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४६ / जैन दर्शन और अनेकान्त परिवर्तन होता है। उत्पाद और विनाश दोनों का यही क्रम है। परमाणु स्वतन्त्र परमाणु के रूप में रहता है तो कम-से-कम एक समय और अधिक से अधिक असंख्यकाल तक रह सकता है। द्वयणुक स्कन्ध से लेकर अनन्ताणुक स्कन्ध के लिए भी यही नियम है। स्वाभाविक बंध
यह समूचा जगत् अणुओं या प्रदेशों से निष्पन्न है। पुद्गल के अणु विश्लिष्ट हैं। शेष चारों अस्तिकायों के अणु श्लिष्ट हैं-परस्पर एक-दूसरे से अविच्छिन्न हैं। वे अनादि विस्रसा (स्वाभाविक) बन्ध से बंधे हुए हैं। वह बन्ध अनन्तकालीन या सर्वकालीन है। सादि-विससा बन्ध का काल-मान इस प्रकार होता है
उत्कृष्ट १. बन्धन प्रत्ययिक एक समय
असंख्य काल २. भाजन प्रत्ययिक अन्तर-मुहूर्त
संख्येय काल ३. परिणाम प्रत्ययिक एक समय
छह मास प्रायोगिक बंध
जीव और पुद्गल अनादि प्रायोगिक बन्ध से बंधे हुए हैं। १. आलायन, २. आलीन, ३. शरीर, ४. शरीर-प्रयोग–ये सादि प्रायोगिक बन्ध है। इनका कालमान इस प्रकार होता है
जघन्य
उत्कृष्ट १. आलायन
अन्तर-मुहूर्त
संख्येय काल २. आलीन
अन्तर-मुहूर्त
संख्येय काल ३. शरीर एक समय
अनन्तकाल ४. शरीर-प्रयोग
एक समय
जघन्य
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अनन्तकाल
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१. सन्मतिप्रकरण, ३/३२-३४ २. भगवती-सूत्र, ५/१६९ ३. वही, ८/३४७-४८ ४. वही, ८/३५०-५३ ५. वही, ८/३५४॥
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