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१०६ / जैन दर्शन और अनेकान्त
कामघट्ट की कहानी विश्रुत है । चिन्तामणि व्यक्ति के पास है, संकल्प किया और सृष्टि तैयार हो गई, वस्तु तैयार हो गई। क्या संकल्प से सृष्टि का निर्माण हुआ या परमाणुओं के संघात से सृष्टि का निर्माण हुआ? यह दार्शनिक जगत् का बहुचर्चित
प्रश्न है ।
उपादान मूल कारण है
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यदि परमाणु आदि की सामग्री से सृष्टि का निर्माण हुआ है तो इसका अर्थ होगा ईश्वर भी अनादि है और परमाणु आदि का जगत् भी अनादि है । इस दृष्टि से सृष्टि का निर्माण कोई विशेष बात नहीं है। जैसे एक कुम्हार घड़ा बनाता है, एक शिल्पी मूर्ति का निर्माण करता है वैसे ही किसी ने सृष्टि का निर्माण कर दिया । इसे विलक्षण घटना नहीं माना जा सकता ।
प्रश्न है सामग्री का । सामग्री, उपादान मूल कारण है। उसे अनादि माने बिना कहीं व्यवस्था बैठती नहीं है। जैन दर्शन का यह स्पष्ट अभ्युपगम है । प्रत्येक पदार्थ अनादि है | चेतन और अचेतन—दोनों अनादि हैं।
कार्य-कारण सर्वत्र मान्य नहीं
जैनदर्शन की दूसरी महत्त्वपूर्ण स्वीकृति है— जितने पदार्थ कल थे, उतने ही आज हैं, उतने ही आगे रहेंगे। एक भी परमाणु न कम होगा और न ज्यादा होगा । जितने थे, उतने हैं और उतने ही रहेंगे । यह त्रैकालिक व्यवस्था है । न किसी को बनाने की जरूरत और न किसी के नष्ट होने की अपेक्षा । न कोई बनता है और न कोई बिगड़ता है, केवल परिवर्तन होता है, परिणमन होता है, रूपान्तरण होता है ।
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'सब अपने स्वरूप में हैं' इसी आधार पर अनेकान्त के इस सिद्धांत - नित्यानित्यवाद का विकास हुआ । अस्तित्व की दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ नित्य है और दर्शन की दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ अनित्य है । जैन दर्शन के अनुसार न किसी को नित्य कहा जा सकता है और न किसी को अनित्य कहा जा सकता है। अगर परमाणु नित्य है तो आत्मा भी नित्य है | यदि परमाणु अनित्य है तो आत्मा भी अनित्य है । अगर आत्मा मरता है तो परमाणु भी मरता है और परमाणु अमर है तो आत्मा भी अमर है । आत्मा और परमाणु-दोनों अमर हैं, दोनों मरणधर्मा हैं। इन दोनों में परिवर्तन होता है, कोई परिवर्तन नहीं होता । यह अनादि और सादि परिणमन का सिद्धान्त है ! जहां परिणमन का सिद्धांत होता है, वहां कार्य-कारण की सीमा बहुत संकुचित हो जाती है। जैनदर्शन में कार्य-कारण को सर्वत्र नियमित नहीं किया गया । प्रत्येक कार्य
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