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२६ / जैन दर्शन और अनेकान्त उपयोगी बनाने के लिए दो शब्द खोजे गए-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । द्रव्यार्थिक नय, द्रव्य के धौव्य अंश का प्रतिनिधित्व करता है और पर्यायार्थिक नय, द्रव्य के पर्याय अंश का प्रतिनिधित्व करता है । इन दो नयों के द्वारा विश्व के सभी द्रव्यों का विश्लेषण किया जा सकता है।
भगवान महावीर से गौतम ने पूछा-'भंते ! आत्मा शाश्वत है या अशाश्वत?'
भगवान ने उत्तर दिया-'द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से आत्मा शाश्वत है और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से वह अशाश्वत है।' नय व्यवस्था का आधार
नय व्यवस्था का आधार है-अभेद और भेद का विरोधी युगल । अभेद भी सत्य है और भेद भी सत्य है । अभेद और भेद का विचार आध्यात्मिक और पदार्थ विज्ञान-इन दोनों दृष्टियों से किया गया है।
• सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति और पुरुष का भेदज्ञान करना सम्यग्
दर्शन है। उन्हें एक मानना मिथ्यादर्शन है। • वेदान्त के अनुसार प्रपंच और ब्रह्म को एक मानना सम्यग् दर्शन है
और उसको भिन्न मानना मिथ्यादर्शन है। • जैन दर्शन के अनुसार चेतन और अचेतन को भिन्न मानना सम्यग् दर्शन
है और उन्हें अभिन्न मानना मिथ्यादर्शन है।
अभेद और भेद का यह चिन्तन आध्यात्मिक दृष्टि से किया गया है। पदार्थ विज्ञान का दृष्टिकोण
पदार्थ-विज्ञान की दृष्टि से पदार्थ उभयात्मक (द्रव्य-पर्यायात्मक) है। उसके आधार पर दो नय बनते हैं-निश्चय नय और व्यवहार नय ।
• निश्चय नय द्रव्य या अभेद के आधार पर पदार्थ का निर्णय करता है। • व्यवहार नय पर्याय या भेद के आधार पर पदार्थ का निर्णय करता है। वेदान्त ने सत्य के तीन रूप माने हैं—पारमार्थिक, व्यावहारिक और प्रातिभासिक ।
ब्रह्म पारमार्थिक सत्य है। जगत् व्यावहारिक सत्य है। रज्जु-सर्प (रज्जु को सर्प मान लेना) प्रातिभासिक सत्य है। प्रातिभासिक व्यक्तिगत भ्रम है । व्यावहारिक सर्वसाधारण का भ्रम है। प्रातिभासिक जब तक दिखता है तब तक रहता है। व्यावहारिक जगत् दिखने के पहले भी और पश्चात् भी रहता है। प्रातिभासिक वस्तुविशेष के ज्ञान से बाधित हो जाता है, व्यावहारिक जगत् ब्रह्म के ज्ञान से बाधित .
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