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१४ / जैन दर्शन और अनेकान्त
'भंते ! चर्मरत्न का खंड चर्मरत्न नहीं कहलाता, पूरा चर्मरत्न चर्मरत्न कहलाता
'
'गौतम ! दंड का खंड दंड कहलाता है या पूरा दंड दंड कहलाता है ?" ‘भंते ! दंड का खंड दंड नहीं कहलाता, पूरा दंड दंड कहलाता है।'
'गौतम ! दुष्यपट्ट का खंड दुष्यपट्ट कहलाता है या पूरा दुष्यपट्ट दुष्यपट्ट कहलाता
है ?'
'भंते ! दुष्यपट्ट का खंड दुष्यपट्ट नहीं कहलाता, पूरा दुष्यपट्ट दुष्यपट्ट कहलाता
'
'गौतम ! आयुध का खंड आयुध कहलाता है या पूरा आयुध आयुध कहलाता
है ??
'भंते! आयुध का खंड आयुध नहीं कहलाता, पूरा आयुध आयुध कहलाता
है ।'
'गौतम ! मोदक का खंड मोदक कहलाता है या पूरा मोदक मोदक कहलाता
है ? '
'भंते ! मोदक का खंड मोदक नहीं कहलाता, पूरा मोदक मोदक कहलाता है ।' 'इसी प्रकार गौतम ! धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को यावत् एक प्रदेश न्यून धर्मास्तिकाय को धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता । प्रतिपूर्ण प्रदेशों को ही धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है।'
अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के लिए भी यही नियम
है।
सीमा : व्यवहार और निश्चय नय की
द्रव्य, द्रव्यराशि और उसका विशेष गुण त्रैकालिक (सार्वदेशिक और सार्वकालिक) होने के कारण धौव्य है ।
द्रव्य के प्रदेश न उत्पन्न होते हैं और न नष्ट होते हैं, इसलिए वे
ध्रुव
जानने वाला नय द्रव्यार्थिक नय है । यही निश्चय नय है ।
१. अंगसुताणि भाग-२, भगवती २/१३०-३५ २. उप्पज्जंति वियंति य, भावा नियमेण पज्जवनयस्स ।
दव्यट्ठिस्स सव्वं, अणुप्पन्नमविणङ्कं । (सन्मति प्रकरण १ / ११)
द्रव्य के प्रदेशों में परिणमन होता है। वह उत्पाद और व्यय है । उसे जानने
वाला नय पर्यायार्थिक नय है। यही व्यवहार नय है ।
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