साधक जब इस बिन्दु पर . पहुंचता है तो उसकी साधना की दृष्टि बहुत विशद एवं स्पष्ट बन जाती है। रत्नत्रयी का योग घटित हो तत्त्वज्ञान के बिना साधना का सम्यग् ज्ञान समझ में नहीं आता । साधना आचार का पक्ष है किन्तु सम्यग् ज्ञान और सम्यग् दर्शन के बिना आचार की कल्पना नहीं की जा सकती। भगवान महावीर ने ज्ञान, दर्शन और चरित्र-इन तीनों के योग का प्रतिपादन किया। एक के बिना दूसरा पूर्ण नहीं होता। चरित्र का बिन्दु अन्तिम बिन्दु है । उस तक पहुंचने के लिए दो शर्त हैं । पहली शर्त है-सम्यग् दर्शन होना चाहिए। दूसरी शर्त है–सम्यग् ज्ञान होना चाहिए। इन दो शर्तों के पूरा होने पर ही सम्यम् चारित्र संभव बनता है। इन दोनों के बिना वह संभव नहीं है । साधक को केवल तत्त्वज्ञान तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। उसे चारित्र तक जाना चाहिए । वह केवल चारित्र तक ही सीमित न रहे, तत्त्वज्ञान से भी समृद्ध बने । इन दोनों को योग होना अपेक्षित है। कुछ लोग सोचते हैं—साधक को ध्यान करना है, साधना करनी है, उसे तत्त्वज्ञान से क्या मतलब है। यह बहुत एकांगी दृष्टिकोण है। जब तक तात्विक दृष्टि स्पष्ट नहीं होगी, आचार की स्पष्टता नहीं होगी, ध्यान भी नहीं होगा। बिना तत्त्वज्ञान के ध्यान किसका होगा? कैसे होगा? जिसका तत्त्वज्ञान स्पष्ट नहीं है, सम्यग् नहीं है, वह यदि ध्यान करने बैठता है तो हो सकता है उसका ___ 2010_03 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्य-कारणवाद / १११ ध्यान आर्तध्यान बन जाए, रौद्र ध्यान बन जाए। इसलिए तत्त्वज्ञान, तत्त्व की रुचि और चारित्र–इन तीनों का योग आवश्यक है। जैनदर्शन का यह सूत्र—'सम्यग् दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:' अत्यन्त प्रौढ़ विचार और प्रौढ़ दार्शनिक चिंतन के पश्चात् निर्मित हुआ है। यह समग्र योग और समन्वय बहुत काम का है। इस आधार पर यदि दर्शन को समझा जाए, जैन साधना पद्धति को समझा जाए तो उसका निष्कर्ष होगा-दर्शन और साधना—इन दोनों का योग आवश्यक है। यदि यह योग जीवन में घटित होता है तो दृष्टि स्पष्ट बनेगी और साधना के क्षेत्र में नये-नये उन्मेष प्रकट होते चले जाएंगे। 2010_03 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरवाद : कर्मवाद अज्ञात रहस्यों को समझने के लिए दार्शनिकों ने अनेक रहस्य स्थापित किए। कर्म के विषय में भी अनेक सिद्धान्त स्थापित हैं। कुछ दार्शनिक केवल कर्मवादी हैं। कुछ कर्मवाद को मानते हैं पर ईश्वरवाद के सहचारी के रूप में उसे स्वीकार करते हैं। वे केवल कर्मवाद को नहीं मानते। सृष्टि है परिवर्तनात्मक जैन दर्शन कर्मवादी दर्शन है । ईश्वर का सिद्धान्त उसे मान्य नहीं है । ईश्वर के लिए तीन कार्यों की कल्पना की गई (१) सृष्टि का कर्ता होना चाहिए, (२) नियंता होना चाहिए (३) अच्छे और बुरे कार्य का फल भुगताने वाला होना चाहिए। सृष्टि का कर्ता, सृष्टि का नियंता और कर्म-फल का भोग देने वाला, नियोजन करने वाला—ईश्वर की कल्पना के पीछे ये तीन मुख्य तत्त्व काम करते हैं। . जैनदर्शन ने जगत् को अनादि माना इसलिए उसे ईश्वर की कोई आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई। सृष्टि है नहीं। सृष्टि है तो केवल परिवर्तनात्मक । नया कुछ भी नहीं है, सब कुछ अनादि है। सृष्टि सादि हो सकती है। सृष्टि का नियन्ता कोई नहीं जैनदर्शन जगत् को भी मानता है और सृष्टि को भी मानता है। जगत् अनादि है, प्रत्येक पदार्थ अनादि है इसलिए अनादि सत्य है । प्रत्येक पदार्थ में परिणमन होता है, जीव और पुद्गल के संयोग से वैभाविक परिवर्तन होता है, वह सृष्टि है। सृष्टि जीव और पुद्गल के द्वारा संपादित होती है। जीव और पुद्गल के अतिरिक्त किसी तीसरी सत्ता को मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। दूसरा प्रश्न है नियमन का । जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि का नियंता कोई नहीं 2010_03 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरवाद : कर्मवाद / ११३ है। अगर कोई नियन्ता है, सर्वशक्तिमान है तो सृष्टि इस प्रकार की नहीं होती। इस त्रुटिपूर्ण व्यवस्था वाली सृष्टि के लिए अगर ईश्वर को नियन्ता माने और साथ-साथ में सर्वशक्तिमान भी मानें तो दोनों में अन्तर्विरोध जैसा उपस्थित हो जाता है। यदि सृष्टि का कर्ता सर्वशक्तिमान है तो व्यवस्था इतनी त्रुटिपूर्ण नहीं होगी। यदि वह सर्वशक्तिमान नहीं है तो वह सारी सृष्टि का अकेला नियमन नहीं कर सकता। यह नियमन वाली बात संगत प्रतीत नहीं होती। सृष्टि का नियमन नियम के द्वारा जैनदर्शन ने नियन्ता की आवश्यकता अनुभव नहीं की। उसका सिद्धान्त है नियम । सृष्टि का नियमन, नियम के द्वारा होता है, नियंता के द्वारा नहीं होता। हमारे जगत् के कुछ सार्वभौम नियम हैं और अकृत्रिम हैं, किसी के द्वारा बनाए हुए नहीं हैं। जीव पुद्गल के स्वयंभू नियम हैं और वे नियम अपना काम करते हैं। एक जीव को मोक्ष जाना है तो वह अपने नियम से जाएगा। एक पुद्गल को, परमाणु को बदलना है, तो वह अपने नियम से बदलेगा। एक परमाणु एक गुणा काला है और उसे अनन्त गुना काला होना है तो वह अपने नियम से होगा। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का जितना परिवर्तन है वह सारा अपने नियम से होगा। निर्धारित समय पर उसे निश्चित रूप से बदलना ही पड़ेगा। यह प्राकृतिक नियम है, सार्वभौम नियम है और इस नियम से सारा नियमन हो रहा है। यह सारी ऑटोमैटिक व्यवस्था है, स्वयंकृत व्यवस्था है । बाहर से कृत या आरोपित व्यवस्था नहीं है, इसलिए नियंता की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। कर्तृत्व : भोक्तृत्व तीसरा प्रश्न है—कर्म का फल देने वाला कोई होना चाहिए। जैसे चोरी करने वाला चोर अपने आप उसका फल नहीं भुगतता । कोई न्यायाधीश होता है, दंड-नायक होता है, जो उसे दंडित करता है, फल देता है, वैसे ही सारे जगत् को अच्छे और बुरे कर्म का फल देने वाला भी कोई होना चाहिए। इस आधार पर कर्मफल-दाता की आवश्यकता कुछ दार्शनिकों ने महसूस की। किन्तु जैनदर्शन ने इस आवश्यकता का अनुभव नहीं किया । जैनदर्शन का मंतव्य है-कर्म करने और उसका फल भोगने की शक्ति स्वयं जीव में निहित है। उसे बाहर कहीं से लाने की आवश्यकता नहीं है। अपना स्वयं का कर्तृत्व और अपना स्वयं का भोक्तृत्व-दोनों उसमें समाहित हैं। इन तीन स्थितियों के आधार पर जैनदर्शन को ईश्वर की आवश्यकता दार्शनिक 2010_03 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ / जैन दर्शन और अनेकान्त दृष्टि से महसूस नहीं हुई । प्रयोजनवादी दृष्टि एक संदर्भ है प्रयोजन का । प्रयोजनवादी दृष्टि से भी कुछ प्रश्न उभरते हैं — ईश्वर ने सष्टि का निर्माण क्यों किया ? वह क्यों जगत् के प्रपंच में आया और वह क्यों सबकी व्यवस्था और नियमन करता है ? वह अच्छा करने वाले को अच्छा फल देता है और बुरा करने वाले को बुरा फल देता है । वह ऐसा क्यों करता है ? उसका प्रयोजन क्या है ? यह बड़ा जटिल प्रश्न है ईश्वरवादी के सामने । प्रयोजनवादी तर्क जब सामने आता है तो उसका संतोषजनक समाधान नहीं मिलता । यदि करुणा प्रयोजन है तो प्रश्न होगा— यह प्रयोजन कब पैदा हुआ ? यदि कहा जाए – जिस दिन ईश्वर जन्म उसी दिन प्रयोजन पैदा हो गया तो इसका अर्थ होगा — ईश्वर और जगत् का जन्म एक साथ हुआ । यदि ईश्वर पहले था और प्रयोजन कभी बाद में हुआ तो प्रश्न आएगा - प्रयोजन बाद में क्यों पैदा हुआ, पहले क्यों नहीं हुआ ? उसका प्रयोजन आखिर क्या था ? उत्तर दिया गया - करुणा थी प्रयोजन । ईश्वर के मन में करुणा जागी और उसने सृष्टि का निर्माण कर दिया । एकोऽहं बहुस्याम् यह करुणावादी प्रयोजन वाली सृष्टि नहीं है। जहां इतनी क्रूरता और इतना आतंक है वहां करुणावादी दृष्टिकोण सफल नहीं होता । करुणा की बात समझ में नहीं आती। दूसरे भी जितने प्रयोजन हैं उनकी कोई संगत व्याख्या सामने नहीं आती। इन सारे दार्शनिक बिन्दुओं के आधार पर जैनदर्शन ने ईश्वरवाद के अस्तित्व को नकार दिया। कहा जाता है— ईश्वर को अकेला रहना अच्छा नहीं लगा इसलिए उसने सोचा- 'एकोऽहं बहुस्याम् ' मैं बहुत हो जाऊं । इसलिए वह एक से बहुत हो गया। जिस प्रकार से ईश्वर की कल्पना है उससे यह बात भी संगत नहीं लगती । ईश्वरवाद : धार्मिक दृष्टिकोण हमारे सामने तीन दृष्टिकोण हैं— धार्मिक दृष्टिकोण, नैतिक दृष्टिकोण और दार्शनिक दृष्टिकोण | इन तीनों बिन्दुओं पर ईश्वरवाद की यह अवधारणा सम्यक् नहीं उतरती । जब प्रगति और परिवर्तन का अधिकार मनुष्य को नहीं है तो ईश्वर का अस्तित्व उसे संकट में डालने वाला है। मनुष्य न प्रगति कर सकता है और न परिवर्तन कर सकता है। जैसा है वैसा ही रहे । ये दोनों जब मनुष्य के हाथ में नहीं हैं तो धार्मिक दृष्टिकोण से ईश्वर का अस्तित्व उसके लिए खतरनाक बन गया । इस धारणा I 2010_03 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरवादः कर्मवाद । ११५ रूढ़िवाद एवं निराशावाद को जन्म दिया और इसी निराशावादी दृष्टिकोण ने मनुष्य को अकिंचित्कर बना दिया। ईश्वरवाद : नैतिक दृष्टिकोण नैतिक दृष्टि से विचार करें यदि मनुष्य का संकल्प स्वतंत्र नहीं है तो वह अपने कृत के प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकता। वही व्यक्ति कृत के प्रति उत्तरदायी हो सकता है जिसका संकल्प स्वतंत्र है। व्यक्ति का संकल्प उसे अपने कृत के प्रति उत्तरदायी बनाता है। यदि कृत स्वतंत्र नहीं है, ईश्वर ने जैसा कराया वैसा उसने कर लिया तो वह अच्छे और बुरे का उत्तरदायी क्यों बनेगा? ईश्वर ने अच्छा कराया तो अच्छा कर लिया और बुरा कराया तो बुरा कर लिया। उत्तरदायी कराने वाला है या करने वाला है ? ____ एक यंत्र उत्तरदायी नहीं हो सकता । एक लौह-मानव थोड़ी दूर चलता है और फिर गोली दागता है। प्रश्न प्रस्तुत होता है-उसका उत्तरदायी कौन है ? क्या वह लौह-मानव है, यंत्र मानव है, रोबोट है ? बिल्कुल नहीं। उत्तरदायी है चलाने वाला। मनुष्य जिस प्रकार चलाता है, यंत्र-मानव उसी प्रकार चलता है। यदि मनुष्य वैसा ही यन्त्र-मानव या लौह-मानव है तो वह अपने कृत का उत्तरदायी नहीं हो सकता । नैतिक दृष्टि से यह एक बड़ी समस्या पैदा हो जाती है, नैतिकता की बात एक प्रकार से समाप्त हो जाती है। कर्मवाद के तीन सिद्धान्त जैनदर्शन ने इस पर समग्रता से विचार किया। उसने पहला सूत्र दिया कर्मवाद का। हर आत्मा की स्वतंत्रता कर्मवाद का पहला आधार है। यदि व्यक्ति का संकल्प स्वतंत्र नहीं है तो वह अपने कृत के प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकता। संकल्प करने में वह स्वतंत्र है इसलिए कृत के प्रति उत्तरदायी है । वह अच्छा करता है तो उसका फल अच्छा होता है और बुरा करता है तो बुरा होता है। अच्छे और बुरे का जिम्मेवार वह स्वयं है। यह संकल्प की स्वतन्त्रता कर्मवाद का पहला सिद्धान्त है। — कर्मवाद का दूसरा सिद्धान्त है—कृत का नैतिक जिम्मेवार व्यक्ति स्वयं है। वह अपने कृत के प्रति नैतिक दायित्व से अलग नहीं हो सकता। कोई भी काम करता है तो उसे यह उत्तरदायित्व लेना होगा कि इसके लिए मैं स्वयं जिम्मेवार हूं। कर्मवाद का तीसरा सिद्धान्त है-व्यक्ति को प्रगति और परिवर्तन का अधिकार है। छोटे-से-छोटे प्राणी को भी ये दोनों अधिकार उपलब्ध हैं। एक एकेन्द्रिय प्राणी 2010_03 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ / जैन दर्शन और अनेकान्त अपना विकास करते-करते पंचेन्द्रिय तक पहुंच जाता है, मनुष्य तक पहुंच जाता है, मुनि बन जाता है। आध्यात्मिक उत्क्रान्ति के पथ पर चलते-चलते वह वीतराग बन जाता है, केवली बन जाता है, मुक्त आत्मा भी बन जाता है । यह आध्यात्मिक उत्क्रान्ति का अधिकार प्रत्येक आत्मा को उपलब्ध है। प्रत्येक आत्मा इस उत्क्रान्ति के आधार पर आत्मा से परमात्मा बन सकती है। अधिकार है परिवर्तन एवं प्रगति का प्रश्न होता है—आज मनुष्य जैसा है, क्या वह वैसा ही रहे? या अपने आपको बदल सके? जैनदर्शन ने व्यक्ति को परिवर्तन का अधिकार दिया है। उसने कहा-हर आदमी बदल सकता है, परिवर्तन कर सकता है। अगर परिवर्तन न हो तो व्यक्ति की सारी साधना, तपस्या व्यर्थ बन जाए। इस बात में विश्वास नहीं किया जा सकता कि जो जैसा है, वह वैसा रहेगा। जिसका स्वभाव जैसा है, वैसा ही रहेगा। ऐसा वही मान सकता है, जिसने परिवर्तन को अस्वीकार किया है। जैनदर्शन परिवर्तन और प्रगति को स्वीकार करता है इसलिए उसमें तपस्या और साधना का मूल्य है । यदि उन्हें अस्वीकार किया जाए तो तपस्या और साधना का मूल्य समाप्त हो जाता है। क्रोध, अहंकार, लोभ, अभिमान, माया, भय, काम-वासना आदि-आदि जितने मोहकर्म के विकार हैं उन सबको बदला जा सकता है, उनमें परिवर्तन किया जा सकता है। यह व्यक्ति की अपनी स्वतंत्रता है । इसी आधार पर साधना की पद्धति का विकास हआ। तपस्या, ध्यान, स्वाध्याय—इनका विकास परिवर्तन के सिद्धान्त के आधार पर हुआ है। यह परिवर्तन का सिद्धान्त नहीं होता तो साधना और तपस्या का कोई अर्थ नहीं होता। ___एक व्यक्ति उपवास करता है। यदि वह उपवास के द्वारा कुछ नहीं बदलता है तो उपवास करने की सार्थकता क्या होगी? यदि स्वाध्याय करता है और स्वाध्याय करने से कोई चैतसिक परिवर्तन नहीं होता है तो स्वाध्याय की सार्थकता नहीं हो सकती। ध्यान, स्वाध्याय और तपस्या-इन सबका विकास परिवर्तन के सिद्धान्त के आधार पर हुआ है। परिवर्तन का आधार परिवर्तन का आधार है-संकल्प की स्वतंत्रता। इस स्वतंत्रता ने ऐसा मार्ग दिया, जिसमें न रूढ़िवाद के पनपने की जरूरत है, न निराशावाद के पनपने की जरूरत है और न पलायन की जरूरत है। कोई भी जैन यदि रूढ़िवादी होता है तो 2010_03 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरवादः कर्मवाद । ११७ शायद उसने जैनधर्म के मर्म को समझा नहीं है। कोई भी जैन यदि परिवर्तन से कतरता है, परिवर्तन को नहीं मानता है, तो शायद उसने जैनधर्म का मर्म नहीं समझा। कोई भी जैन अपने स्वभाव को न बदलने की दुहाई देता है तो उसने शायद जैनधर्म के मर्म को नहीं समझा। जैनधर्म निरन्तर परिवर्तन की, उपशमन की प्रक्रिया है । हमेशा बदला जा सकता है, प्रत्येक क्षण बदला जा सकता है । जो पर्याय आधा घंटा पहले था वह अभी बदल गया। जो अभी है वह दस मिनट के बाद बदल जाएगा। यह निरंतर परिवर्तनशील प्रक्रिया है। इसी आधार पर स्वतंत्रता का सिद्धान्त सार्थक बनता है। एकांगी धारणा जैनदर्शन ने कर्मवाद के सिद्धान्त को स्वीकार किया, किन्तु कर्मवाद ईश्वरवाद का स्थान नहीं ले सकता। ईश्वरवादी कहते हैं—ईश्वर की इच्छा के बिना कुछ भी नहीं होता, एक पत्ता भी नहीं हिलता। यदि जैन दर्शन यह मान ले कि कर्म के बिना कुछ भी नहीं होता तो ईश्वरवाद और कर्म के सिद्धान्त में कोई अन्तर नहीं रह पाता। कर्मवाद स्वयं ईश्वर के स्थान पर बैठ जाता है। जो कुछ होता है वह सब कर्म होता है। यह बिल्कुल एकांगी धारणा है। जैनदर्शन के अनुसार यह सही नहीं है, उचित नहीं है। कर्मवाद से सब कुछ नहीं होता । कर्म का स्थान सीमित है। एक सीमित स्थान में कर्म से कुछ होता है किन्तु सब कुछ नहीं होता। यदि सब-कुछ करने की क्षमता कर्म में आ जाए तो फिर ईश्वर और कर्म में कोई भेद-रेखा नहीं खींची जा सकती। कर्म का कर्तृत्व नहीं है कर्म हमारी कृति है किन्तु कर्तृत्व उसका नहीं है । कर्तृत्व है आत्मा का। कृति का प्रभुत्व नहीं हो सकता। प्रभुत्व कर्तृत्व का हो सकता है। यदि व्यक्ति द्वारा किया हुआ कर्म सब कुछ बन जाए तो कर्ता गौण बन जाए। कर्ता का तो कोई अर्थ ही नहीं रहे । कर्तृत्व कहां है ?कर्म में कर्तृत्व नहीं है। कर्तृत्व व्यक्ति के भीतर उसके संकल्प में है। यदि कृति और कर्ता का भेद स्पष्ट होता है तो कर्म को उतना ही मूल्य मिलेगा, जितना कि उसका मूल्य है। मिथ्या अवधारणाएं कर्म के विषय में सम्यक् धारणा जैनों में भी नहीं है। जैन लोग भी कर्मवाद को सम्यक् नहीं जानते । भगवान महावीर ने कर्म को बहुत लचीला माना है। कहा 2010_03 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ । जैन दर्शन और अनेकान्त गया-'सुचित्रा कम्मा सुचित्रा फला भवंति दुचिन्ना कम्मा दुचिना फला भवंति।' अच्छे कर्म का अच्छा फल होता है और बुरे कर्म का बुरा फल होता है-यह एक सामान्य बात है। किन्तु इसके अपवाद बहुत हैं । कृत कर्मों का भोगे बिना छुटकारा नहीं होता, यह भी एक सामान्य सिद्धान्त है। जब तक कर्म के सारे अपवादों को, विशेष नियमों को नहीं जाना जाता तब तक कर्म की बात पूरी समझ में नहीं आती। कर्म को सब कुछ मान लेने पर एक निष्ठशावादी धारणा, भाग्यवादी धारणा बन जाती है और आदमी अकर्मण्य होकर बैठ जाता है। वह सोचता है-मैं क्या करूं ? कर्म का फल ऐसा ही था, कर्म का योग ऐसा ही था। मेरे कर्म में ऐसा ही लिखा है। कभी-कभी जैन लोग भी यह दोहरा देते हैं भगवान की ऐसी मर्जी थी, विधाता ने ऐसा ही लेख लिख दिया, मैं क्या करूं । इन गलत धारणाओं ने समाज को बहुत अकर्मण्य और निठल्ला बना दिया, उसके पुरुषार्थ में बहुत कमी आ गई। कर्मवाद में पुरुषार्थ का मूल्य पुरुषार्थ और कर्मवाद को कभी अलग नहीं किया जा सकता । ईश्वरवादी धारणा में यदि पुरुषार्थ नहीं होता है तो आश्चर्य की बात नहीं है किन्तु यदि कर्मवादी धारणा में पुरुषार्थ नहीं होता है तो इससे बड़ा कोई आश्चर्य नहीं। यह बहुत बड़ा आश्चर्य है। पुरुषार्थ और कर्मवाद का जोड़ा है। इन्हें कभी अलग नहीं किया जा सकता किन्तु कर्मवाद को सही न समझने के कारण पुरुषार्थवादी दर्शन भी अकर्मण्य दर्शन जैसा बन जाता है। कर्म को बदला जा सकता है भगवान महावीर ने कर्म के विषय में अनेक सिद्धांत दिए। अच्छे कर्म का अच्छा फल होता है और बुरे कर्म का बुरा फल होता है, यह एक सामान्य सिद्धान्त है। पुरुषार्थ के द्वारा इसे भी बदला जा सकता है । एक व्यक्ति ने बहुत अच्छा कर्म किया, क्षयोपशम भी हुआ और पुण्य का बन्ध भी हो गया। किन्तु कुछ समय बाद उसने बहुत बुरे कर्म किए और उसका परिणाम हुआ—उसने जो अच्छा किया, वह बुरे में संक्रांत हो गया। एक व्यक्ति ने बहुत बुरा किया, किन्तु उसने बाद में बहुत अच्छे कार्य किए, यह सम्भव है कि उसका बुरा कर्म अच्छे में संक्रांत हो जाए। यह संक्रमण का सिद्धान्त है। एक कथा के द्वारा यह तथ्य अत्यन्त स्पष्ट बन पाएगापुरुषार्थ का परिणाम दो व्यक्तियों ने ज्योतिषी को हाथ दिखाया । ज्योतिषी ने हाथ देखकर बड़े भाई 2010_03 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरवादः कर्मवाद / ११९ से कहा—'तुम एक दो महीने के भीतर राजा बन जाओगे!' छोटे भाई से कहा'तुम्हारा बहुत बुरा योग है। तुम दुर्भाग्य से पीड़ित रहोगे, भिखारी बन जाओगे।' दो महीने बीते । राजा की आकस्मिक मृत्यु हो गई। मृत राजा के कोई पुत्र नहीं था। महामंत्री ने नये राजा की नियुक्ति के लिए प्राचीन परम्परा का प्रयोग किया। एक हथिनी को सज्जित कर उसकी सूंड में वरमाला डालकर छोड़ दिया गया। परम्परा के अनुसार हथिनी जिसके गले में माला डालती है, वही राजा घोषित होता है। हथिनी ने कुछ ही घंटों बाद बाजार में खड़े छोटे भाई के गले में माला डाल दी। छोटा भाई राजा बन गया और बड़ा भाई भिखारी बन गया। राजा ने ज्योतिषी से कहा-'आपने भविष्य गलत बतलाया, उल्टा बतलाया। भिखारी बनने वाला राजा बन गया और राजा बनने वाला भिखारी बन गया।' ज्योतिषी महाशय ने गम्भीर स्वर में कहा-'राजन ! मेरा भविष्य गलत नहीं था। आप बताइए—आपने भविष्य जानने के बाद अपना समय कैसे बिताया'? राजा बोला—'मेरा बड़ा भाई इतने दिन उन्मत्त बना रहा। उसने सोचा—मैं राजा बनूंगा, अब किस बात की चिन्ता है, विलासिता, फिजूलखर्ची आदि में फंस गया, निरन्तर बुरे कामों में लगा रहा। मैंने सोचा-मुझे भिखारी नहीं बनना है । ज्योतिषी के कथन को गलत सिद्ध करना है। मैं निरन्तर अच्छे कार्यों, अच्छे विचारों में डूबा रहा। मैंने इन दो महीनों में एक भी बुरा काम नहीं किया। मेरा दृढ़संकल्प था—मुझे भिखारी नहीं बनना है।' ज्योतिषी ने कहा-'राजन ! मेरी भविष्यवाणी सही थी। किन्तु आप इसका अपवाद भी जानते हैं। बुरा काम, अच्छे भविष्य को भी उलट देता है और अच्छा काम बुरे भविष्य को भी अच्छा बना देता है । यह आपके सामने प्रत्यक्ष है।' महावीर : पुरुषार्थ के सशक्त प्रवक्ता ___ यह संक्रमण का सिद्धांत है। आदमी राजा होते-होते भिखारी बन सकता है और भिखारी बनते-बनते राजा बन जाता है। कर्म के विषय में यह अपवाद है और यह पुरुषार्थ से सम्भव बना है। जैनदर्शन ने निरन्तर पुरुषार्थ पर बल दिया। भगवान महावीर ने कहा-पुरुष ! तू पराक्रम कर ! आचारांग सूत्र में पुरुषार्थ का यह स्वर बार-बार उच्चरित हुआ है-पराक्रम करो, वीर बनो, अपने वीर्य को छिपाओ मत । निरन्तर लड़ते रहो । महावीर ने युद्ध का बड़ा उपदेश दिया। उन्होंने कहा—तुम क्यों बैठे हो, लड़ो। लड़ने का समय बार-बार नहीं आता। युद्ध का अवसर कब-कब आता है। इसका मौका किसी भाग्यशाली को ही मिलता है। ___ यह युद्ध की प्रेरणा, परम पुरुषार्थ की प्रेरणा, भाग्यवाद को चकनाचूर कर देने ___ 2010_03 For Private & Personal Use only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० / जैन दर्शन और अनेकान्त वाली प्रेरणा है। भारतीय चिन्तन और दर्शन में पुरुषार्थ पर जितना बल महावीर ने दिया, उतना किसी दूसरे ने दिया या नहीं, यह खोज का विषय है। नियामक कौन ? ___ कर्मवाद और पुरुषार्थवाद—इन दोनों का अस्वीकार है ईश्वरवाद । जहां ईश्वरवाद है वहां न कर्मवाद की आवश्यकता है और न पुरुषार्थ की आवश्यकता है। जब ईश्वरवाद में ईश्वर के द्वारा सही व्यवस्था नहीं बैठी तो कर्मवाद को भी बीच में लाना पड़ा। पूछा गया-अच्छा और बुरा फल आदमी कैसे भुगतता है ? उत्तर दिया गया-ईश्वर भुगताता है । पुन: प्रश्न उभरा-ईश्वर किसी को अच्छा या बुरा फल क्यों देता है ? उत्तर दिया गया-व्यक्ति जैसा कर्म करता है, ईश्वर उसको वैसा ही फल देता है। ___ कर्मवाद के बिना व्यवस्था संगत हो ही नहीं सकती। इसलिए ईश्वरवाद में भी कर्मवाद को मानना पड़ा। कान को पकड़ना है तो सीधा ही पकड़ा जाए, टेढ़ा क्यों पकड़ा जाए, द्राविडी प्राणायाम क्यों जाए? आखिर जब सब कुछ कर्मवाद से ही होना है, अच्छे और बुरे का नियामक कर्म है, तो उसके लिए किसी ईश्वर को बीच में लाने की आवश्यकता नहीं है। कर्मवाद से जो हो जाता है उसके लिए किसी ईश्वर की और अपेक्षा करना प्रक्रिया गौरव है। तर्कशास्त्र में कहा गया प्रक्रियागौरवं यत्र, तं पक्ष न सहामहे ।। प्रक्रियालाघवं यत्र, तं पक्षं रोचयामहे ।। जिसमें प्रक्रिया का गौरव होता है, उस पक्ष को सहन नहीं किया जा सकता। जिसमें प्रक्रिया का लाघव होता है, वही पक्ष रुचिकर हो सकता है। जैनदर्शन में कर्मवाद ___ व्यक्ति का अपना पुरुषार्थ अपना कर्म और अपना फल देता है। इनमें ही वह अपनी सम्पूर्ण शक्ति और सामर्थ्य का नियोजन करता है। जैनदर्शन ने व्यक्तित्व, कर्तृत्व और फल भाक्तृत्व की व्याख्या कर्मवाद के आधार पर की। उसने कर्मवाद को एक नया आयाम दिया। जैनदर्शन का कर्मवाद शायद भारतीय दर्शन में एक प्रकार का विशिष्ट कर्मवाद है। कर्मवाद के सन्दर्भ में उसकी कुछ अवधारणाएं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। कर्म पौद्गलिक होता है। कर्म आत्मिक नहीं है, चैतसिक नहीं है, पौगलिक है। 2010_03 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरवाद : कर्मवाद | १२१ कर्म परमाणुओं की अलग वर्गणा है । कर्म के लिए सभी प्रकार के पुद्गल काम में नहीं आ सकते । शायद यह कर्म वर्गणा का प्रतिपादन किसी भी चिन्तन या दर्शन में नहीं आता। कर्म परमाणु चतुःस्पर्शी होंगे, सूक्ष्म होंगे। कर्म प्रायोग्य पुद्गल ही कर्म बन सकता है, हर कोई पुद्गल कर्म नहीं बन सकता। कर्मबंध की प्रक्रिया कर्म के परमाणु अपने आप व्यक्ति के साथ सम्बन्ध स्थापित नहीं करते । जीव अपनी प्रवृत्ति के द्वारा कर्म परमाणु स्कंधों को आकर्षित करता है, अपने साथ सम्बन्ध स्थापित करता है और वह सम्बन्ध बहुत गहरा हो जाता है । आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर, असंख्य प्रदेश पर, अनंत कर्म परमाणु स्कंध जुड़ जाते हैं। पहले वे जुड़ते हैं फिर उनकी प्रकृति का निर्माण होता है। ___ कर्म के जुड़ने को कहा जाता है—प्रदेशबन्ध । स्वभाव के निर्माण को कहा जाता है—प्रकृतिबन्ध । उसके बाद स्थिति का निर्धारण होता है। कौन कर्म कितने समय तक रहेगा और कब अपना विपाक देगा, यह है-स्थितिबन्ध । कर्म किस प्रकार का विपाक देगा, इसका नाम है-अनुभावबन्ध । इन चार प्रकारों से जीव और कर्म के बीच में सम्बन्ध की स्थापना होती है। विचित्रता का कारण : कर्म जब तक जीव और कर्म-परमाणुओं का सम्बन्ध समझ में नहीं आता तब तक कर्म का सिद्धान्त समझ में नहीं आ सकता। सम्बन्ध की व्यवस्था क्या है ? सम्बन्ध कैसे होता है ? सम्बन्ध कब तक रहता है ? काल का निर्धारण, विपाक का निर्धारण, स्वभाव का निर्धारण और कर्म परमाणुओं की संख्या का निर्धारण ये चारों निर्धारण अपने आप सहज भाव से हो जाते हैं और ये कर्म जब विपाक में आते हैं तो विचित्रताएं पैदा होती हैं। मीमांसक, सांख्य, जैन और बौद्ध-ये चारों दर्शन कर्मवादी हैं। बौद्ध दर्शन के प्रसिद्ध ग्रन्थ अभिधम्मकोश में कहा गया-कर्मजं लोकवैचित्र्यं ।' यह लोक की विचित्रता कर्म के द्वारा होती है। भगवती सूत्र में एक संवाद है-भगवान महावीर से गौतम ने पूछा-भंते ! यह विभक्ति कहां से हो रही है, यह विभाजन, भेद, अलगाव-कहां से हो रहा है? भगवान महावीर ने उत्तर दिया-गौतम ! ये सारी विभक्ति कर्म के द्वारा हो रही है, ये सारी भेद-रेखाएं कर्म के द्वारा खींची जा रही हैं। 2010_03 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ / जैन दर्शन और अनेकान्त वास्तविक सच्चाई : व्यावहारिक सच्चाई 'सब जीव समान हैं' यह निश्चयनय की बात है, वास्तविक सच्चाई है । व्यावहारिक सच्चाई नहीं है । व्यवहारनय की दृष्टि से सब जीव समान नहीं हैं । उनमें भेद है और वह भेद कर्मकृत है-कर्म के द्वारा वह भेद किया गया है। एक एकेन्द्रिय जीव है, एक पंचेन्द्रिय जीव है । एक अमनस्क है, एक समनस्क है । एक बहुत विकासशील है, एक बहुत अवरुद्ध विकास वाला है। यह जो विकास का तारतम्य है, भेद है वह सारा कर्म के द्वारा होता है। प्रत्येक आत्मा की स्वभावगत समानता और कर्मकृत विविधता-निश्चयनय और व्यवहारनय की दृष्टि से ये दोनों सच्चाइयां मान्य हैं। आचारांग सूत्र में कहा गया है-कोई आत्मा हीन नहीं है, कोई आत्मा अतिरिक्त नहीं है। इसका अर्थ है-वास्तविक दृष्टि से कोई आत्मा हीन नहीं, कोई अतिरिक्त नहीं। व्यवहार दृष्टि से हीन भी है और अतिरिक्त भी है। ये सारी सच्चाइयां कर्मवाद के सन्दर्भ में ही स्पष्ट हो पाती हैं। इसलिए कर्मवाद जैनदर्शन का एक प्रमुख सिद्धान्त बन गया। उसका सहचारी सिद्धान्त है पुरुषार्थवाद । कर्मवाद और पुरुषार्थवाद के आधार पर उसने ईश्वर के सिद्धान्त को अस्वीकार कर दिया। 2010_03 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमवाद नियंता की अस्वीकृति ने नियम की ओर ध्यान आकर्षित किया। जैनदर्शन नियंता को नहीं मानता, नियम को मानता है। भगवान महावीर ने चार मुख्य नियमों का प्रतिपादन किया-द्रव्यादेश, क्षेत्रोदेश, कालादेश और भावादेश । किसी भी घटना, विषय-वस्तु का ज्ञान करना हो तो कम-से-कम इन चार नियमों से उसकी समीक्षा करें और उसके बाद निर्णय लें। यह नियमवाद सत्य की खोज का सिद्धांत है। जैनदर्शन ने प्रत्येक व्यक्ति को सत्य की खोज का अधिकार दिया। केवल अमुक व्यक्ति ही सत्य का खोजी नहीं हो सकता; प्रत्येक मनुष्य हो सकता है । 'अप्पणा सच्चमेसेज्सा'- स्वयं सत्य की खोज करो। यह बहुत वैज्ञानिक बात है। नियमवाद : जैनदर्शन की मौलिक प्रस्थापना ____ सत्य की खोज का अर्थ है नियमों की खोज । नियमों की खोज ही सत्य की खोज है। वैज्ञानिक पहले नियम को खोजता है, फिर नियम की खोज के आधार पर कार्य करता है। धर्म के क्षेत्र में कहा गया—नियमों की खोज करो। जैनदर्शन ने नियमों को खोजा है और नियमों का काफी विस्तार किया है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-ये चार दृष्टियां जैनदर्शन में ही उपलब्ध हैं, अन्यत्र कहीं प्राप्त नहीं हैं। उत्तरकाल में जैनाचार्यों ने इनका विकास किया । चार आदेशों के स्थान पर पांच समवायों का विकास हुआ है-स्वभाव, काल, नियति, पुरुषार्थ, भाग्य या कर्म । ये पांच समवाय चार दृष्टियों का विकास है। इन पंच समवायों को समाहित किया जाए तो ये सारे चार दृष्टियों में समाहित हो जाते हैं। अगर विभक्त किया जाए तो ये पांच उत्तरवर्ती दृष्टियां और चार पूर्ववर्ती दृष्टियां-नौ नियम प्रस्तुत होते हैं। इन दृष्टियों के द्वारा समीक्षा करके ही किसी सच्चाई का पता लगाया जा सकता है, किसी घटना की समीक्षा या व्याख्या की जा सकती है। इनके बिना एकांगी दृष्टिकोण से वास्तविकता का पता नहीं चलता, धारणाएं पनप जाती हैं। एकान्तवाद से बचने का सिद्धान्त सम्यक्दर्शन का सिद्धांत नियमों के बिना चल नहीं सकता। तत्त्वज्ञान के विषय 2010_03 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ / जैन दर्शन और अनेकान्त में दृष्टिकोण का सम्यक् होना आवश्यक है। प्रत्येक घटना और वस्तु के बारे में भी व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् होना चाहिए, एकांगी नहीं होना चाहिए। एकांगीवाद और मिथ्या एकांतवाद से बचने के लिए नियमवाद का सिद्धांत बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसकी घटनाओं के साथ व्याख्या करें, जीवन-संदर्भ के साथ व्याख्या करें तो नियमवाद का एक उदात्त पक्ष उजागर हो सकता है। संदर्भ : जन्म और मृत्यु का ____ जीवन का पहला संदर्भ है-जन्म और मरण । मनुष्य जन्म लेता है और मरता है, यह एक चक्र है। यह क्यों होता है ? इसका नियम क्या है ? आदमी क्यों जन्म लेता है और क्यों मरता है? एक मिथ्या धारणा बन गई—मनुष्य अमुक उद्देश्य को पूरा करने के लिए जन्म लेता है। यह धारणा सही नहीं है। जन्म का उद्देश्य किसने बनाया? कौन है उद्देश्य बनाने वाला? उद्देश्य जन्म का घटक नहीं है। जन्म लेना एक नियति है, अनिवार्यता है। जब तक आत्मा कर्मबद्ध है, तब तक व्यक्ति जिएगा, मरेगा। इसका एक नियम है नियति और दूसरा नियम है काल । एक काल के बाद प्रत्येक वस्तु को बदलना होता है, वह उसी रूप में रह नहीं सकती। काल-मर्यादा भी इसका एक नियम है। नियामक एक ही नहीं है तीसरा नियम है-कर्म । आयुष्य कर्म के परमाणुओं को भोगना है। जितने समय तक आयुष्य कर्म के परमाणुओं को भोगना है उतने समय तक जीना है। आयुष्य कर्म के परमाणु पूरे हुए, भोग लिये गए, मृत्यु हो जाएगी। एक नियम है-स्वभाव । वह भी अपना काम करता है । द्रव्य का स्वभाव है कि वह परिवर्तित होता रहता है । द्रव्य में धौव्यांश है तो साथ-साथ में परिवर्तनांश भी है, अधौव्यांश भी है। द्रव्य में परिणमन होता है, पर्याय बदलता है । एक पर्याय है जन्म और दूसरा पर्याय है मरण । यह पर्याय का चक्र चलता रहता है। इस प्रकार अनेक नियम मिलकर जन्म और मरण की व्यवस्था का सम्पादन कर रहे हैं । इस भाषा में भी कहा जा सकता है—अनेक नियमों के प्रयोग से जन्म और मरण की व्यवस्था संपादित हो रही है। संदर्भ रोग का __ जीवन का दूसरा संदर्भ है-रोग । जन्म के बाद एक बड़ी स्थिति आती है रोग की। रोग क्यों होता है ? अनेक लोग सोचते हैं-असातवेदनीय कर्म का उदय है 2010_03 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमवाद । १२५ इसलिए यह रोग हो गया, किन्तु यदि इसकी समीक्षा करें तो यह बात समीचीन नहीं ठहरती । केवल असातवेदनीय कर्म ही रोग का कारण नहीं बनता । रोग के अनेक कारण हैं और अनेक नियम हैं। एक नियम है-क्षेत्र । क्षेत्र संबंधी रोग होता है। एक व्यक्ति अमक गांव में गया और बीमार हो गया। वहां से बाहर जाते ही वह बिना दवा के ठीक हो जाएगा। एक नियम है—काल । कालजनित रोग पैदा होते हैं। सर्दी के मौसम में एक प्रकार के रोग पैदा होते हैं और गर्मी के मौसम में दूसरे प्रकार के रोग पैदा होते हैं। लू का प्रकोप गर्मी के मौसम में होगा, सर्दी के मौसम में नहीं होगा। शीतजनित बीमारियां सर्दी में होंगी, गर्मी में नहीं होंगीं। प्रात:काल एक रोग उपशांत होगा और रात्रि में, मध्य रात्रि में वह रोग भंयकर बन जाएगा। एक नियम है-अवस्था। अवस्था-जनित रोग होता है। अमुक अवस्था में एक प्रकार की बीमारी होगी, पहले वह नहीं होगी। एक नियम है-भाव । अमुक भाव में बीमारी होगी। क्रोध का भाव तीव्र हो गया तो अमुक बीमारी पैदा हो जाएगी। आजकल इस पर बहुत काम हुआ है विज्ञान के क्षेत्र में । किस प्रकार का मनोभाव किस प्रकार की बीमारी को जन्म देता है-इस विषय में बहुत खोज हो रही है। भाव भी इसका एक कारण है, नियम है। कर्म एक नियम है ___आयुर्वेद में एक प्रकार का रोग माना गया—कर्मज रोग, जो कर्म से उत्पन्न होता है। कर्म एक नियम है। कुछ बीमारियां ऐसी हैं, जिन्हें कर्मज कहा जा सकता है, असातवेदनीय कर्म के उदय से होने वाला रोग कहा जा सकता है। किन्तु सब रोगों को कर्मज माना जाए, सब बीमारियों को कर्मज माना जाए, यह समीचीन नहीं . लगता । रोग आने पर असातवेदनीय का उदय हो जाता है। अप्रिय कर्म का योग होता है, दुःख का संवेदन होता है, यह ठीक बात है। किन्तु सब रोग असातवेदनीय के उदय से होते हैं—यह विमर्शनीय है। ऐसा नहीं होना चाहिए । दुःख का निमित्त होना एक बात है और असातवेदनीय के उदय से पैदा होना बिल्कुल दूसरी बात है। कर्म सर्वत्र नियामक नहीं एक आदमी चल रहा था। ठोकर लगी और पैर में दर्द हो गया। असातवेदनीय के उदय से यह बीमारी आई, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता । किन्तु ठोकर लगी, दर्द हुआ और असातवेदनीय कर्म का उदय हो गया, यह कहा जा सकता है। रोग का एक नियम हो सकता है-कर्म, किन्तु उसे सर्वत्र नियामक नहीं माना जा सकता। 2010_03 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ / जैन दर्शन और अनेकान्त नियमों की समीक्षा किए बिना शायद पूरी बात समझ में नहीं आती । क्षेत्र सम्बन्धी रोग होते हैं, काल सम्बन्धी रोग होते हैं, कीटाणुजनित रोग होते हैं, बहुत सारे रोग संक्रामक होते हैं । एक संक्रामक बीमारी फैली, हजारों-हजारों आदमी एक साथ बीमार हो गए। वह असातवेदनीय से उत्पन्न रोग नहीं है । किन्तु उस रोग ने असावेदनीय कर्म का उदय ला दिया । यदि समग्र दृष्टि से रोग के बारे में नियमों की समीक्षा की जाए तो एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत हो पाएगा। संदर्भ बुढ़ापे का जीवन का एक सन्दर्भ है— बुढ़ापा । चार दुःख माने गए हैं— जन्म, मरण, रोग और बुढ़ापा | बुढ़ापा किस कर्म के उदय से आता है—यह इसका एक मुख्य नियम है । अमुक काल के बाद बुढ़ापा शुरू हो जाता है। एक नियम बन गया। प्राचीन साहित्य में कहा जाता है— चालीस वर्ष के बाद शरीर की शक्तियां, इन्द्रियों की शक्तियां, क्षीण होने लग जाती हैं। उनकी शक्ति में कमी आने लग जाती है। कुछ इन्द्रियों की शक्तियां पचास वर्ष में कम हो जाती हैं। साठ वर्ष में वह शक्ति और कम हो जाती है। सत्तर वर्ष के बाद बुढ़ापा शुरू होता है, आदमी बूढ़ा बन जाता है । काल के कारण बुढ़ापा आता है। अपवाद भी है बुढ़ापे का दूसरा नियम है— भाव या स्वभाव । मनोभाव बुढ़ापे के बहुत कारण बनते हैं। सत्तर वर्ष के बाद बुढ़ापा शुरू होता है और अगर कषाय प्रबल हैं, तो संभव है वह बुढ़ापा पचास वर्ष के बाद भी शुरू हो जाए। जिस व्यक्ति में बहुत निराशा, बहुत कुंठा, बहुत उदासी और बहुत बेचैनी है तो सम्भव है उसके सत्तर वर्ष के बाद आने वाला बुढ़ापा चालीस या पचास वर्ष के बाद ही शुरू हो जाए। जिसका दृष्टिकोण बहुत विधायक है, वह सत्तर वर्ष के बाद भी जवान बना रहे, बूढ़ा न बने । यह अपवाद भी हो सकता है। बुढ़ापा क्षेत्र-जन्य भी है क्षेत्र भी एक निमित्त बनता है । ग्रीष्म-प्रधान क्षेत्र में बुढ़ापा जल्दी आने लगता है । शीत- प्रधान क्षेत्र में बुढ़ापा देरी से आता है। सर्दी और गर्मी के अपने नियम हैं । एक क्षेत्र का ऐसा नियम होता है, जहां ताजगी बनी रहती है और एक क्षेत्र का ऐसा नियम होता है, जहां जल्दी रुक्षता आ जाती है। क्षेत्र के दो विशेष नियम माने गए - एक रुक्ष क्षेत्र और दूसरा स्निग्ध क्षेत्र । काल भी दो प्रकार के माने गए- – स्निग्ध 2010_03 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमवाद / १२७ काल और रुक्ष काल। स्निग्ध काल और स्निग्ध क्षेत्र में आयु लम्बी होगी, बुढ़ापा भी जल्दी नहीं आ पाएगा या बहुत कम आएगा। रुक्ष क्षेत्र और रुक्ष काल में आयु छोटी हो जाएगी, बुढ़ापा भी जल्दी आ जाएगा । यौगलिक काल में बहुत लम्बी आयु थी । यौगलिक जीव बूढ़े नहीं होते थे, बिल्कुल जवान ही रहते थे। कारण बतलाया गया—वह काल स्निग्ध था, क्षेत्र भी स्निग्ध था। आज की चीनी से हजार गुना ज्यादा मिठास उस समय की मिट्टी में थी। स्निग्ध क्षेत्र और इतना ही मीठा काल। उस समय स्नेह के परमाणु अत्यन्त सघन थे और वे व्यक्ति को प्रभावित करते थे। संदर्भ नींद का जीवन का एक सन्दर्भ है—नींद । व्यक्ति के जीवन को नींद बहुत प्रभावित . करती है। जब नींद आनी चाहिए, तब बहुत सारे व्यक्तियों को नींद नहीं आती और जब नींद नहीं आनी चाहिए, तब लोगों को नींद आ जाती है। ध्यान के समय में नींद नहीं आनी चाहिए, स्वाध्याय के समय में नींद नहीं आनी चाहिए। किन्तु नींद आ जाती है। सोते समय, सोने के बाद, नींद आनी चाहिए किन्तु उस समय बहुत लोगों को घंटों तक नींद नहीं आती। वे बिस्तर पर इधर-उधर करवटें बदलते रहते हैं। नींद जीवन के साथ जुड़ा हुआ एक पहलू है। प्रश्न होता है-नींद का क्या नियम है ? उसे कौन प्रभावित करता है? इसका पहला नियम है-काल । काल और नींद का बहुत गहरा सम्बन्ध है। दिन, नींद का काल नहीं है। नींद का काल है-रात्रि । दिन में सोना और रात में न सोना-दोनों स्वास्थ्य की दृष्टि से अनुकूल नहीं माने जाते । आयुर्वेद का सिद्धान्त है—दिन में नहीं सोना चाहिए या बहुत नहीं सोना चाहिए। केवल गर्मी में दिन में सोया जा सकता है, और दिनों में दिन में सोना उपयुक्त नहीं माना जा सकता। काल का नियम है नींद के साथ जुड़ा हुआ। सहज नींद रात में जितनी अच्छी आती है, दिन में उतनी अच्छी नहीं आती। यदि आती है तो अधिक आलस्य पैदा कर देती है। अपराध भी नींद में दूसरा नियम है कर्म का । नींद का कर्म के साथ भी सम्बन्ध है । जब दर्शनावरणीय कर्म के परमाणु व्यक्ति को प्रभावित करते हैं, तब व्यक्ति नींद में चला जाता है। एक व्यक्ति बहुत नींद लेता है। उसका निदान नहीं होता। बहुत प्रयत्न करता है, पर नींद आए बिना नहीं रहती। इस स्थिति की समीक्षा करना अपेक्षित है। न आहार के कारण, न कफ की प्रधानता और न वायु की प्रधानता। बिल्कुल स्वस्थ है और फिर 2010_03 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ । जैन दर्शन और अनेकान्त भी नींद बहुत आती है तो वहां दूसरा नियम खोजना होगा। वह नियम होगा-कर्म। निश्चित ही उस व्यक्ति के दर्शनावरणीय कर्म की अधिकता है। उसका विपाक बहुत होता है, इसलिए वह नींद में चला जाता है। कुछ लोग बहुत सघन निद्रा में चले जाते हैं। इतनी सघन निद्रा, जिसे स्त्यानधि निद्रा कहा जाता है। जिस नींद में आदमी अकरणीय काम कर लेता है, असंभावित काम कर लेता है और उसे पता ही नहीं चलता। ऐसी होती है स्त्यानधि नींद । नींद में उठकर चला जाता है, किलोमीटरों तक चला जाता है, किसी का दरवाजा खोल आता है, चोरी कर आता है, किसी को मार आता है, कहीं से कोई चीज उठाकर ले आता है और वापस आकर सो जाता है। उसे पता ही नहीं चलता कि उसने कुछ किया है । ऐसी घटनाएं आज भी कहीं-कहीं मिलती हैं। समाचार-पत्रों में ऐसे विवरण प्रकाशित होते हैं। इतनी प्रगाढ़ निद्रा के कारण को शरीर में नहीं खोजा जा सकता। इसका कारण है—कर्म । निदान से परे का सच बहुत बार बीमारी की अवस्था के और इस प्रकार नींद की अवस्था के शारीरिक कारण भी खोजे जाते हैं। किन्तु कुछ भी उपलब्ध नहीं होता। कुछ लोग कहते हैं-डॉक्टरों के द्वारा सारे निदान करा लिये, निदान में बिल्कुल बीमारी नहीं आ रही है और मैं बहुत भयंकर बीमारी भुगत रहा हूं। इसका क्या कारण है? उपकरण नहीं बता पा रहे हैं कि यह व्यक्ति बीमार है और वह व्यक्ति भयंकर दुःख भोग रहा है। वहां केवल शरीर को ही नियम मानकर, सत्य को, वास्तविकता को, नहीं खोजा जा सकता। वहां शरीर से आगे खोजना होता है। उस बीमारी का कारण हैअसातवेदनीय कर्म । वह कर्म के कारण भुगत रहा है । बीमारी का कोई लक्षण प्रकट नहीं हो रहा है किन्तु असातवेदनीय का प्रबल उदय हो गया इसलिए वह कष्ट भोग रहा है । यह सत्य की खोज का बहुत व्यापक दृष्टिकोण बनता है । जैनदर्शन ने इस दृष्टिकोण को बहुत व्यापक बनाया है और इस व्यापक दृष्टिकोण से सत्य की बहुत समीक्षा की है, मीमांसा की है। अमीरी का एक कारण है : क्षेत्र .. जीवन से जुड़ा हुआ एक संदर्भ है—गरीबी और अमीरी। आदमी गरीब क्यों बनता है, आदमी अमीर क्यों बनता है? यह एक आम धारणा है कि जिसने अच्छा कर्म किया था वह अमीर बन गया और जिसने बुरा कर्म किया था वह गरीब बन गया । यह एक सच्चाई हो सकती है, एक नियम हो सकता है। किन्तु इसे व्यापक ___ 2010_03 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमवाद / १२९ नियम नहीं कहा जा सकता । अनेक नियम इसमें काम करते हैं । एक नियम है-क्षेत्र । एक क्षेत्र ऐसा है, जहां पैदा होने वाला आदमी बहुत गरीबी भोगता है और एक क्षेत्र ऐसा है, जहां पैदा होने वाला सहज ही अमीर बन जाता है। हमारे सामने एक घटना है—अरब देशों में जब तक पेट्रोल उपलब्ध नहीं हुआ, अमीरी नहीं थी, बहुत गरीबी थी और प्राकृतिक साधन भी बहुत कम थे। न वहां विशेष खेती थी, न कोई और रोजगार के अच्छे साधन थे। किन्तु जैसे ही पेट्रोल उपलब्ध हुआ, वे देश दुनिया के अमीर देशों में मुख्य बन गए। यह अमीरी किस कर्म के उदय से हुई। एक साथ. ऐसा कैसे हुआ? सबके एक साथ शुभकमों का उदय हो गया, ऐसा नहीं माना जा सकता। यदि इस बात की गहराई में जाकर नियमों को खोजा जाए तो इसका नियम उपलब्ध होगा-क्षेत्र। भविष्यवाणी मिथ्या क्यों होती है ? ___ काल का भी एक नियम है । गरीबी और अमीरी में काल भी कारण बनता है। अमुक व्यक्तियों पर या अमुक-अमुक स्थानों पर सौर-विकिरण का अमुक प्रकार का प्रभाव होता है । काल का अर्थ है—सूर्य-चन्द्रमा की गति यानी सौर-मंडल की गति और सौर-मंडल के विकिरण । पूरा-का-पूरा ज्योतिषशास्त्र इस आधार पर विकसित .. हुआ है। ज्योतिषशास्त्र बहुत वैज्ञानिक सिद्धान्त है । प्रस्तुत प्रसंग में उस ज्योतिष से । सम्बन्ध नहीं है जिसके द्वारा फलित बताने में बहुत गड़बड़ियां होती हैं। इसका कारण है-भविष्यवाणी करने वाले को पूरे नियमों का पता ही नहीं होता। वे एक बात को लेकर भविष्यवाणी कर देते हैं । इसलिए वह भविष्यवाणी अनेक बार मिथ्या प्रमाणित होती है। जब ज्योतिष के पूरे नियमों का पता नहीं होता, तब अनेक मिथ्या धारणाएं बन जाती हैं और उन धारणाओं के आधार पर ये भविष्यवाणी करने वाले लोगों को बहुत गुमराह कर देते हैं। किसी को बताते हैं तुम्हारे लड़का पैदा होगा और पांच दिन के बाद लड़की हो जाती है। किसी को बताते हैं तुम्हारा कारखाना बहुत चलेगा और सात दिन बाद दिवाला निकल जाता है। ये सामने आई हुई घटनाएं हैं। ये भविष्यवाणियां व्यक्ति को गुमराह करती हैं। ज्योतिर्विज्ञान : एक नियम ज्योतिर्विज्ञान का अर्थ है-काल-चक्र के आधार पर होने वाली घटनाओं का विश्लेषण और वह बहुत सही निकलता है । कब, किस प्रकार के ग्रहों की गति होती है और उस गति के क्या परिणाम आते हैं ? यह बिल्कुल वैज्ञानिक बात है। इसे गणित ज्योतिष कहा जाता है । कुछ व्यक्ति हस्तरेखा देखकर चार-पांच मोटी-मोटी 2010_03 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० / जैन दर्शन और अनेकान्त बातें जान लेते हैं और उसके आधार पर फलित बता देते हैं । कुण्डली देखते हैं और भविष्यवाणी कर देते हैं। इस पाखण्डवाद ने ज्योतिर्विज्ञान को धूमिल बना दिया, संदेहास्पद बना दिया । वास्तव में ज्योतिर्विज्ञान एक बहुत बड़ा नियम है। कब सूर्य, चन्द्र आदि -आदि ग्रहों की गति और उनके विकिरण किस प्रकार के होते हैं और कब व्यक्ति उनसे प्रभावित होता है—यह सारा ज्योतिर्विज्ञान से जाना जा सकता है। इन नियमों का विस्तार किया गया ज्योतिर्विज्ञान में। किस महीने में, किस ऋतु में और किस राशि में किस प्रकार का विकिरण होता है और वह व्यक्ति के शरीर को किस प्रकार प्रभावित करता है । यदि हार्ट को पुष्ट करना है तो किस राशि में उसको पुष्ट किया जा सकता है ? यदि मस्तिष्क को पुष्ट करना है तो किस राशि में उसको पुष्ट किया जा सकता है। प्रत्येक अवयव के साथ राशि और ऋतु का चक्र जुड़ा है। ज्ञान को विकसित करना है तो कब करना चाहिए। जैन आगमों में अध्ययन के विशेष काल का निर्देश दिया गया है। प्रश्न पूछा गया - स्वाध्याय कब प्रारम्भ करें ? उत्तर दिया गया - पुष्य नक्षत्र में या अमुक अमुक नक्षत्र में अध्ययन शुरू करें । अमुक दिशा में बैठकर अध्ययन शुरू करें। यह दिशा का निर्देश, काल का निर्देश बहुत सार्थक है । उस समय किया गया स्वाध्याय का प्रारम्भ बहुत फलदायी होता है और बहुत ग्राह्य बनता है । I प्रभाव सौरमंडल के विकिरणों का यह काल का प्रभाव है। उसके नियम गरीबी और अमीरी के साथ भी जुडे हुए हैं। अमुक प्रकार का सौर मंडल का विकिरण अमुक प्रकार के व्यक्ति को प्रभावित करता है तो गरीबी की स्थिति बन जाती है। बहुत लोग कहते हैं— हमने बहुत प्रयत्न किया, व्यावसायिक बुद्धि और पुरुषार्थ का भी बहुत उपयोग किया, बहुत चेष्टाएं कीं, प्रयत्न किए, अनेक लोगों से सम्बन्ध स्थापित किए किन्तु अब तक सफलता नहीं मिली, गरीबी बनी की बनी रही। समाज में ऐसी घटनाएं बहुत होती हैं और इनका कारण हो सकता है— कोई काल विपरीत चल रहा है, सौर मंडल के विकिरण विपरीत काम कर रहे हैं । जब कोई अवसर आता है, वे व्यक्ति के कार्य की निष्पत्ति में बाधक बन जाते हैं। एक नियम है पुरुषार्थ । श्रमहीनता, श्रमविमुखता गरीबी को बढ़ाती है और श्रम की प्रचुरता गरीबी को कम करती है, गरीबी को मिटाती है। एक नियम है— कर्म । जिस व्यक्ति के असातवेदनीय कर्म का उदय अति तीव्र होता है, उसकी गरीबी को मिटाना मुश्किल बन जाता है। इस प्रकार अनेक नियमों को जानकर ही इस प्रश्न की समीक्षा की जा सकती है । 2010_03 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमवाद / १३१ संदर्भ भाव का जीवन का एक संदर्भ है—भाव। एक दिन में मनुष्य को अनेक भावों का सामना करना होता है । क्रोध, अहंकार, लोभ आदि-आदि मनोभाव बदलते रहते हैं । एक आदमी ने कहा—मुझे दिन में गुस्सा कम आता है और रात को ज्यादा आता है। किसी को अमुक व्यक्ति पर गुस्सा ज्यादा आता है, किसी को अमुक स्थिति पर गुस्सा ज्यादा आता है । ऐसा क्यों होता है ? किसी व्यक्ति को अमुक स्थान में जाने पर गुस्सा आ जाता है। इसका क्या कारण है ? इस प्रश्न के संदर्भ में नियमों के समवाय का अनुशीलन आवश्यक है। स्थानांग सूत्र में चार कारण बतलाए गए हैं। उनमें पहला कारण है-क्षेत्र । एक क्षेत्र के प्रकंपन ऐसे होते है जहां जाते ही आदमी के भाव बिगड़ जाते हैं और एक क्षेत्र के प्रकंपन ऐसे होते हैं, जहां जाते ही आदमी के भाव अच्छे बन जाते हैं, गुस्से का भाव शांत हो जाता हैं । नेपाल में भवन बनाते समय मिट्टी का परीक्षण किया जाता है। वहां यह एक शास्त्र-विद्या चल पड़ी है। नेपाल में इस प्रकार के ज्योतिर्विज्ञानी हैं, जो मिट्टी का परीक्षण करते हैं । परीक्षण के बाद बतलाते हैं यहां की मिट्टी के प्रकम्पन किस प्रकार के हैं। वे आपके लिए लाभप्रद होंगे या हानिकारक ? क्षेत्र के आधार पर यह पूरा विज्ञान विकसित हुआ मूड क्यों बिगड़ता है? ___ मूड बिगड़ने का एक ही कारण नहीं है। उसका एक नियम है—काल । प्रात:काल मूड कम बिगड़ेगा और गर्मी का समय है तो मूड जल्दी बिगड़ जाएगा। व्यक्ति का अलग-अलग समय पर अलग-अलग मूड होता है। इस आधार पर जिस सिद्धान्त का विकास हुआ है, उसे स्वर-विज्ञान में, स्वरोदयशास्त्र में, बहुत स्थान दिया गया है। किस समय किस प्रकार का भाव भीतर चलता है—इस आधार पर सारे कार्यों का निर्णय करना चाहिए । अनेक आदमी जानते हैं कि अभी लाभ का दुघड़िया है, शुभ का दुघड़िया है, अमृत का दुघड़िया है। ये सारे व्यक्ति पर प्रभाव डालते हैं। एक समय होता है जब व्यक्ति का भाव बहुत शान्त रहता है, प्रसन्न रहता है, मूड बहुत अच्छा रहता है । दूसरा समय आया, उसी व्यक्ति का उसी दिन में भाव बदल जाता है, मूड बिगड़ जाता है। वह बिल्कुल बदला हुआ-सा लगता है। यह वही व्यक्ति है, ऐसा विश्वास नहीं होता। अफसर के पास एक व्यक्ति किसी कार्य से जाए और उसका काम बन जाए तो वह कहेगा-आज मुहूर्त शुभ था, अफसर का मूड बहुत अच्छा था इसलिए काम बन गया। दूसरे समय जाए और काम न बन पाए 2010_03 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ / जैन दर्शन और अनेकान्त तो कहेगा—मैंने तो ऐसा सोचा ही नहीं था कि यह इतना निकम्मा आदमी है इसका इतना खराब मूड है। इसके साथ बात करने में भी धर्म नहीं है । एक व्यक्ति ऐसा कैसे हुआ? इसकी व्याख्या नियमों के बिना नहीं की जा सकती। एक ही व्यक्ति कितने भावों में बदल जाता है, कितने उसके पर्याय बदल जाते हैं, इसे नियमवाद के आधार पर ही समझा जा सकता है। आधार मुहूर्त का ____ जीवन का एक संदर्भ है सम्बन्ध । अमुक समय में अमुक व्यक्ति के साथ सम्बन्ध हुआ है तो बहुत अच्छा निभेगा और अमुक समय में हो गया तो बहुत जल्दी ही टूट जाने वाला है, दुर्भाग्यपूर्ण है । जितने सामाजिक सम्बन्ध हैं, उनके लिए काल एक नियम बनता है। न केवल सामाजिक सम्बन्धों के लिए किन्तु गुरु और शिष्य के सम्बन्ध में भी यही तथ्य है । अमुक समय में गुरु और शिष्य का सम्बन्ध जुड़ा है तो बहुत विकसित होगा और अमुक समय में जुड़ा है तो वह ज्यादा निभने वाला नहीं है, टूटने वाला है। इस आधार पर दीक्षा के समय मुहूर्त का चिंतन किया जाता है। किस समय में दीक्षित होना चाहिए-इस संदर्भ में बहुत सारे निर्देश और सिद्धान्त विकसित किए गए। नियमन का सिद्धान्त है नियमवाद . जीवन के संदर्भ में नियमवाद का यह संक्षिप्त अनुशीलन है। नियमों का जैन-साहित्य में बहुत विकास हुआ है। उसमें बहुत सारे नियम ग्रंधित हैं। अगर सारे नियमों का संकलन किया जाए तो पूरा एक नियमशास्त्र बन जाए, नियमों का एक महाग्रंथ बन जाए, उसके आधार पर नियमों की समग्र व्याख्या की जा सकती है। जैनदर्शन नियंता को नहीं मानता, ईश्वर को नहीं मानता । वह नियमन के सिद्धान्त को नियमवाद के संदर्भ में प्रस्तुत करता है । वह मानता है हर व्यक्ति और पदार्थ के अपने-अपने नियम हैं और वे नियम अपना काम करते हैं। ईश्वरवादी यह कहकर छुट्टी पा सकता है कि भगवान की ऐसी मर्जी थी, ऐसी इच्छा थी, अत: ऐसा हो गया पर एक अनीश्वरवादी यह कहकर छुट्टी नहीं पा सकता । उसके सामने बड़ा मार्ग है। ईश्वरवाद का मार्ग बहुत सरल मार्ग है। ईश्वरवाद का अस्वीकार बड़ा जटिल कार्य है। इससे व्यक्ति के सामने स्वयं निर्णय करने का प्रश्न आता है, नियमों की खोज का प्रश्न आता है। इस प्रश्न के संदर्भ में जैनदर्शन ने नियमों की खोज की है, वह खोज बहुत उपयोगी है, उसका ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। 2010_03 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाणवाद धार्मिक आराधना का मुख्य उद्देश्य है-निर्वाण । वह ऐसी अवस्था है, जहां सारे द्वंद्व समाप्त हो जाते हैं। भारतीय चिंतन में धर्म की दो धाराएं हैं—प्रवर्तक धर्म और निवर्तक धर्म । वैदिकपरम्परा प्रवर्तक धर्म की धारा है, श्रमण-परम्परा निवर्तक धर्म की धारा है। प्रवर्तक धर्म ने प्रवृत्ति का विकास किया, निवर्तक धर्म ने निवृत्ति का विकास किया। प्रवृत्ति से फलित हुई–व्यक्ति पूजा। प्रवर्तक धर्म की धारणा है-स्वर्ग पाना है और देवताओं को प्रसन्न रखना है। देवताओं को प्रसन्न रखने के लिए यज्ञ, पूजा आदि के अनुष्ठान किए गए और स्वर्ग पाने के लिए भी अनेक अनुष्ठानों का आयोजन किया गया। निवर्तक धर्म की धारा स्वर्गवादी धारा नहीं है। यह मोक्षवादी धारा है। इसमें मुक्त होने को लिए देवताओं की मनौती नहीं मानी गई, देवताओं को प्रसन्न रखने का अनुष्ठान नहीं किया गया। निवर्तक धर्म में संन्यास की परम्परा को महत्त्व मिला। प्रवृत्ति का संन्यास, भोग का संन्यास, कर्म का संन्यास । उसमें संन्यास का विकास हुआ और संन्यास के द्वारा मोक्ष तक पहुंचने की प्रक्रिया का विकास हुआ। निर्वाण की प्रक्रिया निवर्तक धारा में मोक्ष की प्रक्रिया प्रतिपादित हुई। जीव बद्धावस्था में निरन्तर विजातीय अवस्था में बंधता रहता है। जब तक यह बंधन का क्रम नहीं टूटता तब तक मोक्ष नहीं हो सकता। बंधन-मुक्ति के दो उपाय बतलाए गए-संवर और निर्जरा-आने वाले नये कर्मों का निरोध और पुराने संचित कर्मों का निर्जरण । निरोध और निर्जरण-ये दोनों ऐसे तत्त्व हैं, जिनके द्वारा पुराने संस्कार टूट जाते हैं और नये संस्कार का बंध नहीं होता। इनके द्वारा आत्मा अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाती है, मक्त हो जाती है। जैनदर्शन में मोक्ष की प्रक्रिया को समझने के लिए नव तत्त्व का निरूपण किया गया। मूल तत्त्व दो हैं-जीव और अजीव । मोक्ष के बाधक तत्त्व हैं—आस्रव, पुण्य, पाप और बंध । मोक्ष के साधक तत्त्व है—संवर और निर्जरा। इन सारे बाधक और साधक तत्त्वों का विवेचन और उसकी साधना की पूरी प्रक्रिया 2010_03 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ / जैन दर्शन और अनेकान्त का ज्ञान निर्वाणवाद को समझने के लिए बहुत आवश्यक है। कैसा होता है निर्वाण? स्थूल दृष्टि से लगता है-निर्वाण एक ऐसी अवस्था है, जहां शरीर नहीं होता, मनोविनोद नहीं होता, मन नहीं होता, चिंतन नहीं होता, स्मृति नहीं होती, कल्पना नहीं होती और विकास की योजना नहीं होती । निर्वाण एक ऐसी स्थिति है जहां भोजन नहीं होता, सोना नहीं होता, जागना भी नहीं होता। निर्वाण एक ऐसा स्थल है जहां मकान नहीं होते, महानगर नहीं होते, गांव भी नहीं होते। निर्वाण भूमि में न उद्यान होते हैं, न पेड़ होते हैं, न फल होते हैं, न फूल होते हैं, कुछ भी नहीं होता। प्रश्न हो सकता है-यह कैसा मोक्ष, जिसमें सब कुछ छूट जाता है? निठल्ला बनाता है निर्वाण । क्या यह कोई अवस्था है ? हमारा अनुभव शरीरवादी अनुभव है। हमने शरीर के माध्यम से सब कुछ किया है। शरीर से अलग होकर किसी अवस्था की कल्पना भी हमारे लिए खतरनाक बन जाती है। कायोत्सर्ग की साधना में पूरा शिथिलीकरण होता है, स्थूल शरीर से संपर्क विच्छिन्न हो जाता है। इस अवस्था में भी आदमी घबरा जाता है। शरीर छूट रहा है, यह सोचते ही व्यक्ति का मानस प्रकम्पित हो जाता है। शरीर से विलग अपने अस्तित्व की बात बहुत भयानक होती अन्तिम लक्ष्य है-निर्वाण व्यक्ति का सारा अनुभव शरीराश्रित अनुभव है। इस अवस्था में शरीर मुक्त या अशरीर होने की बात समझ में नहीं आ सकती, इसीलिए प्रवर्तक धर्म बहुत प्रिय लगता है। निवर्तक धर्म बहुत प्रिय नहीं लगता, अच्छा भी नहीं लगता। जैनदर्शन ने निर्वाण का प्रतिपादन किया। उसका अन्तिम लक्ष्य निर्वाण है, अशरीर अवस्था में चले जाना है। इस बिन्दु पर व्यक्ति को सोचना होगा-क्या उस अवस्था में जाकर कुछ नयी बात मिलेगी या जो है उसे भी खो देना होगा? उसमें खोना ही खोना है, पाना कुछ भी नहीं है। प्रश्न होता है—निर्वाण को क्यों अपनी कल्पना का विषय बनाया जाए और क्यों उसके लिए मन में प्यार जगाया जाए? यह बड़ा प्रश्न है। जब निर्वाण का लक्ष्य सामने नहीं रहता है तो निवृत्ति प्रधान साधना भी अकिंचित्कर बन जाती है। यदि साधना को चलना है तो निर्वाणवाद को लक्ष्य बनाए रखना होगा। यदि निर्वाणवाद को लक्ष्य बनाए रखना है तो उसे और अधिक स्पष्ट करना होगा, निर्वाण के स्वरूप को और अधिक स्पष्टता से समझना होगा। ____ 2010_03 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण निषेधात्मक नहीं है जैनदर्शन का निर्वाण निषेधात्मक नहीं है। कुछ दार्शनिक मानते हैं— मुक्त होने के बाद अस्तित्व समाप्त हो जाता है, व्यक्ति शून्य में चला जाता है। जैनदर्शन में यह तथ्य स्वीकृत और सम्मत नहीं है। निर्वाण की सबसे बड़ी उपलब्धि है अनंत आनन्द, जो किसी भी भौतिक पदार्थ या पौगलिक पदार्थ से प्राप्त नहीं होता । निर्वाण में अनिर्वचनीय आनन्द है । इसे समझाने के लिए एक उपमा का प्रयोग किया गया - दुनिया भर के जितने पौगलिक सुख हैं, उन सारे सुखों को पिंडीभूत किया जाए, इकट्ठा किया जाए, उन सब सुखों के पिंड को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए और तराजू के दूसरे पलड़े में निर्वाण के सुख को रखा जाए तो भी निर्वाण का सुख भारी होगा, पौगलिक सुख का पलड़ा ऊपर चढ़ता ही चला जाएगा। जितने पौगलिक सुख हैं, उन सब सुखों से भी शतगुणा सुख और आनंद निर्वाण में है । उसके सुख को बताया नहीं जा सकता । निर्वाण चैतन्यमय है एक आदिवासी नगर में चला गया । उसने नगर को देखा । बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं देखी, बाजार देखे, वस्तुएं देखी, भोजन के अनेक प्रकार देखे, पेय वस्तुएं देखीं, आभूषण और साज-सज्जा देखी। उसे सब कुछ अत्यन्त सुन्दर लगा। नगर देखकर वह जंगल में अपनी झोंपड़ी में पहुंचा। परिवार के लोगों ने पूछा- 'तुम कहां गए थे ?' वह बोला- 'मैं नगर गया था । ' 'बताओ ! नगर कैसा है ?' निर्वाणवाद / १३५ वह क्या बताए ? वह जानता तो है, पर बता नहीं सकता। क्योंकि सामने वाले व्यक्ति ऐसे हैं जिन्होंने कभी नगर देखा ही नहीं है, जिन्होंने झोपड़ी के सिवाय बड़ी अट्टालिका को देखा ही नहीं है, जिन्होंने झोंपड़ी की मिट्टी के सिवाय कभी स्फटिक का आंगन देखा ही नहीं है, जिन्होंने सदा सूखी रोटियां खाई हैं, पकवान कभी देखे ही नहीं । वह उन्हें बताए तो कैसे बताए ? वह जानता है पर बता नहीं सकता । यह है अनिर्वचनीय बात । जाना जा सकता है, पर कहा नहीं जा सकता। मोक्ष के जो सुख हैं, आनन्द हैं, वे अत्यन्त घनीभूत हैं । उन्हें भोगने वाले जानते हैं पर कह नहीं सकते। जो स्वयं अनुभव करते हैं, वे भी उसे बता नहीं सकते । I कुछ दार्शनिक मोक्ष को अचेतन मानते हैं। जैनदर्शन का निर्वाण चैतन्यमय है । 2010_03 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ / जैन दर्शन और अनेकान्त निर्वाण में चैतन्य पूर्ण प्रज्ज्वलित हो जाता है। वहां चैतन्य का पूर्ण विकास है। . चैतन्य के अतिरिक्त वहां और कुछ है ही नहीं। अस्तित्व समाप्त नहीं होता ___जैनदर्शन का निर्वाण स्वतंत्र अस्तित्व का निर्वाण है । कुछ दार्शनिक मानते हैं कि निर्वाण होने के पश्चात आत्मा का विलय हो जाता है, अस्तित्व समाप्त हो जाता है। ईश्वरवादी मानते हैं—निर्वाण होने पर आत्मा ईश्वर में विलीन हो जाती है। ब्रह्मवादी मानते हैं—आत्मा ब्रह्ममय बन जाती है । उसका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रहता। जैनदर्शन ने निर्वाण में न आत्मा का अभाव माना, न विलय माना, न सहवास माना और न सामीप्य माना, किन्तु उसका स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकृत किया। प्रत्येक आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है। जैनदर्शन की भाषा में ऐसा कोई ईश्वर नहीं है, जो सबको विलीन कर सके । प्रत्येक मुक्त आत्मा ईश्वर है। किन्तु ऐसा नहीं होता कि एक ईश्वर है और उसमें दूसरी मुक्त आत्माएं विलीन हो जाएं । जैनदर्शन में ऐसा भेद स्वीकार्य नहीं है । उसके अनुसार सबका समान अस्तित्व है, सबका समान चैतन्य है और सबका समान आनन्द है । यह आनन्दमय, चैतन्यमय, स्वतंत्र अस्तित्व से युक्त निर्वाण शक्ति-शून्य नहीं है। निर्वाण में शक्ति का चरम विकास होता है। सिद्ध में प्रचुर शक्ति होती है । समस्या उस लोक में होती है जहां शक्ति नहीं होती, जहां चैतन्य नहीं होता, जहां आनन्द नहीं होता। शक्ति, चैतन्य और आनन्द-शून्य जीवन जीना सचमुच दुर्भाग्य का जीवन जीना है । मुक्त आत्मा का जीवन शक्ति का जीवन होता है, चैतन्य का जीवन होता है और आनन्द का जीवन होता है। बाधा है आसक्ति ___ व्यक्ति केवल अपनी शारीरिक अनुभूतियों के आधार पर संशयशील बनता है। उसमें संशय होता है-निर्वाण में किस प्रकार का जीवन होगा ? इन सारी हलचलों से परे हो जाएंगे। प्रश्न हो सकता है-मरने के बाद व्यक्ति का किस प्रकार का जीवन होगा। एक व्यक्ति जीवन भर हलचल का जीवन जीता रहा, वह मर गया। अब क्या होगा? उसका उद्योग छूट गया, व्यापार छूट गया, राजनीति छूट गई, परिवार छूट गया और जो भोग का माध्यम था, वह शरीर भी छूट गया । अब क्या होगा? वह कहां चला गया? उसके लिए सारा संसार लुप्त हो गया। कुछ भी शेष नहीं बचा । मरने के बाद जो अवस्था होती है वही अवस्था मोक्ष होने के बाद होगी। पर इसमें भी बहुत अन्तर है। मरने के बाद व्यक्ति न जाने कितनी कठिनाइयों में 2010_03 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाणवाद / १३७ I चला जाता है । यदि वह नर्क में जाता है तो भयंकर कठिनाइयों को भुगतना होता है, घोर वेदना का सामना करना होता है। यदि स्वर्ग में चला जाता है तो विलासपूर्ण जीवन जीता है किन्तु उसमें भी अनेक प्रकार की मानसिक कठिनाइयों में से गुजरता है, अपराधों में से गुजरता है, अनेक संक्रामक स्थितियों में से गुजरता है । व्यक्ति मनुष्य बन जाता है तो भी उसे अनेक समस्याओं का सामना करना होता है। यदि वह तिर्यंच गति में चला जाता है तो भी दुःख से मुक्ति नहीं पा सकता । यदि वह वनस्पति जैसे स्थान में चला जाता है तो वहां अनंतकाल तक ऐसी अव्यक्त अवस्था में रहता है जहां होना न होना बराबर जैसा होता है । वनस्पति जगत में पैदा व्यक्ति के अस्तित्व का पता ही नहीं चलता । वनस्पति में अव्यक्त अस्तित्व होता है, उसमें व्यक्ति नाममात्र का जीव रह जाता है, एक घोर मूर्च्छा का जीवन हो जाता है I इस स्थिति में प्रश्न उभरता है— क्या संसार में रहकर शरीर को धारण करना बड़ी बात है । शरीर धारण से क्या मिला ? व्यक्ति सघन मूर्च्छा में जी रहा है । वह सोचता है— अभी मैं जो कर रहा हूं, वह सबसे अच्छा है। यह मूर्च्छा उसके मन में संशय को जन्म दे रही है। उसकी आसक्ति उसके विकास में बाधक बनी हुई है । मूर्च्छा का जीवन हुए हरियाणा की प्रसिद्ध कहानी है। एक कुत्ता बहुत बीमार हो गया, दुबला-पतला हो गया। उसका नाम था शताबा। मुहल्ले के कुत्ते ने पूछा- 'तुम इतने थके-मांदे कैसे हो गए ?' वह बोला- 'पूरा खाने को नहीं मिलता ।' 'खाने को नहीं मिलता तो चलो दूसरे घरों में, यहां क्यों बैठे हो ? हम बंधे हुए थोड़े ही हैं।' उसने कहा- 'मैं इस घर को छोड़कर नहीं जा सकता ।' 'क्यों नहीं जा सकते ?' उसने कहा- 'आपको पता नहीं है, अपनी दो-दो पत्नियों को छोड़कर मैं कैसे जा सकता हूं ? कुत्ते ने पूछा- 'कौन-सी दो पत्नियां ?" कुत्ता बोला- 'मैं जिस घर में रहता हूं, वह धोबी का है। उसके दो पत्नियां । जब वे आपस में लड़ती हैं तो एक-दूसरे से कहती हैं - तू आई रांड शताबा की बेर (औरत) और कभी दूसरी पहली से कहती है कि तू आई है रांड शताबा की बेर । तुम बताओ - मैं दो-दो पलियों को छोड़कर कैसे जाऊं ?' 2010_03 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ / जैन दर्शन और अनेकान्त यह मूर्छा है। शरीर के साथ व्यक्ति की मूर्छा सघन बनी हुई है। वह शरीर से परे की कोई बात सोच ही नहीं सकता। व्यक्ति को लगता है-शरीर नहीं होगा तो क्या होगा? वह शरीर से परे जाने की कल्पना नहीं कर सकता। ___ मूर्छा के कारण निर्वाण सिद्धान्त को समझने में बड़ी कठिनाई होती है। कुछ लोग कहते हैं—निर्वाण में जाकर क्या करना है? इस प्रकार से निकम्मा बैठ जाना है। हमें क्रियाशील रहना पसन्द है, अकर्मण्य या निकम्मा बैठ जाना पसन्द नहीं है। ऐसा कहने वाले मूर्छा के स्वर में बोलते हैं, उन्हें सच्चाई का पता नहीं है। निवृत्ति का परिणाम ___भगवान महावीर निर्वाणवादियों में प्रधान रहे हैं। उन्होंने निर्वाण के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उन्होंने यह नहीं कहा—तुम कुछ भी मत करो, सब कुछ छोड़ दो। जब तक जीवन है, शरीर है, तब तक आदमी को सब कुछ करना है। उसे धीरे-धीरे संवर और निर्जरा का विकास करना है, मूर्छा को तोड़ना है और जिस दिन मूर्छा का चक्रव्यूह टूटेगा, सूक्ष्म शरीर के बन्धन भी ढीले पड़ जाएंगे। जब सूक्ष्म शरीर के बन्धन ढीले पड़ेंगे, सूक्ष्म शरीर भी छूट जाएगा और एक ऐसी अवस्था का विकास होगा, जिसमें शरीर नहीं रहेगा। अशरीर अवस्था में आनन्द, चैतन्य और शक्ति का साम्राज्य है। वहां पहुंच जाने पर शरीर की बात छोटी लगने लग जाती है। एक शारीरिक अवस्था और एक अशरीर की अवस्था दोनों की तुलना करें तो हम निर्वाण के रास्ते को समझ पायेंगे और यह निर्वाणवादी अवस्था हमें एक नयी दिशा प्रदान करेगी। आज प्रवृत्ति-बहुलता के कारण मानसिक तनाव, आपा-धापी, संघर्ष, छीना-झपटी, लूट-खसोट चल रही है । जैसे-जैसे समाज में निवृत्ति का विकास होगा, निवर्तक धारा का विकास होगा, सामाजिक शोषण कम होगा, आपा-धापी कम होगी, संघर्ष कम होगा, लूट-खसोट कम होगी और प्रत्येक व्यक्ति अपने अस्तित्व की सीमा में जीने का प्रयत्न करेगा। निर्वाण का अर्थ है अपने अस्तित्व की सीमा में जीना। 2010_03 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनर्जन्मवाद आत्माएं अनन्त हैं और जीव अनन्त हैं । यह जैनदर्शन का एक मुख्य सिद्धान्त है। आत्मा और जीव में भेद नहीं है। जैनदर्शन में संसारी आत्मा को आत्मा कहा और मुक्त आत्मा को जीव कहा गया है। आत्मा और जीव—दोनों सापेक्ष शब्द हैं। इनमें भेद किया भी जा सकता है और नहीं भी किया जा सकता । रूपान्तरण का सिद्धान्त गया अनन्त जीववाद और अनन्त आत्मावाद जैनदर्शन को मान्य है । एकात्मवाद के सामने प्रश्न प्रस्तुत हुआ - आत्मा एक है तो पुनर्जन्म किसका होगा ? भवान्तर किसका होगा ? जन्म-मरण का चक्र कैसे चलेगा? इस प्रश्न के समाधान में कहा गया—वास्तव में आत्मा एक है किन्तु व्यवस्था की दृष्टि से वह अनेक हैं। जैनदर्शन में व्यवस्था की दृष्टि से नानात्व का प्रपंच नहीं है । वह अनेकात्मवादी है । उसके अनुसार प्रत्येक आत्मा अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखती है । उसका भव- भ्रमण होता है, पुनर्जन्म होता है । अनेक- आत्मवाद के आधार पर पुनर्जन्म की बात बहुत संगत बैठती है । सब आत्माएं जैसे हैं वैसे नहीं रहतीं किन्तु उनका रूपान्तरण होता रहता है। यह रूपान्तरण का सिद्धान्त पुनर्जन्म के रूप में व्याख्यात हुआ है । एक जन्म के बाद दूसरा जन्म होता रहता है। जन्म के बाद मरण और मरण के बाद पुन: जन्म - इस प्रकार यह जन्म और मरण का चक्र चलता रहता है । चतुर्गतिवाद पुनर्जन्म के लिए कुछ सिद्धान्तों की व्याख्या आवश्यक है । पहली बात है— स्थूल शरीर का त्याग और सूक्ष्म शरीर का निरन्तर विद्यमान होना । मरने के समय स्थूल शरीर छूट जाता है पर सूक्ष्म शरीर कभी नहीं छूटता । संसारी अवस्था में सूक्ष्म शरीर निरन्तर विद्यमान रहता है । वह सूक्ष्म शरीर ही अन्तराल गति करता है, मरने के बाद गति करता है और दूसरी गति में जाता है । वह वहां जाकर फिर सूक्ष्म शरीर का निर्माण करता है । यह अन्तराल गति की प्रक्रिया, नये शरीर के निर्माण की प्रक्रिया, पुनर्जन्म के साथ जुड़ी हुई प्रक्रिया है। इसके साथ जुड़ा हुआ है चतुर्गति का सिद्धान्त । 2010_03 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० / जैन दर्शन और अनेकान्त चार गतियां हैं-नर्क तिर्यच, मनुष्य और देव। षड्जीवनिकायवाद चतुर्गतिवाद पुनर्जन्मवाद का ही एक सिद्धान्त है और इसी के साथ जुड़ा हुआ है षडजीवनिकायवाद । जीव एक ही रूप में नहीं रहता। जीव के अनेक रूप हैं। जो जैसा है वह वैसा ही नहीं रहता। कुछ दर्शन मानते हैं—मनुष्य मरकर मनुष्य होता है और पशु मरकर पशु होता है। जैनदर्शन ने इस अभिमत को स्वीकृत नहीं किया। उसने पुनर्जन्म के सिद्धान्त की, जन्म-मरण के चक्र के सिद्धान्त की, जो व्याख्या की है, उससे षडजीवनिकायवाद का सिद्धान्त फलित होता है । जीवों के छह निकाय होते हैं । पृथ्वीकाय, अपकाय, तैजसकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय-ये छह निकाय हैं । इन निकायों में जीव भ्रमण करता रहता है । नरकगति, देगगति और मनुष्यगति—इनमें त्रसनिकाय होता है। तिर्यंच-गति में शेष पांच निकाय होते हैं, वसनिकाय भी होता है । पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी आत्मा होती है। इन पांचों निकायों को जीव मानना जैनदर्शन की मौलिक प्रस्थापना है। किसी भी भारतीय या पाश्चात्य दर्शन में जीवों का ऐसा वर्गीकरण उपलब्ध नहीं होता। आत्मा के तीन विभाग __ अरस्तू ने आत्मा को तीन भागों में विभक्त किया है.. वनस्पति • पशु-पक्षी . . मनुष्य प्लेटो ने भी आत्मा के तीन वर्ग प्रस्तुत किए हैं • बौद्धिक आत्मा • अबौद्धिक कुलीन आत्मा • अबौद्धिक अकुलीन आत्मा जैनदर्शन की मौलिक विशेषता __ जैनदर्शन में जीवनिकायवाद का जो निरूपण है, वह किसी भी भारतीय या अभारतीय दर्शन में प्राप्त नहीं है । यह जैनदर्शन की अपनी मौलिक विशेषता है। कुछ विचारकों का अभिमत है-यह जीवनिकायवाद का वर्गीकरण अविकसित मानव या आदिकालीन समाज के चिन्तन का प्रतिफल है । आदिकालीन प्रकृति के प्रत्येक तत्त्व को देव माना जाता रहा है। पानी को देव माना गया, पहाड़, नदी, सरोवर, अग्नि 2010_03 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनर्जन्मवाद / १४१ सबको देव माना गया। चार भूत माने गए – पृथ्वी, अग्नि, जल और वायु । यदि आकाश को मानें तो पंचभूत हो जाते हैं। हो सकता है— महावीर ने इस पंचभूतवाद का जीव के रूप में व्याख्यान कर दिया अथवा प्रकृति के प्रत्येक तत्त्व को देव मानने की बात के आधार पर उन्हें जीव मान लिया गया । जीवनिकायवाद किसी का अनुकरण नहीं है T आधुनिक विचारकों के इस चिन्तन में सच्चाई नहीं लगती, उनका चिन्तन बहुत गहरा नहीं लगता । भगवान महावीर ने इन छह निकायों की जो व्यवस्था की, उसका आधार उनका अतीन्द्रिय ज्ञान था। उन्होंने षडजीवनिकाय का साक्षात्कार कर उसका निरूपण किया। उनके निरूपण को आरोपण नहीं कहा जा सकता। उन्होंने प्रत्येक जीवनिकाय को देखा, प्रत्येक जीवों के लक्षणों को देखा और उसके पश्चात यह वर्गीकरण प्रस्तुत किया। यह साक्षात्कारपूर्वक किया गया वर्गीकरण है । इसका प्रामाण्य है — षडजीवनिकायवाद की विशद व्याख्या । एक पृथ्वीकाय का जीव सचित्त है, सजीव है । मिटटी के एक ढेले में असंख्य जीव होते हैं । वे श्वास लेते हैं, आहार करते हैं, उनका आयुष्य कितना होता है, वे कहां से आते हैं ? मरकर कहां ज्यों हैं ? उनका किन-किन गतियों से आगमन होता है ? किन-किन गतियों से गमन होता है ? उनमें कितना ज्ञान होता है ? कितना कषाय होता है ? आदि-आदि अनेक पहलुओं से प्रत्येक जीवनिकाय के संदर्भ में विस्तृत विश्लेषण किया गया है। इसलिए यह देववाद या प्रकृतिवाद का आरोपण, नकल या अनुकरण नहीं है । यदि केवल देव शब्द के स्थान पर जीव शब्द का प्रयोग होता तो शायद यह प्रश्न हो सकता था किन्तु महावीर ने प्रत्येक जीवनिकाय का विशद एवं वैज्ञानिक विवेचन किया है। इस विवेचन के आधार पर यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता - षडजीवनिकायवाद, प्रकृतिवाद या आदिमकालीन चिन्तन का ही विकसित रूप है । जैनदर्शन में विकासवाद षडजीवनिकायवाद अनन्त जीवों के परिवर्तन का माध्यम बनता है। इस आधार पर विकासवाद को समझना भी आवश्यक है । डार्विन ने विकासवाद की व्याख्या जैविक विकास के आधार पर की। सांख्यदर्शन में विकासवाद की व्याख्या एक शाश्वत सिद्धान्त के आधार पर हुई है। जैनदर्शन में प्रतिपादित विकासवाद का क्रम बहुत महत्त्वपूर्ण है । इसमें इन्द्रियों के आधार पर विकास का सिद्धान्त प्रतिष्ठित किया गया । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय- ये पांच विभाग जीवों 2010_03 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ / जैन दर्शन और अनेकान्त के क्रमिक विकास के आधार पर प्रस्तुत हुए हैं। इन्द्रिय के आधार पर जीवों का यह वर्गीकरण कहीं भी प्राप्त नहीं है, किसी भी दर्शन में प्राप्त नहीं है। पहली श्रेणी के जीव वे होते हैं, जिनमें केवल स्पर्शन इन्द्रिय का ही विकास होता है। दूसरी श्रेणी के जीव वे होते हैं, जिनमें दो इन्द्रियों का विकास होता है— स्पर्शन और रसन — त्वचा, और जीभ । तीसरी श्रेणी के जीवों में तीन इन्द्रियों का विकास होता है - स्पर्शन, रसन, घ्राण । चौथी श्रोणी के जीवों में चार इन्द्रियों का विकास हो जाता है— स्पर्शन, तसन, घ्राण और चक्षु | पांचवी श्रेणी के जीवों में पांचों इन्द्रियां विकसित होती है— स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र । इस आधार पर विकासवाद को बहुत व्यवस्थित ढंग से समझा जा सकता है । I 1 विकास की न्यूनतम आवश्यकता जीव में पहले एक इन्द्रिय का विकास होता है, स्पर्शन इन्द्रिय का विकास होता है । यह विकास की न्यूनतम आवश्यकता है। दूसरी अवस्था में जीभ का विकास होता है यानी वाणी का विकास हो जाता है, बोलने की क्षमता उद्भूत हो जाती है । एकेन्द्रिय जीव बिल्कुल मूक होते हैं, द्वीन्द्रिय जीव में चखने और बोलने की क्षमता आ जाती है । अंगली अवस्थाओं में क्रमश: एक-एक इन्द्रिय का विकास होता है— गंध शक्ति का विकास, दर्शन शक्ति का विकास और श्रवण शक्ति का विकास । सुनने की क्षमता होने पर सामाजिक जीवन का पूर्णरूप बनता है। सामाजिक जीवन की दो विशेषताएं हैं - बोलना और सुनना । अगर बोलने और सुनने की बात नहीं होती तो समाज का विकास नहीं होता। समाज का विकास हुआ है वाणी के आधार पर । जिनमें बोलने की क्षमता नहीं है, सुनने की क्षमता नहीं है, उनका समाज नहीं बनता । विकास का वैज्ञानिक क्रम पंचेन्द्रिय जीवों को दो भागों में विभक्त किया गया— समनस्क और अमनस्क । कुछ पंचेन्द्रिय जीव ऐसे होते हैं जिनमें मन का विकास नहीं होता । उनमें इंद्रियां पांचों होती हैं, किन्तु मन विकसित नहीं होता । कुछ पंचेन्द्रिय जीव ऐसे हैं, जिनमें मन का विकास होता है । विकास का व्यवस्थित क्रम है— एक इन्द्रिय से चलें और मानसिक विकास की भूमिका तक पहुंच जाएं। इन्द्रिय का विकास, वाणी का विकास और मानसिक विकास — यह विकास का एक वैज्ञानिक क्रम है। मानसिक विकास और पांच इन्द्रियों के आधार पर किया गया जीवों का वर्गीकरण एक विकास-क्रम 2010_03 1 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनर्जन्मवाद / १४३ की सूचना देने वाला वर्गीकरण है। पांच इन्द्रियों का प्रस्तुत क्रम जैनदर्शन की अपनी मौलिक विशेषता है। किसी भी दर्शन में पांच इन्द्रियों का यह क्रम स्वीकृत नहीं है। सांख्यदर्शन में पांच इन्द्रियों को स्वीकार किया गया। अन्य दर्शनों में भी पांच इन्द्रियों को स्वीकृत किया गया। किन्तु इन्द्रियों का यह क्रम-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत—किसी भी दर्शन में स्वीकृत नहीं है। सांख्यदर्शन में पहली इन्द्रिय है-नेत्र । आंख जीव का पहला विकास नहीं है। प्राणी का पहला विकास है स्पर्शन। इस दृष्टि से कहा जा सकता है-इन्द्रियों का प्रस्तुत क्रम जैन दर्शन की अपनी सूझ-बूझ से उपजा हुआ है। साधना का उद्देश्य ___ जीवनिकायवाद और पुनर्जन्मवाद-इन दोनों के आधार पर साधना के अनेक सूत्र उपलब्ध होते हैं। प्रश्न होता है—साधना क्यों की जाए? उद्देश्य क्या है? साधना का उद्देश्य है-जन्म-मरण के चक्रव्यूह को तोड़ना, विकास की उच्चतम भूमिका पर पहुंच जाना। विकास की उच्चतम भूमिका है- मन से परे का ज्ञान । मन की भूमिका तक का ज्ञान विकास की सामान्य भूमिका है किन्तु विकास की उच्च भूमिका है अंतीन्द्रिय चेतना का विकास, जहां मन समाप्त हो जाता है, मन की आवश्यकता नहीं रहती । अमनस्क अवस्था की भूमिका तक पहुंच जाना विकास का मुख्य बिन्दु है। यह विकास तब संभव है जब जन्म और मरण के चक्र-व्यूह को तोड़ दिया जाए। ____ मुझे जन्म न लेना पड़े, इस धारणा के आधार पर अनेक लोगों ने साधना की दिशा में प्रस्थान किया है। आगम साहित्य में ऐसी अनेक घटनाएं उपलब्ध हैं । एक विरक्त आत्मा ने वैराग्य के स्वर में कहा—'मुझे बार-बार जन्म और मरण न करना पड़े इसलिए मैं मुनि बनना चाहता हूं।' इसीलिए जन्म और मरण को दुःख माना गया है । जैनदर्शन में दुःखवाद स्वीकृत है । बौद्ध दर्शन भी दुःखवादी है। दुःखवाद के चार मुख्य अंग बतलाए गए—जन्म, मरण, बुढ़ापा और रोग। दुःखवाद के ये चार अंग हैं। पर व्यवहार की दृष्टि से देखें तो जन्म लेना दुःख प्रतीत नहीं होता। प्रश्न हो सकता है-जन्म-मरण को दुःख क्यों माना गया? जन्म और मरण को उच्चतम विकास की दृष्टि से ही दुःख माना गया है। जब तक यह जन्म-मरण का चक्र है तब तक आत्मा का उच्च विकास नहीं हो सकता। ये आत्मा के उच्च विकास में बाधक हैं । बाधा देने वाला दुःख करने वाला होता है । बाधक तत्व दुःखद होता है। जन्म और मरण—ये विकास में बाधक है इसलिए दुःख हैं। इस दुःखवाद के 2010_03 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ / जैन दर्शन और अनेकान्त आधार पर सुख की कल्पना की गई। दुःखवाद और सुखवाद --- दोनों जुड़े हुए हैं। व्यक्ति को दुःख से सर्वथा मुक्ति पाकर सुख की उस भूमिका तक पहुंचना है जहां कोई दुःख न हो । सुख की परिभाषा भारतीय चिन्तन में, आध्यात्मिक चिन्तन में उस सुख को सुख नहीं माना गया, जिसका परिणाम दुःखद होता है। उसे सुख माना गया, जिसका परिणाम सुखद होता है । जिस प्रवृत्ति से प्रवृत्तिकाल में भी सुख होता है और परिणामकाल में भी सुख होता है, वह सुख है । इन्द्रियों के जितने विषय हैं, प्रवृत्ति काल में सुख देते हैं किन्तु परिणामकाल में दुःखद हो जाते हैं। इसलिए उन्हें दुःख ही माना गया । इन्द्रिय विषयों को सुख नहीं माना गया किन्तु सुख उन्हें माना गया, जो प्रवृत्तिकाल और परिणामकालदोनों अवस्थाओं में सुखद होते हैं, जिनमें कहीं भी दुःख का अनुभव नहीं होता । जन्म और मरण का चक्र टूटे, यह वैराग्य या आत्मा की साधना का मूल आधार रहा है । जो मौत से डरता है, वह मौत से छुट्टी पा लेता है। जो मौत से आशंकित है, जो यह नहीं चाहता कि मैं मरूं, वह मौत से छुट्टी पा लेता है । मृत्यु से अमरत्व की ओर प्रस्थान, चिरसुख की दिशा में प्रस्थान है । अध्यात्मवाद : मूल बीज की खोज षडजीवनिकायवाद, पुनर्जन्मवाद, विकासवाद और वैराग्यवाद - सब मिलकर अध्यात्मवाद को जन्म देते हैं, अध्यात्मवाद के ये मूलभूत आधार तत्व बन जाते हैं। आज अध्यात्म की बहुत चर्चा है। जब तक जीवनिकाय को नहीं समझा जाता, पुनर्जन्म को नहीं समझा जाता, जैविक विकास को नहीं समझा जाता और इस परिभ्रमण के चक्र को नहीं समझ लिया जाता, तब तक अध्यात्मवाद की बात समझ में नहीं आ सकती । अध्यात्मवाद मूल बीज की खोज है। पुनर्जन्म का बीज कहां है ? दुःख का बीज कहां है ? जन्म और मरण के चक्र का बीज कहां है ? इन सारे बीजों की खोज करना अध्यात्मवाद है । राग और द्वेष—ये दो मूलभूत बीज हैं। इन बीजों का अंकुरण होता है तो जीवों का विस्तार होता है । राग और द्वेष के कारण छह जीवनिकाय बनते हैं। यदि राग-द्वेष नहीं होता तो जीवों के छह निकाय नहीं बनते । केवल एक ही निकाय रहता, केवल आत्मवाद होता किन्तु जीवों का विस्तार नहीं होता। जीवों का जो विस्तार हुआ है नानात्व हुआ है, वह रोग और द्वेष के कारण हुआ है । I 2010_03 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनर्जन्मवाद | १४५ आत्माएं अनंत हैं और उनका स्वतंत्र अस्तित्व है। किन्तु आत्मा के निकाय नहीं बनते । आत्मा अनंत हैं और उनका स्वतंत्र अस्तित्व है किन्तु आत्मा के निकाय नहीं बनते । आत्मा अनिकाय होती, केवल मुक्त आत्मा ही होती, उच्च भूमिका में प्रतिष्ठित आत्मा ही होती । यदि राग-द्वेष का बीज नहीं होता तो इन्द्रियों के आधार पर जीवों के पांच वर्ग कभी नहीं बनते। इन्द्रियां होती ही नहीं। राग-द्वेष नहीं होता तो शरीर नहीं होता और शरीर नहीं होता तो इन्द्रियां नहीं होती, मन नहीं होता, कोई प्रपंच या विस्तार नहीं होता । इस भाषा में वेदान्त की भाषा को ठीक समझा जा सकता है-एक आत्मा है और यह सारा जगत उसका प्रपंच है । जैनदर्शन की भाषा होगी-केवल आत्माएं हैं, अनंत आत्माएं हैं किन्तु उन आत्माओं का सारा प्रपंच राग-द्वेष के कारण हुआ है। धर्म की परिभाषा मूल बीज है राग और द्वेष । आत्मा के भीतर गहराई में जाकर राग-द्वेष के बीज को खोजना या प्रपंच बढ़ाने वाले तत्त्वों को खोजना अध्यात्मवाद है। सरल भाषा में कहें तो राग और द्वेष—इन दो में रहना और जीना अनध्यात्मवाद, भौतिकवाद या पौद्गलिकवाद है तथा राग-द्वेष मुक्त क्षणों में रहना और जीना अध्यात्मवाद है। प्रेक्षाध्यान की साधना प्रिय और अप्रिय संवेदन से मुक्त जीवन जीने का अभ्यास है। केवल आंख मूंदकर बैठ जाना, शरीर को स्थिर बना लेना ही प्रेक्षाध्यान नहीं है। प्रेक्षाध्यान का अर्थ है-राग-द्वेष-मुक्त क्षण में जीने का अभ्यास। यही धर्म के विकास का पहला बिन्दु है । राग-द्वेष सारे गति-चक्र को विस्तार देता है, आत्मा के स्वरूप को आवृत करता है। यदि आत्मा के अनावृत स्वरूप को पाना है तो उसके लिए राग-द्वेष को क्षीण करना आवश्यक है । यह धर्म का उद्गम स्थल है। यहां से धर्म का स्रोत बहता है, धर्म की नदी प्रस्फुटित होती है। धर्म का स्वरूप है राग-द्वेष को क्षीण करना। धर्म की सीधी सरल परिभाषा की जा सकती है—जहां-जहां राग-द्वेष की प्रवृत्ति है, वहां-वहां अधर्म है और जहां-जहां राग-द्वेष की निवृत्ति है, वहां-वहां धर्म है। ध्यान, धर्म का ही एक अंग है, वह उससे भिन्न नहीं है । ध्यान की परिभाषा भी यही होगी-राग-द्वेष-मुक्त क्षण ध्यान का क्षण है, राग-द्वेष-युक्त क्षण अध्यान का क्षण है। धर्म की आध्यात्मिक धारणा हम विस्तार से चलते-चलते बीज तक पहुंच जाएं । बीज को नष्ट करना बहुत 2010_03 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ / जैन दर्शन और अनेकान्त सरल होता है। जब बीज बरगद बन जाता है तब उसे उखाड़ना बहुत कठिन हो जाता है। सारे दुःखों का बीज है-राग और द्वेष । जो इस तथ्य को समझ लेता है, वह इन बीजों को नष्ट करने के लिए प्रयलशील बनता है, इन बीजों को नष्ट करने की कुंजी उसके हाथ में आ जाती है। ___यह तत्वज्ञान, जीव के विस्तार का ज्ञान, दुःखवाद का ज्ञान, भवभ्रमण या चतुर्गति पर्यटन का ज्ञान आवश्यक है, जिससे हम मूल बीज को पकड़ सकें जौर धर्म की मूल धारणा को पकड़ सकें। जैनदर्शन ने धर्म की जो आध्यात्मिक धारणा दी है, वह संप्रदायातीत है। धर्म की जो धारणा आध्यात्मिक नहीं होती, समाज प्रतिष्ठित होती है, वह संप्रदायातीत नहीं हो सकती। उसके साथ सम्प्रदाय या जाति का बंधन बना रहेगा। वह जाति और सम्प्रदाय से मुक्त होकर कभी आगे नहीं बढ़ सकती। जो धर्म आध्यात्मिक धारणा पर अवस्थित होता है, उसके साथ जाति या सम्प्रदाय का बंधन नहीं होता। इसीलिए जैनदर्शन ने जातिवाद को अतात्त्विक बताया, सम्प्रदाय के बंधन को स्वीकार नहीं किया। अध्यात्म की भूमिका पर जैनधर्म भगवान महावीर ने कहा—एक व्यक्ति सम्प्रदाय को छोड़ देता है किन्तु धर्म को नहीं छोड़ता। वह धर्म को निरन्तर बनाए रखता है, किन्तु सम्प्रदाय को छोड़ देता है। एक व्यक्ति ऐसा होता है, जो धर्म को छोड़ देता है किन्तु सम्प्रदाय को नहीं छोड़ता। ये विकल्प तभी सम्भव हैं, जब धर्म और सम्प्रदाय एक नहीं हो । यदि धर्म और सम्प्रदाय एक होते तो ये विकल्प नहीं बनते । धर्म और सम्प्रदाय को एक मानने का अर्थ है—जहां सम्प्रदाय है वहां धर्म है और जहां धर्म है वहां सम्प्रदाय है। जैनधर्म सम्प्रदायातीत है, जातिवाद से अतीत है इसलिए वह शुद्ध अध्यात्म की भूमिका पर अवस्थित धर्म है। जीवनिकायवाद के सिद्धान्त से धर्म की मूल धारणा–अध्यात्मवाद तक पहुंचा जा सकता है। किस प्रकार संसार का विकास होता है? किस प्रकार से उसको सीमित और संकुचित किया जा सकता है? उसको समझने की प्रक्रिया बहुत आध्यात्मिक है। यदि वह प्रक्रिया प्राप्त हो जाती है तो हम अपनी आत्मा को उच्च विकास की भूमिका तक ले जा सकते हैं। ____ 2010_03 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद जैनदर्शन ने सम्यक् दर्शन को बहुत महत्त्व दिया है। हम देखते हैं, किन्तु देखने के पीछे एक विशेष प्रकार का बोध होता है। हम पर्याय को जानते हैं, द्रव्य को नहीं जानते । हमारा सारा दृष्टिकोण पर्यायवाची है। हम मनुष्य को जानते हैं, आत्मा को नहीं जानते। हम पशु को जानते हैं, आत्मा को नहीं जानते। हम कीड़े-मकोड़े को जानते हैं, आत्मा को नहीं जानते। हम पेड़-पौधों को जानते हैं, आत्मा को नहीं जानते । पेड़-पौधे, कीड़े-मकोड़े, गाय-भैंस और आदमी मूल वस्तु नहीं है, मूल द्रव्य नहीं है। मूलद्रव्य सदा पर्दे के पीछे रहता है। जो सामने आता है, वह उसका एक कण या एक पर्याय होता है । हम पर्याय को देखते हैं, द्रव्य को नहीं देखते। पेड़-पौधे, कीड़े-मकोड़े, गाय-भैंस और आदमी – ये सब पर्याय हैं। हम पर्याय को देखते हैं, पर्याय को जानते हैं । इसीलिए हमारा आग्रह पर्याय में आबद्ध हो जाता है । सरल है पर्याय का दर्शन - पर्याय का दर्शन बहुत सरल है । इसीलिए पर्यायवादी दर्शन बहुत वैज्ञानिक दर्शन लगता है। पर्यायवादी दर्शन जो सामने है, उसका निरूपण करता है और जो सामने नहीं है, उसको अस्वीकार कर देता है । यह बहुत सीधा मार्ग है । जो सामने था, उसको व्याकृत कर दिया गया और जो सामने नहीं था उसको अव्याकृत कर दिया गया । यह पर्यायवादी दर्शन है। मनुष्य एक पर्याय है किन्तु क्या वह पर्याय ही है ? पर्यायवाद के आधार पर पहले और पीछे की बात नहीं सोची जा सकती, केवल वर्तमान की बात सोची जा सकती है। मनुष्य पर्याय है। उससे पहले क्या था और बाद में क्या होगा, पर्यायवाद के आधार पर इसका निर्धारण नहीं किया जा सकता । जो व्यक्ति अभी है, वह बाद में क्या होगा और वह पहले क्या था, यह पर्यायवादी दृष्टिकोण में नहीं सोचा जा सकता । दो दृष्टिकोण एक दर्शन का दृष्टिकोण है— जो दृश्य है, वह सच्चाई नहीं है । उस दर्शन का स्वर इस रूप में प्रकट हुआ— ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या । ब्रह्म सत्य है और यह जगत 2010_03 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ / जैन दर्शन और अनेकान्त मिथ्या है। जो दिख रहा है, वह असार है, मिथ्या है। दूसरे दर्शन का दृष्टिकोण है-प्रत्येक पर्याय वर्तमान है, क्षणिक है। समाप्त होने के बाद कुछ भी नहीं होता। यह मिथ्या का सिद्धान्त पर्याय के आधार पर चलता है। जितने पर्याय हैं, वे सब मिथ्या हैं । एक दृष्टि से विचार करें तो पर्याय मिथ्या है, यह कहना भी असंगत नहीं है। पर्याय को मिथ्या कहा जा सकता है । जो अभी है वह बाद में नहीं भी हो सकता है । उसे मिथ्या, झूठ, माया या धोखा मान लें तो कोई अस्वाभाविक बात नहीं लगती। हमारे सामने दो दृष्टिकोण हैं। एक दृष्टिकोण पर्याय को सत्य बतला रहा है और दूसरा दृष्टिकोण पर्याय को मिथ्या बतला रहा है। एक ओर जगत् मिथ्या और ब्रह्म सत्यं का घोष है तो दूसरी ओर जगत् सत्य और ब्रह्म अव्याकृत का उद्घोष है। ब्रह्म का कोई पता नहीं है, आत्मा का कोई पता नहीं है। जो दृश्य नहीं है, वह सत्य नहीं है । जो दृश्य है, वह सत्य है । पर्याय दृश्य है। द्रव्य दृश्य नहीं है। ज्ञेय तत्व दो हैं द्रव्य और पर्याय-इन दो के आधार पर सारे विचारों का विकास हुआ है, सारे दर्शनों का विकास हुआ है। जितने भी दर्शन हैं वे या तो द्रव्यवादी हैं या पर्यायवादी। द्रव्यवादी दर्शन द्रव्य की व्याख्या कर रहे है, नित्य और शाश्वत की व्याख्या कर रहे हैं। पर्यायवादी दर्शन अनित्यवादी दर्शन है। तीसरा कोई दर्शन नहीं है। द्रव्यवादी दर्शनों ने द्रव्य की व्याख्या की और प्रत्येक द्रव्य को कूटस्थ नित्य बताया। द्रव्य नित्य है। नित्य ही सत्य है, जो अनित्य है, वह सत्य नहीं है। एक सूत्र बन गया-शाश्वत सत्य और अशाश्वत मिथ्या । पर्यायवादी दर्शनों ने पर्याय की व्याख्या की। उनके लिए परिवर्तन सत्य है और जो नहीं बदलता है, वह असत्य होता है। जैन आचार्यों ने इस समस्या पर विचार किया। उन्हें लगा—दोनों दृष्टियां ठीक नहीं हैं। दोनों में कमियां हैं । ज्ञेय पदार्थ दो हैं—द्रव्य और पर्याय । इनके सिवाय जानने का कोई विषय ही नहीं है। सारा ज्ञेय विषय इन दो भागों में ही विभक्त होता है। विषय दो हैं तो जानने की दृष्टियां भी दो ही होंगी। द्रव्य को जानने वाली दृष्टि द्रव्यार्थिक नय है और पर्याय को जानने वाली दृष्टि पर्यायार्थिक नय है। अनेकान्त और सम्यक् दर्शन प्रश्न होता है—सम्यक् दर्शन क्या है? द्रव्य को जानने वाली दृष्टि द्रव्य में अटक जाती है तो वह मिथ्या दर्शन है और पर्याय को जानने वाली दृष्टि पर्याय में 2010_03 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तावाद / १४९ अटक जाती है तो वह भी मिथ्या दर्शन है। द्रव्य को जानने वाली दृष्टि द्रव्य का प्रतिपादन करती है किन्तु पर्याय को अस्वीकार नहीं करती और पर्याय को जानने वाली दृष्टि पर्याय का प्रतिपादन करती है किन्तु द्रव्य को अस्वीकार नहीं करती। दोनों दृष्टियां परस्पर सापेक्ष हो जाती हैं । इसका नाम है सम्यक् दर्शन । निरपेक्ष दृष्टि मिथ्या दर्शन और सापेक्ष दृष्टि सम्यक् दर्शन । ____ अनेकान्त और सम्यक् दर्शन—दोनों समान अर्थ वाले बन जाते हैं । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक-दोनों दृष्टियां अलग-अलग होती हैं तो एकान्तवाद होता है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक-दोनों दृष्टियां सापेक्ष होती हैं, संयुक्त हो जाती हैं तो अनेकान्तवाद प्रस्तुत हो जाता है । दोनों दृष्टियों का अलग होना मिथ्या दर्शन है और दोनों दृष्टियों का संयुक्त होना सम्यक् दर्शन है। इसका अर्थ है-अनेकान्त और सम्यक् दर्शन—दोनों पर्यायवाची हैं, एकान्त और मिथ्यादर्शन-दोनों पर्यायवाची हैं। अनेकान्त के निष्कर्ष जैनदर्शन ने द्रव्य और पर्याय की व्याख्या अनेकान्त के आधार पर की। इसलिए जैनदर्शन न द्रव्यवादी है और न पर्यायवादी है । वह द्रव्य को भी अस्वीकार करता है और पर्याय को भी स्वीकार करता है। इसी आधार पर जैनदर्शन के सन्दर्भ में कहा गया वह न नित्यवादी है और न अनित्यवादी है किन्तु नित्यानित्यवादी है। वह न सामान्यवादी है और न विशेषवादी है किन्तु सामान्यविशेषवादी है । न एकवादी है और न अनेकवादी है, किन्तु एकानेकवादी है। वह न अस्तिवादी है और न नास्तिवादी है, किन्तु अस्तिनास्तिवादी है । ये सारे निष्कर्ष अनेकान्त के आधार पर . फलित हुए हैं। शाश्वतवाद की समस्या मूल दृष्टियां दो हैं—द्रव्यनय और पर्यायनय । जितना नित्यता का अंश है, जितना शाश्वत है, उसका प्रतिपादन करने वाली दृष्टि द्रव्यदृष्टि है, द्रव्यार्थिक दृष्टि है। जितना परिवर्तन का अंश है, जितना अनित्य है, उसका प्रतिपादन करने वाली दृष्टि पर्यायार्थिक दृष्टि या पर्यायार्थिक नय है। दो ही तत्व प्रत्येक दर्शन के सामने हैं—नित्य और अनित्य, शाश्वत और अशाश्वत । जैनदर्शन शाश्वतवादी नहीं है । शाश्वतवादी को कुछ करने की जरूरत नहीं होती। साधना का विधान बनाने की जरूरत नहीं होती। आत्मा शाश्वत है, नित्य है, जैसा है वैसा रहेगा तो साधना की कोई आवश्यकता नहीं 2010_03 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० / जैन दर्शन और अनेकान्त है। व्यक्ति साधना किसलिए करे? यदि आत्मा में परिवर्तन नहीं होता है तो साधना व्यर्थ है । यदि परिवर्तन होता है तो शाश्वतता का सिद्धान्त खंडित हो जाता है। दोनों ओर से विरोध प्रस्तुत हो जाता है। एकांगी दृष्टिकोण में दोनों ओर से समस्या आती है। तर्क जैन आचार्यों का जैनाचार्यों ने एक तर्क प्रस्तुत किया नैकान्तवादे सुख दुःखभागो न पुण्य-पापे न बंधमोक्षौ । ___एकान्तवाद में सुख और दुःख का भोग नहीं हो सकता, बंध और मोक्ष नहीं हो सकता। पुण्य और पाप नहीं हो सकता। अगर आत्मा बदलता नहीं है तो यह नहीं माना जा सकता कि वह पहले दुःखी था और अब सुखी बन गया। पहले दुःखी था और अब सुखी बन गया, इसका अर्थ है कि आत्मा पहले एक अवस्था में था और अब दूसरी अवस्था में आ गया, परिवर्तन हो गया। अगर आत्मा परिवर्तित नहीं होता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि पहले दुःखी था, बाद में सुखी बन गया। पहले सुखी और बाद में दुःखी, यह स्थिति परिवर्तनशील पदार्थ में ही घटित हो सकती है। इसीलिए जैनदर्शन ने आत्मा को न सर्वथा शाश्वत माना और न सर्वथा अशाश्वत माना । आत्मा शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है । आत्मा शाश्वत है, इसलिए उसका अस्तित्व नाना पर्यायों में परिवर्तित होता रहता है। वह कभी सुखी बनता है और कभी दुःखी बनता है। वह कभी मनुष्य बनता है और कभी पशु बनता है। ___यदि आत्मा शाश्वत है तो पुण्य और पाप की व्यवस्था घटित नहीं हो सकती। वह अलिप्त है, शाश्वत है तो मानना होगा कि सारे संसार की हत्या करके भी आत्मा उसमें लिप्त नहीं हो सकता। क्योंकि वह शाश्वत है, जैसा है, वैसा ही रहता है, उसमें एक राई का भी फर्क नहीं पड़ता। इस स्थिति में न पुण्य की बात हो सकती है और न पाप की। व्यक्ति कुछ भी करे, न पुण्य होगा और न पाप होगा। यदि आत्मा शाश्वत है तो बंध और मोक्ष की व्यवस्था भी घटित नहीं हो सकती । प्रश्न होगा—आत्मा शाश्वत है तो बंध किसका और मोक्ष किसका? ये सारे परिवर्तनशील पदार्थ में ही घटित हो सकते हैं। जैनदर्शन की भाषा जैनदर्शन के अनुसार जैसी एक आत्मा है, वैसा ही एक परमाणु है । बहुत बार कहा जाता है-आत्मा अमर है, शरीर मरता है, यह जैनदर्शन की भाषा नहीं है। 2010_03 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तावाद / १५१ आत्मा अमर है, यह सर्वथा सही नहीं है। एक परमाणु अमर है तो आत्मा भी अमर है । आत्मा अमर है तो एक परमाणु भी अमर है । कोई फर्क नहीं है। अगर परमाणु मरता है, शरीर मरता है तो आत्मा भी मरता है। प्रश्न होता है—शरीर क्या है? शरीर मूल द्रव्य नहीं है । शरीर एक पर्याय है। मूल द्रव्य है परमाणु । शरीर नहीं रहा, हम कहते हैं-अमुक व्यक्ति मर गया। वस्तुत: नष्ट कुछ भी नहीं हुआ। केवल रूपान्तरण हुआ। जो परमाणु शरीर के रूप में थे, वे शरीर के रूप में समाप्त हो गए और दूसरे रूप में बदल गए। एक सार्वभौम सिद्धान्त है-जितने द्रव्य इस संसार में हैं, उतने ही हैं, उतने ही थे और उतने ही रहेंगे। एक भी परमाणु न अधिक होगा और न न्यून होगा। कुछ भी परिवर्तन नहीं होगा। परिवर्तन का सिद्धान्त अपरिवर्तन के सिद्धान्त से जुड़ा हुआ है। समस्या यह है—जो केवल द्रव्यार्थिक नय को मानकर चलते हैं, वे कभी परिवर्तन की व्याख्या नहीं कर सकते और जो केवल परिवर्तन को . मानकर चलते हैं, वे मूल स्रोत की व्याख्या नहीं कर सकते, मूल अस्तित्व की व्याख्या नहीं कर सकते। समन्वय की मौलिक दृष्टियां बौद्ध दर्शन पर्यायवादी दर्शन है । जब उसके सामने आत्मा आदि के प्रश्न आए तो उन्हें अव्याकृत कहकर टाल दिया गया। क्योंकि एकान्तवाद के द्वारा उनकी सम्यक् व्याख्या हो नहीं सकती। जैनदर्शन ने इन दोनों दृष्टियों-द्रव्यार्थिक दृष्टि और पर्यायार्थिक दृष्टि का समन्वय किया। जैनदर्शन ने कहा-मूल तत्व भी है और पर्याय भी है। इसलिए उसने द्रव्य की व्याख्या भी की और पर्याय की व्याख्या भी की। उसने शाश्वत और अशाश्वत—दोनों का समन्वय साधा। आज के विचारक और विद्वान कहते हैं—जैनदर्शन मौलिक दर्शन नहीं है । यह दूसरे दर्शनों का समुच्चय है। दूसरे दर्शनों के विचारों का एक पुलिन्दा है। यह धारणा क्यों बनी? इसका आधार बना-जैन आचार्यों की समन्वय दृष्टि । जैन आचार्यों ने समन्वय किया नयों के आधार पर। यह उनका समन्वयपरक दृष्टिकोण था। समन्वय का दृष्टिकोण जिन दृष्टियों से किया, वे उनकी अपनी मौलिक थीं। किन्तु जब समन्वय साधा तो दूसरों को लगा-यह नित्यवाद सांख्यदर्शन का है। सांख्य, आत्मा को कूटस्थ नित्य मानता है। यह नित्यवाद वेदान्त का सिद्धान्त है। अनित्यवाद बौद्धों का सिद्धान्त है। जैनों ने नित्यवाद सांख्य और वेदान्त से ले लिया और अनित्यवाद-पर्यायवाद बौद्धों से ले लिया। यह लेने का प्रश्न नहीं था। यह प्रश्न था समन्वय का। 2010_03 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ / जैन दर्शन और अनेकान्त स्वसमय : परसमय जैनाचार्यों ने समन्वय किया । आचार्य सिद्धसेन और समन्तभद्र से लेकर आचार्य हरिभद्र और उपाध्याय यशोविजय तक और आज आचार्य श्री तुलसी तक भी यह परम्परा बराबर चल रही है। जैन लोग सब दृष्टियों का समन्वय साधते हैं। वे एकान्त दृष्टि से किसी तत्त्व की व्याख्या नहीं कर सकते । वे प्रत्येक तत्त्व में समन्वय खोजते हैं। उनका चिन्तन होता है—यह बात किस अपेक्षा से कही जा रही है। जो कहा जा रहा है, वह गलत नहीं है पर यह परसमय क्यों कहा जा रहा है ? यह एकान्त दृष्टि से ऐसा माना जा रहा है । यदि परसमय को सापेक्ष कर दिया जाए तो वह स्वसमय बन जाएगा । स्वसमय और परसमय में बहुत अन्तर नहीं है । रत्न अलग - अलग पड़े हैं, उनकी एक माला बना दी जाए, रत्नावलि बन जाएगी, हार बन जाएगा। जबतक रत्न अलग-अलग पड़े हैं, रत्नावलि नहीं बन पाएगी। उन्हें पिरो दिया गया तो रत्नावलि या हार बन गया । अनेक विचार अलग-अलग पड़े हैं, बिखरे हुए हैं और अपने ही विचार पर अड़े हुए हैं तो वे परसमय हैं। उन सबको मिला दिया जाए तो स्वसमय बन जाएगा । नित्यवाद सही नहीं है । अनित्यवाद सही नहीं है । नित्य और अनित्यदोनों को मिला दिया जाए तो दोनों सम्यक् बन जाएंगे, स्वसमय बन जाएंगे । परिवर्तन : अपरिवर्तन आचार्य सिद्धसेन ने लिखा- द्रव्यार्थिक नय बिल्कुल सही है। यदि द्रव्यार्थिक नय बिल्कुल सही है तो सांख्य का कूटस्थ नित्य भी बिल्कुल सही है । पर्यायार्थिक नय बिल्कुल सही है और यदि पर्यायार्थिक नय सही है तो बौद्ध का क्षणभंगुरवाद बिल्कुल सही है । यदि एकान्त नित्यवाद निरपेक्ष है और वह कहता है— केवल कूटस्थ नित्य ही सही है, परिवर्तन सही नहीं है, तो वह सम्यक् नहीं है । यदि एकान्त अनित्यवाद निरपेक्ष है और वह कहता है— केवल परिवर्तन ही सम्यक है अपरिवर्तन सही नहीं है तो वह भी सम्यक् नहीं है । परिवर्तन और अपरिवर्तन- दोनों का समन्वय करो, दोनों को एक साथ जोड़ दो तो दोनों सही हो जाएंगे, सम्यक् दर्शन या स्वसमय बन जाएंगे । वैराग्य का आधार : परिवर्तनवाद वस्तु को देखने का यह दृष्टिकोण अनेकान्त की मौलिकता है । हम द्रव्य को किस दृष्टि से देखें ? एक मकान है। हम उसे किस दृष्टि से देखें ? हम सोचें मकान 2010_03 -- Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तावाद / १५३ I I द्रव्य है या पर्याय । हमारा दृष्टिकोण यह होना चाहिए— मकान एक पर्याय है । हम जो कपड़ा पहने हुए हैं, वह एक पर्याय है । जो पर्याय होता है, वह परिवर्तनशील होता है । वैराग्य का विकास परिवर्तनवाद के आधार पर होता है । वैराग्य के विकास का बहुत बड़ा आधार बनता है पर्यायवादी । अभी एक कपड़ा साफ-सुथरा और बढ़िया लग रहा था किन्तु थोड़ी देर बाद मैला हो जाएगा। कुछ दिनों के बाद वह फट जाएगा और कुछ समय के बाद वह समाप्त हो जाएगा । वह क्षणभंगुर है । शरीर की भी यही अवस्था है, हर पदार्थ की यही अवस्था है । एक पदार्थ अभी बहुत अच्छा है किन्तु कुछ ही समय के बाद वह बदल जाएगा, विगड़ जाएगा। इस परिवर्तनवाद के आधार पर वैराग्य का विकास हुआ। शाश्वतवाद के आधार पर वैराग्य जैसी कोई चीज बनती ही नहीं है । जो शाश्वत है, जैसा है, वैसा ही रहेगा, इसमें क्या राग होगा और क्या विराग होगा ? राग और विराग - दोनों परिवर्तनवाद के आधार पर बनते हैं । 1 पर्याय कहां से आता है ? I हम परिवर्तन को देखें । व्यक्ति का दृष्टिकोण पहले परिवर्तनवादी होगा । हम पहले द्रव्य तक नहीं पहुंच पाएंगे। हम पहले पहुंचेंगे पर्याय तक । हमारी दृष्टि विशेषग्राही दृष्टि है । जिसे अतीन्द्रिय ज्ञान उपलब्ध हो गया, वह पहले सामान्य तक पहुंच सकता है, मूल द्रव्य तक पहुंच सकता है । किन्तु जिसकी दृष्टि बहुत सीमित है, ज्ञान बहुत सीमित है, वह पर्याय को देखेगा, पर्याय के आधार पर सारा ज्ञान करेगा। हम जितने पदार्थ देखते हैं, देख रहे हैं, वे सबके सब पर्याय हैं, मूल एक भी नहीं है । मूल है परमाणु और परमाणु को जानने की हमारी क्षमता नहीं है । पर्यायार्थिक नय हमारे सामने स्पष्ट है । प्रश्न उपस्थित किया गया— पर्याय कहां से आता है ? उसका उत्स क्या है ? गंगा नदी बह रही है, यमुना नदी बह रही है । नदी का प्रवाह है, पीछे से पानी आ रहा है, आगे चला जा रहा है। यह प्रवाह — उत्पाद और व्यय - आ रहा है और जा रहा है। दिल्ली के पास यमुना बह रही है । प्रश्न हो सकता है क्या यमुना यही है ? क्या इसका मूल यही है ? पानी कहां से आ रहा है ? प्रवाह कहां से आ रहा है ? कहां जा रहा है ? इस खोज में चलें तो यमुना दिल्ली की नहीं रहेगी। गंगा और यमुना का मूल स्रोत गंगोत्री और यमुनोत्री में खोजना होगा। जहां से यमुना निकली है, गंगा निकली है, वहां तक पहुंचना होगा । 2010_03 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ / जैन दर्शन और अनेकान्त मूल की खोज एक मनुष्य है। प्रश्न होता है क्या वह मनुष्य ही है? वह मनुष्य से पहले भी कुछ है, उसके बाद भी कुछ है ? इस खोज में चलें तो हम द्रव्य तक पहुंचेंगे। जो कपड़ा अभी है, क्या वह पहले भी था, बाद में भी होगा? इस खोज में चलें तो हम परमाणु तक पहुंचेंगे। यह मूल द्रव्य की खोज आगे की खोज है, सूक्ष्मतम तत्त्व की खोज है। पर्याय की खोज स्थूलतत्व की खोज है, सामने दिखने वाले पदार्थ की खोज है। हम केवल पर्याय या परिवर्तन पर अटके न रहें, मूल द्रव्य की खोज में आगे बढ़ते चले जाएं, इसके सिवाय कोई गंतव्य नहीं है। समाधान है अनेकान्त यह अनेकान्त का दार्शनिक पक्ष है। हम अनेकान्त की जैन परम्परा के सन्दर्भ में समीक्षा करें। जैन परम्परा में आज अनेक सम्प्रदाय हैं, उनमें अनेक मतभेद भी हैं। यदि अनेकान्त के आधार पर मतभेद का मूल खोजा जाए, भिन्न विचारों की समीक्षा की जाए तो शायद भेद के लिए कितना बचेगा, मैं कह नहीं सकता। हो सकता है कुछ भी न बचे। किन्तु इस दिशा में बहुत कम काम हुआ है। अनेक प्रसंगों में आग्रह बढ़ाने में रस लिया गया, अनेकान्त का प्रयोग नहीं किया गया। आज हमारे सामने प्रश्न है-जैन समाज को विरासत में जो एक महान् दर्शन मिला है, जगत् को देखने का एक सम्यक् और व्यापक दृष्टिकोण मिला है, यदि उसका सम्यक् प्रयोग किया जाए तो शायद अनेकान्तवाद पूरे संसार को एक नया दृष्टिकोण और एक नया दर्शन दे सकता है। अनेकान्तवाद का यह दृष्टिकोण अनेक मिथ्या अभिनिवेशों, आग्रहों को मिटाने और एक सामंजस्यपूर्ण समाज की संरचना करने में बहुत सहयोगी बन सकता है, उपयोगी हो सकता है। 2010_03 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिकता की धारणा नैतिकता : पाश्चात्य संदर्भ नैतिकता शब्द बहुत चर्चित रहा है। यूनानी दार्शनिकों ने नैतिकता की विस्तृत चर्चा की, किन्तु जैन धर्म में नैतिकता जैसा शब्द उपलब्ध नहीं होता । उसमें केवल धर्म शब्द उपलब्ध होता है। धर्म के अतिरिक्त नैतिकता की कोई चर्चा नहीं है । प्रश्न होता है- क्या जैन धर्म में नैतिकता के बारे में कुछ कहा नहीं गया, कुछ सोचा नहीं गया या वह किसी रूप में उपलब्ध है ? धर्म के दो अंग माने गये हैं-ज्ञान और आचार | श्रुत धर्म और चारित्र धर्म । सुकरात ने नैतिकता की चर्चा की है। उन्होंने धर्म का लक्ष्य माना है— परम शुभ को प्राप्त करना। उनकी भाषा में परम शुभ है ज्ञान । यानी ज्ञान से अतिरिक्त कोई नैतिकता नहीं है। जैनधर्म में पहला धर्म श्रुत माना गया है । आचार दूसरे नम्बर पर है। तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो ज्ञान प्रथम और परम शुभ है। दोनों विचार बहुत निकट आ जाते हैं। महावीर ने कहा— जो नहीं जानता, वह क्या करेगा ? वह व्यक्ति श्रेय का क्या आचरण करेगा, जो श्रेय और अश्रेय नहीं जानता । यह वास्तव में सही बात है। जो श्रेय और पाप को जानता ही नहीं है वह अज्ञानी क्या करेगा ? पश्चिमी दर्शन में शुभ और अशुभ की बहुत चर्चा है । दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है - जो अज्ञानी है वह क्या जानेगा कि यह श्रेय है और यह पाप है। श्रेय शुभ है और पाप अशुभ है। श्रेय और अश्रेय — इन दोनों का सम्बन्ध ज्ञान के साथ है। इस दृष्टि से नैतिकता का एक आधार बनता है ज्ञान । ज्ञान से जुडा है आचार पहले आचार का ज्ञान होना जरूरी है। ज्ञान के बाद ही आचार का अनुशीलन किया जा सकता है । सुकरात ने केवल ज्ञान को ही परमशुभ माना, नैतिकता माना । जैन दृष्टि से यह एकांगी दृष्टिकोण सम्मत नहीं है। ज्ञान के साथ-साथ आचार भी नैतिकता का अंग है। ज्ञान और आचार- ये दोनों ही धर्म के अंग हैं। अकेला ज्ञान पर्याप्त नहीं है। ज्ञान जानने का परम बिन्दु है । किन्तु ज्ञान परम बिन्दु तक नहीं जाता । उसकी अभिव्यक्ति या क्रियान्विति आचार में बदल जाती है। नैतिकता के 2010_03 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ / जैन दर्शन और अनेकान्त दो निश्चित तत्त्व बन जाते हैं—ज्ञान और आचार । अणुव्रत और महावत नैतिकता है आचार का अनुशीलन करने पर एक नया तथ्य प्रस्तुत हुआ । आचार दो भागों में विभक्त होता है-आत्माभिमुखी और समाजाभिमुखी । अपने प्रति और दूसरे के प्रति । जो अपने प्रति है, वह आत्माभिमुखी है। पांच महाव्रत और पांच अणुव्रत—ये दोनों समाजाभिमुखी आचार हैं। किसी जीव को नहीं मारूंगा' इसका सम्बन्ध दूसरे से है। किसी विषय को लेकर झूठ नहीं बोलूंगा' इसका संबंध है समाज से । 'चोरी नहीं करूंगा', 'अब्रह्मचर्य नहीं करूंगा', 'अमुक मात्रा से अधिक परिग्रह नहीं रखूगा' इनका सम्बन्ध भी समाज से है। पांचों महाव्रत समाजाभिमुखी हैं, पांच अणुव्रत समाजाभिमुखी हैं। ये व्रत और महाव्रत ही नैतिकता है। धर्म की व्याख्या : समाजाभिमुखी आश्चर्य होता है-धर्म की व्याख्या, साधु या श्रावक की व्याख्या, समाजाभिमुखी व्रतों से जुड़ी हुई है। उसमें आत्माभिमुखी वाली बात कुछ गौण हो जाती है। इससे यह यह पता चलता है कि साधुपन की सीमा, श्रावकपन की सीमा, समाज से ज्यादा जुड़ी है और उसकी पृष्ठभूमि में आत्माभिमुखता है। इसलिए पांच महाव्रत के साथ साधुत्व का संबंध जुड़ गया और तीन गुप्तियां पृष्ठभूमि में रह गयीं। गुप्तित्रय की साधना-अपने मन का संयम करना, अपनी वाणी का नियंत्रण करना और अपने शरीर का नियंत्रण करना—यह नितांत आत्माभिमुखी बात है ।साधु जीवन के तेरह व्रत होते हैं—पांच महाव्रत, पांच समितियां और तीन गुप्तियां । इनमें पांच महाव्रत समाजाभिमुखी हैं, पांच समितियां भी प्राय: समाजाभिमुखी, पदार्थाभिमुखी हैं किन्तु तीन गुप्तियां नितांत आत्माभिमुखी हैं। नैतिकता का आधार ___ हमारे आचार के दो पहलू बन गए—एक आत्माभिमुखी पहलू और दूसरा समाजाभिमुखी पहलू। आत्माभिमुखी पहलू है अध्यात्म, संयम और ध्यान । समाजाभिमुखी पहलू है नैतिकता। इस संदर्भ में नैतिकता की यह एक सुन्दर परिभाषा फलित हो जाती है। नैतिकता शब्द नहीं है पर इस परिभाषा के आधार पर हम आचार के साथ नैतिकता का प्रयोग कर सकते हैं। प्रश्न होता है—नैतिकता का आधार क्या है? उसका आधार है आनन्द, पवित्रता और शक्ति का अर्जन । जिस 2010_03 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिकता की धारणा / १५७ कार्य से मनुष्य को आनन्द नहीं मिलता उस कार्य के प्रति आकर्षण पैदा नहीं होता यह प्राणी की नैसर्गिक प्रकृति है । वह सुख और आनन्द चाहता है । नैतिकता का मुख्य बिन्दु है – आनन्द | नैतिकता का मानदण्ड : संयम I 1 नैतिकता का आधार, नैतिकता की परिभाषा और नैतिकता का मानदण्ड-ये महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं । नैतिकता के मानदण्ड बदलते रहते हैं । एक समय में एक कार्य को नैतिक माना जाता है और किसी समय उसी कार्य को अनैतिक मान लिया जाता है। किसी देश में एक कार्य को नैतिक माना जाता है, दूसरे देश में उसे अनैतिक मान लिया जाता है। देश और काल के साथ-साथ नैतिकता के मानदंड बदलते रहे हैं । जैनदर्शन के आधार पर नैतिकता का मानदण्ड है संयम । जहां-जहां संयम है, वहां-वहां नैतिकता है। जहां संयम नहीं है वहां नैतिकता नहीं हो सकती । संयम आत्माभिमुखी भी है, समाजाभिमुखी भी है। अपनी इन्द्रियों पर संयम करना आत्माभिमुखी कार्य भी है, वह नैतिक कार्य भी हो सकता है । अणुव्रत आन्दोलन नैतिक आन्दोलन है, इसीलिए उसका मूल सूत्र है 'संयमः खलु जीवनम्' - संयम ही जीवन है । इसका अर्थ है— नैतिक कार्य वही है जहां संयम है। जिस कार्य के साथ संयम नहीं है, उस कार्य को कभी नैतिक नहीं कहा जा सकता । नैतिकता का पहला सूत्र नैतिकता के अनुभव के पश्चात् जीवन की शैली बदलती है। जैन धर्म को मानने वाला, ज्ञान और आचार — उभयात्मक धर्म को स्वीकार करने वाला, आचार को आत्माभिमुख और समाजाभिमुख मानने वाला व्यक्ति वैसा जीवन नहीं जी सकता जैसा एक मिथ्या दृष्टिकोण वाला व्यक्ति जीता है । उसकी जीवन-शैली बदल जाती है। एक जैन श्रावक की जीवन-शैली बिल्कुल भिन्न होगी। उसकी जीवन-शैली का पहला सूत्र होगा—इच्छा परिमाण । इच्छा एक जटिल समस्या है। इच्छा बढ़ाएं या कम करें । उलझन में रहा है यह प्रश्न । सामाजिक एवं अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण वाला व्यक्ति कहेगा — इच्छा बढ़ाओ, इच्छा बढ़ेगी तो उत्पादन बढ़ेगा, विकास को गति मिलेगी । किन्तु धार्मिक दृष्टिकोण से इच्छा को बढ़ाना अच्छा नहीं है क्योंकि इच्छा अनन्त होती है । उसका कहीं अन्त नहीं होता । नैतिकता का पहला सूत्र बना — इच्छा 1 परिमाण, इच्छा का संयम करना । आहार, धन आदि जितनी भी इच्छाएं हैं, उनका परिमाण करो, संयम करो, उसे अपरिमित मत बनाओ । 2010_03 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ / जैन दर्शन और अनेकान्त प्रामाणिकता और इच्छा-परिमाण . नैतिकता का दूसरा सूत्र बनता है-प्रामाणिकता। यह नैतिकता का मूल स्वरूप है। ईमानदार होना समाज की पवित्रता के लिए प्राथमिक अपेक्षा है। जब तक इच्छा परिमाण नहीं होगा तब तक प्रामाणिकता फलित नहीं होगी। इच्छा संयम के बिना प्रामाणिकता का विकास संभव नहीं है। आज यही समस्या है-एक ओर इच्छा के विस्तार की बात कही जाती है, दूसरी ओर ईमानदार रहने की बात कही जाती है। जब तक इच्छा असीम है, तब तक नैतिक और प्रामाणिक बनना संभव नहीं है। जैन श्रावक के जीवन का पहला दृष्टिकोण प्रामाणिकता नहीं हो सकता । इसका पहला दृष्टिकोण होगा-इच्छा-परिमाण । इच्छा के आधार पर तीन प्रकार के वर्गीकरण बनते हैं-महेच्छा, अल्पेच्छा और अनिच्छा । कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनमें महान् इच्छा होती है। कुछ लोग ऐसे हैं, जिनकी इच्छा सीमित है और कुछ लोग ऐसे हैं जिनमें इच्छा है ही नहीं ! पहला वर्ग उन लोगों का है, जिनमें इच्छा का कोई संयम नहीं है। दूसरा वर्ग जैन श्रावक का है, जिनमें इच्छा का परिमाण होता है। तीसरा वर्ग मुनि का है जिसमें इच्छा का बिल्कुल संयम होता है। जहां महेच्छा है, वहां महान परिग्रह होगा। जहां अल्पेच्छा है वहां अल्प परिग्रह होगा और जहां अनिच्छा. है वहां अपरिग्रह है। इच्छा और परिग्रह-दोनों का संयम जुड़ा हुआ है। हम चाहते हैं—प्रामाणिकता आए, अर्थार्जन के साधन शुद्ध बनें। साधनशुद्धि और करुणा नैतिकता का तीसरा आधार है साधन-शुद्धि । यदि इच्छा परिमाण है, प्रामाणिकता की चेतना विकसित है तो अर्थार्जन के साधनों की शुद्धता का प्रश्न प्रस्तुत होगा। जब तक प्रामाणिकता नहीं है, येन-केन-प्रकारेण धन जुटाने के साधनों का ही विकास होगा, । नैतिकता का चौथा आधार है-मानवीय संबंधों में सुधार । उद्योग के क्षेत्र में देखें, व्यापार, प्रशासन और परिवार के क्षेत्र में देखें, प्रत्येक क्षेत्र में मानवीय संबंधों की समस्या बहुत जटिल है। एक मिल-मालिक, मजदूर से अधिक से अधिक काम लेना चाहता है पर-कम-से कम वेतन देना चाहता है। मजदूर अधिकाधिक वेतन लेना चाहता है और कम-से-कम काम करना चाहता है। उद्योग जगत में यह बहुत बड़ी समस्या है। इसी समस्या के कारण हड़ताल, घेराबंदी, तालाबंदी आदि-आदि होते रहते हैं। मानवीय संबंधों में सुधार का कारण है करुणा का विकास । जैन 2010_03 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिकता की धारणा / १५९ श्रावक वही बन सकता है, जिसमें क्रूरता कम हो। करुणा का दूसरा रूप मानवीय संबंधों के बिगड़ने का क्रूरता से गठबंधन है। मानवीय संबंधों में सुधार वहीं संभव है जहां क्रूरता को प्रश्रय नहीं है। जिसमें क्रूरता नहीं है वह अप्रामाणिक नहीं बन पाएगा, येन-केन-प्रकारेण धन का अर्जन नहीं कर पाएगा, वह दूसरे का भी ध्यान रखेगा। वह सोचेगा—मेरे द्वारा ऐसा तो कोई कार्य नहीं हो रहा है, जिससे दूसरे का गला कटे या किसी का शोषण हो। यह विचार वही करेगा जिसमें करुणा का विकास है । जिसमें करुणा नहीं है, वह कभी ऐसा नहीं सोच पाता। उसका चिन्तन होता है-पशु मरे तो मरे, आदमी मरे तो मरे, किसी का घर उजड़े पर मेरा घर बनना चाहिए, मेरे पास धन आना चाहिए। क्रूरता जीवन की शैली को बिल्कुल बदल डालती है। - करुणा का दूसरा रूप है-मैत्री । यदि व्यक्ति में मैत्री की भावना का, सबके प्रति मंगल भावना का, विकास हो जाए तो करुणा का विकास हो सकता है, क्रूरता में कमी आ सकती है। प्रसिद्ध श्लोक है सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कचिद् दुखभाग् भवेत्। कोई भी व्यक्ति दुःखी न बने, सब सुखी और निरामय बनें। सबका कल्याण हो। इस पद्य का उच्चारण तो बहुत होता है पर क्रियान्विति नहीं होती । जहां सर्वे भवन्तु सुखिन: का सूत्र है वहां सूत्र होगा—अहं भवामि सुखिनः । मैं निरामय बनूं, मुझे कल्याण प्राप्त हो । कोई सुखी बने या न बने । व्यक्ति का चिन्तन मैं और मेरा-इन दो सूत्रों से जुड़ा हुआ रहता है । यह स्वार्थ की चेतना, क्रूरता का प्रतिफल है।। प्रश्न धन के उपयोग का नैतिकता का एक आधार है-भोगोपभोग का संयम। धन का अर्जन करने वाले व्यक्ति के सामने प्रश्न होगा—इसका उपयोग कैसे हो? धन के उपयोग के दो तरीके हैं। पहला है—अपनी संपत्ति के व्यक्तिगत भोग में अधिक से अधिक व्यय करना । दूसरा है—सम्पत्ति भोग का व्यक्तिगत भोग में कम प्रयोग करना, सामाजिक उपयोग में सम्पत्ति का अधिक व्यय करना । जैन श्रावक को निर्देश दिया गया-चाहे उसके पास प्रचुर सम्पत्ति है पर उसका अपना व्यक्तिगत जीवन बहुत संयमित हो। 2010_03 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० / जैन दर्शन और अनेकान्त आनन्द श्रावक इसका एक उदाहरण है। वह बहुत धनाढ्य था पर साथ ही बहत संयमी था। सीधा-सादा रहन-सहन, साधारण खान-पान और सीमित कपड़े—यह उसका जीवन था। आज की स्थिति इसके विपरीत है। वर्तमान मनुष्य अपनी साज-सज्जा पर, अपने खान-पान पर, अपने कार्यों पर, अपने परिजनों की ब्याह-शादी में चाहे जितना खर्च कर देता है पर समाज के लिए नहीं। नैतिकता : दो सूत्र जैन श्रावक के लिए एक व्रत का निर्देश दिया गया— भोगोपभोग परिमाण व्रत। नैतिकता की पहली शर्त है-इच्छा परिमाण और उसकी अन्तिम बात है भोगोपभोग की सीमा। जब इच्छा परिमित होती है और भोगोपभोग सीमित होता है, तब प्रामाणिकता, अर्थार्जन के साधनों में शुद्धि आदि अपने आप फलित होने लगते हैं। इनका परस्पर सम्बन्ध जुड़ा हुआ है । जहां भोग की लालसा है, वहां क्रूरता अवश्य है। क्रूर बने बिना अधिक पदार्थों को जुटाया नहीं जा सकता । क्रूरता बढ़ेगी तो अर्थार्जन के साधन शुद्ध नहीं रहेंगे। अर्थार्जन के साधन अशुद्ध होंगे तो अप्रामाणिकता बढ़ेगी। यह सारा जो चक्र है, वह इच्छा-परिमाण और भोगोपभोग की सीमा—इन दोनों के बीच में है। अगर ये दो होते हैं तो नैतिकता फलित होने लगती है। ये दो नहीं होते हैं तो अर्थार्जन और मानवीय सम्बन्ध में गड़बड़ियां होने लगती हैं। इन दो सूत्रों पर जैन श्रावक के जीवन में बहुत विचार किया गया है-एक जैन श्रावक इच्छा का परिमाण करे, भोगोपभोग की सीमा करे। साम्यवाद की समस्या भोगोपभोग की समस्या ने आर्थिक समस्या को जटिल बनाया है। गरीबी और भुखमरी की समस्या इतनी जटिल नहीं है जितनी जटिल है भोगोपभोग की समस्या। अगर यह समस्या हल हो जाए तो गरीबी की समस्या भी कम हो जाए । साम्यवादी देशों में भोग-सामग्री पर बहुत नियन्त्रण था। क्योंकि वह रोटी की समस्या सुलझाने में बाधक बन रही थी। किन्तु मनुष्य की प्रकृति है, वह सुख-सुविधा, भोग की सामग्री की लालसा की बात को मन से निकाल नहीं पाता। साम्यवादी देशों में आज भोगोपभोग की समस्या बड़ी उग्र बनी हुई है और प्रश्न प्रस्तुत हो रहा है यह भोगोपभोग की लालसा साम्यवाद को कहां ले जाएगी? ०० ___ 2010_03 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educ आचार्य महाप्रज्ञ की प्रमुख कृतियां • मन के जीते जीत • किसने कहा मन चंचल है • जैन योग • चेतना का ऊर्ध्वारोहण • आभामण्डल • मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि • एकला चलो रे • एसो पंच णमोक्कारो • अपने घर में • मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता • अर्हम • नया मानव नया विश्व • कर्मवाद • महावीर की साधना का रहस्य • घट-घट दीप जले • मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति भिक्षु विचार-दर्शन • समस्या को देखना सीखें • धर्म के सूत्र • विचार को बदलना सीखें • मनन और मूल्यांकन • जैन दर्शन और अनेकान्त • आमंत्रण आरोग्य को • जैन दर्शन : मनन और मीमांसा • शक्ति की साधना • जैन धर्म के साधना सूत्र • महावीर का स्वास्थ्यशास्त्र • मुक्तभोग की समस्या और ब्रह्मचर्य • नया मानव : नया विश्व • अहिंसा और शान्ति • महावीर का अर्थशास्त्र • अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक • अहिंसा तत्वदर्शन • अतीत का बसंत : वर्तमान का सौरभ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और अनेकान्त आचार्य महाप्रज्ञ 2010_03