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५६ / जैन दर्शन और अनेकान्त
अभिन्न कालकृत अविच्छिन्न
अभिन्न कालकृत विच्छिन्न
नित्य
अनित्य द्रव्य-दृष्टि से विश्व अनेक है, अभिन्न है और नित्य है। पर्याय-दृष्टि से विश्व अनेक है, भिन्न है और अनित्य है।
निरपेक्ष रहकर दोनों दृष्टियां सत्य नहीं हैं। ये सापेक्ष रहकर ही पूर्ण सत्य की व्याख्या कर सकती हैं। सत्य की मीमांसा
सत्य की शोध अनादिकाल से चल रही है, किन्तु सत्य के अनन्त रूप हैं। मनुष्य अपनी दो आंखों से देखकर उसके एक रूप की व्याख्या करता है, इतने में वह अपना रूप परिवर्तन कर लेता है । वह उसके दूसरे रूप की व्याख्या का यत्न करता है, इतने में उसका तीसरा रूप प्रकट हो जाता है। इस दौड़ में मनुष्य थक जाता है, उसका रूप-परिवर्तन का क्रम चलता रहता है । इस प्रक्रिया में सापेक्षता ही मनुष्य को आलम्बन दे सकती है । जो एक रूप को पकड़ शेष सब रूपों से निरपेक्ष होकर उसकी व्याख्या करता है, वह उसका अगं-भंग कर डालता है। __चार्वाक् के अभिमत में इन्द्रिय-गम्य ही सत्य है, उपनिषदों के अनुसार अतीन्द्रिय (या प्रज्ञागम्य) ही सत्य है । जो दृश्यमान है, वह शब्द-मात्र, विकार-मात्र या नाम-मात्र है।' शंकराचार्य के अनुसार जो जिस रूप में निश्चित है, यदि वह उस रूप का व्यभिचारी न हो, तो वह सत्य है । जो जिस रूप में निश्चित है, यदि वह उस रूप का व्यभिचारी बनता है, तो वह अनृत है। विकार इसीलिए अनृत है कि वह निश्चित रूप का व्यभिचारी है। बौद्धों के अनुसार भेद ही सत्य है । वे वेदान्त की भांति अभेद को सत्य नहीं मानते और चार्वाक् की भांति इन्द्रिय-गम्य को भी सत्य नहीं मानते। अतीन्द्रिय भी उसकी दृष्टि में सत्य है। महात्मा बुद्ध की यह एक शिक्षा
१. 'वाचारम्भगं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्।' २. तैत्तिरीय उपनिषद् २/१; शांकर भाष्य, पृ. १०३।
-छान्दोग्य उपनिषद् ९/१/४।
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