SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्वाणवाद / १३७ I चला जाता है । यदि वह नर्क में जाता है तो भयंकर कठिनाइयों को भुगतना होता है, घोर वेदना का सामना करना होता है। यदि स्वर्ग में चला जाता है तो विलासपूर्ण जीवन जीता है किन्तु उसमें भी अनेक प्रकार की मानसिक कठिनाइयों में से गुजरता है, अपराधों में से गुजरता है, अनेक संक्रामक स्थितियों में से गुजरता है । व्यक्ति मनुष्य बन जाता है तो भी उसे अनेक समस्याओं का सामना करना होता है। यदि वह तिर्यंच गति में चला जाता है तो भी दुःख से मुक्ति नहीं पा सकता । यदि वह वनस्पति जैसे स्थान में चला जाता है तो वहां अनंतकाल तक ऐसी अव्यक्त अवस्था में रहता है जहां होना न होना बराबर जैसा होता है । वनस्पति जगत में पैदा व्यक्ति के अस्तित्व का पता ही नहीं चलता । वनस्पति में अव्यक्त अस्तित्व होता है, उसमें व्यक्ति नाममात्र का जीव रह जाता है, एक घोर मूर्च्छा का जीवन हो जाता है I इस स्थिति में प्रश्न उभरता है— क्या संसार में रहकर शरीर को धारण करना बड़ी बात है । शरीर धारण से क्या मिला ? व्यक्ति सघन मूर्च्छा में जी रहा है । वह सोचता है— अभी मैं जो कर रहा हूं, वह सबसे अच्छा है। यह मूर्च्छा उसके मन में संशय को जन्म दे रही है। उसकी आसक्ति उसके विकास में बाधक बनी हुई है । मूर्च्छा का जीवन हुए हरियाणा की प्रसिद्ध कहानी है। एक कुत्ता बहुत बीमार हो गया, दुबला-पतला हो गया। उसका नाम था शताबा। मुहल्ले के कुत्ते ने पूछा- 'तुम इतने थके-मांदे कैसे हो गए ?' वह बोला- 'पूरा खाने को नहीं मिलता ।' 'खाने को नहीं मिलता तो चलो दूसरे घरों में, यहां क्यों बैठे हो ? हम बंधे हुए थोड़े ही हैं।' उसने कहा- 'मैं इस घर को छोड़कर नहीं जा सकता ।' 'क्यों नहीं जा सकते ?' उसने कहा- 'आपको पता नहीं है, अपनी दो-दो पत्नियों को छोड़कर मैं कैसे जा सकता हूं ? कुत्ते ने पूछा- 'कौन-सी दो पत्नियां ?" कुत्ता बोला- 'मैं जिस घर में रहता हूं, वह धोबी का है। उसके दो पत्नियां । जब वे आपस में लड़ती हैं तो एक-दूसरे से कहती हैं - तू आई रांड शताबा की बेर (औरत) और कभी दूसरी पहली से कहती है कि तू आई है रांड शताबा की बेर । तुम बताओ - मैं दो-दो पलियों को छोड़कर कैसे जाऊं ?' Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy