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ईश्वरवाद : कर्मवाद / ११३ है। अगर कोई नियन्ता है, सर्वशक्तिमान है तो सृष्टि इस प्रकार की नहीं होती। इस त्रुटिपूर्ण व्यवस्था वाली सृष्टि के लिए अगर ईश्वर को नियन्ता माने और साथ-साथ में सर्वशक्तिमान भी मानें तो दोनों में अन्तर्विरोध जैसा उपस्थित हो जाता है। यदि सृष्टि का कर्ता सर्वशक्तिमान है तो व्यवस्था इतनी त्रुटिपूर्ण नहीं होगी। यदि वह सर्वशक्तिमान नहीं है तो वह सारी सृष्टि का अकेला नियमन नहीं कर सकता। यह नियमन वाली बात संगत प्रतीत नहीं होती। सृष्टि का नियमन नियम के द्वारा
जैनदर्शन ने नियन्ता की आवश्यकता अनुभव नहीं की। उसका सिद्धान्त है नियम । सृष्टि का नियमन, नियम के द्वारा होता है, नियंता के द्वारा नहीं होता। हमारे जगत् के कुछ सार्वभौम नियम हैं और अकृत्रिम हैं, किसी के द्वारा बनाए हुए नहीं हैं। जीव पुद्गल के स्वयंभू नियम हैं और वे नियम अपना काम करते हैं।
एक जीव को मोक्ष जाना है तो वह अपने नियम से जाएगा। एक पुद्गल को, परमाणु को बदलना है, तो वह अपने नियम से बदलेगा। एक परमाणु एक गुणा काला है और उसे अनन्त गुना काला होना है तो वह अपने नियम से होगा। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का जितना परिवर्तन है वह सारा अपने नियम से होगा। निर्धारित समय पर उसे निश्चित रूप से बदलना ही पड़ेगा। यह प्राकृतिक नियम है, सार्वभौम नियम है और इस नियम से सारा नियमन हो रहा है। यह सारी ऑटोमैटिक व्यवस्था है, स्वयंकृत व्यवस्था है । बाहर से कृत या आरोपित व्यवस्था नहीं है, इसलिए नियंता की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। कर्तृत्व : भोक्तृत्व
तीसरा प्रश्न है—कर्म का फल देने वाला कोई होना चाहिए। जैसे चोरी करने वाला चोर अपने आप उसका फल नहीं भुगतता । कोई न्यायाधीश होता है, दंड-नायक होता है, जो उसे दंडित करता है, फल देता है, वैसे ही सारे जगत् को अच्छे और बुरे कर्म का फल देने वाला भी कोई होना चाहिए। इस आधार पर कर्मफल-दाता की आवश्यकता कुछ दार्शनिकों ने महसूस की। किन्तु जैनदर्शन ने इस आवश्यकता का अनुभव नहीं किया । जैनदर्शन का मंतव्य है-कर्म करने और उसका फल भोगने की शक्ति स्वयं जीव में निहित है। उसे बाहर कहीं से लाने की आवश्यकता नहीं है। अपना स्वयं का कर्तृत्व और अपना स्वयं का भोक्तृत्व-दोनों उसमें समाहित हैं। इन तीन स्थितियों के आधार पर जैनदर्शन को ईश्वर की आवश्यकता दार्शनिक
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