________________
स्याद्वाद और जगत् यह विश्व भेदाभेद, नित्यानित्य, अस्तित्व-नास्तित्व और वाच्यावाच्य के नियमों से श्रृंखलित है। कोई भी द्रव्य सर्वथा भिन्न नहीं है और कोई भी सर्वथा अभिन्न नहीं है । कोई भी द्रव्य सर्वथा नित्य नहीं है और कोई भी सर्वथा अनित्य नहीं है। कोई भी द्रव्य सर्वथा अस्ति नहीं है और कोई भी सर्वथा नास्ति नहीं है। कोई भी द्रव्य सर्वथा वाच्य नहीं है, कोई भी सर्वथा अवाच्य नहीं है। जो द्रव्य है, वह सत्य है। वह भिन्न भी है, अभिन्न भी है, नित्य भी है, अनित्य भी है, अस्ति भी है, नास्ति भी है, वाच्य भी है, अवाच्य भी है। इन सहज सम्भत नियमों को समझने का जो दृष्टिकोण है, वह अनेकान्त है। इन नियमों की जो व्याख्या-पद्धति है, वह स्याद्वाद है। विश्व में इतना विरोध और इतना असामंजस्य है कि अनेकान्त के बिना उसमें
अविरोध और सामंजस्य समझा नहीं जा सकता तथा स्याद्वाद के बिना उसकी सम्यक् व्याख्या की ही नहीं जा सकती। अभेद और भेद का नियम
यह विश्व आकाशमय है। आकाश व्यापक है, शेष सब व्याप्त हैं। आकाश वहां भी है, जहां आकाशेतर कुछ नहीं है पर अन्य ऐसे नहीं हैं, जहां आकाश न हो। जहां अन्य भी हैं और आकाश भी है, वहां गति है, स्थिति है और दृश्यपरिवर्तन भी है। इसलिए उसे लोक कहा जाता है। जहां अन्य नहीं है, केवल आकाश है, वहां गति नहीं है, स्थिति नहीं है और दृश्य-परिवर्तन भी नहीं है, इसलिए उसे 'अलोक' कहा जाता है । सत्ता की दृष्टि से लोक और अलोक दोनों एक हैं, अविभक्त हैं । गति, स्थिति और दृश्य-परिवर्तन सर्वत्र नहीं हैं, इस दृष्टि से लोक और अलोक दो हैं-विभक्त है। गति और स्थिति की दृष्टि से लोक एक है-अभिभक्त है, पर कार्य की दृष्टि से वह एक नहीं है । गति का हेतु जो है, वह स्थिति का नहीं है और स्थिति का जो हेतु है वह गति का नहीं है । गतिशील द्रव्य दो हैं-पुद्गली (जीव) और पुद्गल । ये ही दो स्थितिशील हैं। दृश्य-परिवर्तन भी इन्हीं के योग से होता है, इन्हीं में होता है। अभेद दृष्टि से सत्ता ही पूर्ण सत्य है । भेद-वृष्टि के ६ प्रकार हैं
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org