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विचार की आधारभित्ति : नयवाद उभयग्राही दृष्टि
विचार निरालंब नहीं होता। उसके तीन आलंबन होते हैं—ज्ञान, अर्थ और शब्द । संकल्प प्रधान विचार ज्ञान के आलंबन से होता है, इसलिए उसे 'ज्ञानाश्रयी विचार' कहते हैं।
अर्थ के आधार पर होने वाला विचार 'अर्थाश्रयी' कहलाता है। नैगमनय ज्ञानाश्रयी और अर्थाश्रयी-दोनों हैं। __तादात्मय की अपेक्षा से ही सामान्य-विशेष की भिन्नता का समर्थन किया जाता है । यह दृष्टि नैगमनय है। यह उबयग्राही दृष्टि है । सामान्य और विशेष दोनों इसके विषय हैं। इससे सामान्य विशेषात्मक वस्तु के एक देश का बोध होता है। सामान्य
और विशेष स्वतन्त्र पदार्थ हैं---इस कणाददृष्टि को जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता। सामान्य रहित विशेष और विशेष रहित सामान्य की कहीं भी प्रतीति नहीं होती। ये
में पदार्थ के धर्म हैं। एक पदार्थ की दूसरे पदार्थ, देश और काल में जो अनुवृत्ति होती है वह सामान्य अंश है और जो व्यावृत्ति होती है, वह विशेष अंश। केवल अनुवृत्ति रूप या केवल व्यावृत्ति रूप कोई पदार्थ नहीं होता। जिस पदार्थ की जिस समय दूसरों से अनुवृत्ति मिलती है, उसकी उसी समय दूसरों से व्यावृत्ति भी मिलती
नैगमनय प्रमाण नहीं है
सामान्य विशेषात्मक पदार्थों का ज्ञान प्रमाण से हो सकता है। अखण्ड वस्तु प्रमाण का विषय है। नय का विषय उसका एकांश है। नैगमनय बोध कराने के अनेक मार्गों को स्पर्श करने वाला है, फिर भी वह प्रमाण नहीं है। प्रमाण में सब धर्मों को मुख्य स्थान मिलता है। यहां सामान्य के मुख्य होने पर विशेष गौण रहेगा
और विशेष के मुख्य बनने पर सामान्य गौण । दोनों को यथास्थान मुख्यता और गौणता मिलती है । संग्रहनय केवल सामान्य अंश का ग्रहण करता है और व्यवहारनय केवल विशेष अंश का। नैगमनय दोनों (सामान्य और विशेष) की एकाश्रयता का
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