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स्यावाद और जगत् । २९
१. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, ३. आकाश, ४. काल, ५. पुद्गल,
६. जीव। पृथकता कार्य से
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश ये तीनों लोक में परिपूर्ण व्याप्त हैं। इन्हें कथमपि पृथक् नहीं किया जा सकता। इनका पृथक्करण कार्य से ही होता है। गति हेतुक जो है वह धर्मास्तिकाय है। यह गति का अन्तिम हेतु है। स्थिति हेतुक जो है, वह अधर्मास्तिकाय है । यह स्थिति का अन्तिम हेतु है। जहां वायु भी नहीं है वहां भी गति होती है, और वह इसीलिए होती है कि धर्मास्तिकाय वहां है। अवगाह हेतु जो है, वह आकाश है।' परिवर्तन का हेतु काल है। जो संयुक्त होता है और वियुक्त होता है, वह पुद्गल है। जो चैतन्यमय है, वह जीव है।' भित्र : अभिन्न
आकाश और काल को छोड़कर किसी भी द्रव्य की व्याख्या नहीं की जा सकती, इस दृष्टि से शेष सब द्रव्य आकाश और काल से सर्वथा भिन्न नहीं हैं। आकाश और काल गति-स्थिति के हेतु नहीं हैं और गति-स्थितिशील भी नहीं है, इसलिए वे शेष सब द्रव्यों से सर्वथा अभिन्न भी नहीं हैं। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को छोड़कर गति और स्थिति की व्याख्या नहीं की जा सकती, इस दृष्टि से जीव और पद्दल धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय से सर्वथा भित्र नहीं हैं। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय गति-स्थितिशील नहीं हैं, संयुक्त-वियुक्तधर्मा भी नहीं हैं, इसलिए वे जीव और पुद्गल से सर्वथा अभिन्न नहीं हैं। जीव के बिना पुद्गल की और पुद्गल के
N46.4V १. स्थानांग ५/१७० : गुणओ गमणगुणे। २. वही, ५/१७१ : गुणओ ठाणगुणे। ३. वही, ५/१७२ : गुणओ अवगाहणागुणे। ४. वही, ५/९७४ : गुणओ गहणगुणे। ५. वही, ५/१७३ : गुणओ उवओगगुणे।
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