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________________ द्वैतवाद / २५ वस्तु-खंड का यथार्थ -ग्रहण होता है, इस अपेक्षा से वह अप्रमाण भी नहीं है । वह अप्रमाण तो है ही नहीं, पूर्ण बोध के अभाव में प्रमाण भी नहीं है, इसलिए उसे प्रमाणांश कहा जा सकता है । वास्तविक है नय 1 सच्चाई यह है कि प्रमाण वास्तविक नहीं है । वास्तविक है नय । हम द्रव्य को किसी एक या कुछ एक धर्मों के माध्यम से जानते हैं । अखंड द्रव्य का ज्ञान हमारे लिए संभव नहीं है । हमारा द्रव्य विषयक ज्ञान सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं है। परमाणु के विषय में एक शताब्दी पूर्व जो जानकारी थी, आज वह बहुत बदल गई है। उसका विराट् रूप अब वैज्ञानिक के सामने है। अभी भी उसके कुछेक धर्म ज्ञात हुए हैं । उसके अनन्त धर्म आज भी अज्ञात हैं । अज्ञात के समुद्र में ज्ञात, एक छोटे से द्वीप जैसा है । इस स्थिति में प्रमाण की वास्तविकता को बहुत मूल्य नहीं दिया जा सकता । नय एक वास्तविकता है । उसके द्वारा एक-एक धर्म का ज्ञान होता है और हमारा ज्ञानभंडार समृद्ध होता चला जाता है । नय की वास्तविकता ज्ञेय अनन्त है और हमारा ज्ञान भी अनंत है। ज्ञान दो भागों में विभक्त होगा— क्षमतात्मक ज्ञान और प्रयोगात्मक ज्ञान । हमारे ज्ञान में अनन्त ज्ञेय को जानने की क्षमता है, पर जब तक वह पूर्णरूपेण अनावृत नहीं होता, तब तक उसकी क्षमता पर एक आवरण रहता है । आवृत्त चेतना जब जानने को प्रवृत्त होती है तभी जानती है और एक साथ एक धर्म या एक घटना को ही जानती है। जिस समय हम आँख से देखते हैं, उस समय कान से नहीं सुनते और जिस समय कान से सुनते हैं उस समय आंख से नहीं देखते । देखने और सुनने का एक क्रम है। ये दोनों युगपत् नहीं होते । हमें ऐसा प्रतीत होता है कि हम एक साथ देख रहे हैं और सुन रहे हैं, किन्तु यह हमारी स्थूलदृष्टि है। सूक्ष्मदृष्टि के अनुसार देखने का समय भिन्न है और सुनने का समय भिन्न है । त्वरित कार्यों में हमें क्रम का पता नहीं चलता, इसलिए हम उन दोनों को एक साथ मान लेते हैं। जानने का यह क्रम नय की वास्तविकता को प्रमाणित करता है । अनन्त है अगम्य शब्द द्रव्य में अनन्त धर्म होते हैं । उन अनन्त धर्मों को जानने वाले नय भी अनन्त होते हैं । अनन्त एक अगम्य शब्द है। उसका कहीं आर-पार नहीं होता । अनन्त को Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002589
Book TitleJain Darshan aur Anekanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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