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________________ ३० / जैन दर्शन और अनेकान्त बिना जीव की व्याख्या नहीं की जा सकती। पुद्गल के बिना जीव की कोई प्रवृत्ति नहीं होती और जीव के बिना पुद्गल की स्थूल परिणति नहीं होती, इस दृष्टि से जीव और पुद्गल सर्वथा भिन्न नहीं हैं । जीव संयोग-वियोग-धर्मा नहीं है, रूपी नहीं है और पुद्गल चैतन्यमय नहीं है, इसलिए वे सर्वथा अभिन्न भी नहीं हैं । तात्पर्य की भाषा में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो सर्वथा अभिन्न ही है और ऐसा कुछ भी नहीं है, जो सर्वथा भिन्न ही है। अभिन्नता की दृष्टि से सारा विश्व एक है । भिन्नता की दृष्टि से सारा विश्व दो भागों में विभक्त है—चैतन्यमय और अचैतन्यमय। उपनिषद् का मत चेतन और अचेतन की उत्पत्ति के विषय में अनेक दार्शनिक अभिमत है। उपनिषद् के ऋषि कहते हैं—पहले असत् था, असत् से सत् उत्पन्न हुआ। कुछ ऋषि कहते हैं—असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती। सबसे पहले सत् ही था। उसने सोचा, मैं अनेक होऊं । इस कल्पना में सृष्टि उत्पन्न हुई। जो है, वह सब आत्मा ही है। जो कुछ हुआ है, वह आत्मा ही हुआ है। आत्मा ब्रह्म ही है। यह आत्माद्वैतवाद है। इसके अनुसार अचेतन, चेतन से उत्पन्न होता है। चेतन और अचेतन सर्वथा भिन्न नहीं हैं। भूताद्वैतवाद ___ अनात्मवाद के अनुसार पहले अचेतन ही था । पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु–ये चार भूत थे। इनसे चेतन उत्पन्न हुआ। यदि यह पता लगाना है कि मनुष्य की उत्पत्ति कैसे हुई तो संसार के विकास में ही उसकी खोज करनी होगी। मनुष्य का विकास जीवन के पहले रूपों में से होता है। उस विकास के दौरान ही विचार और सचेतन व्यवहार ने जन्म लिया है। इसका अर्थ यह है कि वस्तु अर्थात् वह वास्तविकता, जो अचेतन है, पहले से थी। मन अर्थात् वह वास्तविकता, जो सचेतन है, बाद में आई। १. छान्दोग्य ६।२१ : असतः सदजायत। २. वही, ६।२।२: कुतस्तु खलु सौम्य एवं स्यादिति होवाच कथमसतः सज्जायतेति। सत्त्वेव सौम्येदमन आसीत्। एकमेवाद्वितीयम् । तदैवत बहुस्यां प्रजायेयेति। ३. वही, ७।२५।२ : आत्मैवेदं सर्वम्। ४. वही, ७।२६।१: आत्मत एवेदं सर्वम्। ५. माण्डूक्य २: सर्व हि एतद् ब्रह्म अयमात्मा ब्रह्म। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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