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ईश्वरवाद : कर्मवाद अज्ञात रहस्यों को समझने के लिए दार्शनिकों ने अनेक रहस्य स्थापित किए। कर्म के विषय में भी अनेक सिद्धान्त स्थापित हैं। कुछ दार्शनिक केवल कर्मवादी हैं। कुछ कर्मवाद को मानते हैं पर ईश्वरवाद के सहचारी के रूप में उसे स्वीकार करते हैं। वे केवल कर्मवाद को नहीं मानते। सृष्टि है परिवर्तनात्मक
जैन दर्शन कर्मवादी दर्शन है । ईश्वर का सिद्धान्त उसे मान्य नहीं है । ईश्वर के लिए तीन कार्यों की कल्पना की गई
(१) सृष्टि का कर्ता होना चाहिए, (२) नियंता होना चाहिए (३) अच्छे और बुरे कार्य का फल भुगताने वाला होना चाहिए।
सृष्टि का कर्ता, सृष्टि का नियंता और कर्म-फल का भोग देने वाला, नियोजन करने वाला—ईश्वर की कल्पना के पीछे ये तीन मुख्य तत्त्व काम करते हैं। .
जैनदर्शन ने जगत् को अनादि माना इसलिए उसे ईश्वर की कोई आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई।
सृष्टि है नहीं। सृष्टि है तो केवल परिवर्तनात्मक । नया कुछ भी नहीं है, सब कुछ अनादि है। सृष्टि सादि हो सकती है। सृष्टि का नियन्ता कोई नहीं
जैनदर्शन जगत् को भी मानता है और सृष्टि को भी मानता है। जगत् अनादि है, प्रत्येक पदार्थ अनादि है इसलिए अनादि सत्य है । प्रत्येक पदार्थ में परिणमन होता है, जीव और पुद्गल के संयोग से वैभाविक परिवर्तन होता है, वह सृष्टि है। सृष्टि जीव और पुद्गल के द्वारा संपादित होती है। जीव और पुद्गल के अतिरिक्त किसी तीसरी सत्ता को मानने की कोई आवश्यकता नहीं है।
दूसरा प्रश्न है नियमन का । जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि का नियंता कोई नहीं
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