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________________ ५८ / जैन दर्शन और अनेकान्त यति भोज के शब्दों में- बाह्य के आन्तरिक रूप, बहुत व्यक्तियों के अभेद तथा द्रव्य- -नैर्मल्य ( पर - निरपेक्ष परिणमन) — द्रव्य के इस पारमार्थिक रूप की व्याख्या का दृष्टिकोण निश्चय नय है । यह मूल-स्पर्शी है, वस्तु सत्य को प्रकट करने वाला है। व्यक्तियों के भेद, व्यक्त पर्याय और कार्य-कारण एकत्व - द्रव्य के इस अपारमार्थिक रूप की व्याख्या का दृष्टिकोण व्यवहार नय है । यह परिणामस्पर्शी है । स्थूल सत्य को प्रकट करने वाला है ।' दोनों सापेक्ष हैं भगवान् से पूछा गया—' भगवन् ! प्रवाही गुण के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श कितने होते हैं ? भगवान् ने कहा - 'गौतम ! इसकी व्याख्या मैं दो दृष्टिकोणों से करता हूं१. व्यवहार-दृष्टि से, वह मधुर है।' २. निश्चय-दृष्टि से, वह पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ स्पर्श से युक्त हैं ।' इसी प्रकार भ्रमर के बारे में पूछा गया तो भगवान् ने कहा — व्यवहार- दृष्टि से वह काला है, निश्चय-दृष्टि से वह पांच वर्ण यावत् आठ स्पर्श से उपेत है । I व्यवहार दृष्टि से सत्-पर्याय सत्य होता है और निश्चय दृष्टि से सत्-पर्याय व अनन्त असत्-पर्यायों से युक्त द्रव्य सत्य होता है । निश्चय - दृष्टिकोण का प्रतिपाद्य सत्य निरपेक्ष और व्यवहार- दृष्टि का प्रतिपाद्य सत्य सापेक्ष होता है, किन्तु निरपेक्ष दृष्टि के बिना विश्व के केन्द्र तथा सापेक्ष दृष्टिकोण के बिना उसके विस्तार की व्याख्या नहीं की जा सकती, इसलिए निरपेक्ष और सापेक्ष सत्य जैसे परस्पर-सापेक्ष हैं, वैसे ही उनके प्रतिपादक निरपेक्ष और सापेक्ष दृष्टिकोण भी परस्पर - सापेक्ष हैं । स्याद्वाद की यही मर्यादा है। १. द्रव्यानुयोगतर्कणा, ८ / २४ । २. वही, ८ / २५ । ३. भगवती सूत्र, १८ / १०७ - १०८ । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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