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स्याद्वाद की मर्यादा
कोरी स्थिति ही होती तो सब द्रव्य सदा एक रूप रहते, कहीं कोई परिवर्तन नहीं होता — न कुछ बनता और न कुछ मिटता, न कोई घटना होती, न कोई क्रम होता और न कोई व्याख्या होती ।
स्याद्वाद और जगत् / ४५
कोरे उत्पाद और व्यय होते तो उनका कोरा क्रम होता, पर स्थायी आधार के बिना वे कुछ रूप नहीं ले पाते । कर्तृत्य, कर्म और परिणामों की कोई व्याख्या नहीं होती । स्याद्वाद की मर्यादा के अनुसार परिर्वतन भी है और उसका आधार भी है। परिवर्तन-रहित कोई स्थायित्व नहीं है और स्थायित्व - रहित कोई परिवर्तन नहीं है । दोनों अपृथक्भूत हैं । परिवर्तन स्थायी में ही हो सकता है और स्थायी वही हो सकता है, जिसमें परिवर्तन हो ।
निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है— निष्क्रियता और सक्रियता, स्थिरता और गतिशीलता का जो सहज समन्वित रूप है, वही द्रव्य है । प्रत्येक द्रव्य अपने केन्द्र में ध्रुव, स्थिर और निष्क्रिय है। उसके चारों ओर परिवर्तन की अटूट श्रृंखला है । इसे हम परमाणु (व्यावहारिक परमाणु) की रचना के द्वारा समझ सकते हैं। अणु की रचना तीन प्रकार के कणों से मानी जाती है I
१. प्रोटोन, २. इलेक्ट्रोन, ३. न्यूट्रोन ।
प्रोटोन धनात्मक कण है । यह परमाणु का मध्य बिन्दु होता है
इलेक्ट्रोन ऋणात्मक कण है यह धनाणु के चारों ओर परिक्रमा करता है । न्यूट्रोन उदासीन कण होते हैं।
अपरिवर्तन का नियम
जीव के प्रयत्न से जो परिवर्तन होता है, वह प्रत्यक्ष है । किन्तु जीव में भी जो प्रतिक्षण परिवर्तन होता है— अस्तित्व की सुरक्षा के लिए जो सहज सक्रियता होती है अथवा निषेध की सुरक्षा के लिए जो विधि का प्रयत्न होता है - वह प्रत्यक्ष नहीं है । इसीलिए हमारी दृष्टि में किसी भी वस्तु का अस्तित्व व्यक्त (व्यंजन) पर्याय से होता है । अर्थ- पर्याय (सूक्ष्म सक्रियता) से हम किसी वस्तु का अस्तित्व मानने में सफल नहीं होते ।
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बहुत सारा परिवर्तन जीवों के प्रयत्न के बिना होता है— पदार्थ की स्वाभाविक गति से होता है । अनेक परमाणु मिलकर परिवर्तन करते हैं तब वह समुदायकृत कहलाता है | धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय में ऐकत्विक
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