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स्याद्वाद और जगत् / ५७ थी-जीव-प्रवाह को इसी शरीर तक परिमित न मानना—अन्यथा जीवन और उसकी विचित्रताएं कार्य-कारण से उत्पन्न न होकर, केवल आकस्मिक घटनाएं रह जाएंगी।' विज्ञान सत्य की व्याख्या
वैज्ञानिक जगत् में सत्य की व्याख्या व्यवहाराश्रित है। उसके अनुसार-एक यत्र प्रकाश को कणों से निर्मित रूप में व्यक्त करता है और दूसरा उसके तरंगों से निर्मित होने की बात बतलाता है । तो उसे उन दोनों का परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि परस्पर-पूरक स्वीकार करना चाहिए। अलग-अलग इन दोनों में से कोई भी प्रकाश की व्याख्या करने में असमर्थ है, पर साथ मिलकर वे ऐसा करने में समर्थ हो जाते हैं। सत्य की व्याख्या करने के लिए दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं और यह प्रश्न निरर्थक है कि इन दोनों में से कौन वस्तुत: सत्य है । प्रमाता भौतिक विज्ञान के भाववाचक कोश में वस्तुत: नामक कोई शब्द नहीं है। निश्चय सत्य : व्यवहार सत्य ___ आचार्य शंकर के शब्दों में यह लोक व्यवहार सत्य और अनृत का मिथुनीकरण है । ब्रह्म सत्य है, प्रपंच मिथ्या है । 'सत्यानृते मिथुनीकृत्य नैसर्गिकोऽयं लोकव्यवहारः।' स्याद्वाद की भाषा में लोक व्यवहार भी दो सत्यों का मिथुनीकरण है । उसके अनुसार के .. और प्रपंच (द्रव्य और परिणाम या विस्तार) दोनों सत्य हैं । एक वस्तु-सत्य या निश्चय-सत्य है, दूसरा व्यवहार-सत्य या पर्याय-सत्य है। निश्चय-नय पारमार्थिक भूतार्थ, अलौकिक, शुद्ध और सूक्ष्म है । व्यवहार-नय अपारमार्थिक, अभूतार्थ, लौकिक, अशुद्ध और स्थूल है। निश्चय-नय तत्त्वार्थ की व्याख्या करता है और व्यवहार-नय लौकिक सत्य या स्थूल पर्याय की व्याख्या करता है। आचार्य कुन्दकुन्द के अभिमत में निश्चय-नय की दृष्टि से परमाणु ही पुद्गल है, व्यवहार-नय की दृष्टि से स्कन्ध भी पुद्गल है। परमाणु के गुण स्वाभाविक और स्कन्ध के गुण वैभाविक होते हैं। परमाणु में स्वभाव-पर्याय (अन्य-निरपेक्ष परिणमन) और स्कन्ध में विभाव-पर्याय (पर-सापेक्ष परिणमन) होते हैं।
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१. मझिमनिकाय भूमिका। २. द्रव्यानुयोगतर्कणा, ८/२३ । ३. नियमसार, २९। ४. वहीं, २७-२८ ।
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